सांख्य दर्शन.-तत्व


सांख्य र्शन-तत्व.

तत्त्वसमास सांख्यदर्शन – दुखों की निवृत्ति का साधन तत्त्वों का यथार्थ ज्ञान हैं। दुःख की जड़ अज्ञान हैं। जितना अधिक ज्ञान होगा, उतना ही अधिक दुःख कम होगा। जितना कम ज्ञान होगा, उतना ही दुःख अधिक होगा। जिस तत्त्व का जितना यथार्थ ज्ञान होता जाएगा, उससे उतनी ही दुख निवृत्तिरूप सुख की प्राप्ति होती जायेगी। जब सारे तत्वों से यथार्थ ज्ञान हो जाएगा, तो सारे तत्त्वों से अभय रूप सुख का लाभ होगा। अतः सारे तत्त्वों का यथार्थ ज्ञान ही सारे दुखों की जड़ काटना हैं। तत्त्वों का संक्षेप में वर्णन निम्नानुसार हैं

१. जडतत्त्व – दुख निवृत्ति की इच्छा करने वाले से भिन्न, उससे विपरीत धर्म वाला कोई दूसरा तत्त्व है, जिसका स्वाभाविक धर्म दुःख और जड़ता है।

चौबीस जड-तत्त्वों के प्रथम दो भेद प्रकृति और विकृति है, उनमे से आठ प्रकृतियाँ है, और सोलह विकृतियां हैं।

आठ प्रकीर्तियों में प्रधान (मूल प्रकृति), महत्तत्त्व, अहंकार और पांच तन्मात्राएँ – शब्द – तन्मात्रा, स्पर्श – तन्मात्रा, रूप तन्मात्रा, रस – तन्मात्रा और गंध – तन्मात्रा।

सोलह विकृतियाँ है – पांच स्थूल-भूत आकाश, वायु, अग्नि, जल, और पृथ्वी और ग्यारह इन्द्रियाँ जिनमे पांच ज्ञानेन्द्रियाँ श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना और घ्राण तथा पांच कर्मेन्द्रियाँ – वाणी, हस्त, पाद, उपस्थ और गुदा एवं ग्यारहवाँ- मन।

जो किसी नए तत्त्व के उत्त्पत्ति का कारण हो, उसको प्रकृति कहते है, और जिसके आगे कोई नया तत्त्व उत्पन्न न हो, उसको विकृत्ति कहते है।

२. चेतन-तत्त्व (पुरुष) – पच्चीसवाँ चेतनतत्त्व पुरुष है, जो तीन अर्थों का बोधक है।

(१) चेतन-तत्त्व - व्यष्टि (पिण्ड) - शरीरों से मिश्रित।

(२) चेतन- तत्त्व - (ब्रह्माण्ड) समष्टि जगत से मिश्रित।

(३) शुद्ध चेतन-तत्त्व - जडतत्त्व से निखरा हुआ केवल शुद्ध ज्ञानस्वरूप।

३. प्रकृति के तीन गुण – चौबीसों जडतत्त्व तीन गुणों यथा सत्त्व, रजस और तमस हैं।

सत्त्व का स्वभाव प्रकाश, रजस का क्रिया और तमस की स्थिति है। 


जो वस्तु स्थिर है (उसमे तमस प्रधान होता है, रजस और सत्त्व गौण रूप में रहते है), उसमे क्रिया उत्पन्न होती हो जाती है (तो उसमे रजस प्रधान होता है, सत्त्व और तमस गौण रूप में होता है)


वेगवाली क्रिया के पीछे उसमे प्रकाश प्रकट हो जाता है (तो उसमे सत्त्व प्रधान होता है, रजस और तमस गौण रूप में होता है), जो प्रकाशवाली है, वह समयान्तर में प्रकाशहीन हो जाती है औरअंत में क्रियाहीन भी हो जाती है। 


ये तीनो स्वभाव प्रत्येक वस्तु में पाये जाते है। पुरुष के अतिरिक्त जो कुछ भी हैं, यह सब त्रिगुणात्मक ही है।

गुणों का असली रूप (साम्य परिणाम) दृष्टिगोचर नहीं होता है, जो विषम परिणाम दृष्टिगोचर होता है वह माया जैसा है और विनाशी है।
(१) गुणों का प्रथम विषम परिणाम ‘महत्तत्त्व’ है, जिसमे कर्तापन का अहंकार बीजरूप में छिपा हुआ है।

