कुछ लोगों को यह शंका होती है कि ममता के बिना हमारा शरीर कैसे चलेगा? हम परिवार अथवा समाज की सेवा कैसे करेंगे? परन्तु वास्तव में ममता के कारण शरीर, समाज, परिवार आदि की सेवा में बाधा ही लगती है। निर्मम मनुष्य का शरीर-निर्वाह बहुत बढ़िया रीति से होता है। निर्मम मनुष्य के द्वारा ही परिवार, समाज आदि की वास्तविक सेवा होती है। जिसकी अपने शरीर में ममता है, वह परिवार की सेवा नहीं कर सकता। जिसकी अपने परिवार में ममता है, वह समाज की सेवा नहीं कर सकता। जिसकी अपने समाज में ममता है, वह देश की सेवा नहीं कर सकता। जिसकी अपने देश मे ममता है, वह दुनिया की सेवा नहीं कर सकता। तात्पर्य है कि ममता के कारण मनुष्य का भाव संकुचित, एकदेशीय हो जाता है। वह सेवा से विमुख होकर स्वार्थ में बँध जाता है। इसलिये साधक मात्र के लिये ममता का त्याग करना अत्यन्त आवश्यक है। जब साधक में ममता का त्याग करनेकी तीव्र अभिलाषा जाग्रत् हो जाती है, तब ममता का त्याग करना बड़ा सुगम हो जाता है। कारण कि जब साधक सच्चे हृदय से संसार से विमुख होकर परमात्मा की ओर चलना चाहता है, तब सम्पूर्ण संसार तथा स्वयं परमात्मा भी उसकी सहायता करने के लिये तत्पर हो जाते हैं। इसलिये साधक को कभी भी अपने उद्देश्य की पूर्ति से निराश नहीं होना चाहिये। वह कम-से-कम आयु में तथा कम-से-कम सामर्थ्य में भी अपने उद्देश्य की पूर्ति कर सकता है। कारण कि अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिये ही भगवान् ने अपनी अहैतु की कृपा से उसको मानव शरीर दिया है‒
कबहुँक करि करुना नर देही ।
देत ईस बिनु हेतु सनेही ॥
(मानस, उत्तर॰ ४४/३)
ममता के कारण ही कामनाओं की उत्पत्ति होती है। जैसे, शरीर में ममता होगी तो शरीर की आवश्यकता हमारी आवश्यकता हो जायगी अर्थात् अन्न, जल, वस्त्र, मकान आदि की अनेक कामनाएँ उत्पन्न हो जायँगी। ममता का त्याग होते ही साधक में कामना-त्याग की सामर्थ्य आ जाती है। कारण कि शरीर और संसार एक ही धातु से बने हुए हैं। शरीर को संसार से अलग नहीं कर सकते। अतः शरीर की ममता का नाश होते ही सांसारिक कामनाओं का भी नाश हो जाता है।
मिली हुई और बिछुड़ने वाली वस्तुओं में ‘मैं’-पन और ‘मेरा’-पन होने से ही कामनाओं की उत्पति होती है। सम्पूर्ण कामनाओं की पूर्ति आज तक किसी की नहीं हुई, न होगी और न हो ही सकती है। जिन कामनाओं की पूर्ति होती है, वे भी परिणाम में दुःख ही देती हैं। कारण कि एक कामना की पूर्ति होने पर दूसरी अनेक कामनाएँ पैदा हो जाती हैं, जिससे कामना आपूर्ति का दुःख ज्यों-का-त्यों बना रहता है। मनुष्य समझता है कि कामना की पूर्ति होने पर मैं स्वतन्त्र हो गया, पर वास्तव में वह काम्य पदार्थ के पराधीन हो जाता है। परन्तु प्रमाद के कारण वह पराधीनता में भी सुख का अनुभव करता है। मनुष्य को इस पराधीनता से छुड़ाने के लिये भगवान् के मंगलमय विधान से दुःख आता है। परन्तु मनुष्य दुःख से दुःखी होकर भगवान् के मंगलमय विधान की भी अवहेलना कर देता है। अगर वह दुःख से दुःखी न होकर दुःख के कारण की खोज करे और सम्पूर्ण दुःखों के कारण ‘कामना’ को मिटा दे तो वह सदा के लिये सुखी हो जायगा।
