कुंडली में विवाह मेलापक .

कुंडली मिलान में

दोषों का परिहार.

 ज्योतिष  के २ खंड होते हैं. पहला गणित खंड (कुंडली निर्माण इत्यादि ) और दूसरा  फलादेश . गणित खंड के दृष्टिकोण से कम्प्यूटर  से निर्मित्त कुंडली निर्विवाद होती हैं किन्तु फलादेश में ऐसा नहीं हैं. फलादेश के लिए विद्वान ज्योतिषी ही सक्षम हैं. 

कुंडली-मिलान में मांगलिक दोष, गण दोष, नाड़ी दोष, भकूट दोष, मंगल दोष आदि ज्योतिष में महादोष कहे गए हैं.  कुंडली मिलान में कई बार अधिकतम गुण मिलने पर भी वैवाहिक सुख का अभाव रहता है क्योंकि जन्म कुंडली में दाम्पत्य सुख का आंकलन  जो सर्वप्रथम किया जाना चाहिए था, वह नहीं हो पाता हैं. अतएव गुण मिलान  के पूर्व दाम्पत्य सुख की स्तिथि भी कुंडली से अवश्य देख ली जाना चाहिए.

 कुंडली मिलान और भकूट दोष : कारण और निवारण .

कुंडली मिलान में एक से चार नंबर तक के दोषों का विशेष परिहार नहीं है, मुख्य रुप से गण मिलान से परिहार आरंभ होता है..

गण दोष का परिहार.

चंद्र राशि स्वामियों में परस्पर मित्रता या राशि स्वामियों के नवांशपति में भिन्नता होने पर गणदोष नहीं होता है.

ग्रहमैत्री और वर-वधु के नक्षत्रों की नाड़ियों में भिन्नता होने पर भी गणदोष का परिहार हो जाता  है.

यदि वर-वधु की कुंडली में तारा, वश्य, योनि, ग्रहमैत्री और भकूट दोष नहीं हैं तब भी गणदोष नहीं माना जाता है.

भकूट दोष का परिहार.

भकूट मिलान में तीन प्रकार के दोष होते हैं. जैसे षडाष्टक दोष, नव-पंचम दोष और द्वि-द्वार्दश दोष होता है. इन तीनों ही दोषों का परिहार निम्न प्रकार से हो जाता है.

षडाष्टक . (एक दुसरे की राशी छटवे-आठवें )

यदि वर-वधु की मेष/वृश्चिक, वृष/तुला, मिथुन/मकर, कर्क/धनु, सिंह/मीन या कन्या/कुंभ राशि है,  तब यह मित्र षडाष्टक होता है अर्थात इन राशियों के स्वामी ग्रह आपस में मित्र होते हैं. मित्र राशियों का षडाष्टक शुभ माना जाता है.

मेष/कन्या, वृष/धनु, मिथुन/वृश्चिक, कर्क/कुंभ, सिंह/मकर तथा तुला/मीन राशियों का आपस में शत्रु षडाष्टक होता है.  इस शत्रु षडाष्टक का त्याग करना चाहिए.

यदि तारा शुद्धि, राशियों की मित्रता हो, एक ही राशि हो या राशि स्वामी ग्रह समान हो, तब भी षडाष्टक दोष का परिहार हो जाता है

नव पंचम.

जब वर-वधु की चंद्र राशि एक-दूसरे से 5/9 भाव पर स्थित होती है तब नव पंचम दोष माना जाता है.

यदि वर की राशि से कन्या की राशि पांचवें और कन्या की राशि से वर की राशि नवम स्थान पर हो तब यह  नव-पंचम शुभ माना है.

मीन/कर्क, वृश्चिक/कर्क, मिथुन/कुंभ और कन्या/मकर यह चारों नव-पंचम दोषों का त्याग करना चाहिए.

यदि वर-वधु की कुंडली के चंद्र राशिश या नवांशपति परस्पर मित्र राशि में हो तब नव-पंचम का परिहार होता है.

द्वि-द्वार्दश योग .(एक दुसरे से राशी 2-12)

वर की राशि से कन्या की राशि दूसरे स्थान पर हो तो कन्या धन की हानि करने वाली होती है,  लेकिन 12वें स्थान पर हो तब धन लाभ कराने वाली होती है.

द्वि-द्वार्द्श योग में वर-वधु के राशि स्वामी आपस में मित्र हैं तब इस दोष का परिहार हो जाता है.

