कहोड़ वेदशास्त्र
के निष्णात विद्वान और सुप्रसिद्ध वेदान्ताचार्य उद्दालक के परम शिष्य थे. कहोड़ की
वेद ज्ञान के प्रति उत्कट उत्कंठा देखकर उद्दालक चकित थे. आज तक उन्होंने ऐसा
शिष्य नहीं देखा था, जो वेदों के प्रत्येक शब्द को, उसके अर्थ और मिमान्सा को
अत्यंत आतुरतापूर्वक ह्रदयंगम करता हो. अध्यन के प्रति उसकी रूचि से, वह मुग्ध थे.
कहोड़ ने शीघ्र ही
वेदों का सांगोपांग अध्ययन पूर्ण कर लिया तो उद्दालक यह सोचकर चिंतित हो गये कि
कहोड़ स्नातक होकर उन्हें छोडकर चला जायेगा. कहोड़ के बिना आश्रम सूना हो जायेगा, किन्तु
वह कर ही क्या सकते थे. शिष्य उनके यहाँ विद्यार्जन के लिए आते थे और स्नातक होने
के पश्चात चले जाते थे. ऐसा वर्षों से होता आ रहा था. कहोड़ का जाना भी निश्चित था,
किन्तु ऐसा ज्ञानपिपासु शिष्य उन्हें पुन: नहीं मिलेगा. कहोड़ योग्य, विवेकवान और
वेद-निष्णान्त था और प्रत्येक गुरु ऐसा शिष्य पाकर स्वयं को गौरवान्वित अनुभव
करता हैं.
उस दिन कहोड़ को
आश्रम से विदा होकर जाना था, उद्दालक का ह्रदय बैठा जा रहा था, आँखे सूनी थी और
चेहरे पर विषाद छाया हुआ था.
विदा कि बेला में
कहोड़ उनके निकट आया और चरण स्पर्श करने के पश्चात हाथ जोडकर बोला, “गुरुदेव, आज्ञा
दीजिये.”
उद्दालक ने उसके
दोनों हाथ थाम कर कम्पित स्वर ने कहा, “वत्स! मुझे प्रसन्नता है कि तुमने स्वयं को वेदों का उत्तम ज्ञाता
सिद्ध कर दिया. तुम जहाँ भी जाओगे, विजयश्री का वरण करोगे. किन्तु तुम्हें यहाँ से
विदा करने को जी नहीं चाहता.”
“गुरुदेव! विदाई का
समय सदैव पीड़ादायक होता हैं. मैं भी आपसे विलग होते हुए अत्यंत कष्ट का अनुभव कर
रहा हूँ.”
एकाएक उद्दालक की दृष्टी
सुजाता पर पड़ी. वह नदी से कलश भरकर आश्रम की ओर आ रही थी. जेसे ही वह भोजन कक्ष
में प्रविष्ट हुई, उद्दालक का मुख-मंडल खिल उठा. उन्होंने कहोड़ से कहा, “वत्स! मेरी
हार्दिक इच्छा थी कि तुम आश्रम छोडकर कभी न जाओ. तुम्हारी अनुपस्तिथि सहन नहीं कर
सकूँगा.”
“गुरुदेव सच तो यह
है कि आपके सानिध्य में रहते हुये, मुझे भी अत्यंत हर्ष होता हैं, किन्तु मेरा अद्ध्ययनकाल
समाप्त हो गया है, अत: यहाँ रहने का प्रयोजन ही कहाँ रहा?”
“ऐसा मत सोचो वत्स!
कोई भी आश्रम तुम्हारे जेसे विद्वान शिक्षक को पाकर प्रसन्नता का अनुभव करेगा.”
कहोड़ चकित होकर
बोला, “मैं कुछ समझा
नहीं, गुरुदेव!”
“वत्स! यहाँ से
जाकर तुम जीविकोपार्जन के लिए कोई तो उद्योग करोगे ही. मै चाहता हूँ, तुम इसी
आश्रम में रहकर अध्यापन का कार्य आरंभ करो.”
हर्षावेग से कहोड़
की आँखे चमकने लगी, बोला “ यह तो मेरा अहोभाग्य है, गुरुदेव! वर्षो से मै इस आश्रम से
संबद्ध रहा हूँ, इसे छोड़ने की कल्पना से मेरा ह्रदय विचलित हो रहा था.”
“यही दशा मेरी भी
थी वत्स! तुमने यहाँ रहने का निश्चय कर मुझ पर उपकार ही किया हैं.”
“ऐसा मत कहिये
गुरुदेव! वस्तुतः मै कृतार्थ हूँ कि आपने मुझे यहाँ रहने का स्वर्णिम अवसर प्रदान
किया. आपके सानिध्य में मुझे ग्यान प्राप्ति हुई हैं, अब इसी ग्यान को अन्य
शिष्यों के साथ पुन: मनन करना, नि:संदेह मेरे लिए नई अनुभूति होगी. मै आश्रम का
भाग था, भाग हूँ और जब तक आपकी अनुमति होगी, तब तक रहूँगा.”
उद्दालक ने कहोड़
को आलिन्गंबध्द किया और स्नेहपूर्वक बोले,”तुम सदेव आश्रम के अटूट भाग बने रहोगें, मेरे पुत्र ! मै
चाहता हूँ, तुम सुजाता को पत्नी के रूप में अंगीकार करो.
“गुरुदेव! कहोड़ को
अपने कानों पर मानो विश्वास ही नहीं हुआ.
“ हाँ पुत्र !
तुम्हारे जेसे योग्य दामाद को पाकर किसे प्रसन्नता नहीं होगी.”
कहोड़ आगे कुछ बोल
नहीं पाया था.
उद्दालक ने विलम्ब
नहीं किया, सप्ताह भर में वे कन्यादान से मुक्त हो गये.और कालान्तर में सुजाता
गर्भवती हुई.
कहोड़ सदैव रात्रि
में वेदों का अध्यन मनन करते थे. निकट ही चटाई पर सुजाता लेटी रहती और पति के श्लोक उच्चारण को देखती और सुनती
रहती थी. गर्भ धारण के पश्चात भी उसका यह अभ्यास बना हुआ था. वह कहोड़ के होठों से
निकले श्लोकों को ध्यानपूर्वक सुनती थी. पहिले वह अधिक रूचि नही लेती थी, किन्तु
अब मानों कोई अपरचित शक्ती प्रेरित करती थी और वह पति की जिव्हा से निसृत एक-एक
शब्द को हृदयंगम करती थी. गर्भकाल के आठवें महीने में सुजाता को एकाएक वेदों से
विरक्ति होने लगी. उसे श्लोक निरर्थक प्रतीत होते थे. एक रात विचित्र घटना घट गई.
सुजाता को समझ नही आया कि पलभर में स्वयं को ही कैसे विस्मरण कर बैठी थी. पहिले
ऐसा कभी नहीं हुआ था. पति की अवमानना करने की तो वह कल्पना भी नही कर सकती थी.
नित्य की भांति उस
रात भी कहोड़ वेदाभ्यास कर रहे थे. अभी कुछ क्षण ही बीते थे कि उन्होंने सुजाता को
वितृष्णा से बोलते सुना, “वेदों का ग्यान मिथ्या हैं. वेद और कुछ नहीं, अर्थहीन
शब्दों का भंडार हैं. आत्म-ग्यान ही परम सत्य हैं. अत: ग्रंथों में ग्यान मत
खोजों, ग्यान तुम्हारे अंतर्मन में ही समाहित हैं, आत्मानुभूति करते ही परम ग्यान की
उपलब्धि हो जाएगी.”
कहोड़ का वेदाभ्यास
बाधित हो गया. वह चकित होकर सुजाता की ओर देख रहे थे. आज अचानक सुजाता को क्या हो
गया? पति-पत्नी में सामंजस्य था. वह पति की योग्यता से परिचित थी और उनका सम्मान
करती थी. कहोड़ कुछ समझ नहीं पाए कि अचानक उसमें यह परिवर्तन कैसे आ गया?