प्रत्येक साधक के लिये निष्काम होना बहुत आवश्यक है; क्योंकि निष्काम हुए बिना साधक अपने कर्तव्य का पालन नहीं कर सकता। इतना ही नहीं, कामना के कारण वह साध्य रूप भगवान् को भी कामना-पूर्ति का साधन बना लेता है। तात्पर्य है कि वह कोई भी कामना रखकर भगवान् का भजन करता है तो उसका साध्य तो वह काम्य पदार्थ होता है और भगवान् उसकी प्राप्ति के साधन होते हैं।जब तक कामना रहती है, तब तक मनुष्य पराधीन रहता है। पराधीन मनुष्य न तो त्याग कर सकता है, न सेवा कर सकता है और न प्रेम ही कर सकता है। वह न तो ज्ञान-योगी बन सकता है, न कर्म-योगी बन सकता है और न भक्ति-योगी ही बन सकता है । अतः पराधीनता को मिटाने के लिये निष्काम होना बहुत आवश्यक है।
कामनाकी पूर्ति में तो सब मनुष्य पराधीन हैं, पर कामना का त्याग करने में सब-के-सब मनुष्य स्वाधीन और समर्थ हैं। प्रत्येक मनुष्य स्वाधीनता पूर्वक स्वाधीनता (मुक्ति)-की प्राप्ति कर सकता है। परन्तु जब तक मनुष्य के भीतर कामना रहती है, तब तक वह स्वाधीन नहीं हो सकता। पराधीनता का सर्वथा नाश, निष्काम होने पर ही सम्भव है। निष्काम होने पर साधक संसार पर विजय प्राप्त कर लेता है। कारण कि कामना वाले मनुष्य को कइयों के अधीन होना पड़ता है, पर जिसको कुछ नहीं चाहिये, उसको किसी के भी अधीन नहीं होना पड़ता। उसका मूल्य संसारसे अधिक हो जाता है। वह तीनों योगों का अधिकारी बन जाता है। इतना ही नहीं, वह भगवत्प्रेम का भी पात्र बन जाता है; क्योंकि कामना वाला मनुष्य किसी से प्रेम नहीं कर सकता।
जब कर्ता निष्काम होता है, तब उसके द्वारा स्वतः कर्तव्य-कर्म का पालन होने लगता है। कर्ता निष्काम हुए बिना कर्तव्य-कर्म का पालन नहीं होता और कर्तव्य-कर्म का पालन हुए बिना प्राप्त परिस्थिति का सदुपयोग नहीं होता। सकाम मनुष्य प्राप्त परिस्थिति के अधीन हो जाता है तथा अप्राप्त परिस्थिति का चिन्तन करता रहता है। परन्तु निष्काम होते ही मनुष्य प्राप्त परिस्थिति की पराधीनता तथा अप्राप्त परिस्थिति के चिन्तन से छूटकर परिस्थति से अतीत तत्त् वको प्राप्त कर लेता है।
जप, तप, व्रत, तीर्थ, स्वाध्याय आदि क्रिया-साध्य साधनों से कामना का नाश नहीं होता। कारण कि कोई भी क्रिया (अभ्यास) करनेके लिये शरीर की सहायता लेनी पड़ती है और शरीर के सम्बन्ध से ही कामनाओं की उत्पत्ति होती है। अतः कामना का नाश किसी क्रिया से नहीं होता, प्रत्युत सर्वथा क्रिया रहित होने से तथा विवेक को महत्त्व देने से होता है। क्रिया रहित होते ही शरीर से सम्बन्ध-विच्छेद होकर स्वरूप में स्थिति स्वतः होती है। स्वरूप में निर्ममता और निष्कामता स्वतःसिद्ध हैं। अतः शरीर-संसार के सम्बन्ध से होने वाले ममता, कामना आदि दोषों का नाश करने के लिये क्रिया और पदार्थ से सम्बन्ध-विच्छेद करना आवश्यक है।
जब साधक, निर्मम और निष्काम हो जाता है, तब उसकी अहंता मिट जाती है। अहंता मिटने पर फिर उसके लिये कुछ भी करना शेष नहीं रहता‒ ‘निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति’ (गीता २/७१) ।जब तक साधक अपने लिये कुछ भी करता है, तब तक उसका सम्बन्ध क्रिया और पदार् थसे बना रहता है। जब तक क्रिया और पदार्थ से सम्बन्ध है, तब तक पराधीनता है। क्रिया और पदार्थ संसार की सेवा के लिये तो उपयोगी हैं, पर अपने लिये इनका त्याग ही उपयोगी है। सेवा और त्याग कृत्रिम नहीं हैं, प्रत्युत स्वतः-स्वाभाविक हैं। इसलिये मैं सेवा करता हूँ अथवा मैं त्याग करता हूँ‒ऐसा अभिमान करना भूल है। जब संसार में मेरी कोई वस्तु है ही नहीं तो त्याग क्या हुआ? और जिसकी वस्तु थी, वह उसको दे दी तो सेवा क्या हुई? यह सिद्धान्त है कि जो कभी भी अलग होगा, वह अभी भी अलग है। इसलिये नित्यनिवृत्तिकी ही निवृत्ति होती है और नित्य-प्राप्त की ही प्राप्ति होती है‒इस सत्य को स्वीकार करना साधकके लिये आवश्यक है।
