श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: अष्टाविंश अध्यायः श्लोक 36-44 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: अष्टाविंश अध्यायः श्लोक 36-44 का हिन्दी अनुवाद

योगाभ्यास से प्राप्त हुई चित्त की इस अविद्यारहित लयरूप निवृत्ति से अपनी सुख-दुःख रहित ब्रह्मरूप महिमा में स्थित होकर परमात्मतत्त्व का साक्षात्कार कर लेने पर वह योगी जिस सुख-दुःख के भोक्तृत्व को पहले अज्ञानवश अपने स्वरूप में देखता था, उसे अब अविद्याकृत अहंकार में ही देखता है। जिस प्रकार मदिरा के मद से मतवाले पुरुष को अपनी कमर पर लपेटे हुए वस्त्र के रहने या गिरने की कुछ भी सुधि नहीं रहती, उसी प्रकार चरमावस्था को प्राप्त हुए सिद्ध पुरुष को भी अपनी देह के बैठने-उठने अथवा दैववश कहीं जाने या लौट आने के विषय में कुछ भी ज्ञान नहीं रहता; क्योंकि वह अपने परमानन्दमयस्वरूप में स्थित है। 

उसका शरीर तो पूर्वजन्म के संस्कारों के अधीन है; अतः जब तक उसका आरम्भक प्रारब्ध शेष है, तक तक वह इन्द्रियों के सहित जीवित रहता है; किन्तु जिसे समाधिपर्यन्त योग की स्थिति प्राप्त हो गयी है और जिसने परमात्मतत्त्व को भी भलीभाँति जान लिया है, वह सिद्धपुरुष पुत्र-कलत्रादि के सहित इस शरीर को स्वप्न में प्रतीत होने वाले शरीरों के समान फिर स्वीकार नहीं करता-फिर उसमें अहंता-ममता नहीं करता। जिस प्रकार अत्यन्त स्नेह के कारण पुत्र और धनादि में भी साधारण जीवों की आत्मबुद्धि रहती है, किन्तु थोड़ा-सा विचार करने से ही वे उनसे स्पष्टतया अलग दिखायी देते हैं, उसी प्रकार जिन्हें यह अपना आत्मा मान बैठा है, उन देहादि से भी उनका साक्षी पुरुष पृथक् ही है। जिस प्रकार जलती हुई लकड़ी से, चिनगारी से, स्वयं अग्नि से ही प्रकट हुए धुंएँ से तथा अग्निरूप मानी जाने वाली उस जलती हुई लकड़ी से ही अग्नि वास्तव में पृथक् ही है-उसी प्रकार भूत, इन्द्रिय और अन्तःकरण से उनका साक्षी आत्मा अलग है तथा जीव कहलाने वाले उस आत्मा से भी ब्रह्म भिन्न है और प्रकृति से उसके संचालक पुरुषोत्तम भिन्न हैं। 

जिस प्रकार देहदृष्टि से जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उद्भिज्ज-चारों प्रकार के प्राणी पंचभूत मात्र हैं, उसी प्रकार सम्पूर्ण जीवों में आत्मा को और आत्मा में सम्पूर्ण जीवों को अनन्यभाव से अनुगत देखे। जिस प्रकार एक ही अग्नि अपने पृथक्-पृथक् आश्रयों में उनकी विभिन्नता के कारण भिन्न-भिन्न आकार का दिखायी देता है, उसी प्रकार देव-मनुष्यादि शरीरों में रहने वाला एक ही आत्मा अपने आश्रयों के गुण-भेद के कारण भिन्न-भिन्न प्रकार का भासता है। अतः भगवान् का भक्त जीव के स्वरूप को छिपा देने वाली कार्यकारणरूप से परिणाम को प्राप्त हुई भगवान् की इस अचिन्त्य शक्तिमयी माया को भगवान् की कृपा से ही जीतकर अपने वास्तविक स्वरूप-ब्रह्मरूप में स्थित होता है।
साभार krishnakosh.org

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