प्रेम का भगवान्‌.


प्रेम का भगवान्‌.
(स्वामी विवेकानन्दजी)

एक बादशाह जंगल में शिकार खेलने गया, वहां उसे एक साधु मिले। कुछ समय तक साधु का संग करने पर बादशाह को बड़ी प्रसन्नता हुई, और उसने साधु को कुछ देना चाहा। साधु ने कहा, ‘नहीं, मैं अपनी स्थिति में पूर्ण रूप से सन्तुष्ट हूं। खाने के लिये ये वृक्ष मुझे यथेष्ट फल दे देते हैं, ये रमणीय पवित्र सलिला नदियां मुझे आवश्यकतानुसार जल प्रदान करती हैं, और सोने के लिये तो पहाड़ों की गुफाएं बनी ही हैं। तुम राजा हो या सम्राट्‌, मुझे तुमसे कुछ भी लेना नहीं है।’ सम्राट्‌ ने कहा, ‘स्वामीजी! मुझे पवित्र करने और मेरा जीवन सफल करने के लिये ही कुछ लीजिये और कृपापूर्वक एक बार मेरी राजधानी में पदार्पण कीजिये।’ बहुत दबाव पर साधु ने सम्राट्‌ के साथ उसके नगर में जाना स्वीकार कर लिया। साधु बादशाह के महल में पहुंचा, वहां चारों ओर हीरे-पन्ने मोती-माणिक आदि जवाहिरात और सोने, चाँदी के पदार्थ पड़े थे, सभी ओर ऐश्वर्य और वैभव के चिन्ह दिखायी देते थे। वहां पहुंचने पर सम्राट्‌ ने साधु से कहा, ‘महाराज! आप तनिक विश्राम कीजिये, इतने में, मैं प्रार्थना कर लेता हूं’ यह कह बादशाह एक कोने में जाकर दीन वाणी से इस प्रकार प्रार्थना करने लगा,-‘प्रभो! मुझे और भी अधिक ऐश्वर्य, और भी अधिक सन्तान तथा और भी राज्य प्रदान कीजिये।’ इतना सुनते ही साधु उठकर जाने लगे। बादशाह ने पीछे दौड़कर मूछा, ‘महाराज! कहां जा रहे हैं, मेरी सेवा स्वीकार किये बिना ही कैसे लौट रहे हैं?’ साधु ने बादशाह की ओर मुख फिराकर कहा, ‘भिखारी! मैं तुझ भिखारी से भीख नहीं माँगता, तू मुझे क्या दे सकता है, तू तो स्वयं ही भीख माँगता है?’

वास्तव में सम्राट्‌ की प्रार्थना प्रेम की भाषा में नहीं थी। यदि भगवान्‌ से ऐसी प्रार्थना की जा सकती हो तो फिर प्रेम और दुकानदारी में भेद ही क्या रह जायगा? अतएव प्रेम का सर्वप्रथम यही लक्षण है कि, उसमें क्रय-विक्रय नहीं है - प्रेम तो सदा दिया ही करता है, वह कभी लेता नहीं; - प्रेम दाता है, गृहीता नहीं है। भगवान्‌ का भक्त कहता है कि ‘भगवान्‌ चाहें तो मैं अपना सर्वस्व उसके अर्पण कर सकता हूं, परन्तु उससे मैं कुछ भी लेना नहीं चाहता। इस जगत्‌ की कोई भी वस्तु मुझे नहीं चाहिये। उससे किये बिना रहा नहीं जाता, इसीलिये प्रेम करता हूं; इस प्रेम के परिवर्तन में उससे किसी प्रकार की कृपा-भिक्षा नहीं चाहता। ईश्‍वर सर्वशक्तिमान‌ है, या नहीं, यह जानने की मुझे कोई आवश्यकता नहीं; कारण, मैं न तो उससे कोई शक्ति चाहता हूं और न उसकी किसी शक्ति का विकास ही देखना चाहता हूं, वह मेरे प्रेम का भगवान्‌ है। बस, इतना ही जान लेना मेरे लिये बहुत है। इसके अतिरिक्त मैं और कुछ भी नहीं जानना चाहता।




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