जब तक साधक में अपने लिये कुछ भी करने का भाव रहता है, तब तक उसका सम्बन्ध कर्म-सामग्री के साथ अर्थात् शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि के साथ बना रहता है। जब तक शरीर के साथ सम्बन्ध रहता है, तब तक मनुष्य में न तो निःस्वार्थभाव आता है और न स्वाधीनता आती है अर्थात् वह न तो कर्मयोगका अधिकारी होता है, न ज्ञानयोग का। जो मनुष्य स्वार्थ भाव और पराधीनता से रहित नहीं हो सका, वह भगवान् का प्रेमी भी कैसे हो सकता है? इसलिये ‘क्रिया’ के आश्रय का त्याग करके विश्राम (कुछ न करने)-को अपनाना और ‘पदार्थ’ के आश्रय का त्याग करके स्वाश्रय अथवा भगवदाश्रय को अपनाना प्रत्येक साधक के लिये बहुत आवश्यक है।
विवेककी जागृति किसी क्रिया से नहीं होती, प्रत्युत क्रिया-रहित होनेसे होती है। विवेक को महत्त्व देने से विवेक ही तत्त्वज्ञान में परिणत हो जाता है। तात्पर्य है कि तत्त्वज्ञान किसी क्रिया या पदार्थ के द्वारा नहीं होता, प्रत्युत अपने ही द्वारा होता है। जिसकी प्राप्ति अपने द्वारा होती है, उसके लिये किसी अभ्यास की आवश्यकता नहीं होती। अभ्यास से तो उलटे वह दूर होता है! मनुष्य जिन करणों (मन-बुद्धि-इन्द्रियाँ)‒से संसार को देखता है, उनसे अपने-आपको (करण-रहित सत्ता मात्र स्वरूप को) नहीं देख सकता‒‘यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति’ (गीता ६/२०) । तात्पर्य है कि अपने-आपको किसी करण के द्वारा नहीं देखा जा सकता, प्रत्युत करणों के त्याग से ही देखा जा सकता है।
कर्मयोगका मार्ग
जब साधक अपने जीवनमें बुराईका त्याग कर देता है, तब कर्म-योगकी सिद्धि हो जाती है। बुराई का त्याग तीन बातों से होता है‒
(१) किसीका भी बुरा न करना
(२) किसीको भी बुरा न समझना और
(३) किसीका भी बुरा न चाहना।
बुराई के त्याग किये बिना मनुष्य कर्तव्य-परायण नहीं हो सकता ।
मनुष्य किसी का भी बुरा करता है, जब वह स्वार्थ-वश खुद बुरा बनता है। खुद को बुरा बनाये बिना, मनुष्य किसी का भी बुरा नहीं कर सकता। कारण कि जैसे कर्ता होता है, वैसे ही कर्म होते हैं‒यह सिद्धान्त है। कर्म कर्ता के अधीन होते हैं। इसलिये सबसे पहले मनुष्य को चाहिये कि वह अपने को साधक स्वीकार करे। जब कर्ता साधक होगा तो फिर उसके द्वारा साधक के विपरीत कर्म कैसे होंगे? साधक के द्वारा किसी का बुरा नहीं होता। इतना नहीं, वह अपने प्रति बुराई करने वाले का भी बुरा नहीं करता, प्रत्युत उस पर दया करता है। बुराई के बदले बुराई करने से तो बुराई की वृद्धि ही होगी, बुराई की निवृत्ति कैसे होगी? बुराई के बदले बुराई न करने से तथा भलाई करने से ही बुराई की निवृत्ति हो सकती है।
कोई भी मनुष्य सर्वथा बुरा नहीं होता और सभी के लिये बुरा नहीं होता। मनुष्य सर्वथा भला तो हो सकता है, पर सर्वथा बुरा नहीं हो सकता। कारण कि बुराई कृत्रिम, आगन्तुक, अस्वाभाविक है। बुराई की स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। इसलिये बुराई को न दुहराने से बुराई सर्वथा मिट जाती है। बुराई को न दुहराना साधक का खास काम है। बुराई को न दुहराने से मनुष्य बुरा नहीं रहता, प्रत्युत भला हो जाता है।
मनुष्य को किसी को भी बुरा समझने का अधिकार नहीं है। दूसरे में जो बुराई दीखती है, वह उसके स्वरूप में नहीं है, प्रत्युत आगन्तुक है। मनुष्य के स्वभाव में यह दोष रहता है कि वह अपनी बुराई को तो क्षमा कर देता है, पर दूसरे की बुराई को देखकर उसके प्रति न्याय करता है। साधक का कर्तव्य है कि वह अपने प्रति न्याय करे और दूसरे के प्रति क्षमा करे। भगवान् का अंश होने के नाते मनुष्य मात्र स्वरूप से निर्दोष है‒