मतान्तर से सिंह और कन्या राशि द्वि-द्वार्दश होने पर भी इस दोष का परिहार हो जाता है.

नाड़ी दोष . 

वर -कन्या की नाड़ी एक ही होने पर विवाह वर्जनीय है। भले ही उसमें सारे गुण हों, क्योंकि ऐसा करने से संतान, पति-पत्नी के स्वास्थ्य और जीवन के लिए संकट की आशंका बताई गई है.

वर तथा वधु की एक ही राशि हो लेकिन नक्षत्र भिन्न हो, तब इस दोष का परिहार हो जाता  है.

दोनों का जन्म नक्षत्र एक हो लेकिन चंद्र राशि भिन्न हो, तब भी इसका परिहार होता है.

दोनों का जन्म नक्षत्र एक हो लेकिन चरण भिन्न हों तब भी परिहार होता है.

शास्त्रानुसार नाड़ी दोष ब्राह्मणों के लिए,  वर्णदोष क्षत्रियों के लिए,  गण दोष वैश्यों के लिए और योनि दोष अन्य जातियों  के लिए विचारणीय होता है.

ज्योतिष चिन्तामणि के अनुसार रोहिणी, मृ्गशिरा, आर्द्रा, ज्येष्ठा, कृतिका, पुष्य, श्रवण, रेवती तथा उत्तराभाद्रपद नक्षत्र होने पर नाड़ी दोष नहीं माना जाता है. 

भारतीय ज्योतिष में नाड़ी का निर्धारण जन्म नक्षत्र से होता है। प्रत्येक नक्षत्र में चार चरण होते हैं। नौ (9) नक्षत्रों की एक नाड़ी होती है।

आदि नाड़ी... .अश्विनी, आर्द्रा, पुनर्वसु, उत्तराफाल्गुनी, हस्त, ज्येष्ठा, मूल, शतभिषा, पूर्व भाद्रपद ।

मध्य नाड़ी....भरणी, मृगशिरा, पुष्य, पूर्वाफाल्गुनी, चित्रा, अनुराधा, पूर्वाषाढ़ा, धनिष्ठा और उत्तराभाद्रपद

अन्त्य नाड़ी.... कृतिका, रोहिणी, आश्लेषा, मघा, स्वाति, विशाखा, उत्तराषाढ़ा, श्रवण तथा रेवती ।

 शास्त्र वचन है कि...

एक ही नाड़ी होने पर गुरु और शिष्य,  मंत्र और साधक, देवता और पूजक  में भी क्रमश: ईर्ष्या,  अरिष्ट और मृत्यु  जैसे कष्टों का भय रहता है l

नाड़ी दोष का उपचार:-

नाड़ी दोष हो तो महामृत्युञ्जय मंत्र का जाप अवश्य करना चाहिए. इससे दांपत्य जीवन में आ रहे सारे दोष समाप्त हो जाते हैं।

पीयूष धारा के अनुसार स्वर्ण दान, गऊ दान, वस्त्र दान, अन्न दान, स्वर्ण की सर्पाकृति बनाकर प्राण प्रतिष्ठा तथा महामृत्युञ्जय जप करवाने से नाड़ी दोष शान्त हो जाता है।

ज्योतिष शास्त्र के अनुसार अगर वर और कन्या की राशि समान हो तो उनके बीच परस्पर मधुर सम्बन्ध रहता है।

दोनों की राशियां एक दूसरे से चतुर्थ और दशम होने पर वर वधू का जीवन सुखमय होता है।

तृतीय और एकादश राशि होने पर गृहस्थी में धन की कमी नहीं रहती है। 

वर और कन्या की कुण्डली में षष्टम भाव, अष्टम भाव और द्वादश भाव में समान राशि नहीं हो।

वर और कन्या की राशि अथवा लग्न समान होने पर गृहस्थी सुखमय रहती है परंतु राशि अगर समान हो तो नक्षत्र भेद होना चाहिए अगर नक्षत्र भी समान हो तो चरण भेद आवश्यक है ।

अगर ऐसा नही है तो राशि लग्न समान होने पर भी वैवाहिक जीवन के सुख में कमी आती है।

 गण....

