(लगातार-सम्पूर्ण
श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत
महापुराण:
सप्तम स्कन्ध:
प्रथम अध्यायः
श्लोक 13-27 का
हिन्दी अनुवाद
उस महान् राजसूय यज्ञ में राजा युधिष्ठिर ने अपनी आँखों के सामने बड़ी आश्चर्यजनक घटना देखी कि चेदिराज शिशुपाल सबके देखते-देखते भगवान् श्रीकृष्ण में समा गया। वहीं देवर्षि नारद भी बैठे हुए थे। इस घटना से आश्चर्यचकित होकर राजा युधिष्ठिर ने बड़े-बड़े मुनियों से भरी हुई सभा में; उस यज्ञमण्डप में ही देवर्षि नारद से यह प्रश्न किया।
युधिष्ठिर ने पूछा- अहो! यह तो बड़ी विचित्र बात है। परमतत्त्व भगवान् श्रीकृष्ण में समा जाना तो बड़े-बड़े अनन्य भक्तों के लिये भी दुर्लभ है; फिर भगवान् से द्वेष करने वाले शिशुपाल को यह गति कैसे मिली? नारदजी! इसका रहस्य हम सभी जानना चाहते हैं। पूर्वकाल में भगवान् की निन्दा करने के कारण ऋषियों ने राजा वेन को नरक में डाल दिया था। यह दमघोष का लड़का पापात्मा शिशुपाल और दुर्बुद्धि दन्तवक्त्र-दोनों ही जब से तुतलाकर बोलने लगे थे, तब से अब तक भगवान् से द्वेष ही करते रहे हैं। अविनाशी परब्रह्म भगवान् श्रीकृष्ण को ये पानी पी-पीकर गाली देते हैं। परन्तु इसके फलस्वरूप न तो इनकी जीभ में कोढ़ ही हुआ और न इन्हें घोर अन्धकारमय नरक की ही प्राप्ति हुई। प्रत्युत जिन भगवान् की प्राप्ति अत्यन्त कठिन है, उन्हीं में ये दोनों सबके देखते-देखते अनायास ही लीन हो गये-इसका क्या कारण है? हवा के झोंके से लड़खड़ाती हुई दीपक की लौ के समान मेरी बुद्धि इस विषय में बहुत आगा-पीछा कर रही है। आप सर्वज्ञ हैं, अतः इस अद्भुत घटना का रहस्य समझाइये।
श्रीशुकदेव जी कहते हैं- सर्वसमर्थ देवर्षि नारद राजा के ये प्रश्न सुनकर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने युधिष्ठिर को सम्बोधित करके भरी सभा में सबके सुनते हुए यह कथा कही।
नारद जी ने कहा- युधिष्ठिर! निन्दा, स्तुति, सत्कार और तिरस्कार-इस शरीर के ही तो होते हैं। इस शरीर की कल्पना प्रकृति और पुरुष का ठीक-ठीक विवेक न होने के कारण ही हुई है। जब इस शरीर को ही अपना आत्मा मान लिया जाता है, तब ‘यह मैं हूँ और यह मेरा है’ ऐसा भाव बन जाता है। यही सारे भेदभाव का मूल है। इसी के कारण ताड़ना और दुर्वचनों से पीड़ा होती है। जिस शरीर में अभिमान हो जाता है कि ‘यह मैं हूँ’, उस शरीर के वध से प्राणियों को अपना वध जान पड़ता है। किन्तु भगवान् में तो जीवों के समान ऐसा अभिमान है नहीं; क्योंकि वे सर्वात्मा हैं, अद्वितीय हैं। वे जो दूसरों को दण्ड देते हैं-वह भी उनके कल्याण के लिये ही, क्रोधवश अथवा द्वेषवश नहीं। तब भगवान् के सम्बन्ध में हिंसा की कल्पना तो की ही कैसे जा सकती है। इसलिये चाहे सुदृढ़ वैरभाव से या वैरहीन भक्तिभाव से, भय से, स्नेह से अथवा कामना से-कैसे भी हो, भगवान् में अपना मन पूर्ण रूप से लगा देना चाहिये। भगवान् की दृष्टि से इन भावों में कोई भेद नहीं है।
युधिष्ठिर! मेरा तो ऐसा दृढ़ निश्चय है कि मनुष्य वैरभाव से भगवान् में जितना तन्मय हो जाता है, उतना भक्तियोग से नहीं होता। भृंगी कीड़े को लाकर भीत पर अपने छिद्र में बंद कर देता है और वह भय तथा उद्वेग से भृंगी का चिन्तन करते-करते उसके-जैसा ही हो जाता है।
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