ईस्वर अंस जीव अबिनासी । चेतन अमल सहज सुख रासी ॥
(मानस, उत्तर॰ ११७/२)
इसलिये किसी भी मनुष्य में बुराई की स्थापना नहीं करनी चाहिये। आगन्तुक बुराई के आधार पर किसी को बुरा समझना अनुचित है। दूसरा चाहे बुरा हो या न हो, पर उसको बुरा समझने से अपने में बुराई आ ही जायगी। दूसरे को बुरा समझेंगे तो अपने भीतर बुरे संकल्प पैदा होंगे, क्रोध पैदा होगा, वैर-भाव पैदा होगा, विषमता पैदा होगी, पक्षपात पैदा होगा । इनके पैदा होने से कर्म भी अशुद्ध होने लगेंगे। अतः बुराई की स्थापना न तो अपने में करनी चाहिये और न दूसरों में ही करनी चाहिये। बुराई की स्थापना करने से न अपना हित होता है, न दूसरेका। किसी को बुरा समझना अथवा किसी का बुरा चाहना बुराई करने से भी बड़ा दोष है।
मनुष्य किसी का बुरा चाहता है तो उसका बुरा तो होता नहीं, पर अपना बुरा अवश्य हो जाता है। दूसरे का बुरा चाहने वाले की हानि ज्यादा होती है; क्योंकि बुरा चाहने से उसके भाव में बुराई आ जाती है। कर्म की अपेक्षा भाव सूक्ष्म और व्यापक होता है। अतः दूसरे का बुरा चाहने में अपना ही बुरा निहित है। यह नियम है कि हम दूसरे के प्रति जो करेंगे, वही परिणाम में अपने प्रति हो जायगा। इसलिये साधक को किसी का भी बुरा चाहने का, बुरा समझने का अथवा बुरा करने का अधिकार नहीं है। उसको समान रूप से सबके हित का भाव रखते हुए सबकी सेवा करने का ही अधिकार है। सेवा करने से ही वह कर्मयोगका अधिकारी होता है। दूसरे का बुरा करने वाला, बुरा समझने वाला अथवा बुरा करने वाला, दूसरे पर शासन तो कर सकता है, पर सेवा नहीं कर सकता। शासक सेवक नहीं हो सकता और सेवक शासक नहीं हो सकता। समाज की उन्नति सेवक के द्वारा होती है, शासक के द्वारा नहीं।
भलाई करना तो परिश्रम-साध्य है, पर बुराई न करने में कोई परिश्रम नहीं होता तथा कोई खर्चा भी नहीं होता। इसलिये बुराई का त्याग करने में सब स्वतन्त्र तथा समर्थ हैं। यहाँ एक शंका होती है कि जब दूसरा व्यक्ति हमारे साथ बुराई कर रहा है तो फिर हम कैसे उसको बुरा न समझें, उसका बुरा न चाहें? इसका समाधान यह है कि दूसरा हमारा बुरा करता है तो यह बुराई उसमें आयी हुई है, स्वाभाविक नहीं है। स्वरूप से तो वह सर्वथा बुराई-रहित है। दूसरी बात, हमारा बुरा होने से हमारे पुराने पाप कटते हैं और हम शुद्ध होते हैं। तीसरी बात, गहरा विचार करने से पता लगता है कि दूसरा हमारे साथ बुराई तभी करता है, जब हम निर्बल होते हैं। हम निर्बल तब होते हैं, जब प्राणों में मोह होने के कारण हम मृत्यु से डरते हैं और इस कारण अपने प्रति होने वाली बुराई को हम सहते हैं। अगर हमारे में प्राणों का मोह न रहे, जीने की इच्छा और मरने का भय न रहे तो कोई बलवान् व्यक्ति हमारे पर अत्याचार नहीं कर सकेगा। यह सिद्धान्त है कि भौतिक बल कभी भी आध्यात्मिक बल पर विजय प्राप्त नहीं कर सकता। नाशवान् वस्तु अविनाशी पर विजय कैसे कर सकती है ? अन्धकार प्रकाश पर विजय कैसे कर सकता है ? जिसका मिलने और बिछुड़ने वाले शरीर में ‘मैं’-पन और ‘मेरा ’-पन नहीं है, उसको कोई अपने अधीन नहीं कर सकता । उस पर कोई विजय नहीं कर सकता। विचार करना चाहिये कि जब शरीर का नाश होने पर भी हमारी सत्ता का नाश नहीं होता, तो फिर शरीर को रखने की इच्छा और मृत्यु का भय करने से क्या लाभ? इसलिये साधक को अपना कर्तव्य जितना प्रिय होता है, उतने अपने प्राण भी प्रिय नहीं होते। अपने कर्त्तव्य की रक्षा के लिये वह प्राणों का भी त्याग कर देता है। ऐसे साधक को कोई बलवान्-से-बलवान् व्यक्ति भी अपने अधीन करके कर्तव्यच्युत नहीं कर सकता।