देव गण- नक्षत्र :-  01, 05, 27, 13, 08, 07, 17, 22, 15. (नक्षत्र क्रम संख्या )

मनुष्य गण-नक्षत्र :- 11, 12,  20,  21, 25, 26, 06, 04. (नक्षत्र क्रम संख्या )

राक्षस गण- नक्षत्र:-  03, 10, 09, 16, 24, 14, 18, 23, 19. (नक्षत्र क्रम संख्या )

स्वगणे परमाप्रीतिर्मध्यमा देवमर्त्ययोः।

मर्त्यराक्षसयोर्मृत्युः कलहो देव रक्षसोः॥ 

संगोत्रीय विवाह  को कराने के लिए कर्म कांडों में एक विधान है, जिसके चलते संगोत्रीय लड़के का दत्तक दान करके विवाह संभव हो सकता है ।

इस विधान में जो माँ-बाप लड़के को गोद लेते हैं। विवाह में उन्हीं का नाम गोत्र आता है।

वैसे तो वर कन्या के राशियों के स्वामी आपस में मित्र हो तो वर्ण दोष, वर्ग दोष, तारा दोष, योनि दोष, गण दोष भी  नष्ट हो जाता है.

वर और कन्या की कुंडली में राशियों के स्वामी एक ही हो या मित्र हो अथवा D-9 नवांश के स्वामी परस्पर मित्र हो या एक ही हो तो सभी कूट-दोषसमाप्त हो जाते हैं.

मांगलिक दोष ..

मांगलिक दोष को कुज दोष या मंगल दोष भी कहा गया है।

विवाह के संदर्भ में यह दोष बहुत ही महत्वपूर्ण कारक है। सुखद विवाह के लिए अमंगलकारी कहे जाने वाले मंगल दोष के विषय में ऐसी मान्यता है कि जिस व्यक्ति की कुंडली में मंगल दोष हो उसे मंगली जीवनसाथी की ही तलाश करनी चाहिए। ऐसा माना जाता है कि यदि युवक और युवती दोनों की  कुंडली में मंगल दोष की तीव्रता समान है तो ही दोनों को एक दूसरे से विवाह करना चाहिए। अन्यथा इस दोष की वजह से पति-पत्नी में से किसी एक की मृत्यु भी हो सकती है।

विवाह के लिए कुंडली मिलान करते समय मंगल को 1, 4, 7, 8 और 12वें भाव पर देखा जाता है। यदि कुंडली में मंगल प्रथम, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम या द्वादश भाव में हो तो जातक को मंगल दोष लगता है। जबकि सामान्य‍ तौर पर इन सब में से केवल 8वां और 12वां भाव ही खराब माना जाता है।

पहला स्थान अर्थात लग्‍न का मंगल किसी व्‍यक्ति के व्यक्तित्व को और ज्यादा तेज बना देता है, चौथे स्थान का मंगल किसी जातक की पारिवारिक जीवन को मुश्किलों से भर देता है। मंगल यदि 7वें स्‍थान पर हो तो जातक को अपने साथी या सहयोगी के साथ व्यव्हार में कठोर बना देता है। 8वें और 12वें स्‍थान पर यदि मंगल है तो यह शारीरिक क्षमताओं और आयु पर प्रभाव डालता है। यदि इन स्‍थानों पर बैठा मंगल अच्‍छे प्रभाव में हो तो जातक के व्यवहार में मंगल ग्रह के अच्‍छे गुण आएंगे और यदि यह खराब प्रभाव में हैं तो जातक पर खराब गुण आएंगे।

मांगलिक दोष के प्रकार..

उच्च मंगल दोष .... यदि मंगल ग्रह किसी जातक के जन्म कुंडली, लग्न/चंद्र कुंडली में 1, 2, 4, 7, 8वें या 12वें स्थान पर होता है, तो इसे उच्च मांगलिक दोषमाना जाएगा। ऐसी स्थिति में व्यक्ति को अपने जीवन में कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है।

निम्न मंगल दोष...  यदि मंगल ग्रह किसी जातक की जन्म कुंडली, लग्न/चंद्र कुंडली में से किसी एक में भी 1, 2, 4, 7, 8वें या 12वें स्थान पर होता है, तो इसे निम्न मांगलिक दोषया आंशिक मांगलिक दोषमाना जाएगा। कुछ ज्योतिषियों के अनुसार 28 वर्ष की आयु होने के बाद यह दोष अपने आप समाप्त माना जाता है।

मांगलिक व्यक्ति का स्वभाव...