हे अर्जुन ! मेरी योनि (गर्भ रखने का स्थान) महत्तत्त्व है, उसी में मैं गर्भ रखता हूँ (अपने ज्ञान का प्रकाश डालता हूँ) और उसी से संभूतों की उत्पत्ति होती है | (गीता १४/३)

हे अर्जुन ! सब योनियों में जो शरीर उत्पन्न होते हैं, उन सबकी योनि महत्त्व हैं और उसमे बीज को डालने वाला मैं चेतन तत्त्व पिता हूँ। (गीता १४/४)


(२). महत्तत्त्व का विषम परिणाम ‘अहंकार’ –
पुरुष (चेतनतत्त्व) से प्रतिबिंबित महत्तत्त्व ही (सत्त्व में रजस और तमस की अधिकता से विकृत हो कर) अहंकार रूप से व्यक्त भाव में बहिर्मुख हो रहा हैं।

कर्तापन अहंकार में हैं न की पुरुष में।

(३). अहंकार का विषम परिणाम ‘ग्रहणरूप ११ इन्द्रिय’ –

(४). अहंकार का विषम परिणाम ‘ ग्राह्यरूप ५ तन्मात्राएँ ‘ –

(५). तन्मात्राओं का विषम परिणाम ‘ग्राह्यरूप पांच स्थूलभूत’ –

४. सृष्टि और प्रलय – इन सोलह विकृतियों का, जो तीनो गुणों के केवक विकार हैं, रज पर तम के अधिक प्रभाव से वर्तमान स्थूल रूप को छोड़ कर अपने अहंकार और पाँचो तन्मात्राओं में क्रम से लीन हो जाने का नाम प्रलय हैं। और प्रकृतियों से, इनका संपर्क रज के अधिक प्रभाव के कारण फिर विकृति रूप में प्रकट होने का नाम सृष्टि हैं।

सृष्टि के पीछे प्रलय, प्रलय के पीछे सृष्टि – यह क्रम अनादि से चला आ रहा हैं।

५. सृष्टि के तीन भेद –

(१) अध्यात्म – जो सीधे अपने से साथ सम्बन्ध रखने वाला हैं, जैसे बुद्धि, अहंकार,मन, इन्द्रियाँ और शरीर। इनसे आध्यात्मिक सुख दुःख होता हैं, जो दो प्रकार का हैं – शारीरिक और मानसिक।

शरीर का बलवान, फुर्तीला और स्वस्थ होना शारीरिक सुख हैं और दुर्बल, अस्वस्थ और रोगी होना शारीरिक दुःख।

इसी प्रकार शुभ संकल्प, शान्ति, वैराग्य आदि मानसिक सुख हैं, और ईर्ष्या, तृष्णा, शोक, राग, द्वेष आदि मानसिक दुःख हैं।


(२) अधिभूत – जो अन्य प्राणियों की भिन्न – भिन्न सृष्टि से संबंध रखने वाला हैं, जैसे गो,अश्व, पशु- पक्षी आदि। इनसे मिलने वाला सुख दुःख आधिभौतिक हैं, दूध, घी, सवारी, सांप का काटना आदि।

(३) अधिदैव – जो दिव्य शक्तियों की सृष्टि से संबंध रखने वाला हैं, जैसे पृथ्वी, सूर्य आदि। इनसे मिलने वाला प्रकाश, वृष्टि आदि आधिदैविक सुख दुःख हैं।

६. पांच वृत्तियाँ – प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा और स्मृति।

७. पांच ज्ञानेन्द्रियाँ – नेत्र, श्रोत्र, घ्राण, रसना और त्वचा।

८. पाँच प्राण – पाँच वायु (प्राण) हैं – प्राण, अपान, समान, व्यान, उदान।

प्राण –  वायु का निवास स्थान हृदय हैं। यह शरीर के ऊपरी भाग में रहता हुआ ऊपर  की इन्द्रियों का काम संचालन करता हैं।

अपान – वायु का निवास स्थान गुदा के निकट हैं, और शरीर के निचले भाग में संचालन करता हैं, निचली इन्द्रियों द्वारा मॉल मूत्र के त्याग आदि का काम उसके आश्रित हैं।