स्वयं सुजाता
आश्चर्य-चकित थी. यह क्या कह बेठी, वह? बचपन से उसने वेदों के श्लोक सुने थे. वह
इसी वातावरण में पली-बढ़ी थी. वेदों के प्रति उसकी असीम निष्ठा थी. वेद-शास्त्र उसकी
दृष्टी में ग्यान के स्त्रोत थे.
कहोड़ की दृष्टी
एकाएक पत्नी के गर्भ की ओर उठ गई. कुछ सोचकर उनकी आँखें संकुचित हो गई. कई पलों तक
उनकी दृष्टी गर्भ से नहीं हटी तो सुजाता विचलित हो गई. अपनी असमंजसता से सायास
मुक्त होती हुई बोली, “क्षमा करे, में स्वम् विस्मित हूँ कि मेरे मुख से कुबोल
कैसे निकल गए?”
कहोड़ सचेत हुए.
उन्होंने सुजाता को तीक्ष्ण दृष्टी से देखते हुए कहा,” मै जानता हूँ
तुम्हारे मुख से बोल कैसे निकल गये?”.
पति को क्षुब्ध
होते देख सुजाता ने सिर झुका लिया. धीरे से बोली, “ मै मूढ़ हूँ, देव! आपकी विद्वता से भला कौन परिचित नहीं.
मेरी मूढ़ता पर चित्त न धरे, स्वामी.”
“मै तुमसे तनिक भी
क्षुब्ध नहीं सुजाता, यह तुम नही बोली थी, यह गर्भस्त शिशु था, जिसने अपने विचार
तुम्हारे माध्यम से अभिव्यक्त किए हैं.”
“ यह क्या कहते
हैं, नाथ?”
“ यह सत्य हैं.
मुझे समझ में नहीं आता, जहां वेदों का पठन-पाठन होता हैं, ऐसे वेदमय वातावरण में
यह वेदविरोधी कैसे जन्म ले रहा हैं?”
सुजाता का सर्वांग
काँप गया. उसे लगा, जैसे उसने ऐसे शिशु को गर्भ में धारण करके कोई जघन्य अपराध
किया है. बोली, “संभव है, शिशु के बारे में आपकी धारणा मिथ्या हो. जो कुछ अनजाने में मेरे मुख
से निकला, वह मेरी मूढ़ता का ही परिणाम हो, शिशु का इसमें कोई दोष न हों.”
“ नहीं सुजाता,
तुम्हे, मै वर्षों से जानता हूँ. वेदों के प्रति तुम्हारी निष्ठा से भी परचित हूँ.
मुझे विश्वास हैं कि यह शिशु वाणी ही थी, जो तुम्हारे माध्यम से प्रकट हुई.”
“ यदि ऐसा हैं तो इसमें
शिशु का कोई दोष नहीं. गर्भस्त शिशु अभी निर्बोध हैं. जन्मोपरांत जब वह आपके
सानिध्य में आएगा तो धीरे-धीरे वेदों के प्रति उसकी धारणा बदल जाएगी. वह आपकी
भांति ही वेदों का निष्णात पंडित बनेगा.”
“क्या पता, “ कहोड़ असहाय होकर
बोले, “ हम क्या कर सकते
हैं. प्रारब्ध को जो स्वीकार होगा, उसे शिरोधार्य करना हमारी विवशता हैं.”
पहली बार जब
उन्होंने सुजाता के मुख से शिशु का विद्रोही स्वर सुना था, उन्हें दुःख पहुचा था.
ऐसा केवल उसी रात को हुआ होता तो वह इसे दु:स्वप्न मानकर भुला चुके होते, किन्तु
उस रात के बाद ऐसा कई बार हुआ कि जब भी वह वेदाभ्यास आरम्भ करते, गर्भस्त शिशु
वेदों की कटु आलोचना करता. इस विघ्न को सहन कर पाने में, वे असमर्थ थे. वह
वेदाभ्यास के समय स्वयं को आत्मकेंद्रित नहीं कर पाते थे. उनका हृदय सदैव आशंकित
रहता था कि किसी भी पल अजन्मा शिशु बोल पड़ेगा. उस रात वे बड़ी कठिनाई से वेदाभ्यास
में लीन होने का प्रयास कर रहे थे कि सुजाता के मुख से शिशु वाणी उच्चरित हुई, “वेदाध्ययन से
ग्यान की प्राप्ति नही होगी, तात! आत्मा को जानो, सबको जान जाओगे .”
कहोड़ क्रोध से उठ
खड़े हुए. उनकी आँखों में लाली उतर आई थी. जिस शिशु का अभी जन्म तक नहीं हुआ था,
वहीं, उन्हें उपदेश देता हैं? जिसने वेद का एक अक्षर तक नहीं पढ़ा, वह वेदों की
आलोचना करने का दुस्साहस कर रहा हैं? क्या जानता हैं वेदों के बारे में? नहीं, उसे
इस अपराध का उचित दंड अवश्य मिलना चाहिए. उन्होंने सुजाता के गर्भ की ओर ऊँगली
उठाकर कहा, “ रे मूढ़, निस्संदेह तेरा मस्तिष्क विकल है, तभी तेरे विचार रुग्ण हैं. वेदों की आलोचना करने का दंड तुझें मिलेगा...अवश्य मिलेगा. मैं श्राप देता हूँ, कि जब तू
जन्म लेगा, तेरा शरीर आठ स्थानों से विकल होगा. जेसे तेरे विचार भ्रष्ट हैं, उसी
प्रकार तेरा शरीर भी भ्रष्ट होगा.”
उस रात के पश्चात
गर्भस्त शिशु मौन हो गया. सुजाता के मुख से वेदों की आलोचना करने वाला स्वर पुन:
सुनाई नहीं दिया. कहोड़ ने राहत की सांस ली. उनका वेदाभ्यास बाधा रहित पुन: आरंभ हो
गया.
पिछली रात जब कहोड़
ने वेदाभ्यास निर्विघ्न समाप्त किया तो सुजाता बोली, “सुनिये, शिशु का
जन्म आसन्न हैं, वह कभी भी जन्म ले सकता हैं. घर में धनाभाव हैं और हमें शिशु के
जन्म संस्कार पूर्ण करने के लिए धन की आवश्यकता होगी.”
“मुझे इस शिशु से
कोई लगाव नहीं. तुम जानती हों, संस्कार विधि वेद-सम्मत है और इस अजन्में शिशु की
वेदों के प्रति कोई निष्ठा नहीं. संस्कारों की बात रहने ही दो.”
“अजन्मा शिशु क्या
जाने सांसारिक व्यवहार, किन्तु आप तो ऐसा न कहें. आश्रमवासी क्या कहेंगे? यहीं
नहीं, बड़े भाई की पत्नी भी उसी समय शिशु को जन्म देगीं जब मै. वे शिशु का संस्कार करेंगें
और हम नहीं, भला क्या यह शोभा देगा?.
कहोड़ एक पल सोचते
रहें.सुजाता सच कह रहीं थी. भले ही उन्हें शिशु से मोह नहीं था, पर सांसारिक
रीति-नीति की अनदेखी कैसे की जा सकती हैं. वेदों का स्पष्ट निर्देश है कि जब तक
शिशु का संस्कार न किया जाय, वह अशुभ और अस्पृश्य हैं. उन्होंने असहाय स्वर में
कहा, “ ठीक हैं, मै धन
की व्यवस्था करता हूँ.
राजा जनक अत्यंत
प्रजावत्सल हैं. विशेषकर विद्वानों का बहुत आदर करते हैं. ब्राह्मण की याचना
अनसुनी नहीं करते. उनके दरबार से आज तक कोई ब्राह्मण निराश नहीं लौटा.
