साँप और साही.
(सूर्यकांत त्रिपाठी निराला)
कड़ाके की सर्दी पड़ रही थी। एक साँप ने खुशामद पर आकर एक साही को अपने बिल में रहने की जगह दी । वह बिल एक छोटा-सा बिल था। उसमें घूमने-फिरने की काफी जगह न थी। साही के जरा हिलते ही उसके काँटे साँप के चुभते थे।
साँप ने कहा, ''दोस्त, इस बिल में बहुत थोड़ी जगह है; दो इसमें मुश्किल से अट सकते हैं, तुम्हें बड़ी तकलीफ होती होगी? ''
आराम की आवाज में साही ने कहा, ''ऐसी हालत में जिसे रहने की दिक्कत हो उसे चला जाना चाहिए। मेरी पूछते हो, तो मैं बड़े आराम में हूँ। अगर तुम्हें आराम नहीं तो तुम जब चाहो, इस बिल को छोड़ जाओ।''
यह कहकर उसने अपनी रीढ़ घुमायी और सांप को अपनी सूरत निकाल लेने को छोड़ दिया। वह उन आदमियों जैसी थी, जो अपने मिले हुए हिस्से से ज्यादा लेने की ताक में रहते हैं।
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