कर्मयोगी अपने कर्तव्य का पालन करते हुए दूसरे के अधिकार की रक्षा करता है। जो दूसरे का अधिकार होता है, वही हमारा कर्तव्य होता है। जैसे, माता-पिता की सेवा करना पुत्र का कर्तव्य है और माता-पिता का अधिकार है। अपना अधिकार चाहने वाला मनुष्य अपने कर्तव्य का पालन नहीं कर सकता। इसलिये कर्मयोग का साधक अपने अधिकार का त्याग करता है। अपने अधिकार का त्याग करने से नया राग पैदा नहीं होता और दूसरे के अधिकार की रक्षा करने से पुराना राग मिट जाता है और साधक सुगमता पूर्वक राग-रहित हो जाता है।
मनुष्य अपने अधिकार का त्याग तथा दूसरे के अधिकार की रक्षा करने में तो स्वतन्त्र है, पर अधिकार प्राप्त करने में स्वतन्त्र नहीं है। अधिकार पाने की लालसा मनुष्य को कर्तव्यच्युत करके उसको काम, क्रोध, लोभ आदि दोषों से युक्त कर देती है, जिससे उसका पतन हो जाता है। इसलिये कर्मयोग का साधक दूसरे के अधिकार की रक्षा करता है।
जब अपने कहलाने वाले शरीर पर ही हमारा अधिकार नहीं चलता, तो फिर शरीर जिसका अंश है, उस संसार पर हमारा अधिकार कैसे चल सकता है? परन्तु हमारे पर शरीर और संसार का अधिकार अवश्य है। शरीर का अधिकार यह है कि हम उसको आलसी, अकर्मण्य, प्रमादी, असंयमी न बनने दें और संसार का अधिकार यह है कि हम शरीर के द्वारा संसार की सेवा करें, किसी का भी अहित न करें, सबको सुख पहुँचायें।
समाज में ज्यों-ज्यों अधिकार पाने की लालसा बढ़ती जाती हैं, त्यों-ही-त्यों लोग अपने कर्तव्य से हटते जाते हैं, जिससे समाज में संघर्ष पैदा हो जाता है। अधिकार पाने की इच्छा से गुलामी आ जाती है। अतः अपने अधिकार का त्याग करना प्रत्येक साधक के लिये आवश्यक है। अपने अधिकार का त्याग करने से उदारता और असंगता‒दोनों आ जाती हैं। उदारता आने से कर्मयोग की तथा असंगता आने से ज्ञानयोग की सिद्धि हो जाती है।
वास्तव में अधिकार देने की वस्तु है, लेने की वस्तु नहीं। कोई जबर्दस्ती अधिकार लेना भी चाहे तो नहीं ले सकता। बलवान्-से-बलवान् व्यक्ति भी दूसरों का विनाश तो कर सकता है, पर दूसरों का अपने प्रति आदर, प्रेम, श्रद्धा, विश्वास उत्पन्न नहीं करा सकता। यद्यपि मनुष्य का मूल्य संसार से अधिक है, तथापि अधिकार पाने की लालसा से वह अपना मूल्य गिरा देता है। अधिकार पाने की लालसा के मूल में नाशवान् सुख की लालसा है। जब साधक सुख की आसक्ति को मिटा देता है, तब अधिकार पाने की लालसा मिट जाती है और साधक का कर्मयोग सिद्ध हो जाता है।
भक्तियोगका मार्ग
यह नियम है कि प्रत्येक रचना के मूल में कोई-न-कोई रचयिता रहता है। प्रत्येक उत्पत्ति के मूल में कोई-न-कोई अनुत्पन्न तत्त्व रहता है। अगर मनुष्य संसार को तो मानता है, पर संसार के रचयिता को नहीं मानता तो यह उसकी बहुत बड़ी भूल है। जो परा (जीव) और अपरा (जगत्)‒दोनों का आश्रय तथा प्रकाशक है, उस परमात्मा पर दृढ़ विश्वास करके उसके साथ आत्मीयता करना अथवा उसके शरणागत हो जाना साधक के लिये बहुत आवश्यक है। वह परमात्मा कैसा है, कैसा नहीं‒यह जानना साधक के लिये आवश्यक नहीं है। साधक के लिये केवल इतना ही मानना आवश्यक है कि परमात्मा है और वह मेरा है। उसको इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि से जाना नहीं जा सकता, प्रत्युत केवल माना जा सकता है। रचना अपने रचयिता को कैसे जान सकती है? अंश अपने अंशी को कैसे जान सकता है?