दूर से ही कहोड़ को
राजप्रासाद के कंगूरे नजर आने लगे. उनके चरणों की गति मंद हो गई. वे, गर्भस्त शिशु
के लिए राजा जनक से धन की याचना करने जा रहे थे, किन्तु वे तनिक भी उत्साहित नही
थे. राजप्रासाद के मुख्य द्वार पर पहुच कर खड़े हो गए. वे आशान्वित थे. राजा जनक
उदार ह्रदय थे. उनकी दानशीलता की चर्चा चतुर्दिक फैली हुई थी. सामान्य जन, राजा की
प्रसंशा करते अघाते नहीं थे. प्रासाद में राजा जनक का अधिकतर समय विद्वानों के
सानिध्य में व्यतीत होता था. वे, ग्यान पिपासु थे. उनके महल में अनेक विद्वान थे,
जो अध्यात्म, जीवन व्यवहार और ग्यान-विज्ञान की चर्चा करते थे.
कहोड़ ने दरबानो से
कहा, “कृपया महाराज को
सूचित करे. कि ऋषि उद्दालक के आश्रम से एक ब्राह्मण उनके दर्शनार्थ आया हैं.”
राजा को सूचित
करने की आवश्यकता नहीं थी. दरवानों को आदेश था कि द्वार पर कोई ब्राह्मण आए तो
ससम्मान राजदरबार में ले आया जाये.
एक दरबान ने आगे
बढकर बोला, “ आपका स्वागत है, ब्राह्मण देवता! आइए, मै आपको महाराज के पास पहुंचा देता
हूँ.”
राजदरबार भव्य और
वैभवशाली था. सामने स्वर्ण जडित सिंहासन पर राजा जनक आसीन थे. उनके मुकुट से
मणि-माणिक्य की रश्मियाँ विकीर्ण हो रही थी. उनके आभामय चेहरे पर मंद-मंद मुस्कान
खिली हुई थी. नेत्र असीम ग्यान से आलोकित थे. विराट ललाट के मध्य में चन्दन का
टीका तृतीय नेत्र की भांति चमक रहा था. राजा जनक के अप्रतिम व्यक्तित्व से कहोड़
चमत्कृत होते हुये, हाथ जोडकर उनका अभिवादन किया.
राजा जनक ने
ससम्मान कहा..स्वागत हैं ब्राह्मणराज. आसन ग्रहण करें.
कहोड़ ने चारों तरफ
देखा. राजा जनक के दोनों तरफ राजदरबारी, अनेक ब्राह्मण व विद्वान् पंक्तिबध बैठें
थे. कहोड़ रिक्त आसन पर बैठ गए. उन्हें विश्वास था कि जब यहाँ से विदा होंगे तो
उनके पास राजा जनक का दिया हुआ पर्याप्त धन होगा और वह शिशु का संस्कार करने में
समर्थ होंगे.
राजा जनक ने पूछा
.. कहिये ब्राह्मणराज, आपके आने का प्रयोजन क्या हैं?
कहोड़ ने उत्तर
दिया.. राजन! मै ऋषि उद्दालक का शिष्य एवं दामाद कहोड़ हूँ. मेरी पत्नी प्रसवासन्न
हैं. वह किसी भी समय शिशु को जन्म दे सकती हैं. जन्मोपरांत शिशु का संस्कार करना
अपरिहार्य हैं, किन्तु धनाभाव-वश, मै संस्कार निभाने में असमर्थ हूँ. अब आप ही मेरी
समस्या का समाधान कर सकते हैं. आशा है, आप मुझे निराश नहीं करेंगे.
राजा जनक ने एक
बार राजदरबारियों व विद्वजनों की ओर देखा, तदुपरांत उनकी दृष्टी बंदी पर टिक गई.
बोले.. आप कुछ कहना चाहेंगे श्रेष्ट प्रवर?.
बंदी राजदरबार में
उत्कट विद्वान् के रूप में परम-पूज्य था. राजा जनक की दृष्टी में वह ब्राह्मण शिरोमणि थे. महल और दरबार की ग्यान चर्चाये
उन्ही के नेतृत्व में संपन्न होती थी.
बंदी ने राजा को
उत्तर देते हुए कहा..राजन! आप तो जानते हैं कि मुझे शास्त्रार्थ में कितनी रूचि
हैं फिर कहोड़ तो ऋषिवर उद्दालक का शिष्य है. कौन नहीं जानता कि वे वेदान्ताचार्य
हैं. निःसंदेह उनका शिष्य व दामाद उनसे ग्यान में कम नहीं होगा. ऐसे विद्वान्
ब्राह्मण से शास्त्रार्थ का आनन्द ही कुछ और हैं. यदि आप अनुमति दें तो हम शास्त्रार्थ
आरम्भ करें.
राजा जनक ने कहोड़
से पूछा .. क्या आप शास्त्रार्थ के लिए सहमत हैं?
कहोड़ वेदों में
पारंगत तथा वेदों कि मीमांशा करने में दक्ष थे. अत: उन्होंने उत्तर दिया.. राजन!
मुझे कोई आपत्ति नहीं, मै शास्त्रार्थ के लियें प्रस्तुत हूँ.
“ठीक हैं.” राजा जनक बंदी से
बोले, “आप शास्त्रार्थ
प्रारम्भ करें. दो विद्वानों के शास्त्रार्थ से मुझे सदैव नए ग्यान की उपलब्धि
होती हैं.”
बंदी ने कहोड़ की
ओर देखते हुए कहाँ, ..शास्त्रार्थ आरंभ करने के पूर्व मै आपको यह बताना अपना
कर्तव्य समझता हूँ कि यदि आप शास्त्रार्थ में विजयी हुए तो महाराज की ओर से आपको
बहुमूल्य पारितोषक की प्राप्ति होगी, इसके विपरीत यदि आप पराजित हुए तो नदी में जल
समाधी लेने को बाध्य होंगे. ऐसा ही यहाँ का नियम हैं. पहिले भी अनेक ब्राह्मणो ने
यहाँ शास्त्रार्थ में भाग लिया हैं, जिसमें कुछ विजयी हुए और कुछ पराजित.
कहोड़ को अपने वेद
ग्यान पर विश्वाश था. उन्होंने बंदी की चुनौती स्वीकार कर ली.
शास्त्रार्थ
प्रारम्भ हुआ. आरभिक दौर में वेदों को केंद्र बनाकर चर्चा हुई .कहोड़ की वेद
मीमांशा से न केवल दरबार के उपस्तिथ जन प्रभावित हुए अपितु राजा जनक की भी कहोड़ के
प्रति रूचि बढ़ गई.
बंदी ने वेदोत्तर
चर्चा आरंभ की तो कहोड़ विचलित हो गये. उनकी दृष्टी में वेदों की पारंपरिक मीमांसा
का कोई अन्य विकल्प था ही नहीं, किन्तु बंदी के प्रश्न सुनकर उन्हें भ्रम हुआ कि
ब्रम्हांड में और भी बहुत कुछ हैं, जिनके बारे में वेद मौन हैं. तो क्या ग्यान की
अंतिम सीमा वेद नहीं? क्या वेदों के पृष्ठों पर उल्लिखित ग्यान के अतिरिक्त भी कुछ
ऐसा हैं, जिसे केवल विचार-मंथन से ही प्राप्त किया जा सकता हैं.
अचानक कहोड़ को याद
आया, सुजाता के गर्भस्त शिशु ने भी वेदशास्त्रों की सिद्धता पर प्रश्न चिन्ह लगाया
था? अजन्मे शिशु ने कहा था कि आत्मा को जानो, सब-कुछ जान जाओगे, आत्मज्ञान के
पश्चात किसी ग्यान की आवश्यकता ही नहीं रहेगी.
तब कहोड़ ने इस कथन
को अज्ञानी की मूढता समझा था और वेद श्लोको को परम सत्य मानकर वहीं तक सीमित रहें
थे. यदि आत्म-मीमांसा करते तो निःसंदेह वेदों की सीमा के उस पार भी कुछ नए ग्यान
की अनुभूति कर सकते थे. उन्हें खेद हुआ कि रात-दिन वेदों में निमग्न होकर उन्होंने
कभी भी आत्म-मंथन को महत्व ही नहीं दिया.
