हृदयगुहा में होते हैं- परमात्मा के दर्शन.


हृदयगुहा में होते हैं-
परमात्मा के दर्शन.

मानवी कार्य संरचना का सबसे महत्वपूर्ण घटक हृदय है। भौतिक-विदों एवं अध्यात्मवेत्ताओं ने इसकी श्रेष्ठता को अपने-अपने ढंग से माना और उसे क्रमशः शरीर एवं आत्मा का, परमात्मा का, केन्द्र स्थल निरूपित किया है। शरीर शास्त्रियों के अनुसार भौतिक दृष्टि से हृदय सीने में बाईं ओर नाशपाती जैसे आकार की साढ़े तीन ग्राम की एक छोटी सी माँसल संरचना है जो अपने रचना प्रयोजन के अनुसार समस्त शरीर को धमनियों और छोटी नलिकाओं द्वारा रक्त फेंकती और अशुद्ध रक्त को खींचती रहती है। इसकी हर धड़कन उस स्थान पर हाथ रखकर आसानी से पहचानी जा सकती है। इसी पर रक्तचाप की न्यूनाधिकता का प्रभाव पड़ता है और क्रियाकलाप थोड़ी देर के लिए रुकते ही प्राणान्त हो जाता है।

अध्यात्म क्षेत्र का हृदय भौतिक हृदय से भिन्न है। तत्वदर्शियों ने इसे “गुफा” कहा है। शतपथ ब्रा॰ 11-2-6-5 का सूत्र “तस्त्दिदं गुहेव हृदयम्” अर्थात् यह हृदय ही गुफा है, इसी तथ्य की पुष्टि करता है। अन्धकार से प्रकाश की ओर, असत् से सत् की ओर, और मृत्यु से अमृत की ओर जाने का मार्ग अन्तर्मुखी होकर इस दिव्य गुफा में प्रवेश करने पर ही प्राप्त होता है। षटचक्रों में इसे अनाहत चक्र का क्षेत्र माना गया है। इसे भौतिक हृदय की सीध में तनिक पीछे हटकर अपनी स्वतंत्र सत्ता बनाये रहने वाला माना गया है। संक्षेप में यही अन्तराल या अन्तःकरण है - आदर्शवादी भाव संवेदनाओं का केन्द्र। रक्त संचार करने वाली ग्रंथि संरचना से यह सर्वथा भिन्न है। हिम्मत, साहस, बहादुरी, आत्मीयता, करुणा, उदारता, ममता आदि के संदर्भ में भी उसी आत्मिक हृदय का उल्लेख किया जाता है। इसी हृदय गुफा में एक ऐसी शक्ति काम करती है। जो सन्मार्ग पर चलने से प्रसन्न सन्तुष्ट हुई दिखाई पड़ती है और कुपंथ अपनाने पर खिन्नता, उद्विग्नता का अनुभव करती है। अन्तरात्मा की इसी परत में ईश्वरीय सत्ता को झाँकता हुआ देखा जा सकता है।

मनीषियों के अनुसार मस्तिष्क में मात्र कल्पना और सूझ बूझ उठती है, पर वह उपलब्ध ज्ञान और मन्थन से उत्पन्न हुए मन्थन द्वारा ही उत्पन्न होती है। दिव्य प्रेरणाएँ हृदय देश से ही उभरती हैं। ईश्वरीय सन्देश वहीं मिलते हैं और वहीं से अविज्ञात प्रकृति रहस्यों की जानकारियाँ हस्तगत होती हैं। जिन वैज्ञानिकों ने अद्भुत आविष्कार किये हैं, उनसे जब पूछा गया कि ऐसा अनोखा विचार आपको कैसे हस्तगत हुआ तो उनमें से प्रत्येक ने यही कहा कि यह भीतर से उभरा। भीतर शब्द से उनका तात्पर्य मस्तिष्क से नहीं वरन् अन्तराल में उभरने से है। यद्यपि दोनों परस्पर सम्बद्ध हैं। यही वह क्षेत्र है, जहाँ अतीन्द्रिय शक्तियों का भण्डार है। बुद्धि क्षेत्र से बाहर की कितनी ही बातें कभी-कभी ऐसी सूझ पड़ती हैं जो विलक्षण होती हैं, पर परीक्षा की कसौटी पर वे सही उतरती हैं। ऋद्धि-सिद्धियों का क्षेत्र यही माना गया है। जिस किसी का यह क्षेत्र लग पड़ता है या जो व्यक्ति हृदय गुफा में प्रवेश पा लेता है उसे अविज्ञान भी - भूत और भविष्य भी उसी प्रकार दृष्टिगोचर होता है मानो उसकी प्रत्यक्ष जानकारी उन्हें पहले से हो रही है।