सामान – वायु शरीर के मध्य भाग नाभि में रहता हुआ ह्रदय से गुदा तक संचार करता  हैं,खाए पिए अन्न, जल आदि के रस को सब अंगों में बराबर बाँटना उसका काम हैं।

व्यान –  वायु सारी स्थूल, सूक्ष्म और अतिसूक्ष्म नाड़ियों में घूमता हुआ, शरीर के प्रत्येक भाग में रुधिर का संचार करता हैं।

उदान – वायु शरीर को शरीरांतर वा लोकान्तर में ले जाता हैं।

९. पाँच कर्मेन्द्रियाँ – बोलना, पकड़ना, चलना, मूत्र त्याग और मल त्याग – ये पाँच शारीरिक कर्म हैं। इन पाँच कर्मों को करने वाली वाणी, हस्त, पाद, उपस्थ और गुदा – ये पाँच शक्तियाँ कर्मेन्द्रियों कहलाती हैं।

१० पाँच गाँठ वाली अविद्या – पाँच प्रकार की हैं – अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और  अभिनिवेश।

अनित्य में नित्य, अपवित्र में पवित्र, दुःख में सुख, और अनात्मा में आत्मा का ज्ञान अविद्या हैं।

बुद्धि में आत्मबुद्धि अस्मिता हैं।

सुख की इच्छा अर्थात लोभ की वृत्ति का नाम राग हैं।

सुख- साधन में विघ्न डालने वालों के प्रति घृणा अथवा द्वेष वृत्ति द्वेष हैं।

मृत्यु के भय से वृत्ति का नाम अभिनिवेश हैं।

इनको क्रम से तमस, मोह, महामोह, तामिस्त्र और अन्धतामिस्त्र कहते हैं।

११. अठ्ठाईस अशक्तियां – इन्द्रियों के 11 वध बुद्धि के साथ मिलकर, ९ तुष्टि और ८ सिद्धि के वध मिलाकर २८ प्रकार की अशक्ति हैं।

१२. नौ तुष्टियां – तुष्टि, उपरति अथवा उपरामता हट को कहते हैं। अर्थात मोक्ष प्राप्ति से पहले ही साधनों को छोड़ कर संतुष्ट हो जाने का नाम तुष्टि हैं। तुष्टियों में चार आध्यात्मिक हैं – प्रकृति – तुष्टि, उपादान – तुष्टि, काल – तुष्टि और भाग्य – तुष्टि एवं पाँच बाह्य हैं – जो आत्मा साक्षात्कार से पूर्व ही उसके साधन रूप वैराग्य से होती हैं – शब्द तुष्टि, स्पर्श तुष्टि, रूप तुष्टि, रस तुष्टि और गंध तुष्टि।

१३. आठ सिद्धियां –

(१) ऊह – सिद्धि – पूर्व जन्म के संस्कारों से स्वयं, इस सृष्टि को देख भाल कर नित्य – अनित्य, चित्त – अचित्त के निर्णय से २४ तत्त्वों का यथार्त ज्ञान होना।

(२) शब्द – सिद्धि – विवेकी गुरु के उपदेश से ज्ञान होना।

(३) अध्ययन सिद्धि – वेद आदि शास्त्रों के अध्ययन से ज्ञान होना।

(4) सुहृदय प्राप्ति सिद्धि – वे सिद्ध पुरुष जो स्वयं मनुष्यों का अज्ञान मिटाने के लिए घूम रहे हैं, उनमे से किसी दयालु के मिल जाने से ज्ञान प्राप्त होना।

(५) दान सिद्धि – वे योगी जो अपने खाने पीने की आवश्यकताओं से निरपेक्ष हो कर आत्मसाक्षात्कार में लगे हुए हैं, उनकी भोजन आदि सब प्रकार की आवश्यनकताओं को श्रद्धा भक्ति के साथ पूरा करने से उनके प्रसाद से ज्ञान लाभ करना।

उपर्युक्त पाँच प्रकार की सिद्धियाँ तत्व ज्ञान के उपाय हैं, और निम्न तीन सिद्धियाँ उनके फल हैं –

(६) आध्यात्मिक दुःख –हान* – सभी आध्यात्मिक दुखों का मिट जाना।

(७) आधिभौतिक दुःख –हान* – सभी आधिभौतिक दुखों का मिट जाना।

(८) आधिदैविक दुःख –हान* – सभी आधिदैविक दुखों का मिट जाना।

१३. दस मूल धर्म – अस्तित्व, संयोग, वियोग, शेषवृत्तित्त्व, अर्थवत्त्व, परार्थ्य, अन्यता,                    अकर्तृत्व और बहुत्व।

१४. सृष्टि का रूप – जैसे लोक (संसार) कामों में प्रवृत्त होता हैं (भूख मिटाने के लिए भोजन में प्रवृत होते हैं) इसी प्रकार पुरुष के मोक्ष के लिए प्रधान अर्थात प्रकृति प्रवृत हो रही हैं।

१५. चौदह प्रकार की प्राणी सृष्टि – आठ प्रकार की दैवी सृष्टि हैं – ब्राह्म, प्राजापत्य, ऐन्द्र, दैव, गान्धर्व, प्रित्र्य, विदेह और प्रकृति लय। यह आठ प्रकार का दैव सर्ग हैं, जो कर्मोपासना का फल हैं। देव सर्ग मनुष्य से सूक्ष्म होने के कारण प्रत्यक्ष नहीं हो सकता।

नवां मानुष सर्ग हैं, अर्थात मनुष्य सृष्टि हैं।

और अंत में मनुष्य से नीचे पशु, पक्षी, सरीसृप, कीट और स्थावर – इन पाँच का तिर्यक सर्ग हैं।

१६. बन्ध और मोक्ष के तीन प्रकार – वैकृतिक, दाक्षिणिक और प्राकृतिक।

वैकृतिक बन्ध – जो आत्मसाक्षात्कार से शून्य राजसी प्रवृत्ति वाले मनुष्य जिनके कर्म सत्त्वगुण, तमोगुण दोनों से मिश्रित हैं, वे इन वैकृतिक वासनाओं के अधीन, उसी भूमि में मनुष्य लोक में जन्म लेते हैं।

दाक्षिणिक बन्ध–
आत्मसाक्षात्कार से शून्य, फल कामना के अधीन होकर केवल सकाम इष्ट– पूर्त आदि परोपकार और अहिंसात्मक सात्त्विक कर्मों में लगे हुए हैं, वे इन सात्त्विक भावनाओं के अधीन होकर ६ देव सर्गों में सात्त्विक वासनाओं का फल भोग कर आत्मसाक्षात्कार के लिए (पिछली भूमिकी योग्यता को लिए हुए) फिर मनुष्य जन्म लेते हैं।

प्राकृतिक बन्ध – जो योगी आत्मसाक्षात्कार से शून्य रहकर केवल इन भूमियों के आनंद में रहते हैं और विवेक ख्याति द्वारा स्वरूपस्थिति का यत्न नहीं करते, वे उच्च कुल वाले योगियों के घर (पिछली भूमि की योग्यता को प्राप्त किये हुए) फिर जन्म लेते हैं।

इन तीनों बंधनों से छूटना तीन प्रकार का मोक्ष हैं।
यदि संसार की उत्पत्ति करने वाला कोई ईश्वर माना जाता हैं, तो जीवों के बन्ध और दुखों का उत्तरदायित्व भी उसी पर आ जाता हैं।

17. तीन प्रमाण – प्रत्यक्ष, आगम तथा अनुमान।

हेय – दुःख तीन प्रकार की चोट पहुँचाता हैं – आध्यात्मिक, आदिभौतिक एवं आधिदैविक। इनके दूर करने के साधन यद्यपि विद्यमान हैं और श्रौत कर्मों से इनका प्रतिकार हो जाता हैं, किन्तु इनका नितान्त अभाव नहीं होता; क्योंकि इनका बीज बना ही रहता हैं।

हेय- हेतु – इस दुःख की जड़ अज्ञान, अविद्या, अविवेक हैं। जितना अज्ञान दूर होता जाता हैं, उतना ही दुःख का अभाव होता जाता हैं।

हान* – दुःख का नितान्त अभाव, अज्ञान अर्थात अविद्या का सर्वथा नाश हो जाना हैं।

हानोपाय – सारे तत्त्वों का विवेकपूर्ण यथार्त ज्ञान हैं। जिस जिस तत्त्व का यथार्त ज्ञान होता जाएगा, उस उस तत्त्व के दुःख की निवृत्ति होती जायेगी। सारे तत्त्वों का विवेकपूर्ण ज्ञान होने से सारे दुखों की निवृत्ति हो जाती हैं।




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