परमात्मा विचार का विषय नहीं है, प्रत्युत श्रद्धा-विश्वास का विषय है। उसको मानने अथवा न मानने में मनुष्य पूर्ण स्वतन्त्र है। विचार का विषय तो जीव और जगत् हैं। जिसके विषय में हम कुछ नहीं जानते, जिसको हमने देखा नहीं है, उस पर श्रद्धा-विश्वास ही किया जा सकता है। अपने द्वारा किये हुए श्रद्धा-विश्वास को दूसरा कोई मिटा नहीं सकता।
ईश्वरको हम जान सकते ही नहीं और माने बिना रह सकते ही नहीं। जैसे, माता-पिता को हम जान नहीं सकते, प्रत्युत मान ही सकते हैं; क्योंकि उस समय हमारी (शरीरकी) सत्ता ही नहीं थी। अगर हम अपने शरीर की सत्ता मानते हैं तो माता-पिता की सत्ता माननी ही पड़ेगी। हम हैं तो माता-पिता भी हैं। कार्य है तो उसका कारण भी है। ऐसे ही हम स्वयं हैं तो ईश्वर भी है। हमारी सत्ता ईश्वर के होने में प्रत्यक्ष प्रमाण है। हम नहीं हैं‒इस तरह अपने होने- पन का निषेध कोई कर सकता ही नहीं। जब अपने होने-पन का निषेध नहीं हो सकता, तो फिर ईश्वर का भी निषेध नहीं हो सकता।
माता की अपेक्षा भी पिता को जानना सर्वथा असम्भव है; क्योंकि माता से जन्म लेते समय तो हमारा शरीर बन चूका था, पर पिता के समय तो हमारे शरीरकी सत्ता ही नहीं थी ! भगवान् सम्पूर्ण संसार के पिता हैं‒ ‘अहं बीजप्रदः पिताः’ (गीता १४/४), ‘पिताहमस्य जगतः’ (गीता ९/१७), ‘पितासि लोकस्य चराचरस्य’ (गीता ११/४३)। इसलिये भगवान् को जानना तो सर्वथा असम्भव है। उनको तो माना ही जा सकता है। माने बिना दूसरा कोई उपाय ही नहीं है। मानना जानने से कमजोर नहीं होता। भगवान् को दृढ़ता पूर्वक मानने से उनमें आत्मीयता हो जाती है और आत्मीयता होने से उनमें प्रेम हो जाता है।
जो पहले नहीं था, बाद में भी नहीं रहेगा तथा वर्तमान में भी प्रतिक्षण नाश की ओर जा रहा है, वह शरीर तथा संसार विश्वास के योग्य हैं ही नहीं। जो एक क्षण भी हमारे साथ न रहे, प्रतिक्षण बदलता रहे, उस पर विश्वास कैसे किया जा सकता है? उसकी सेवा की जा सकती है, पर विश्वास नहीं किया जा सकता। विश्वास तो उसी पर किया जा सकता है, जो सदा हमारे साथ रहे, कभी हमसे बिछुड़े नहीं। भगवान् सदा हमारे साथ रहते हैं‒‘सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टः’ (गीता १५/१५)। हम पशु-पक्षी आदि किसी भी योनि में चले जायँ, स्वर्ग-नरकादि किसी भी लोक में चले जायँ तो भी भगवान् हमारा साथ कभी नहीं छोड़ते।
जब मनुष्य अपनी आवश्यकता की पूर्ति न तो खुद कर सकता है और न उसकी पूर्ति संसार ही कर सकता है, तब वह स्वतः भगवान् की ओर खिंचता है, जिसको उसने देखा नहीं है, प्रत्युत सुना है। जब मनुष्य पर कोई संकट आता है और उससे बचने का कोई उपाय नहीं दीखता तथा उससे बचने के लिये किये गये सब प्रयत्न व्यर्थ चले जाते हैं, तब उसको भगवान् पर विश्वास करके उनको पुकारना ही पड़ता है।
जो मनुष्य भगवान् पर विश्वास न करके शरीर-संसा रपर विश्वास करता है, वह जन्म-मरण के चक्र में फँसकर तरह-तरह के दुःख पाता है। शरीर आदि पर विश्वास करने से अहंता, ममता, कामना, आसक्ति, लोभ आदि अनेक विकारों की उत्पत्ति होती है। परिणाम यह होता है कि शरीर आदि तो रहते नहीं, पर उसका सम्बन्ध रह जाता है, जो अनेक योनियों में जन्म लेने का कारण बनता है‒‘कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु’ (१३/२१) ।
जो न तो भगवान् पर विश्वास करता है और न शरीर-संसार पर ही विश्वास करता है, प्रत्युत अपने-आप पर विश्वास करता है, वह ज्ञानयोग का साधक हो जाता है। ऐसा साधक ‘मैं कौन हूँ’‒इसकी खोज करता है। ‘मैं’ की खोज करते-करते ‘मैं’ मिट जाता है और ‘है’ रह जाता है। साधक ‘है’ (परमात्मतत्त्व)-को स्वीकार करे अथवा न करे, पर अन्त में प्राप्ति ‘है’ की ही होती है। जैसे, कोई कितना ही कूदे-फाँदे या नाचे, पर अन्त में वह जमीन पर ही टिकेगा !