मनोविज्ञानी - परामनोविज्ञानी जिसे सुपर-चेतन कहते हैं और जिसकी संगति अलौकिक आभासों के साथ जोड़ते हैं वह मस्तिष्क का नहीं वरन् अंतःकरण का हृदय का क्षेत्र है। मानसिक संरचना में चेतन और अचेतन के दो ही पक्ष हैं। मस्तिष्कीय संरचना का दो भागों में विभाजन हुआ है। अतः उसका कार्य क्षेत्र ज्ञानवान् सचेतन और स्वसंचालित अचेतन के साथ ही जुड़ता है जिस अविज्ञात कहा गया है, जिसे सुपर चेतन भी कहते हैं वह मनीषियों के अनुसार हृदय गुफा - हिरण्यमय कोश ही है।

उसे किन्हीं ग्रंथों में सूर्य चक्र भी कहा गया है। जिस प्रकार सूर्य का प्रकाश उदय होने पर अन्धकार तिरोहित हो जाता है और प्रत्येक वस्तु प्रत्यक्ष दीख पड़ती है उसी प्रकार इस कोश में प्रकाशित दिव्य ज्योति की छत्रछाया में व्यक्ति अपना स्वरूप, लक्ष्य और कर्तव्य भी देख सकता है। अभीष्ट वस्तु की उपलब्धि अपने भीतर अंतःकरण में ही होती है। तप करने से लेकर ईश्वर दर्शन करने तक प्रयोजन पूर्ण करने के लिए हृदय गुफा रूपी तीर्थ को, तपोवन को, ही एकमात्र उपयुक्त स्थान माना गया है। ब्रह्मोपनिषद्-4-5 के अनुसार हृदय में समस्त देवता निवास करते हैं। हृदय में ही प्राण और प्रकाश है। शंख संहिता का कथन है-हृदय देश में परम ज्योति प्रकाशवान है। जीवात्मा का आश्रय स्थल यही है। उसी हृदय देश में अँगूठे के अग्र भाग के बराबर आकार में जलती ज्योति के रूप में कठोपनिषद् का ऋषि उसका दर्शन करता है।

नाद्बिंदूपनिषद् के ऋषि इसी हृदय क्षेत्र में अंगुष्ठ मात्र उस परम ज्योति का ध्यान करने का निर्देश करते हैं। गीता 15-10 के अनुसार प्रयास करने पर योगी जन अपने हृदय क्षेत्र में स्थित आत्मतत्व को खोज निकालते हैं पर जिनका हृदय शुद्ध नहीं है, भावनाएँ दूषित हैं वे प्रयत्न करने पर भी इस आत्मा को नहीं जान पाते। अन्तःकरण की पवित्रता आत्मविद होने की अनिवार्य शर्त है।

