(लगातार-सम्पूर्ण
श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: एकादश
अध्यायः श्लोक 1-15
का हिन्दी अनुवाद
स्वायम्भुव-मनु
का ध्रुव जी को युद्ध बंद करने के लिये समझाना.
ऋषिवर नारायण के द्वारा आविष्कृत उस अस्त्र को धनुष पर चढ़ाते ही उससे राजहंस के-से पक्ष और सोने के फल वाले बड़े तीखे बाण निकले और जिस प्रकार मयूर कारव करते वन में घुस जाते हैं, उसी प्रकार भयानक सांय-सांय शब्द करते हुए वे शत्रु की सेना में घुस गये। उन तीखी धार वाले बाणों ने शत्रुओं को बेचैन कर दिया। तब उस रणांगण में अनेकों यक्षों ने अत्यन्त कुपित होकार अपने अस्त्र-शस्त्र सँभाले और जिस प्रकार गरुड़ के छेड़ने से बड़े-बड़े सर्प फन उठाकर उनकी ओर दौड़ते हैं, उसी प्रकार वे इधर-उधर से ध्रुव जी पर टूट पड़े। उन्हें सामने आते देख ध्रुव जी ने अपने बाणों द्वारा उनकी भुजाएँ, जाँघें, कंधे, और उदर आदि अंग-प्रत्यंगों को छिन्न-भिन्न कर उन्हें उस सर्वश्रेष्ठ लोक (सत्यलोक) में भेज दिया, जिसमें उर्ध्वरेता मुनिगण सूर्यमण्डल का भेदन करके जाते हैं। अब उनके पितामह स्वयाम्भुव मनु ने देखा कि विचित्र रथ पर चढ़े हुए ध्रुव अनेकों निरपराध यक्षों को मार रहे हैं, तो उन्हें उन पर बहुत दया आयी। वे बहुत-से ऋषियों को साथ लेकर वहाँ आये और अपने पौत्र ध्रुव को समझाने लगे।
मनु जी ने कहा- बेटा! बस, बस! अधिक क्रोध करना ठीक नहीं। यह पापी नरक का द्वार है। इसी के वशीभूत होकर तुमने इन निरपराध यक्षों का वध किया है। तात! तुम तो निर्दोष यक्षों के संहार पर उतर रहे हो, यह हमारे कुल के योग्य कर्म नहीं है; साधु पुरुष इसकी बड़ी निन्दा करते हैं। बेटा! तुम्हारा अपने भाई पर अनुराग था, यह तो ठीक है; परन्तु देखो, उसके वध से सन्तप्त होकर तुमने एक यक्ष के अपराध करने पर प्रसंगवश कितनों की हत्या कर डाली। इस जड़ शरीर को ही आत्मा मानकर इसके लिये पशुओं की भाँति प्राणियों की हिंसा करना यह भगवत्सेवी साधुजनों का मार्ग नहीं है। प्रभु की आराधना करना बड़ा कठिन है, परन्तु तुमने तो लड़कपन में ही सम्पूर्ण भूतों के आश्रय-स्थान श्रीहरि की सर्वभूतात्मा भाव से आराधना करके उनका परमपद प्राप्त कर लिया है। तुम्हें तो प्रभु भी अपना प्रिय भक्त समझते हैं तथा भक्तजन भी तुम्हारा आदर करते हैं। तुम साधुजनों के पथप्रदर्शक हो; फिर भी तुमने ऐसा निन्दनीय कर्म कैसे किया?
सर्वात्मा श्रीहरि तो अपने से बड़े पुरुषों के प्रति सहनशीलता, छोटों के प्रति दया, बराबर वालों के साथ मित्रता और समस्त जीवों के साथ समता का बर्ताव करने से ही प्रसन्न होते हैं और प्रभु के प्रसन्न हो जाने पर पुरुष प्राकृत गुण एवं उनके कार्यरूप लिंगशरीर से छूटकर परमानन्दस्वरूप ब्रह्मपद प्राप्त कर लेता है।
बेटा ध्रुव! देहादि के रूप में परिणत हुए पंचभूतों से स्त्री-पुरुष का आविर्भाव होता है और फिर उनके पारम्परिक समागम से दूसरे स्त्री-पुरुष उत्पन्न होते हैं।
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