मांगलिक व्‍यक्ति के स्वभाव में आपको कुछ विशेषताएं देखने को मिल सकती हैं, जैसे इस तरह के व्यक्ति दिखने में कठोर निर्णय लेने वाले और बोली में भी कठोर होते हैं। ऐसे लोग लगातार काम करते रहने वाले होते हैं, साथ ही यह किसी भी काम को योजनाबद्ध तरीके से करना पसंद करते हैं। मांगलिक लोग अपने विपरीत लिंग के प्रति कम आकर्षित होते हैं। ये लोग कठोर अनुशासन बनाते हैं और उसका पालन भी करते हैं। मांगलिक व्यक्ति एक बार जिस काम में जुट जाये उसे अंत तक पूरा कर के ही दम लेता है। ये न तो लड़ाई से घबराते हैं और न ही नए अनजाने कामों को हाथ में लेने से। अपनी इन्‍हीं कुछ विशेषताओं की वजह से गैर मांगलिक व्‍यक्ति ज्यादा समय तक मांगलिक व्यक्ति के साथ नहीं रह पाता है।

मंगल दोष से जुड़े मिथक...

मंगल दोष के विषय में ज्यादा जानकारी न होने के कारण कई लोग अनेकों तरह की बातें करते हैं, जिसकी वजह से समाज में मंगल दोष से जुड़े कुछ मिथक भी हैं।

यदि मांगलिक और अमांगलिक की शादी कराई जाती है तो उनका तलाक निश्चित है। यह एक ऐसा मिथक है जो अक्सर सुनने में आता है, जबकि हम सभी जानते हैं कि किसी भी शादी को चलाने की ज़िम्मेदारी लड़का और लड़की की समझदारी और उनके के विचारों के मेल-जोल पर निर्भर करती है।

मंगल दोष से जुड़ा एक मिथक यह भी है कि यदि कोई मांगलिक हैं, तो उसको पहले किसी पेड़ से विवाह करना  होगा । मंगल दोष से छुटकारा पाने के अनेकों उपाय हैं और वह उपाय कुंडली की सही गणना करने के बाद ही बताये जा सकते हैं,  इसीलिए यह जरूरी नहीं कि सभी मांगलिक युवक/युवतियों को पेड़ से ही शादी करनी पड़े।

कुछ लोग यह समझते हैं कि यदि कोई व्यक्ति मंगलवार को पैदा हुआ है तो वह पक्का मांगलिक हैं जबकि ऐसा बिल्कुल नहीं है। मंगल दोष का पता कुंडली देखने के बाद ही लगाया जा सकता है। इसका किसी भी दिन पैदा होने से कोई संबंध नहीं होता है।

मंगल दोष का निवारण...

यदि किसी जातक की कुंडली में मांगलिक दोष के लक्षण मिलते हैं तो उन्हें किसी अनुभवी ज्योतिषी से सलाह करके ही मंगल दोष के निवारण की पूजा करनी चाहिए। अंगारेश्वर महादेव, उज्जैन (मध्यप्रदेश) में मंगल दोष की पूजा का विशेष महत्व है। यदि यह पूजा अपूर्ण या कुछ जरूरी पदार्थों के बिना की जाये तो यह जातक पर प्रतिकूल प्रभाव भी डाल सकती है। मंगल दोष निवारण के लिए ज्योतिष शास्त्र में कुछ ऐसे नियम बताए गए हैं जिससे शादीशुदा जीवन में मांगलिक दोष न्यून हो जाता है।

वट सावित्री और मंगला गौरी का व्रत सौभाग्य प्रदान करने वाला होता है। अगर अनजाने में किसी मांगलिक कन्या का विवाह किसी ऐसे व्यक्ति हो जाता है ,जो दोष रहित हो तो दोष निवारण के लिए इन दोनों व्रत का अनुष्ठान करना  लाभदायी होता है।

यदि किसी युवती की कुंडली में मंगल दोष पाया जाता है, तो अगर वह विवाह से पहले गुप्त रूप से पीपल या घट के वृक्ष से विवाह कर लेती है और उसके बाद मंगल दोष रहित वर से शादी करती है तो  दोष का शमन हो जाता है।

प्राण प्रतिष्ठित किये हुए विष्णु प्रतिमा से विवाह के बाद अगर कन्या किसी से विवाह करती है, तब भी इस दोष का परिहार मान्य होता है।