जबकि सत्य यह था
की बंदी, वेदों को ग्यान की अंतिम सीमा मानता था. उसकी चर्चा वेदों पर ही
केन्द्रित थी, किन्तु वह कुतर्कों का आश्रय लेकर कहोड़ को दिग्भ्रमित करने में सफल
हो गया था.
कहोड़ ने अपनी
पराजय स्वीकार कर ली. वचनानुसार उन्होंने जल-समाधी लेकर देह त्याग दी.
राजा जनक ने कहोड़
के अजन्मे शिशु के संस्कार के लिए आवश्यक धन भेज दिया.
आश्रम में कहोड़ की
दुखद मृत्यु का समाचार पंहुचा तो चतुर्दिक शोक की लहर व्याप्त गई. सुजाता की आँखों
के सामने अंधकार छा गया. वह अचेत हो गई. उसी रात उसने व उसकी भाभी ने पुत्रों को
जन्म दिया. ऋषि उद्दालक ने बेटे की संतान को नाम दिया श्वेतकेतु. वह जानते थे,
दामाद ने अपनी उदण्ड संतान को आठ स्थानों से विकल होने का शाप दिया था. वह विकलांग
ही पैदा हुआ था. अत: उन्होंने उसका नाम अष्टावक्र रखा.
अष्टावक्र का शरीर
आठ स्थानों से विकल अवश्य था, किन्तु उसके नेत्रों में विचित्र प्रकार की चमक थी,
जो किसी को भी सहज ही आकृष्ट करती थी. आलोकिक ओज से मुखमंडल सदैव उद्दीप्त रहता
था. प्रतीत होता था, मानो वह स्वयं-सिद्ध हैं, सबसे निस्पृह, निरंजन और निरपेक्ष,
जन्मजात ग्यान का अक्षय भंडार.
अष्टावक्र और
श्वेतकेतु की बाल-सुलभ क्रियाओं में पृथ्वी-आकाश का अंतर था. श्वेतकेतु अन्य बच्चों
के साथ खेलता था जबकि अष्टावक्र वृक्ष के नीचे बैठकर पता नहीं किन विचारों में
खोया रहता था. अल्पायु में बच्चे जो कुछ करते, अष्टावक्र भी वहीं करता. श्वेतकेतु
के साथ खेलता भी था किन्तु किसी कर्म में श्वेतकेतु की भांति संलिप्त नहीं होता
था. श्वेतकेतु को व्यंजन भाते थे जबकि अष्टावक्र शरीर की मांग को पूरा करने के लिए
ही खाता था.
बारह वर्ष की आयु
तक अष्टावक्र ने समस्त वेदों का परायण कर लिया .ग्यान के प्रत्येक स्त्रोत के प्रति
वह सजग ही आकृष्ट हो जाता था. विभिन्न प्रकार के ग्यान भंडार थे, जिनका वह
आलोडन-विलोडन करता. वह अलग बात थी कि वह सबसे सहमत नहीं होता था. मन ही मन
तर्क-वितर्क करता, आत्म-मंथन के उपरांत सत्य उसके सन्मुख साक्षात उपस्थित होता और
भ्रमो का अंधकार छट जाता था. अष्टावक्र शनै: शनै: आत्मकेंद्रित हो गये उन्होंने
कभी भी भय की अनुभूति नहीं की. कभी भी उन्हें किसी की सहायता लेने की इच्छा नही
हुई. उन्हें आश्चर्य था कि लोग क्योकर आतुरता से परमात्मा की स्तुति करते हैं? नि:संदेह
भय से मुक्ति पाने के लिए और सहायता पाने की इच्छा से. भय भी किसका? मृत्यु का,
हानि का, रोग और शोक का. अष्टावक्र सोचते, मृत्यु से भय कैसा? मृत्यु तो
अवश्यंभावी हैं, अंतिम और चिरंतन सत्य, जबकि हानि, रोग और शोक मायावी और भ्रामक
अवधारणाऍ. परमात्मा की स्तुति का एक ही प्रयोजन था, कुछ पाना, ईश्वर से कुछ पाने
की याचना करना. ऐसी स्वार्थपूर्ण स्तुति का क्या लाभ? क्या मानव इतना शक्तिहीन है कि वह अपनी सहायता स्वयं न कर सकें.
अष्टावक्र
परमात्मा की सहायता लेने को इच्छुक क्यों नहीं थे? क्योकि वे अनुभव कर चुके थे कि
वे आत्मविश्वस्त हैं, आत्मनिर्भर हैं, अपने परमात्मा स्वयं हैं. आत्मज्ञान की इस
प्रतीति से वे, लोक में रहते हुए भी लोकेत्तर हो गये.
श्वेतकेतु अपने
पिता के साथ खेलता था. अष्टावक्र को पता नहीं था कि उनके पिता का दुखद परिस्तिथियों
में देहांत हो चुका हैं. वह श्वेतकेतु के पिता को ही अपना सर्वस्व मानते थे. श्वेतकेतु
जब भी अष्टावक्र को अपने पिता के साथ देखता तो बुरा मान जाता. वह येन-केन-प्रकारेण
अष्टावक्र को पिता से दूर कर देता. अष्टावक्र बुरा नहीं मानते थे. उनका विचार था,
श्वेतकेतु पिता के प्रति मोहासक्त हैं, जबकि उन्हें किसी के प्रति मोह नहीं था.
एक दिन जब
अष्टावक्र उनके पिता से बातें करता हुआ नजदीक बैठा था तब श्वेतकेतु वहां आया और
उसने कहाँ..”इनके साथ बैठने का अधिकार मेरा हैं. तुम अपने पिता के पास क्यों नहीं जाते?”
श्वेतकेतु की बात
उचित थी. अष्टावक्र ने तर्क-वितर्क नहीं किया. वहाँ से उठकर वह सीधे माँ के पास
गया और पूछा .. माँ , श्वेतकेतु को पिता का सानिध्य उपलब्ध हैं, पिता की निकटता से
उसे प्रसन्नता होती हैं. मेरे पिता कहाँ हैं?
माँ की आँखों में
आंसू छलक आये.
अष्टावक्र चकित थे,
पिता के बारे में पूछने पर माँ क्यों रो पड़ी? उसने पूछा, ”क्या हुआ माँ,
अचानक उदास क्यों हो गई?
वह भरे मन से
बोली, कुछ नही. पुत्र, तुम्हारे पिता का दुखद परिस्थियों में निधन हो गया.
“कब?”
“तुम्हारे जन्म से
एक दिन पूर्व?”
“दुखद परिस्तिथियों
में उनका निधन हो गया, इसका तात्पर्य?”
“ हाँ पुत्र,
तुम्हारे पिता राजा जनक के प्रासाद में गए थे, जहाँ बंदी नामक विद्वान से
शास्त्रार्थ में परास्त हो जाने के कारण उन्हें जल-समाधि लेने को विवश किया गया
था.”
अष्टावक्र को
आश्चर्य हुआ. यह कैसा शास्त्रार्थ हुआ? शास्त्रार्थ का अर्थ तो यही है कि
शास्त्रों में निहित ग्यान की चर्चा की जाये. विद्वान एक दूसरे को ग्यानानुभव
सुनाएँ, एक दूसरे के ग्यान का पारस्परिक लाभ उठायें. शास्त्रार्थ में जय-पराजय का
क्या स्थान? कैसा हैं यह बंदी नामक विद्वान? यह तो कोई विद्वता नहीं हुई कि
शास्त्रार्थ में उससे जो हीन सिद्ध हो, उसे जल-समाधि लेने को विवश किया जाये. यह
तो विशुद्ध हिंसा हैं. विद्वान कभी हिन्सक नही हो सकता, उसका हृदय उदार और विन्रम
होता है. मुझे तो उसकी योग्यता संदिग्ध प्रतीत होती हैं. अवश्य वह तर्क-कुतर्क में
पारंगत होगा और शास्त्रार्थ में अपने प्रतिद्वंदी
को वाग्जाल में फ़ांसकर परास्त करता होगा. जरा में भी तो जाकर देखूं, कितना
बड़ा विद्वान हैं.
