सन्त रैदास की साधना.
‘सन्त काल’ उस समय को कहा जाता है जिन दिनों यवन काल के उत्पातों से जनता किंकर्तव्यविमूढ़ हो रही थी। आन्तरिक फूट, आदर्शों में विडम्बना का समावेश, संगठन का अभाव आदि कितने ही कारण ऐसे आ जुटे थे कि बहुसंख्यक जनता मुट्ठी भर विदेशी विधर्मियों द्वारा बुरी तरह पद-दलित की जा रही थी। उत्पीड़न और अपमान के इतने कडुए घूँट आए दिन पीने पड़ रहे थे कि चारों ओर अन्धकार के अतिरिक्त और कुछ दीख ही न पड़ता था। लोग हताश होकर पराजित जाति जैसी हीनता को स्वीकार करने लगे थे। लँगड़ा, लूला प्रतिरोध सफल न हो सका तो उसे ईश्वरीय कोप मान कर चुप बैठे रहने में ही लोग अपनी भलाई सोचने लगे। ऐसी परिस्थितियों में आशा की एक नवीन किरण के रूप में भारत में ‘सन्त मत’ पनपा।नानक, गुरु गोविन्दसिंह, रामानन्द, कबीर, ज्ञानदेव, एकनाथ, तुकाराम, तुलसीदास, सूरदास, रामदास, रामकृष्ण परमहंस, विवेकानन्द, रामतीर्थ, कबीर, दादू, रैदास, चैतन्य आदि अनेक सन्त-महात्मा उन्हीं परिस्थितियों में उत्पन्न हुए और उन्होंने धर्म और ईश्वर पर से डगमगाती हुई निराश जनता की आस्था को पुनः सजीव करने का सफल प्रयत्न किया। रैदास इसी माला की एक उज्ज्वल मणि थे।
सन्त रैदास हरिजन कुल में उत्पन्न हुए। उनके पिता चमड़े का व्यापार करते थे। जूते भी बनाये जाते थे। रैदास बचपन से ही बड़े उदार थे। घर में सम्पन्नता थी। वे सोचते थे कि सम्पन्न लोगों को अपनी सम्पदा में दूसरे अभाव-ग्रस्तों को भी भागीदार बनाना चाहिए अन्यथा संग्रह किया हुआ अनावश्यक धन उनके लिए विपत्ति रूप में सिद्ध होगा। वे प्रतिदिन एक जोड़ा जूता अपने हाथ से बना कर असमर्थों को दान करते, जिससे वे कुश-कंटकों और शीत धूप से पैरों को बचाते हुए अपना कार्य करते रह सकें।
यह उदारता युवक रैदास के पिताजी को पसन्द न आई। दूसरे अन्य असंख्य लोगों की तरह वे अपने बेटे को ‘कमाऊ’ देखना चाहते थे। कमाऊ होना ही तो सब से बड़ा गुण माना जाता है। पिता ने उन्हें रोका, न माने तो बिना छप्पर का एक बाड़ा रहने के लिए देकर उन्हें और उनकी स्त्री को घर से निकाल दिया। पराई कमाई पर निर्भर रहने की अपेक्षा परिश्रमपूर्वक स्वावलम्बी जीवन रैदास को पसन्द आया और वे पूरे परिश्रम तथा मनोयोगपूर्वक बढ़िया जूते बनाने लगे। इसी से अपना गुजारा करते और एक जोड़ी जूता नित्य दान भी करते।
गृहस्थ रहते हुए भी मनुष्य महात्मा हो सकता है, इसका अनुकरणीय उदाहरण रैदास ने प्रस्तुत किया और वे उसमें पूर्ण सफल भी रहे। गुजारे के लिए आठ घण्टा श्रम करने से काम चल सकता है। आठ घण्टा नित्य-कर्म और भोजन विश्राम के लिए पर्याप्त होते है। इसके अतिरिक्त आठ घण्टा समय लगभग सभी के पास शेष रहता है। प्रबुद्ध लोग उसका सदुपयोग करके अभीष्ट लक्ष्य की ओर तेजी से बढ़ते चले जाते हैं। जब कि प्रमादी लोग इस मूल्यवान समय को बर्बाद करके मौत के दिन ही पूरे कर पाते हैं। रैदास प्रबुद्धों की श्रेणी में थे। उनने बचे हुए समय को तप और साधना में लगाने का क्रम बनाया। उनके व्यक्तित्व से प्रभावित अगणित लोग उनके पास आते और उनकी शिक्षाएँ प्राप्त करके अपना पथ निर्धारित करते। उनके घर में सत्संग का क्रम चलता ही रहता। जूते बनाते हुए भी वे धर्म चर्चा करते रहते।