हृदय क्षेत्र अन्तराल को दिव्य लोक भी कहते हैं। प्रख्यात ग्रीक दार्शनिक प्लेटो के अनुसार मनुष्य की आत्मा ईश्वर से सीधे प्रकट होकर इसी दिव्य लोक में प्रवेश करती और स्थूल शरीर से जुड़ती है। उनका कहना है कि जीवात्मा का धरती पर जब सर्वप्रथम अवतरण होता है तो वह दिव्य सूक्ष्म शरीर वायवीय शरीर रूप में अवतरित होकर स्थूल देह में प्रवेश करता है। यह सूक्ष्म शरीर आत्मा का पारलौकिक वाहन कहा जाता है। ईश्वर, जो चराचर जगत को केन्द्र है, उसी के आदेश से जीवात्मा मनुष्य के हृदय गुफा में प्रवेश करता और अपने पारलौकिक वाहन-अर्थात् सूक्ष्म शरीर के माध्यम से स्थूल काया से जुड़ता है, उसे नियंत्रित-संचालित करता है।

हृदयस्थ आत्मा को परमात्मा से मिलने की इच्छा करती है। मनुष्य आन्तरिक शान्ति के लिए उसे जहाँ-तहाँ जिस-तिस निर्जीव जड़ पदार्थों-साधनों में ढूंढ़ता भी रहता है, पर हस्तगत कुछ नहीं होता। व्यक्तियों का परिचय भी शरीर रूप में हो पाता है। वे कभी रुष्ट या पृथक् भी हो सकते हैं, होते रहते हैं। ऐसी दशा में अभीष्ट लक्ष्य की पूर्ति नहीं हो पाती और न जिनकी तलाश है, वह परमात्मा ही मिल पाता है।

सर्वव्यापी होते हुए भी ईश्वर को किसी ऐसे स्थान पर जब नहीं पाया जा सकता तो फिर उसका मिलन कहाँ संभव हो? इस समस्या को सुलझाते हुए तत्वदर्शियों ने कहा है ऐसा स्थान केवल अपना हृदय है जहाँ आत्मा का परमात्मा से साक्षात्कार होता है। यही दिव्य गुफा है, मन्दिर है जहाँ सूक्ष्म रूप में परम ज्योति के दर्शन होते हैं कठोपनिषद् में ऋषि ने उसे “अणोरणीयान् महतो महीयान्” कहा है और उसका निवास जीव की हृदयरूपी गुफा में बताया है। गीता (10-20, 13-17, 15-15, 19-61) में भगवान कहते हैं - “ईश्वर सब प्राणियों के हृदय देश में रहता है उसी का अनुग्रह प्राप्त करने से परम शान्ति का अनुभव होता है।” व्यास भाष्य में उल्लेख है, उस परमेश्वर को देवालयों, सरिताओं तीर्थों, वनों में, पर्वतों में कहीं भी ढूँढ़ते रहा जाय, पर जब वह मिलेगा तो हृदय गुफा ही उसका सुस्थिर स्थान दृष्टिगोचर होगा। जो वहाँ उसे ढूंढ़ता है, तृप्त होकर रहता है।

अन्याय शास्त्रकारों, आप्त पुरुषों ने भी इसी पुष्टि की है। योगवाशिष्ठ का कथन है - जो हृदय गुफा में निवास करने वाले भगवान को छोड़कर अन्यत्र ढूँढ़ता फिरता है वह हाथ की कौस्तुभमणि की उपेक्षा करके जहाँ-तहाँ काँच के टुकड़े बीनते फिरने वाले के समान है।

कस्तूरी होती मृग की अपनी नाभि में ही है पर उस सुगंध को वह जहाँ तहाँ ढूँढ़ता फिरता है। यही स्थिति मनुष्य की है। परमात्मा उसके अपने अन्तःकरण में बैठा है पर वह उसे बाह्य जगत में खोजता फिरता है। तत्ववेत्ता उस अविनाशी परमेश्वर को अपनी आत्म गुहा में ही पाता और कृतकृत्य होता है। मुण्डकोपनिषद् में कहा गया है-”इस सम्पूर्ण जगत को बनाने वाला और सब में समाया हुआ परमेश्वर ढूँढ़ने पर हृदय गुफा में ही विराजमान मिलता है। वह प्रकाश स्वरूप है, जो उसे देखता है, वह उसी में विलीन होकर रहता है। परन्तु जो लोग इस तथ्य को नहीं जानते उनकी गणना शास्त्रकार अन्धों में करते हैं।”

श्वेताश्वतर उपनिषद् में उल्लेख है-”जो सूक्ष्म से भी सूक्ष्म हृदय प्रदेश में प्रवेश करके विद्यमान महेश्वर को नहीं नहीं देख जाता, वह अन्धे के समान है।” ऐसे लोगों को न तो ईश्वर साक्षात्कार का सुयोग मिलता है और न चिरस्थाई सुख शान्ति ही उपलब्ध होती है। वे जहाँ तहाँ भटकते रहते हैं।

जाबाल्युपनिषद् का कथन है कि परमेश्वर को हृदय देश में ढूंढो। अन्यत्र मत भटको। वह प्रकाश रूप में आपके भीतर ही ज्वलंत है।

ज्ञान विज्ञान के उद्गम केन्द्र अन्तःकरण में स्थित परब्रह्म को जो हृदय में देखता और उनका सान्निध्य अपनाता है, वह तद्रूप हो जाता है, ऐसा तैत्तरीय उपनिषद् का कथन है। इसी की पुष्टि महापनिषद्, योगकुंडल्युपनिषद् आदि ग्रंथों में की गई है और कहा गया है कि अंगुष्ठ आकृति की प्रकाश ज्योति हृदय देश में सदा जलती रहती है। उसी के फैले हुए प्रकाश में ध्यान करने वाला साधक अपने अभीष्ट को प्राप्त कर लेता है।

उपरोक्त तथ्यों को ध्यान में रखते हुए ही हृदय क्षेत्र को अध्यात्म शास्त्रों में अत्यधिक महत्ता दी गई है और उसे निर्मल-पवित्र बनाये रखने पर जोर दिया गया है। महात्मा बुद्ध ने तो अंतःकरण की पवित्रता के लिए करुणा, मैत्री, मुदिता और उपेक्षा जैसे चार ब्रह्मविहार अपने शिष्यों के लिए अनिवार्य विधान बताये थे। महर्षि पतंजलि ने यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार आदि पाँच चरणों की व्यवस्था पहले बनायी जिससे साधक अपने अन्तराल को उसमें सन्निहित भाव-संवेदनाओं को पवित्र एवं उत्कृष्ट बना सके। इसके बिना आत्म साक्षात्कार अथवा ईश्वर दर्शन संभव नहीं।

ताओ धर्म के प्रणेता मनीषी लाओत्से कहते हैं, “मनुष्य अपने पथ को अविकारी बनाए, अशुद्धता से बाहर निकल आए तो फिर स्वतः ही आत्म-साक्षात्कार हो जाता है, जो वस्तुतः ईश्वर दर्शन ही है। वे कहते हैं कि ईश्वर असीम है, अनन्त है, रोम रोम में समाया हुआ है। हम मात्र उसकी अनुभूति अपने हृदय स्थल में कर सकते हैं, उसे कोई नाम नहीं दे सकते। इसीलिये वह सनातन होने के साथ साथ अविकारी भी है।”

अतीन्द्रिय क्षमताएँ प्रतिभा, कुशलता, विशिष्टता बाहर से नहीं उतरती भीतर से ही उभरती हैं। ये आत्मसाक्षात्कार की ही चमत्कारी फल श्रुतियाँ हैं। प्रसुप्त रूप में उन समस्त संभावनाओं के बीज इसी हृदय प्रदेश में प्रसुप्त स्तर पर पड़ हुए हैं। उसमें प्रवेश पाकर जो जिस मात्रा में उन्हें जगा लेते हैं वे उसी अनुपात में देवात्मा होने का गौरव प्राप्त करते हैं।

(अखंड ज्योति-1/1989)


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