देशभक्ति में धर्म.
सच्चा तप वह है, जो कि अपने भाइयों के ताप से तपा जाए, सच्चा यज्ञ वह हैं, जिसमें अपने स्वार्थ की आहुति दी जाए, सच्चा दान वह है, जिसमें कि परमार्थ किया जाए और सच्ची ईश्वर सेवा वह है कि उससे दुखी जीवों की सहायता की जाए। परमात्मा सब के हृदय में व्यापक हैं, इसलिये जितने प्राणियों को हम प्रसन्न करें,उतने ही गुना ईश्वर को प्रसन्न करेंगे।
यह सच्चा धर्म, देश-भक्ति द्वारा प्राप्य है। देश-भक्ति का संचार हमारे हृदय से स्वार्थ को निकाल कर फेंक देगा। हम अदूरदर्शी, स्वार्थी और खुशामदियों की तरह ऐसे कार्य कदापि न करेंगे, जिनसे कि देशवासियों को हानि पहुँचे, बल्कि दूरदर्शी, परमार्थी, सत्यशील और दृढ़ताप्रिय आत्माओं की भाँति असंख्य कष्ट उठाते हुये भी करेंगे-वही, जिसमें देश का भला हो। निर्धन, धनवान, बलवान और मूर्ख भी बुद्धिमान हो जाए, प्रत्येक प्रकार के सामाजिक दुख मिटें और दुर्भिक्ष आदि आपत्तियाँ दूर होकर लाखों बिलबिलाती हुई आत्माओं को सुख पहुँचे। देश भक्ति द्वारा इतने धर्मों का सम्पादन होता हुआ देख कर भी यदि कोई धर्म के आगे, देश-भक्ति कुछ नहीं समझता, उस पुरुष को जान लीजिये कि वह धर्म तत्व ही को नहीं पहचानता। ‘धर्म धर्म’ शब्द गा रहा है, परन्तु यह नहीं जानता कि धर्म क्या वस्तु है। यदि आप विद्वान् हैं, बलवान हैं और धनवान हैं तो आपका धर्म यह है कि अपनी विद्या, धन और बल को देश की सेवा में लगाओ, उनकी सहायता करो जो कि तुम्हारी सहायता के भूखे हैं। उनको योग्य बनाओ जो कि अन्यथा अयोग्य ही बने रहेंगे। जो ऐसा नहीं करते वे अपनी योग्यता का उचित प्रयोग नहीं करते और ईश्वर की सौंपी हुई अमानत में विश्वासघात करते हैं, जो कि एक अधर्म है और जिसका बुरा फल मिले बिना रह नहीं सकता।
(अखंड
ज्योति-8/1944)
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