एक ओर जहाँ, उनकी ख्याति बढ़ रही थी, दूसरी ओर उनके विरोधी भी बढ़ते जाते थे। ईर्ष्या की डाकिन ने मानवीय प्रगति में कितनी बाधा पहुँचाई है, सत्पुरुषों और निर्दोषों को कितना सताया है, अकारण कितने ही लोगों को दूसरों की उन्नति देख कर जल-भुन कर खाक होने के लिए विवश किया है, इसे देखते हुए यही प्रतीत होता है कि इस की सर्पिणी से बढ़ कर और कोई व्यापक बुराई शायद ही मनुष्य का अहित करने में समर्थ हो सकी हो। उच्च वर्ण कहलाने वाले लोगों को रैदास की प्रतिष्ठा असह्य लगती, वे उन से मन ही मन कुढ़ते, निन्दा, व्यंग और उपहास करते तथा तरह-तरह के लाँछन लगाने में पीछे न रहते। रैदास इस पर हँस भर देते और कहते हाथी अपने रास्ते चला जाता है उसे किसी के धूलि फेंकने या चिढ़ाने से विचलित होने की जरूरत नहीं होती। धैर्य साहस और सचाई जिसके साथ हैं उसका सारा संसार विरोधी होकर भी कुछ बिगाड़ नहीं सकता। उनने अपना धर्म-प्रचार जारी रखा।
उन दिनों उच्च वर्ण के लोग भी आतंक से डर कर और प्रलोभन में खिंच कर धड़ाधड़ विधर्मी बन रहे थे, फिर छोटे वर्ण वालों के लिए तो उस ओर लुढ़कने लगना और भी सरल था। छोटी कहलाने वाली जातियाँ और भी तेजी से विधर्मी बनने लगी थीं। शासन का प्रलोभन और उच्च वर्ण वालों का तिरस्कार यह दुहरा दबाव उनके मन को डाँवाडोल करने लगा था। इन परिस्थितियों में सन्त रैदास ने हिन्दू-धर्म की महत्ता, आस्तिकता एवं ईश्वर विश्वास की आस्था को बढ़ाने के लिए कार्य आरम्भ किया और असंख्यों हरिजन उस प्रेरणा से प्रभावित होकर विचलित होने से बच गये। उन्होंने अपनी वाणियों में अपने आदर्शों का भली भाँति प्रतिपादन किया है— अपना धर्म छोड़ कर विधर्मी बनने के लिए विचलित लोगों को उनने कहा—
हरि-सा हीरा छोड़ि के,
करै आन की आस।
ते नर नरकै जायँगे,
सत भाषै रैदास॥
विधर्मियों की पराधीनता के लिए भर्त्सना करते हुए उन्होंने भारतीय-समाज को ललकारा और कहा—
पराधीन का दीन क्या,
पराधीन बेदीन।
पराधीन पर दास को,
सब ही समझैं हीन॥
सन्त रैदास सच्चे ईश्वर भक्त थे। वे पूजा किये बिना जल तक भक्षण न करते थे। आपने अपने ही स्थान पर भगवान का मन्दिर बनाया जिसमें निरन्तर भजन, कीर्तन और उपदेश होते रहते थे।
उन्होंने सारे भारत का भ्रमण किया और निराशाग्रस्त जनता को आशा का सन्देश पहुँचाया। ईश्वर पर विश्वास और धैर्य रख कर आशाजनक भविष्य के लिए कमर कस कर काम करने का मार्ग बताया। उनके अनेकों शिष्य हुए जिनमें प्रसिद्ध भक्त -नारी मीरा बाई भी एक थीं। ईश्वर भक्ति के माध्यम से सन्त काल के महात्माओं ने संगठन, आशा और उत्साह की जो धारा प्रवाहित की, वह उन परिस्थितियों में सर्वथा उपयुक्त ही थी। खुले प्रतिरोध का कोई कार्यक्रम तो उन दिनों चल भी नहीं सकता था। सन्त मत के माध्यम से सिख गुरुओं ने कितना बड़ा काम किया यह सर्व विदित है। सीधा संघर्ष न सही, संघर्ष की भूमिका में सभी सन्तों का बड़ा महत्वपूर्ण योग रहा है। सन्त रैदास ने हरिजन कुल में जन्म लेकर पिछड़े लोगों में धैर्य और स्थिरता की जो भावना उत्पन्न की, उससे हिन्दू-धर्म की कितनी भारी सेवा सम्भव हुई, आज उसका मूल्याँकन कर सकना भी हमारे लिए कठिन है।
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