अष्टावक्र ने माँ
के आंसू पोछकर कहाँ,.. “रो मत माँ , मै राजमहल जाऊंगा और बंदी से शास्त्रार्थ
करूंगा.”.
सुजाता भय से सिहर
गई, बोली, नहीं पुत्र, मै तुम्हें वहाँ नहीं जाने दूंगी. पुत्र, तुम बंदी को नहीं
जानते. वह अनेक ब्राह्मणो को शास्त्रार्थ में परास्त कर जल समाधि दे चुका हैं.
तुम्हारे पिता उसके सन्मुख टिक न सके, और तुम तो अभी बालक हो. तुम्हारे पिता को मै
खो चुकी हूँ अब तुम्हें नहीं खोना चाहती.”
माँ, चिंता मत
करो, मुझे कुछ नही होगा. मुझ पर विश्वास रखों माँ, मै बालक अवश्य हूँ किन्तु
आत्मशक्ति मेरा सबसे बड़ा संबल है. जो आत्मविश्वस्त होते हैं, वही विजयश्री का वरण
करते हैं.
सुजाता को समझ नही
आया कि वह पुत्र को ऐसा दुस्साहस करने से कैसे रोके. अष्टावक्र की मुद्रा से स्पष्ट था कि वह राजप्रासाद जाने को कृतसंकल्प हैं. पुत्र प्रतिशोध की भावना के
वशीभूत होकर जा रहा हैं, पता नहीं इसका क्या परीणाम हो. हताश हो, मंद स्वर में कहा
.. ठीक हैं पुत्र जाओ. परमात्मा तुम्हारी रक्षा और मंगल करे.
“ माँ, परमात्मा को
कष्ट मत दो. प्रत्येक व्यक्ति अपना परमात्मा आप होता है किन्तु खेद हैं कि कोई भी
स्वयं को परमात्मा रूप में अनुभूत करने में सक्षम नहीं. और माँ, पुत्र की रक्षा
हेतु परमात्मा का स्मरण करना स्वार्थ हैं. परमात्मा की स्वार्थवश स्तुति करने से
कोई पुण्य भी नहीं मिलता. जाते जाते, अष्टावक्र ने कहा माँ, यह मत सोचना कि मै
प्रतिशोध लेने जा रहा हूँ. नहीं माँ, मै जय पराजय और प्रतिशोध की भावना से मुक्त हूँ. सांसारिक प्रवत्तियां मुझे
लेशमात्र भी प्रभावित नहीं करती. मै केवल कर्तव्य निर्वहन हेतु जा रहा हूँ. शेष
प्रारब्ध के अधीन हैं.”
अष्टावक्र
राजप्रासाद के मुख्यद्वार पर पहुचें. दरबानों से बोले, “कृपया, महाराज से
जाकर कहें कि एक ब्राह्मण उनके दर्शन करना चाहता है.”
दरबानों की दृष्टी
विकलांग बालक पर पड़ी तो वे उलझन में पड़ गए. उन्होंने एक दूसरे की आँखों में झाँका, तदुपरांत एक बोला, “हमें खेद है बालक,
हम आपका सन्देश महाराज तक नहीं पहुचा सकते.”
“ क्यों, मैंने
सुना है कि दरबार में ब्राह्मणो का प्रवेश अबाधित हैं.”
“ आपने सत्य सुना
है, किन्तु दरबार में केवल व्यस्क ब्राह्मण ही प्रवेश कर सकते हैं. बालकों का अंदर
जाना निषिद्ध हैं.”
अष्टावक्र के
चेहरे पर कोई मुद्रा नहीं उभरी. न उन्हें क्रोध हुआ और न विस्मय. शांत भाव से
बोले, “व्यस्क और बालक
ब्राह्मण की यह तुलना मेरी समझ में नहीं आई, द्वारपाल! कृपया इस भेद को स्पष्ट
करें.”
“ बालक, दरबार में
बड़े-बड़े उत्कट विद्वान्-ब्राह्मण उपस्तिथ हैं. उनके सानिध्य में महाराज ग्यान
चर्चा का लाभ उठाते हैं ऐसे ज्ञानमय वातावरण में आपकी उपस्थिति विघ्न पहूचाएगी .”
“ द्वारपाल, क्या
ग्यान केवल बड़ी आयु का प्राणी ही प्राप्त कर सकता हैं. तुमने अवश्य बड़ी आयु के ऐसे
प्राणियों को देखा होगा, जो आजीवन मूढ़ता से मुक्त नहीं हो पाते. मै दरबार में
उपस्तिथ विद्वानों की भांति ज्ञानवान नहीं हूँ. किन्तु क्या मुझे उनसे ग्यान
प्राप्त करने का अधिकार नहीं हैं. कृपया मुझे भी उनके ग्यान से लाभान्वित होने
दें.”
दोनों दरबानों ने
एक दूसरे को देखा. वे असमंजस में थे कि बालक को अंदर प्रवेश देना उचित होगा कि
नहीं. दस बारह साल के इस बालक ने दरबार में जाकर कुछ बालसुलभ क्रिया की तो
विद्वानों की सभा में व्यवधान पहुचेगा. फिर यह बालक शरीर से विकलांग भी हैं. एक
दरबान ने कुछ बोलना चाहा किन्तु इससे पूर्व ही अष्टावक्र ने कहा...” मुझसे पूर्व यहाँ
एक बार व्यास पुत्र शुकदेव भी आये थे. वे मुमुक्ष थे और राजा जनक से तत्वज्ञान
प्राप्त करने आये थे. उनकी आयु भी उतनी थी, जितनी मेरी. राजा जनक ने शुकदेव को
तत्वज्ञान देना स्वीकार किया था. क्या आप मुझे ग्यान प्राप्ति से वंचित करेंगें?.”
दरबान ने
ध्यानपूर्वक अष्टावक्र को देखा. बालक के मुखमंडल पर विचित्र आभामंडल देदीप्यमान हो
रहा था. नेत्रों में ओज का आलोक था. उसके स्वर में आग्रह नहीं था. याचना भी नहीं
थी, बस केवल सहज सा प्रश्न था.
दरबान मानो
सम्मोहित सा हो गया. वह बालक को अंदर जाने से रोक नहीं सका. हाथ जोडकर बोला, “ आपका स्वागत है
ब्राह्मण देवता. आइए, मै आपको दरबार तक ले चलता हूँ.”
अष्टावक्र ने जैसे
ही दरबार में प्रवेश किया, वहाँ उपस्थित सभी लोगो की दृष्टी उनकी ओर उठ गई.
अष्टावक्र ने पलटकर किसी को नहीं देखा, वह चुपचाप आगे बढे. उनकी चाल देखकर दोनों ओर
बैठे राजदरबारी और विद्वजन अट्टहास करने लगे. सारा दरबार कहकहों से गूंज उठा.
अष्टावक्र इस सबसे
निष्प्रभावित राजा जनक के सन्मुख पहुंचे और हाथ जोडकर अभिवादन किया.
राजा जनक गंभीर
थे. उन्हें उपस्थित जनसमुदाय का यह आचरण पसंद नहीं आया. विकलांग पर हँसना सर्वथा अनुचित
और असभ्यता का आचरण था. कोई विकलांग उत्पन्न हो तो इसमें उसका क्या दोष? यह तो
प्रारब्ध का फल हैं, जिसे कोई भी भोगने को विवश हो सकता हैं. हंसी का पात्र तो वह
हैं, जो स्वयं अशुभ अभ्यासों को अंगीकार करता हैं.
उन्होंने बालक कि
ओर देखते हुए कहा, “आओ बालक! मै जान सकता हूँ कि यहाँ आने का तुम्हारा प्रोयजन क्या हैं?”
“ महाराज! मैंने
सुना था कि आपके दरबार में ग्यान में निष्णान्त अनेक उत्कट विद्वान ब्राह्मण हैं.
