प्रेम का
भगवान्.
(स्वामी
विवेकानन्दजी)
वास्तव में सम्राट् की प्रार्थना प्रेम की भाषा में नहीं थी। यदि भगवान् से ऐसी प्रार्थना की जा सकती हो तो फिर प्रेम और दुकानदारी में भेद ही क्या रह जायगा? अतएव प्रेम का सर्वप्रथम यही लक्षण है कि, उसमें क्रय-विक्रय नहीं है - प्रेम तो सदा दिया ही करता है, वह कभी लेता नहीं; - प्रेम दाता है, गृहीता नहीं है। भगवान् का भक्त कहता है कि ‘भगवान् चाहें तो मैं अपना सर्वस्व उसके अर्पण कर सकता हूं, परन्तु उससे मैं कुछ भी लेना नहीं चाहता। इस जगत् की कोई भी वस्तु मुझे नहीं चाहिये। उससे किये बिना रहा नहीं जाता, इसीलिये प्रेम करता हूं; इस प्रेम के परिवर्तन में उससे किसी प्रकार की कृपा-भिक्षा नहीं चाहता। ईश्वर सर्वशक्तिमान है, या नहीं, यह जानने की मुझे कोई आवश्यकता नहीं; कारण, मैं न तो उससे कोई शक्ति चाहता हूं और न उसकी किसी शक्ति का विकास ही देखना चाहता हूं, वह मेरे प्रेम का भगवान् है। बस, इतना ही जान लेना मेरे लिये बहुत है। इसके अतिरिक्त मैं और कुछ भी नहीं जानना चाहता।
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