धार्मिक यात्राये.



प्राचीन काल में तीर्थ यात्रा पैदल की जाती थी। शास्त्रों में पैदल तीर्थ-यात्रा का बहुत पुण्य लिखा है। इसका कारण यह है कि तीर्थ यात्री सदाचरण का पालन करते हुए,  रास्ते में पड़ने वाले ग्रामों में धर्म प्रचार करते हुए, चलते थे। उत्तर प्रदेश के पूर्वी जिलों में एक धर्म परम्परा यह रही कि उत्साही धर्म-प्रेमी गंगाजी से दो गंगाजली भरकर, उन्हें काँवर में कँधे पर रख कर पैदल चलते हुए, अपने समीप के शिव मन्दिर पर उस गंगाजल को चढ़ाते थे यह लोग रास्ते में उच्च स्वर से धार्मिक दोहे या भजन गाते जाते थे, ताकि उस रास्ते में धर्म प्रचार होता चले। स्त्रियाँ किसी तीर्थ को जाती थी, तब  रास्ते भर धार्मिक भजन गीत गाती चलती थी। इसका भी यही उद्देश्य था परन्तु आज कल इसका विस्तार तो हो गया किन्तु रास्ते में धर्म प्रचार करते चलने वाली जैसी महत्वपूर्ण, पुण्य की मूल बात की भूल हो गई हैं। दर्शन या स्नान में ही पुण्य की स्वीकारता रह गई हैं-बस| रास्ते का श्रृधा-भाव, भजन-कीर्तन, और आचरण समाप्त हो गया हैं|
सुविधा का उपभोग अच्छी बात हैं| यह भी उपयुक्त होगा कि भजन-कीर्तन के स्थान में आप सदाचरण  का पालन करते हुए, मानसिक जाप करते रहे किन्तु धार्मिक स्थान को पर्यटन स्थल मानकर यात्राओं का त्याग होना चाहिए| इससे आध्यात्मिक लाभ प्राप्त नहीं होता|  कह सकते हैं कि हम उत्कर्ष से क्रमशः नीचे उतरते जा रहे हैं|  

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