आश्रितो की सुरक्षा-धर्म का आदेश हैं


आश्रितो की सुरक्षा-धर्म का आदेश हैं.

महाभारत का युद्ध जीतने के बाद धर्मराज युधिष्ठिर ने निष्कण्टक राज्य किया। अश्वमेध-सहित अनेक बृहद् यज्ञों का अनुष्ठान भी किया। संन्यास लेने का समय आया तो उन्होंने अपना सब राजपाट परीक्षित को सौंप दिया और स्वयं तप करने के लिए निकल गये। उनके भाइयों ने भी उनका अनुकरण किया और उनके साथ ही वे भी वन को चले गये। 

जिस समय पाण्डव राजधानी छोड़कर वन को जा रहे थे, एक कुत्ता उनके पीछे-पीछे चलने लगा। उसे वापस करने का यत्न किया गया, किन्तु निष्फल। पाण्डव जहाँ-जहाँ गये, कुत्ता उनके पीछे ही रहा। उन्होंने उसको अपना ही साथी मान लिया और उसके भोजन आदि की व्यवस्था करते रहे। 


सो पाण्डव स्वर्ग के द्वार पर जा पहुँचे। 


स्वर्ग के अधिपति इन्द्र ने उनका सम्मान करते हुए कहा, “धर्मराज! स्वर्ग में आपका स्वागत है।” 


युधिष्ठिर-सहित जब पाण्डव आगे बढ़े तो वह कुत्ता भी उनके साथ था। इन्द्र ने कुत्ते को आगे बढ़ने से रोक दिया। चार पाण्डव आगे चले गये। युधिष्ठिर ने इन्द्र से कहा, “देवराज! यह तो तब से ही हमारे साथ है जब हम राजपाट छोड़कर वन के लिए चले थे। इतने वर्षों तक हम तपस्या में रहे। यह भी सदा हमारे साथ रहा। अब तो यह एकाकी है। यह यहाँ से अकेला अब कहाँ जाएगा?” 


देवराज कहने लगे, “किन्तु धर्मराज! यह तो स्वर्ग में रहने का अधिकारी नहीं है। यह अधम है, तभी तो श्वान-योनि को प्राप्त हुआ है। इसे आप किस प्रकार अन्दर ले जाने की बात करते हैं?” 


युधिष्ठिर बोले, “देवराज! यदि यह अन्दर नहीं जा सकता तो मैं भी अन्दर नहीं जाऊँगा। मैं इसके साथ ही रहूँगा अथवा यह कि यह मेरे साथ ही रहेगा।” 


देवराज दुविधा में पड़ गये। वे कुछ सोच नहीं पा रहे थे। तब युधिष्ठिर ने कहा, “यह श्वान मेरे आश्रित है, आश्रित को छोड़कर मैं अकेला स्वर्ग नहीं जाऊँगा। हाँ, इसके लिए मैं अपने पुण्य अर्पित कर सकता हूँ।” 


युधिष्ठिर का इतना महान त्याग देखकर देवराज इन्द्र मान गये और उन्होंने उस कुत्ते को भी उन्हें अपने साथ ले जाने की अनुमति दे दी। 


कहानी यथावत नहीं दी गई हैं-परिमार्जित एवं सारांश रूप से प्रस्तुत हैं सिर्फ यह दर्शाने के लिए कि अपने आश्रित का त्याग किसी भी परिस्तिथि में नहीं किया जाना चाहिए, यह धर्म का आदेश हैं| युधिष्ठिर जिन्हें धर्म का अवतार स्वीकार किया गया, ने इस बात को सिद्ध  किया हैं|

कोई टिप्पणी नहीं: