साभार...पंचकन्या- मूल
लेख अंग्रेजी में
- प्रदीप भट्टाचार्य, अनुवाद : मनीषा कुलश्रेष्ठ का
मैं आभार प्रकट करता हूँ.
पंचकन्या – भाग-1
एक प्राचीन प्रसिद्ध संस्कृत श्लोक है..
अहिल्या द्रोपदी कुन्ती तारा मन्दोदरी तथा
पंचकन्या स्वरानित्यम महापातका नाशका.
इन पांच अक्षतकुमारियों अहिल्या‚ द्रोपदी‚ कुन्ती‚ तारा और मन्दोदरी के लिये
कहा जाता है कि इनका स्मरण भी महापापों को भी नष्ट करने में सक्षम हैं। इस श्लोक
में दो बातें खटकती हैं कि इनमें कुमारियों यानि कन्या शब्द का प्रयोग किया गया है
न कि नारी शब्द का। जबकि ये सभी विवाहिता स्त्रियां हैं और इस समूह के नामों के
साथ पापियों को भी पाप मुक्त करने की शक्ति धारिणी का विशेषण कितना विरोधाभासी है।
ऐसे ही एक पारम्परिक दोहे में पांच पवित्र सतियों का वर्णन मिलता है, जैसे सती, सीता, सावित्री, दमयन्ती और अरुन्धती। जबकि
इन पांचों अहिल्या‚ द्रोपदी‚ कुन्ती‚ तारा और मन्दोदरी के साथ सती
शब्द का उपयोग नहीं हुआ है क्योंकि इनमें से प्रत्येक अपने पति के अतिरिक्त एक
पुरुष या अधिक पुरुषों से संबंधित, परिचित, आरोपित रही है? अगर ऐसा है तो इन्हें पाप नाशिनी या पापनाश का
क्यों माना गया? उस पर इन्हें पंचकन्याओं के
रूप में क्यों माना जाता रहा है?
पंचकन्याओं के इस समूह में तीन अहिल्या‚ तारा‚ मन्दोदरी – वाल्मिकी रामायण से संबंधित
हैं‚ द्रौपदी और कुन्ती महाभारत‚ हरिवंश पुराण‚ मार्कण्देय‚ देवी भागवत और भागवत पुराण
में वर्णित प्रमुख पात्र हैं। सबसे पहली बात जो कि विचारणीय है कि वाल्मिकी और
व्यास अपने युग के महान काव्य रचयिता थे। उन्होंने सत्य को दिव्यदृष्टि से जान यह
महाकाव्य रचे थे‚ इन चरित्रों का मूल्यांकन
करने के लिये यह अतिआवश्यक है कि सतही वास्तविकता से हट कर इन्हें चेतनात्मक तरीके
से जांचा जाए जिससे कि उन पवित्र भावनाओं तक पहुंचा जा सके जिन्हें आधार मान कर
इनकी रचना की गई। जब एक ऐसा उपदेश जब हज़ारों वर्षों बाद हम तक पहुंचता है तो इसे
मात्र एक अर्थहीन पहेली मान कर इसे नकारा नहीं जा सकता। पश्चिम से आई नारी मुक्ति
की शक्तिशाली लहर के संदर्भ में‚ आज हमें इसे समझने की
आवश्यकता महसूस होती है कि इस गूढ़ार्थ वाले रहस्यमय दोहे के माध्यम से आखिर कहा
क्या गया है?
अहिल्या नाम के ही दो अर्थ निकलते हैं‚ पहला दोष रहित‚ दूसरा जिस भूमि पर हल न चला
हो अर्थात कुंवारी। उसके जन्म के बारे में एक मिथक (रामायण उत्तरकाण्ड‚ 30) प्रचलित है। एक बार
ब्रह्मा जी ने एक दोष रहित सौन्दर्य की प्रतिमूर्ति का निर्माण किया जो कि समस्त
ब्रह्माण्ड में अद्वितीय थी और फिर उसे गौतम ऋषि को सुरक्षित रखने के लिये दे
दिया। गौतम ऋषि ने इस सौन्दर्य की देवी अहिल्या को बड़े यत्न से संभाल कर रखा जब तक
कि वह वयस्क न हो गई। फिर एक दिन उन्होंने ब्रह्मा जी को सुरक्षित लौटा दिया।
ब्रह्मा जी उनके संयम से अति प्रसन्न हुए और उन्होंने इस युवती को गौतम को ही भेंट
कर दिया और उनका विवाह करवा दिया। इन्द्र ने जब अहिल्या को देखा तो वे मुग्ध हो
गये और उन्होंने सोचा कि यह अद्वितीय सौंदर्य की स्वामिनी यह स्त्री इस वनवासी ऋषि
की पत्नी कैसे हो सकती है इसे तो मेरा होना चाहिये। आदिकान्ड‚ 46 में
विश्वामित्र कहते हैं कि इन्द्र गौतम ऋषि की अनुपस्थिति में उनका रूप लेकर उन
अहिल्या के पास पहुंचे। और उनसे संभोग की प्रार्थना की कि ' संभोग के लिये व्याकुल
प्राणी‚ उर्वर समय की प्रतीक्षा नहीं
कर सकते‚ मैं तुम्हारे साथ सहवास करना
चाहता हूँ‚ हे क्षीण कटि वाली सुन्दरी।' ( 48।18) हालांकि वे जान गईं थीं कि
यह गौतम नहीं इन्द्र हैं फिर भी कुतुहल मात्र के लिये उन्होंने इन्द्र की
प्रार्थना स्वीकार कर ली। वही कुतुहल जो महाभारत की कुन्ती को सूर्य के प्रति हुआ
था‚ और उसने सूर्य को स्वयं को
सौंप दिया था। संभोग के उपरान्त अहिल्या ने इन्द्र से कहा कि‚ हे सर्वश्रेष्ठ‚ मैं कृतार्थ हुई अब आप यहां
से शीघ्र ही जाएं। स्वयं को और मुझे महर्षि गौतम के क्रोध से बचाएं वे अभी आते ही
होंगे ( 48।21)। जैसे ही इन्द्र मुड़े‚ गौतम ऋषि लौटे और उनके श्राप
से इन्द्र के वृषण गिर गये। और उन्होंने अहिल्या को त्याग दिया। अहिल्या को
आत्मग्लानि लिये घने जंगलों में भूखा प्यासा‚ हवा पर ज़िन्दा रहने के लिये‚ मिट्टी पर सोने के लिये
प्रायश्चित के लिये छोड़ दिया गया। गौतम ने आदेश दिया कि वर्षों बाद जब राम वनवास
पर आएंगे तो अहिल्या की भक्ति से प्रसन्न होकर वही उसे इस अभिशाप से मुक्त करेंगे।
तब वह अपने पूर्व रूप में आकर गौतम के पास लौट सकती है। ( 48। 29 – 32)
आदिकान्ड के वर्णनों में कुछ तथ्यात्मक
स्पष्टता है‚ कि उसमें अहिल्या जैसी अतीव
व अद्वितीय सुन्दरी अपनी उत्सुकतावश जानते बूझते अपने यौन कौतुहल को संतुष्ट करती
है। वह अपने सनातन नारीत्व की प्रतिक्रिया स्वरूप स्वर्ग के राजा‚ चिरयुवा इन्द्र के ज्वलन्त
प्रणय निवेदन और अपने पति गौतम ऋषि के उम्रदराज और वनवासी व्यक्तित्व की तुलना में
इन्द्र के चकाचौंध भरे व्यक्तित्व से आकर्षित हो जाती है। एक लौकिक स्त्री अलौकिक
स्वर्ग के राजा के अन्तरंग स्पर्शों का स्वागत कर बैठती है‚ वह इस अद्भुत अनुभव के प्रति
अपनी उत्सुकता दबा नहीं पाती और खतरा मोल लेने को तैयार हो जाती है‚ जो कि नारीत्व को चिन्हित
करता है। यह बहुत सही घटना है जो इन्द्रीय लोलुपता और परस्पर विरोधी भावनाओं को
आपस में जोड़ती है। अहिल्या इन्द्र से आकर्षित हुई क्योंकि वह अपने मन का विरोध इस
तरह प्रकट करना चाहती थी‚ और इन्द्र इस लौकिक अतीव
सुन्दरी के प्रति अपनी एन्द्रिक लोलुपता की वजह से आकर्षित हुआ। यह एक आपसी परस्पर
बढ़ावा देता हुआ दुर्निवार आकर्षण था। हालांकि इस घटना से पहले ही अहिल्या गौतम ऋषि
के पुत्र शतानंदा की मां थी। फिर भी कहीं न कहीं उसका स्त्रीत्व असंतुष्ट था। यहां
कन्या होने का गूढ़ार्थ केवल मां हो जाने से ही नहीं बल्कि एक प्रिया के सन्दर्भ
में भी है‚ और इस आधार पर वह अपने और
गौतम ऋषि के सम्बंधों के यथार्थ तक नहीं पहुंच सकी। इस तरह पहली 'कन्या' स्त्री न हो सकी‚ उसके अन्दर अपनी आन्तरिक
इच्छाओं की पुकार सुनने की क्षमता तो थी‚ किन्तु उसमें उसमें पितृमूलक समाज के आदेशों को
चुनौती देने का साहस न था।
उत्तरकाण्ड का वर्णन दोषमोचक है‚ जैसे कि बाद के संस्करणों
में इस महाकाव्य से इसी दोष-रहितता की अपेक्षा की गई हो। अगस्त्य ने कहा है कि‚ जब ब्रह्मा ने अहिल्या को
गौतम को सौंपा तो क्रुद्ध इन्द्र ने अहिल्या का शारीरिक शोषण किया। बलात्कार की
शोषिता अहिल्या अपने ऊपर हुए अत्याचार की ग्लानि के कारण अपने मन की शांति खो बैठी
और वह सुन्दर देह तो रह गई पर वे अद्वितीय सुन्दर भाव खो गये जो एक सुन्दर स्त्री
के पास जन्मजात होते हैं। जब अहिल्या ने प्रतिवाद में कहा कि वह इन्द्र को पहचान न
सकी थी और वह अपराधिनी नहीं है इस कुकृत्य की। तब गौतम ने कहा कि वे उसे पुन:
स्वीकार कर लेंगे जब राम उसे अपने स्पर्श से पवित्र करेंगे। यहां हम साक्षी हैं कि
पुरुष स्त्री को अपवित्र मान कर अस्वीकार कर देता है चाहे वह अपराधी हो न हो।
कथासरित्सागर के वर्णनों में अहिल्या की मानसिक
अवस्था का हल्का सा संकेत मिलता है। जब गौतम लौटते हैं‚ इन्द्र बिल्ली का रूप धारण
कर भाग जाते हैं। लोलुप होने के कारण श्राप की वजह से इन्द्र के पूरे शरीर पर योनि
के चिन्ह बन जाते हैं। गौतम आकर पूछते हैं कि कुटिया में कौन था। अहिल्या उन्हें
अर्धसत्य बताती है कि ' मार्जार' ( प्राकृत में जिसका अर्थ है
बिल्ला या फिर मेरा प्रेमी )। बाद में उसे शिला हो जाने का श्राप मिलता है। यहां
कोई परीकथाओं की तरह शरीर पत्थर में नहीं बदला माना जाना चाहिये। यह सामाजिक
बहिष्कार और स्वयं की मानसिक पीड़ा ही इस रूप में प्रायश्चित का संकेत हैं। अहिल्या
एक जीती जागती शिला बन कर रह गई थी‚ भावशून्य‚ आत्मसम्मान रहित। यहां तक कि माता के रूप में
भी अहिल्या को पूर्णता नहीं मिली उसका पुत्र स्वयं यह कहते हुए भी " मम माता
यशस्विनी" उसे वन में छोड़ गया था। राम ने उन्हें दोषरहित मान कर सम्मान दिया
और जब उन्होंने और लक्ष्मण ने सम्मान से उनके पैर छुए तब जाकर उन्हें खोया हुआ
सामाजिक सम्मान व प्रतिष्ठा पुन: मिली। ताकि वे फिर से अपना जीवन सच्चे अर्थों
में जी सकें। विश्वामित्र ने बार बार उन्हें 'महाभागा' कहा है‚ गुणों और पवित्रता से ओत - प्रोत। वाल्मिकी के
विवरणों में यह कहा गया है कि राम ने उनकी आवश्यकता को जाना कि उन्हें उनके स्पर्श
से मुक्ति मिल सकती है। किन्तु विश्वामित्र ने उनके सौन्दर्य का वर्णन बहुत सुन्दर
तरीके से किया है‚ जिसका अनुवाद मेरे शब्दों
में इस प्रकार है— “आदिकान्ड 14‚ 15”
ब्रह्मा ने अपनी तल्लीनता के साथ
इस सम्पूर्ण सौन्दर्य के रूप में
जिसे रचा‚
वह है दैविक‚ मनमोहक
जैसे कि जिव्हा हो अग्नि की
धूम्र रेखाओं से घिरी
हिम पर पड़ता पूर्णचन्द्र का प्रतिबिम्ब
नेत्रों को मूंदती सूर्यप्रभा
पानी पर परावर्तित हो मानो।
यह उसके चरित्र की पवित्रता है‚ उसकी असाधारण सुन्दरता और
यही कालातीत सत्य है अहिल्या को पांच कन्याओं में प्रथम कन्या का पवित्र व प्रमुख
स्थान देने का। विश्वामित्र की दृष्टि में‚ (जो कि विद्रोही महर्षि माने गये हैं‚ जिन्होंने सिद्ध कर दिखाया
कि एक क्षत्रिय भी स्वयं को महान विश्वपूजनीय‚ पवित्र ऋषि में परिवर्तित कर सकता है‚ जिन्होंने विश्व को महान
गायत्री मंत्र दिया) अहिल्या पतित स्त्री नहीं थी। वह अपनी स्वतन्त्र प्रकृति में
अपने आप में एक सत्य थी। उसने अपने नारीत्व को अपनी समझ से एक तरह से संतुष्ट किया
था‚ माना कि वह इस सम्बंध में
अंतत: कोई तर्क प्रस्तुत करने में असफल रही। क्या अहिल्या असफल कन्या थी? इस तरह
के अनोखे पति के अतिरिक्त स्थापित यौन सम्बंध में? जो कि न तो बलात्कार था न ही
परपुरुषगमन. इन पांच कुमारी कन्याओं के कौमार्य का रहस्य इसी में छिपा है।
क्रमशः
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