ऐसा कहा जाता है कि मंगलवार के दिन व्रत रखने और हनुमान जी की सिन्दूर से पूजा करने और उनके सामने सच्चे मन से हनुमान चालीसा का पाठ करने से मांगलिक दोष शांत होता है।

कार्तिकेय जी की पूजा करने से भी इस दोष से छुटकारा मिलता है।

लाल रंग के वस्त्र में मसूर दाल, रक्त पुष्प, रक्त चंदन, मिष्टान और द्रव्य को अच्छी तरह लपेट लें और उसे नदी में प्रवाहित करने दे। ऐसा करने से मांगलिक दोष के लक्षण खत्म हो जाते हैं।गर्म और ताजा भोजन मंगल मजबूत करता है साथ ही इससे आपकी मनोदशा और पाचन क्रिया भी सही रहती है, इसीलिए अपने खान-पान की आदतों में बदलाव करें। मंगल दोष से निबटने का सबसे आसान उपाय है, हनुमान जी की नियमित रूप से उपासना करना। यह मंगल दोष को खत्म करने में सहायक होता है।कई लोग मंगल दोष के निवारण के लिए मूँगा भी धारण करते हैं। रत्न जातक की कुंडली में मंगल के प्रभाव को देखते हुए ज्योतिषियों के परामर्श अनुसार पहना जाता है।

कुण्डली में दोष विचार...

विवाहके लिए कुण्डली मिलान करते समय दोषों का भी विचार करना चाहिए।

कन्या की कुण्डली में वैधव्य योग , व्यभिचार योग, नि:संतान योग, मृत्यु योग एवं दारिद्र योग हो तो ज्योतिष की दृष्टि से सुखी वैवाहिक जीवन के लिये यह शुभ नहीं होता है।

इसी प्रकार वर की कुण्डली में अल्पायु योग, नपुंसक योग, व्यभिचार योग, पागलपन योग एवं पत्नी नाश योग ..रहने पर गृहस्थ जीवन में सुख का अभाव होता है।

ज्योतिष शास्त्र के अनुसार कन्या की कुण्डली में विष कन्या योग होने पर जीवन में सुख का अभाव रहता है. पति पत्नी के सम्बन्धों में मधुरता नहीं रहती है।

हालाँकि कई स्थितियों में कुण्डली में यह दोष प्रभावशाली नहीं होता है अत: जन्म कुण्डली के अलावा नवमांश और चन्द्र कुण्डली से भी इसका विचार करके विवाह किया जा सकता है |



पिप्लाद ऋषि.


पिप्लाद ऋषि.

श्मशान में जब महर्षि दधीचि के मांसपिंड का दाह संस्कार हो रहा था, तभी  उनकी पत्नी अपने पति का वियोग सहन नहीं कर पायीं और पास में ही स्थित विशाल पीपल वृक्ष के कोटर में 3 वर्ष के बालक को रख स्वयम् चिता में बैठकर सती हो गयीं।  इस प्रकार महर्षि दधीचि और उनकी पत्नी का बलिदान हो गया किन्तु पीपल के कोटर में रखा बालक भूख प्यास से तड़प तड़प कर चिल्लाने लगा। जब कोई वस्तु नहीं मिली तो कोटर में गिरे पीपल के गोदों (फल) को खाकर बड़ा होने लगा। कालान्तर में पीपल के पत्तों और फलों को खाकर बालक का जीवन येन केन प्रकारेण सुरक्षित रहा।

एक दिन देवर्षि नारद वहाँ से गुजरे। नारद ने पीपल के कोटर में बालक को देखकर उसका परिचय पूंछा-
नारद- बालक तुम कौन हो ?
बालक- यही तो मैं भी जानना चाहता हूँ ।
नारद- तुम्हारे जनक कौन हैं ?
बालक- यही तो मैं जानना चाहता हूँ ।

तब नारद ने ध्यान धर देखा। नारद ने आश्चर्यचकित हो बताया कि हे बालक ! तुम महान दानी महर्षि दधीचि के पुत्र हो। तुम्हारे पिता की अस्थियों का वज्र बनाकर ही देवताओं ने असुरों पर विजय पायी थी।  नारद ने बताया कि तुम्हारे पिता दधीचि की मृत्यु मात्र 31 वर्ष की वय में ही हो गयी थी।

बालक- मेरे पिता की अकाल मृत्यु का कारण क्या था ?
नारद- तुम्हारे पिता पर शनिदेव की महादशा थी।
बालक- मेरे ऊपर आयी विपत्ति का कारण क्या था ?
नारद- शनिदेव की महादशा।

