(लगातार-सम्पूर्ण
श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: त्रयोविंश
अध्यायः श्लोक 45-57
का हिन्दी अनुवाद
देवहूति ने कहा- भगवन्! आपने जो कुछ प्रतिज्ञा की थी, वह सब तो पूर्णतः निभा दी; तो भी मैं आपकी शरणागत हूँ, अतः आप मुझे अभयदान और दीजिये। ब्रह्मन्! इन कन्याओं के लिये योग्य वर खोजने पड़ेंगे और आपके वन को चले जाने के बाद मेरे जन्म-मरणरूप शोक को दूर करने के लिये भी कोई होना चाहिये।
प्रभो! अब तक परमात्मा से विमुख रहकर मेरा जो समय इन्द्रियसुख भोगने में बीता है, वह तो निरर्थक ही गया। आपके परम प्रभाव को न जानने के कारण ही मैंने इन्द्रियों के विषयों में आसक्त रहकर आपसे अनुराग किया तथापि यह भी मेरे संसार-भय को दूर करने वाला ही होना चाहिये। अज्ञानवश असत्पुरुषों के साथ किया हुआ जो संग संसार-बन्धन का कारण होता है, वही सत्पुरुषों के साथ किये जाने पर असंगता प्रदान करता है। संसार में जिस पुरुष के कर्मों से न तो धर्म का सम्पादन होता है, न वैराग्य उत्पन्न होता है और न भगवान् की सेवा ही सम्पन्न होती है, वह पुरुष जीते ही मुर्दे के समान है। अवश्य ही मैं भगवान् की माया से बहुत ठगी गयी, जो आप-जैसे मुक्तिदाता पतिदेव को पाकर भी मैंने संसार-बन्धन से छूटने की इच्छा नहीं की।
साभार krishnakosh.org
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