उन्हीं के दर्शन का लोभ-संवरण, मै नहीं कर पाया, अत: आपके दरबार में उपस्थित हुआ
हूँ.”
राजा जनक, बालक की
वाणी से चकित हो गये. वाणी में जरा भी रोष नहीं था, व्यंग नहीं और न ही अपमान की
व्यथा. उन्होंने दरवार में विद्वजनों को पारस्परिक तर्क-वितर्क करतें हुए सूना था.
वे एक दूसरे पर व्यंग बाण छोड़ते थे, अपमान से व्यथित होते थे और रोष से उनकी आँखे रक्तिम
हो जाती थी. किन्तु यह बालक इन सबसे अलग था. ऐसी तटस्थता तो बिरलो में ही पाई जाती
हैं. और फिर इसका चेहरा कितना ओजस्वी हैं. निर्विकार होते हुए नेत्र, आत्म आलोक से
दमक रहे थे.
वह गंभीर स्वर में
बोले, “बालक तुम्हारे
दोनों ओर विद्वान ही बैठे हैं.”
अष्टावक्र ने बारी
बारी से दोनों ओर देखा. सबकी दृष्टी उन्हीं पर टिकी हुई थी. सबके होठों पर
मुस्कराहट थी और आँखों में विद्रूपता. उचाट दृष्टी से उनको देखकर अष्टावक्र राजा
जनक से संबोधित हुए, “राजन! मुझें तो इनमें से कोई विद्वतजन दृष्टिगोचर नहीं होता. यहाँ तो चर्मकारों की सभा जुटी हुई हैं.”
अगले पल सारे
दरबार में सन्नाटा छा गया. सबके होठों से मुस्कराहट लुप्त हो गई और आँखों में रोष
उमड़ पड़ा. कौन हैं. यह धृष्ट बालक? यहाँ कैसे कैसे महान विचारक, विद्वान और ग्यानी
बैठे हुए हैं और यह मूढ़ बालक उन्हें चर्मकार बता रहा हैं.
दरबार में बंदी का
कुपित स्वर गूंजा, “ अरे धृष्ट, क्या तू नहीं जानता कि इस दरबार में केवल परीक्षित विद्वानों को ही प्रवेश की अनुमति प्राप्त हैं. तूने उन्हें चर्मकार कहकर
उनका घोर अपमान किया हैं. तुझे इसका दंड अवश्य मिलेंगा. महाराज..”
महाराज ने हाथ के
संकेत से बंदी को आगे बोलने से रोक दिया. वह बालक से बोले, “क्या तुम बता
सकोगे कि विद्वानों को तुमने चर्मकार कहकर क्यों सम्बोधित किया?”
अष्टावक्र ने
सहजता से उत्तर दिया, “राजन, इन तथा कथित विद्वानों ने स्वयं ही सिद्ध कर दिया कि
वे चर्म-पारखी हैं, विवेकशील विचारक और विद्वान नहीं.”
राजा जनक ने हत्भ्रम
बिना हुए पूछा, “ वह कैसे बालक?”
“जैसे ही मै दरबार
में प्रविष्ट हुआ, ग्यान चर्चा श्रवण के स्थान पर इनके ठहाकें, मेरे कानों में गूंजने
लगें, मैं समझ गया कि लोगो की यह धारणा मिथ्या हैं कि यहाँ विद्वान बैठते हैं. ये
मेरे शरीर की विकलांगता को परख रहे थे, मेरे शरीर का चर्म इनकी दृष्टि में
महत्वपूर्ण था. इसका अर्थ यह हुआ हैं कि इनकी दृष्टि में शरीर का वाह्य-स्वरूप
व्यक्ति के चरित्र को जांचने का एक मात्र माध्यम हैं, चाहे व्यक्ति का अंत:करण
शुद्ध हो अथवा अशुद्ध.”
कोई कुछ नहीं
बोला. बंदी कसमसा कर रह गया. अब भी उसका अंत:करण क्रोध और अपमान से दग्ध हो रहा
था.
राजा जनक की
दृष्टि एक बार दरबार में चारों ओर घूम गई, तदुपरांत उन्होंने बालक से पूंछा,” तुम्हारा तर्क
असंगत नहीं, बालक, क्या हम तुम्हारा परिचय जान सकते हैं?”
“ मै अकिंचन प्राणी
हूँ, राजन! मेरा परिचय महत्वपूर्ण नहीं. खेद हैं कि यहाँ आकर मुझे निराशा ही हाथ
लगी, मै ज्ञानचर्चा से वंचित ही रहा.”
“ ठहरो बालक, तुम
मुझे साधारण प्रतीत नहीं होते. आत्मविश्वाश से परिपूर्ण ऐसा बालक मैंने आज तक नहीं
देखा. हम तुम्हारा परिचय जानने को उत्सुक हैं.”
“ राजन, मै
वेदान्ताचार्य कहोड़ का पुत्र अष्टावक्र हूँ.”
एकाएक बंदी बोल
पड़ा, अब मै समझा, तूने हमारा अपमान क्यों किया? तू अपने पिता का प्रतिशोध लेने आया
हैं.”
अष्टावक्र ने उत्तर
दिया, “ नहीं महामने, ऐसा
न सोचे. प्रतिशोध कि वह सोचता है, जो किसी से विद्वेष रखता हो, मुझे किसी से
विद्वेष नहीं. मै आपसे अलग नहीं, आप मुझसे अलग नहीं. हम सभी एक ही आत्मा के
साक्ष्य-स्वरूप हैं, एक-दूसरे से आबद्ध और एकात्म. ऐसी स्तिथि में कौन हैं मेरा द्वेषी,
जिससे मै प्रतिशोध लेने की कल्पना करूँ?”
राजा जनक
ध्यानपूर्वक बालक को देख रहें थे और उसकी बात का अर्थ समझने का प्रयास कर रहे थे.
कितने उत्कृष्ट विचार थे. समस्त सृष्टि एक ही आत्मा का प्रकट स्वरूप है, कोई किसी
से प्रथक नहीं, सामूहिक में एकता. यह सामुदायिक भावना समाज में विकसित हो जाये तो
द्वेष, शत्रुता व इर्षा से विश्व मुक्त हो जाये. ठीक अष्टावक्र की भांति. राजा को
अब पता चला कि अष्टावक्र इतने सहज, निर्विकार और ओजश्वी क्यों हैं. जो द्वेष और
कटुता से मुक्त हो, वही ऐसी निरपेक्ष और निरंजन अवस्था को प्राप्त होता हैं.
बंदी बोला, “महाराज, इसके
विचार सर्वथा अतार्किक हैं. कौन नहीं जानता कि प्रत्येक व्यक्ति की अपनी स्वतंत्र सत्ता
हैं. प्रत्येक व्यक्ति में उसकी स्वतंत्र आत्मा व्याप्त हैं, जो मरणोपरांत शरीर से
निकल जाती हैं.”
अष्टावक्र बोले, “ व्यक्ति और आत्मा
की यह वेद-मीमांसा भ्रामक हैं.”
बंदी क्रुद्ध स्वर
में बोला, तू क्या जाने वेद के सम्बन्ध में? वेदाध्ययन में हमारी आयु व्यतीत हो
गई, तू तो अभी अज्ञानी बालक हैं.”
“महामने, आपने जन्म
लेने के बाद वेदाध्ययन आरंभ किया था, मैंने तो माता के गर्भ में ही वेद ग्यान
प्राप्त कर लिया था.”
“बहुत अहंकार है
तुझे अपने वेदज्ञान पर.”
“ नहीं महामने, मै
अकिंचन हूँ, मुझे कैसा अहंकार? मैंने मात्र यह स्वीकार किया था कि मै वेदज्ञान से
परिचित हूँ, किन्तु वेदज्ञान को ही अंतिम ग्यान नहीं समझता.”
