दण्डवत स्वामी.


दण्डवत स्वामी.

दण्डवत् स्वामी नामके एक साधु पुरुष पैठणमें रहते थे। यह नमन भक्ति करते थे।यह प्राणिमात्र में भगवान् विट्ठल कृष्ण का ही दर्शन करते। किसी भी प्राणी को देखते ही यह उसे दण्डवत प्रणाम करते। इसीसे इनका नाम दण्डवत स्वामी पडा। यह एकनाथ महाराजके शिष्य थे। कहीं एक गधा मरा पडा था, कुछ ब्राह्मणों ने दण्डवत्-स्वामी से कहा कि इन्हें भी प्रणाम करिये।

इन्होंने मरे गधे को भी प्रणाम किया और आश्चर्य की बात यह कि वह गधा उठ खडा हुआ। इस विलक्षण सिद्धि को देखकर गांव के सब लोग दण्डवत स्वामी को मानने और वन्दन करने लगे। योग साधना से अनेक प्ररकार की सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं, इसमें सन्देह नहीं, पर सिद्धियाँ परमार्थ में बाधक होती हैं, इस कारण भगवान के भक्त इन सिद्धियो के पीछे नहीं पड़ते।

नाथ भागवत् के १५ वे अध्यायमें सिद्धियो का वर्णन करके एकनाथ महाराज कहते हैं- मेरा स्वरूप शुद्ध अद्वैत है, वहाँ सिद्धियो के मनोरथ केवल मनोरंजन हैं, उनमें परमार्थ नहीं। साधकों का मन जब सिद्धि के पीछे पड़ता है तब भगवत्प्राप्ति में बडी बाधा पड़ती है। जरा कोई सिद्धि या चमत्कार दिखाते बना कि यह ध्यान होता है कि अब भगवान् अपने हाथ मे आ गये और भोले-भाले आदमी जो बेचारे यह नहीं जानते कि भगवान् क्या होता है, ऐसी छोटी मोटी सिद्धि देखकर ऐसे मोहित हो जाते हैं कि ऐसी सिध्दी वाले को महात्मा मान लेते हैं, उन्ही को पूजने लगते हैं और सच्चे परमार्थ से हाथ धो बैठते हैं। जो सच्चे महात्मा हैं, सिद्धियाँ उनके वश में होती हैं और कार्य गौरव के लिये वे चमत्कार भी दिखा देते हैं। पर सिद्धियों का मूल्य कितना है, इसे भी वे खूब समझते हैं।


अस्तु एकनाथ महाराजने दण्डवत् स्वामी से कहा कि गधे को तुमने जिलाया, यह अच्छा नहीं हुआ। इससे लोग तुम्हारे पीछे पड़ेंगे। अब जो कोई मरेगा उसके आदमी तुम्हें घेरेंगे, तुम मोह में गिरोगे, नाम होगा और परमार्थ रह जायगा। यवन तुम्हें पकड़ कर केद-खाने में डाल देंगे और बडी फजीहत होगी। इसलिये कलिकाल बडा भीषण है, यह जानकर तुम समाधिस्थ हो जाओ, यही अच्छा है। यह उपदेश पाकर दण्डवत स्वामी ने आसन लगाया और भगवान का ध्यान करते हुए स्वच्छन्दतापूर्व देह त्याग कर दिया।

पैठण के कुछ ब्राहाणों को एकनाथ महाराज को तंग करने का यह अच्छा अवसर मिला। दण्डवत स्वामी के मरने का कारण इन लोगों ने एकनाथ महाराज को माना और हत्या का अपराधी बताया। महाराज के मन की शान्ति इससे भंग नहीं हुई। ये लोग इन्हें कोस कोस कर कहने लगे कि कैसा दुस्साहसी आदमी है। परमहंस को मारकर निश्चिन्त बैठा है। वेद शास्त्र का एक अक्षर नहीं जानता, मनमाना व्यवहार करता है, उद्धट-पने से महन्त बना बैठा है और दुनिया को ठग रहा है। नाम जप के बहाने न जाने क्या क्या करता है। देखते तो यह हैं कि सबको कर्मभ्रष्ट कर रहा है, ब्राह्म
णों  को ही नष्ट करने पर तुला है।

फिर 
ब्राह्मणों ने ही परमहंस की हत्या के दोषका परिहार भी सुझाया। कहा पहले संत ज्ञानदेव् ने भैंसे से वेदमन्त्र कहलवाये वैसे तुम इस पत्थर के नन्दी से चरी चरवाओ, अन्यथा बड़े पाप के भागी बनोगे। इस पर नाथ महाराज हाथ में चरी लेकर नन्दी के सामने खडे होकर बोले जिन ब्राह्मणों के वचन से मूर्ति में भी देवत्व आ जाता है, उन ब्राह्मणों की बात रखो।

यह वचन एकनाथ महाराज के मुख से निकलते ही उन्होंने जीभ बाहर निकालकर वह चरी खा ली। यह देखकर सब आश्चर्य से दंग रह गये। इस प्रकार परमहंस दण्डवत स्वामी की हत्या के दोष से उन्होंने नाथ को मुक्त किया। अनन्तर नाथ महाराज की आज्ञा से वह नंदी तट पर जाकर नदीमें कूद पडे। पैठण मे दण्डवत स्वामी की समाधि और नन्दी दोनों ही यात्रियों को दिखायी देते हैं।

(साभार-श्री भक्तमाल-कथा)

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