एक सत्तामात्र है‒इस प्रकार दृढ़ता-पूर्वक परमात्म-तत्त्व पर विश्वास होने से शरीर तथा संसार का विश्वास निर्जीव, फीका हो जाता है। कारण कि परस्पर विरुद्ध दो विश्वास एक साथ नहीं रह सकते। जब साधक यह स्वीकार करता है कि परमात्मा अद्वितीय है, सदा है, सर्व-समर्थ है, सर्वज्ञ है, सर्वसुहृद् है, सभी का है और सब जगह है, तब उसकी परमात्मा पर स्वतः श्रद्धा जाग्रत् हो जाती है। परमात्मा में श्रद्धा-विश्वास होने पर साधक एक परमात्मा के सिवाय दूसरे किसी की स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार करता ही नहीं। ऐसी स्थिति में जैसे नींद से जागते ही स्वप्न की विस्मृति तथा जाग्रत की स्मृति हो जाती है, ऐसे ही साधक के भीतर स्वतः परमात्मा (‘है’)-के नित्य सम्बन्ध की स्मृति जाग्रत् हो जाती है और संसार (‘नहीं’)-की सर्वथा विस्मृति हो जाती है‒‘नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः’ (गीता २/१६) । परमात्मा के साथ नित्य सम्बन्ध की स्मृति जाग्रत् होते ही साधक की परमात्मा से अभिन्नता अथवा आत्मीयता हो जाती है। परमात्मा से अभिन्नता होते ही साधक को प्रतिक्षण वर्धमान प्रेम की प्राप्ति हो जाती है, जो मानव जीवन का चरम लक्ष्य है।
एक शंका होती है कि जब परमात्मा सब समय में तथा जब जगह विद्यमान है, तो फिर साधक को उससे दूरी क्यों प्रतीत होती है? इस पर गहरा विचार करने से पता लगता है कि जब साधक मिले हुए तथा बिछुड़ने वाले शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि के द्वारा परमात्मा को प्राप्त करना चाहता है, तब उसको परमात्मा से दूरी प्रतीत होती है। कारण कि परमात्मा की प्राप्ति क्रिया और पदार् थके द्वारा नहीं होती, प्रत्युत क्रिया और पदार् थके त्याग से अपने ही द्वारा होती है। इसलिये साधक को चाहिये कि वह शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि को संसार की सेवामें समर्पित कर दे और अपने-आपको (सत्तामात्र स्वरूप को) भगवान् के समर्पित कर दे। जब साधक स्वयं सब ओर से विमुख होकर एकमात्र भगवान् के ही शरणागत हो जाता है, तब भगवान् कृपा-पूर्वक उसको अपना लेते हैं, अपने से अभिन्न कर लेते हैं।
विचारपूर्वक देखें तो जो सब देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, घटना, अवस्था, परिस्थिति आदि में परिपूर्ण है, उससे दूरी कैसे सम्भव है? यह सिद्धान्त है कि जिससे दूरी नहीं होती, उसकी प्राप्ति क्रिया से नहीं होती, प्रत्युत चाहना मात्र से होती है। अगर साधक मिले हुए और बिछुड़ने वाले प्राणी-पदार्थ को अपना और अपने लिये न माने और भगवान् के साथ आत्मीयता (अपनापन) कर ले तो फिर भगवान् से दूरी नहीं रहेगी; क्योंकि वास्तव में वह भगवान्का ही अंश है‒‘ममैवांशो जीवलोके’ (गीता १५/७)। मनुष्य से भूल यह होती है कि वह मिली हुई वस्तु, योग्यता, सामर्थ्य आदि को तो अपना मान लेता है, पर जिसने उनको दिया है, उसको (भगवान्को) अपना नहीं मानता। वास्तव में वस्तु अपनी नहीं है, प्रत्युत उसको देने वाला अपना है। जिस क्षण साधक भगवान् को अपना मानकर उनके शरणागत हो जाता है, उसी क्षण भगवान् साधक का भूतकाल न देखकर उसके वर्तमान को देखते हैं, उसके आचरणों को न देख कर उसके भावों को देखते हैं‒
रहति न प्रभु चित चूक किए की ।
करत सुरति सय बार हिए की ॥
(मानस, बाल॰२९/३)
वे अपने शरणागत भक्त को निर्भय, निःशोक, निश्चिन्त और निःशंक कर देते हैं। परन्तु साथ में अन्य का आश्रय नहीं रहना चाहिये । अन्य का आश्रय, अन्य का विश्वास और अन्य का सम्बन्ध रहने से भगवान् का आश्रय दृढ़ नहीं होता। जिस मनुष्य को एक भगवान् के सिवाय और कोई अपना नहीं दीखता तथा जिसको अपने में कोई विशेषता नहीं दीखती, वह सुगमता पूर्वक भगवान् के आश्रित हो जाता है। भगवान् के आश्रित होने पर उसको अपने लिये कुछ भी करना शेष नहीं रहता। उसके द्वारा होने वाली प्रत्येक प्रवृत्ति भगवान् की पूजा होती है।