“ महाराज, आप देख
रहे हैं इस बालक की धृष्टता. यह वेदों के अतिरिक्त अन्य ज्ञानों के अस्तित्व की
बात कर रहा है, जबकि वेदों में समस्त ग्यान निहित हैं. वेद हमें सृष्टि की
उत्पत्ति से परिचित कराते हैं, जीवन व्यवहार का पाठ पढ़ाते हैं. ऐसा क्या हैं, जो
वेद में नहीं हैं?”
“महामने, मै
पुन:निवेदन करना चाहूँगा कि वेदों में निहित ग्यान अंतिम ग्यान नहीं हैं. कोई भी
अंत सिद्ध नहीं होता, अत: कालानुसार सिद्धांत भी परिवर्तित होते रहते हैं. मात्र
वेदों को सर्वस्व मानने का अर्थ हैं, अपनी ही दुरुस्त दृष्टी को संकुचित करना.
महामने, विचार-जगत अनंत और असीम हैं, प्रत्येक कल का अनुभव उस विचार जगत को और
अधिक व्यापकता प्रदान करता हैं.”
“लगता है, तेरा
ग्यान भी अनंत और असीम हैं. यदि ऐसा है तो मुझसे शास्त्रार्थ कर?”
“यदि राजन अनुमति
दें तो मुझे कोई आपत्ति नहीं.”
राजा जनक बंदी और
अष्टावक्र का तर्क वितर्क ध्यान पूर्वक सुन रहे थे. अष्टावक्र के विचार उन्हें
असंगत प्रतीत नहीं हुए, हाँ, उनमें नवीनता अवश्य थी. उनके दरबार में वेदों को ही
केंद्र में रखकर ब्रम्ह चर्चा होती थी, जबकि बालक वेदोत्तर ग्यान की भी बात कर रहा
था. निस्संदेह उसके विचार सुनना, नए अनुभवो का साक्षात्कार करना था. उसके चेहरे में
ऐसी प्रखरता थी जिससे स्पस्ट था कि वह आत्मविश्वास से परिपूर्ण हैं. उसका बंदी से
शास्त्रार्थ निरापद होगा. इसके अतिरिक्त वह बालक के विचार सुनने को भी उत्सुक थे.
राजा जनक ने कहा, “बालक, यदि
शास्त्रार्थ की इच्छा हैं तो मुझें कोई आपति नहीं हैं.”
बंदी बोला, “बालक. शास्त्रार्थ
प्रारंभ करने से पूर्व तुझे ज्ञात होना चाहिये कि यदि तू पराजित हुआ तो तुझे
जल-समाधि लेनी होगी.”
“मुझे स्वीकार हैं,
महामने!”
अंतत:बंदी को
अष्टावक्र के ग्यान के सन्मुख नतशिर होना पड़ा. उसे प्रतीत हुआ कि सामने नन्हा बालक
नहीं, कोई विराट तत्वज्ञानी खड़ा हैं. उसने अपनी पराजय स्वीकार कर ली.
सारे दरबार में
मौन व्याप्त था. आज तक बंदी को कोई भी विद्वान परास्त नहीं कर सका था. वह अपनी
वाकपटुता से प्रतिद्वंदी को इतना दिग्भ्रमित करता था, कि विरोधी विचलित हो जाता
था, जबकि अष्टावक्र ने, न वाकपटुता का प्रदर्शन किया और न ही बंदी को दिग्भ्रमित
करने का प्रयास. बंदी द्वेत दर्शन में विश्वाश रखता था, किन्तु अष्टावक्र ने तर्क
सहित सिद्ध कर दिया कि द्वेत कुछ नहीं होता, समस्त चराचर मात्र अद्वेत है, एकात्म
हैं.
राजा जनक सहित
दरबार में उपस्थित समस्त जनों की दृष्टी अष्टावक्र और बंदी पर टिकी हुई थी.
बंदी ने हाथ जोडकर
अष्टावक्र से कहा, “मुझे अपनी पराजय स्वीकार करने में तनिक भी खेद नहीं हैं. निःसंदेह आप परम
ग्यानी हैं, आपने मेरे ग्यान-चक्षु खोल दिए, गुरुदेव.”
अष्टावक्र बोले, “ महामने, आप
शास्त्रार्थ के नियम तो नही भूले होंगें?”
“नहीं गुरुदेव, अब
मुझे मृत्यु से भय नहीं रहा. आपके माध्यम से मैंने सत्य का साक्षात्कार कर लिया कि
मै मात्र आत्मा स्वरुप हूँ. चेतनस्वरूप पंचतत्वों का समूह है, जो मिथ्या है,
अनित्य है. चेतनस्वरूप नहीं भी रहा तो मेरा आत्मरूप निरंतर अस्तित्व में रहेगा,
क्योकि आत्मा नित्य और शास्वत हैं. मै अवश्य जल-समाधि लूँगा.”
अष्टावक्र कुछ
बोले नहीं, मौन ही रहे. राजा जनक अथवा किसी को भी बंदी के जल समाधि लेने के निर्णय
से दुःख नहीं था, हर्ष इस बात का था कि उन्हें जीव-अजीव, आत्मा तथा परमात्मा से सम्बंधित
नए विचार जगत में विचरण करने का अवसर प्राप्त हुआ था. जल समाधि का नियम स्वम् बंदी
का बनाया हुआ था और राजा जनक भी इस नियम से सहमत थे. यह केवल राजा जनक ही जानते थे
कि इस नियम के प्रति उन्होंने सहमती क्यों दर्शायी थी.
बंदी ने राजा जनक
से कहा,” महाराज,
प्रसन्नता हैं कि मैं भ्रमों के साथ जल समाधिस्त होने नहीं जा रहा, सत्य की महान
थाती लेकर आपसे विदा हो रहा हूँ. मेरा अंतिम नमस्कार स्वीकार करें.”
राजा जनक के कुछ
बोलने के पूर्व ही अष्टावक्र का निर्विकार स्वर गूंजा, “महामने, जल
समाधिस्त होने की आवस्यकता नहीं. मै केवल यह जानना चाहता हूँ कि पराजित ब्राह्मणो
द्वारा जल समाधि लेने के क्रूर निर्णय के पीछे कारण क्या है?”
बंदी ने एक बार
राजा जनक की ओर देखा, तदुपरांत पहली बार उसके होठों पर हल्की सी मुस्कान छा गई,
बोले, “मुनिवर, मै
अहंकारी अवश्य था, किन्तु क्रूर कभी नहीं रहा. ब्राह्मणो को जल समाधि देना मेरी
विवशता थी.”
“विवशता ! यह कैसी
विवशता? हाँ, महामने! दूसरे के प्राण-हरण करना निःसंदेह क्रूरता हैं.”
अचानक राजा जनक का
स्वर गूंजा, “ हे ब्रम्हज्ञानी बालक, यदि इस नियम में क्रूरता की तनिक भी सम्भावना होती, तो
मै क्योंकर सहमती प्रदान करता. वस्तुत: किसी भी ब्राह्मण के प्राण हरण नहीं किए
गए. मै आपको संक्षेप में बताता हूँ कि ब्राह्मणो को जल समाधि देने के पीछे हमारी
क्या विवशता थी? सबसे पहिले मै आपको बंदी का परिचय दूँ. बंदी कोई और नहीं, स्वम्
वरुण पुत्र हैं और एक विशेष प्रयोजन से विभावरी पूरी से पृथ्वी पर अवतरित हुए हैं.
