सुविचार
01.
भरोसा खुद पर रखो तो ताकत बन
जाती है, और दूसरों पर रखो तो कमजोरी।
02.
जो आदमी तुम्हारे आगे दूसरों
की निन्दा करता है, वह दूसरों के आगे तुम्हारी भी निन्दा अवश्य करेगा।
03.
‘दुःख’,
व्यक्ति के साहस और सीख को ख़त्म कर देता है।
04.
यदि हुल्लड़ को सांस्कृतिक जामा
पहिना दिया जाए, तब पिटने वाला अपने आपको सांस्कृतिक कहने लगेगा।
05.
संसार के व्यवहारों के लिए धन ही सार वस्तु
हैं| अत: मनुष्य को उसकी प्राप्ति
के लिए सदाचार युक्त, युक्ति एवं साहस के साथ यत्न करना
चाहिए।
06.
जहाँ मुर्ख नहीं पूजे जाते, जहाँ अनाज की सुरक्षा की जाती हैं और जहाँ
परिवार में कलह नहीं होती, वहां लक्ष्मी निवास करती हैं।
07.
कभी भी ज्यादा से ज्यादा लोगों को खुश करने की कोशिश न करें,
क्योकि जिन चीजों के बारे में आप जानते हैं, उनमे
से कुछ लोग नहीं मानेंगे और जिन चीजों में वे लोग विश्वाश रखते होंगे, उसे आप पसंद नहीं करेंगे।
08.
जब दूसरों की भलाई करना, मनुष्य का स्वभाव बन जाता हैं, तब उसकी स्व-कामना ह्रास हो जाता हैं।
09.
लोभी को प्राप्त सफलता में भी हतासा हाथ लगती
हैं; क्योंकि उसके मन की चाहत कहने
लगती हैं कि इससे भी अधिक प्राप्त किया जा सकता था।
10.
जब मन से सच को जानकर, आत्मबोध हो जायेगा, तो
दुनिया की चीज़े अर्थहीन हो जायेंगी।
11.
बन्धन रहित विचार और आधारहीन तर्क, ईश्वर के अस्तित्व को भी संदिग्ध बना देते
हैं।
12.
लड़ाई से सब खोया जा सकता हैं, इसलिए बेहतर हैं कि लड़ाई को ही खोकर,
सब पा लिया जाये।
13.
“सत्य” की
सरल और सर्वग्राह्य परिभाषा हो सकती है कि “जो सदा था,
जो सदा है और जो सदा रहेगा”।
14.
“रमणीयता” विषय में नहीं; बल्कि मन की कल्पना में रहती है।
मनुष्यो ने उसे विषयो में आरोपित कर रखा हैं।
15.
पानी की लहरे चाहे किसी भी दिशा में चलें
किन्तु धारा अपना मार्ग नहीं बदलती। मनुष्यों को कर्म के प्रति यह नैसर्गिक सन्देश
है।
16.
आजकल अधर्म, दुष्टता और छल बढ़ने से देश, समाज और मानवों को विविध कष्टों का सामना करना पड़ रहा हैं।
17.
सम्मान का पदक गले में धारण करने के पूर्व
नत-मस्तक होना ही पड़ता हैं, जो विनम्रता धारण करने का संकेत हैं।
18.
घर भरने के लालची, राजनीति में आकर समाज को भ्रष्ट, दुराचारी, चरित्रहीन और देश को बिलकुल खोखला बना
रहें हैं।
19.
जो अपने पर नियंत्रण नहीं रखता, वह दूसरों पर नियंत्रण भी नहीं
रख सकता। जैसे -अँधा दुसरे अंधे को राह नहीं दिख सकता।
20.
परोसे हुए अन्न की निन्दा नहीं करनी चाहिये, वह स्वादिष्ट हो या न हो, प्रेम से भोजन कर लेना चाहिये। जिस अन्न की निन्दा की जाती है, उसे राक्षस खाते है।
(तैत्रियोपनिषद ३ / ७)
(तैत्रियोपनिषद ३ / ७)
21.
अपनी जिन्दगी, उन चीजों के पीछे भागते हुये न बिताये जो
आपके पास नहीं हैं, क्योकि जो चीजे आपके पास हैं, वे भी पहले आपकी नहीं थी।
22.
हम जिन्दगी को प्यार करते हैं; इसलिए नहीं, क्योकि हमें जीना हैं। वह इसलिये कि हम प्यार करना हमारे स्वभाव में हैं।
23.
जो नम्रता तथा आत्मियता सहित निष्काम भाव से
मानव सेवा करते है, उन्हें “कर्मयोगी” कहते हैं।
24.
उत्तरदायित्व
का भार बहुधा संकुचित विचारों का सुधारक होता हैं।
25.
पवित्रता और परोपकार ही उपासना का सार हैं।
जो पीड़ितों, निर्बलों और गरीबों में
भगवान् को देखता हैं, वही सच्चा उपासक है।
26.
आत्मा पूर्ण ज्ञान स्वरूप है, इसीलिए आत्मज्ञान की साधना के लिए कहा जाता
हैं।
27.
“क्रोध”, पानी के समान बहाव का मार्ग न पाकर और भी प्रवल हो जाता हैं।
28.
आशा की
कल्पित मूर्ति, दुराशा को जन्म देती हैं।
29.
कर्मयोग ही मन को, अन्तर्ज्योति तथा आत्मज्ञान की प्राप्ति का
पात्र बनाता है। हृदय को विशाल बनाकर सब प्रकार की बाधा विघ्नों को हटाता है।
30.
सबसे बड़ी हैं-पृथ्वी, उससे
बड़ा हैं-समुद्र एवं उससे भी बड़ा हैं-आकाश; परन्तु भगवान् ने एक पैर से स्वर्ग, पृथ्वी
और पाताल त्रिभुवन को नाप लिया था। उन विष्णु भगवान् का पद जिनके भी हृदय में
स्थित हैं, उन महामानवो का हृदय सबसे बड़ा और विशाल होता हैं।
31.
कर्मयोग ही मन को, अन्तर्ज्योति
तथा आत्मज्ञान की प्राप्ति का पात्र बनाता है। हृदय को विशाल बनाकर सब प्रकार की
बाधा विघ्नों को हटाता है।
32.
यदि हम किसी चीज को देख और समझ
सकते हैं, तब उसे कर भी सकते हैं।
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