भगवान् के साथ सम्बन्ध केवल प्रेम की प्राप्ति के लिये ही होना चाहिये। प्रेम प्राप्त करने का एकमात्र उपाय है‒भगवान् में अपनापन। एक मात्र भगवान् को अपना मानने से प्रेम की जागृति होती है। प्रेम की जागृति होने पर अहम् का सर्वथा नाश हो जाता है। अहम् का सर्वथा नाश होने पर भगवान् से दूरी, भेद और भिन्नता‒तीनों सर्वथा मिट जाते हैं।
प्रेमकी जागृतिके बिना अहम् का सर्वथा नाश नहीं होता‒
प्रेम भगति जल बिनु रघुराई ।
अभिअंतर मल कबहुं न जाई ॥
(मानस, उत्तर॰४९/३)
मुक्त महापुरुष में भी प्रेम की एक माँग (भूख) रहती है। इसलिये जो मुक्ति में भी सन्तुष्ट नहीं होता, उसको भगवान् अपना प्रेम प्रदान करते हैं। इस दृष्टि से मुक्ति भी साधन है और प्रेम साध्य है। प्रेम की प्राप्ति के बिना साधन की पूर्णता नहीं होती। भगवान् ज्ञानस्वरूप होते हुए भी प्रेम के भूखे हैं। ज्ञानयोग तथा कर्मयोग के मार्ग से मोक्ष की प्राप्ति होने पर भी एक सूक्ष्म अहम् रहता है, जिसके कारण भगवान् से दूरी और भेद तो मिट जाते हैं, पर उनसे अभिन्नता नहीं होती। यह सूक्ष्म अहम् जन्म-मरण देने वाला तो नहीं होता, पर दार्शनिक मतभेद पैदा करने वाला होता है। इस सूक्ष्म अहम् के कारण ही मुक्त महापुरुषों में तथा उनकी मान्यताओं और सिद्धान्तों में परस्पर मतभेद रहता है। परन्तु प्रेम की प्राप्ति होने पर जब सूक्ष्म अहम् सर्वथा मिट जाता है, तब सम्पूर्ण मतभेद मिट जाते हैं और भगवान् से अभिन्नता हो जाती है। अभिन्नता होने पर एक भगवान्के सिवाय अन्य किसी की भी सत्ता नहीं रहती‒‘वासुदेवः सर्वम्’ (गीता ७/१९) ।
उपसंहार
उपनिषद् में आता है कि अकेले में भगवान् का मन नहीं लगा‒ ‘एकाकी न रमते’ (बृहदारण्यक॰१/४/३) । अतः खेल (प्रेम-लीला)-के लिये भगवान् एक से अनेक रूप हो गये‒‘सोऽकामयत बहु स्यां प्रजायेयेति’ (तैत्तिरीय॰२/६)। उन अनेक रूपों में श्रीजी तो भगवान् के सम्मुख रहीं, पर जीव खेल के खिलौनों (शरीर-संसार)-में ही लग गये! श्रीजी खिलौनों में नहीं लगीं तो उनको प्रतिक्षण वर्धमान प्रेम की प्राप्ति हो गयी और जीव खिलौनोंमें लग गये तो उनको जन्म-मरण रूप संसार की प्राप्ति हो गयी। ये खिलौने अपने और अपने लिये हैं, ही नहीं। ये तो केवल दूसरों को सुख पहुँचाने के लिये ही हैं। इनको अपना और अपने लिये मानना बहुत बड़ी भूल है, जिसका त्याग करना मनुष्य का कर्तव्य है। यह एक ही भूल स्थान भेद से काम, क्रोध, लोभ, मोह, इर्षा, द्वेष, दम्भ, पाखण्ड आदि अनेक विकारों के रूप में हो जाती है। फिर भूलें बढ़ती ही रहती हैं। उनका कोई अन्त नहीं आता।
अपने-आपको भूलने से देहाभिमान उत्पन्न हो जाता है। कर्तव्य को भूलने से अकर्तव्य होने लगता है। भगवान् को भूलने से नाशवान् के साथ सम्बन्ध हो जाता है। इस भूल को मिटाने के लिये तीन योग हैं‒ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग। विवेक-विचार पूर्वक संसार से मिली हुई वस्तुओं से अलग हो जाय‒यह ज्ञानयोग है। उन वस्तुओं को संसार की सेवा में लगा दे‒यह कर्मयोग है। मनुष्य स्वयं जिसका अंश है, उस भगवान् में लग जाय‒यह भक्तियोग है। परन्तु जो ज्ञानयोग, कर्मयोग अथवा भक्तियोग में न लग कर संसार में अर्थात् भोग और संग्रह में लग जाता है, वह जन्म-मरण में पड़ जाता है। वह जन्म गया तो मरना बाकी रहता है और मर गया तो जन्मना बाकी रहता है। इस प्रकार वह जन्म-मरण के चक्रमें घूमता रहता है‒‘पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननीजठरे शयनम्’ ।
(कल्याण के तीन सुगम मार्ग’ पुस्तक से)
गीताप्रेस, गोरखपुर से प्रकाशित.
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