विभावरी में वरुण देव ने जब यज्ञ का आयोजन करने का निश्चय किया तो उन्हें अन्य
देवताओ ने परामर्श दिया कि यज्ञ के लिए पृथ्वी के प्रखर और तेजस्वी ब्राह्मणो को
लाया जाये. यह परामर्श वरुण देव को अच्छा लगा. किन्तु ब्राह्मणॉ को विभापुरी लाया
कैसे जाए? यह गुप्त यज्ञ था और विभापुरी नरेश नहीं चाहते थे कि पृथ्वी-वासिओ को
इसकी भनक भी लगे. अत: ब्राह्मणो को वहाँ भेजने का दायित्व बंदी को सौपा गया. बंदी
मेरे पास आये और वरुण देव की इच्छा से
मुझे अवगत कराया. मैंने इनसे पुछा कि पृथ्वी के ब्राह्मणो को आप वरुणनगरी कैसे ले
जायेंगे? बंदी ने उत्तर दिया था कि जब तक यज्ञ संपन्न नही हो जाता, तब तक हम इसे
गुप्त ही रखना चाहते हैं. अत: ब्राह्मणो को यज्ञ आयोजन की पूर्व सूचना देकर चलने
का निमंत्रण देना अभीष्ट नहीं होगा. बंदी ने निवेदन किया कि यदि मै इनकी योजना में
सहयोग दूँ तो वह अपने लक्ष्य में सफल हो सकते हैं. मैंने पूर्ण सहयोग देने का वचन
दिया. हम दोनों में यह गुप्त संधि हुई कि बंदी विद्वान् ब्राह्मणो से शास्त्रार्थ
करेंगे और उन्हें परास्त करके जल समाधि लेने के लिए बाध्य करेंगे. इस प्रकार जल
समाधिस्त ब्राह्मण विभापुरी में पहुचेगें और वरुण के यज्ञ का सफलतापूर्वक आयोजन
करेंगे.
“हे ब्रम्हज्ञानी
बालक, वस्तुत कोई भी ब्राह्मण मृत्यु को प्राप्त नहीं हुआ हैं, वे सभी जीवित हैं.
यज्ञ संपन्न होते ही समस्त ब्राह्मण पृथ्वी पर अवतरित हो जायेंगे.”
अष्टावक्र बोले, :
मै संतुष्ट हुआ, राजन!
बंदी बोला, “मुनिवर, विभापुरी
में यज्ञ संपन्न हो चुका है, अत:अब उसे गुप्त रखने का कोई औचित्य नहीं हैं. वरुणदेव
पृथ्वी के ब्राह्मणो का यथा योग्य आदर सत्कार करने के बाद उन्हे शीघ्र ही पृथ्वी
पर जाने की अनुमति दे देंगे. राजन, यहाँ आने का मेरा लक्ष सिद्ध हो चुका है, अत:
मेरे यहाँ रुकने का कोई प्रोयजन नहीं रहा. मै, यज्ञ के अंतिम क्षणो में पिता के
साथ ही रहना चाहूँगा. मुझे आज्ञा दें, मैं जल समाधि लेने जा रहा हूँ.”
दरबार की सभा
संपन्न होने के पश्चात जब अष्टावक्र ने जाने कि अनुमति मांगी तो जनक बोले..”हे विप्रवर, मै
ग्यान पिपासु हूँ, मुझे आप पर परम आस्था हैं. मैं आपका अधिक समय नहीं लेना
चाहूँगा. क्या आप मुझे दो चार दिन तक आत्मज्ञान देने कि कृपा करेंगे?”
अष्टावक्र को
स्पष्ट प्रतीत हो रहा था कि राजा जनक परम मुमुक्षु हैं. ग्यान के किसी भी
स्त्रोत्र का लाभ उठाना ही एकमात्र लक्ष्य हैं.
अष्टावक्र बोले, “ दो-चार दिन तो
बहुत होते हैं राजन, यदि आप सुपात्र हुए तो आप उतनी ही देर में ग्यान संपन्न हो
सकते हैं, जितनी देर में ऐड पर पैर रखकर घोड़े की पीठ पर बैठा जा सकता हैं.”
“मेरा अहोभाग्य
विप्रदेव, जो आप जैसे ज्ञानी का सानिध्य प्राप्त हुआ.”
(अष्टावक्र और
राजा जनक का जो संवाद आगे चलकर हुआ, वह अष्टावक्र गीता के नाम से प्रसिद्ध हुआ.)
कहोड़ जब विभापुरी
से आश्रम पहुचे तो उनके हृदय में पश्चताप की ग्लानी थी. उन्हें स्पष्ट आभास था कि
पुत्र को विकलांगता का अभिशाप देकर उन्होंने महापाप किया हैं. उन्हें यह समाचार
मिल चुका था कि उनके पुत्र के ग्यान से अभिभूत होकर राजा जनक ने उनका शिष्यत्व
ग्रहण किया हैं. आश्रम आते ही कहोड़, अपने पुत्र को लेकर समंदा नदी की ओर चल पड़े.
समंदा नदी में डुबकी लगाते ही अष्टावक्र पुन: सामान्य शरीर वाले हो गये किन्तु
आत्मज्ञानी अष्टावक्र सामान्य देह और विकलांग देह के भेद से मुक्त थे.
॰॰॰॰
राजा जनक के बारे
में...
कथा में आये राजा
जनक रामायण कालीन राजा जनक (सीता जी के पिता) नहीं हैं.
मिथिला प्रदेश में
राज करने वाले कुल उन्नीस राजा जनक हुए हैं. तब मिथिला नरेश, जनक ही कहलाते थे.
उन्हें विदेही माना जाता था, क्योकि उनका पूर्वज योनिज नहीं था. यह तब की बात है,
जब यह क्षेत्र मिथिला प्रदेश के नाम से नहीं जाना जाता था और निमि यहाँ के नरेश
थे. एक बार उन्होंने यज्ञ का आयोजन किया तथा ऋषि वशिष्ट से यज्ञ संपन्न करने का
अनुरोध किया. ऋषि वशिष्ट ने कहा, “ इस समय मै किसी अन्य का यज्ञ संपन्न करने जा रहा हूँ, उसके
पश्चात मै आपके यज्ञ में भाग ले सकूँगा.” इतना कहकर ऋषि वशिष्ट चले गए. राजा निमि, यज्ञ में विलम्ब
नहीं करना कहते थे. अत: उन्होंने अन्य विप्रों के सहयोग से यज्ञारंभ कर दिया. जब
यज्ञ समापन की ओर था तभी ऋषि वशिष्ट का यज्ञ स्थल पर आगमन हुआ. उन्हें यह देखकर
बड़ा क्रोध आया कि राजा निमि उनकी प्रतिक्षा न कर सकें और यज्ञ आरंभ करवा दिया.
उन्होंने कुपित होकर निमि को मृत्यु का श्राप दिया.
राजा निमि के
देहांत से यज्ञ सम्पन्न करवा रहे विप्र दुविधा में पड़ गए. यज्ञ को अधुरा छोड़ना
अशुभ था और निमि के बिना उसे कोई संपन्न नहीं करवा सकता था. यज्ञाहुतियाँ
लेने के लिए स्वम्
देवता भी वहाँ उपस्तिथ थे. विप्रों ने उनसे विनती कि, “ हे देवताओ! किसी
उपाय से राजा निमि को जीवित करें, यज्ञ अधूरा रह गया तो अनर्थ हो जायेगा.”
देवताओ ने राजा
निमि की आत्मा का आवाहन किया. आत्मा आई तो, देवताओ ने उससे राजा निमि के मृत देह
में प्रवेश करने का आग्रह किया किन्तु सर्वत्र व्याप्त, मुक्त और स्वच्छन्द आत्मा
देह में प्रविष्ट होकर क्यों स्वम् को सीमित करती? उसने देवताओं का आग्रह ठुकरा
दिया.
किन्तु राजा निमि
का पुनर्जन्म आवश्यक था. अत: देवताओ ने उसकी मृत देह का मंथन किया. परिणामस्वरूप उनकी
देह से एक शिशु अवतरित हुआ, जो नगर नरेश बना और यज्ञ को संपन्न कराया.
तब से उस नगर का
नाम मिथिला पड़ा क्योंकि राजा निमि की देह को मिथिल (मंथन) करने के उपरांत उनका अंश
पुनर्जीवित होकर अवतरित हुआ था. उसी समय से मिथिला के नरेश ‘जनक’ कहलाने लगे. जनक
की परम्परा में जितने भी नरेशों ने मिथिला में राज किया, वे सभी मुमुक्षु और
ज्ञानाग्रही थे.
(उपरोक्त
अंश अष्टावक्र गीता नामक ग्रन्थ से लिया गया हैं)
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