इतना बताकर देवर्षि नारद ने पीपल के पत्तों और गोदों को खाकर जीने वाले बालक का नाम पिप्पलाद रखा और उसे दीक्षित किया।

नारद के जाने के बाद बालक पिप्पलाद ने नारद के बताए अनुसार ब्रह्मा जी की घोर तपस्या कर उन्हें प्रसन्न किया। ब्रह्मा जी ने जब बालक पिप्पलाद से वर मांगने को कहा तो पिप्पलाद ने अपनी दृष्टि मात्र से किसी भी वस्तु को जलाने की शक्ति माँगी। ब्रह्मा जी से वर  मिलने पर सर्वप्रथम पिप्पलाद ने शनि देव का आह्वाहन कर अपने सम्मुख पाया, तब अपनी आँखे खोलकर शनी को भष्म करना शुरू कर दिया। शनिदेव सशरीर जलने लगे।  ब्रह्मांड में कोलाहल मच गया।  सूर्यपुत्र शनि की रक्षा में सारे देव विफल हो गए।  सूर्य भी अपनी आंखों के सामने अपने पुत्र को जलता हुआ देखकर ब्रह्मा जी से बचाने हेतु विनय करने लगे। अन्ततः ब्रह्मा जी स्वयम् पिप्पलाद के पास आये और शनिदेव को छोड़ने की बात कही किन्तु पिप्पलाद तैयार नहीं हुए। ब्रह्मा जी ने एक के बदले दो वर  मांगने की बात कही। तब पिप्पलाद ने  निम्नानुसार दो वरदान मांगे-

1- जन्म से 5 वर्ष तक किसी भी बालक की कुंडली में शनि का प्रभाव नहीं होगा, ताकि   कोई और बालक मेरे जैसा अनाथ न हो,
2- मुझ अनाथ को शरण पीपल वृक्ष ने दी है। अतः जो भी व्यक्ति सूर्योदय के पूर्व पीपल वृक्ष पर जल चढ़ायेगा, उसपर शनि का प्रभाव नहीं होगा।

ब्रह्मा जी ने तथास्तु कह वरदान दे दिया, तब पिप्पलाद ने जलते हुए शनि को अपने ब्रह्मदण्ड से उनके पैरों पर आघात करके उन्हें मुक्त कर दिया। जिससे शनिदेव के पैर क्षतिग्रस्त हो गए और वे पहले जैसी तेजी से चलने लायक नहीं रहे।  तभी से शनि "शनै:चरति य: शनैश्चर:" अर्थात जो धीरे चलता है, वही शनैश्चर  कहलाये और  आग में जलने के कारण काली काया वाले अंग भंग रूप में हो गए।

सम्प्रति शनि की काली मूर्ति और पीपल वृक्ष की पूजा का यही धार्मिक हेतु है।  आगे चलकर पिप्पलाद ने प्रश्न उपनिषद की रचना की, जो आज भी ज्ञान का वृहद भंडार है।



श्राध्द कार्य में स्त्री का रजस्वला हो जाना.

 

श्राध्द कार्य में
स्त्री का रजस्वला हो जाना.

 

कुछ श्राद्ध ऐसे हैं कि यदि कर्ता की पत्नी रजस्वला भी हो जाए और पाक / भोजन बनाने वाला कोई और हो, तो उसी दिन श्राद्ध हो सकते हैं और यदि भोजन बनाने वाला कोई नहीं हो तो आमान्न / कच्चा अन्न / सीधा दान करके आमान्नदानात्म उसी दिन श्राद्ध किया जा सकता हैं।

उन श्राद्धों के नाम हैं...
दर्श श्राद्ध
युगादि श्राद्ध
मन्वादि श्राद्ध
अष्टका_श्राद्ध
अन्वष्टका श्राद्ध
सकृन्महालय श्राद्ध
दौहित्र कर्तृक मातामह श्राद्ध

प्रमाण..

अथभार्यारजोदोषे - तत्रदर्शयुगादिमन्वाद्यष्टकान्वष्टकादिश्राद्धानि,
पाककर्त्रंतरसत्त्वेन्ने तद्दिने कार्याण्यन्यथामादिद्रव्येण,
कालादर्शोदर्शश्राद्धं_पंचमेहनीतिपक्षांतरमाह,
सकृन्महालयस्तु दर्शभार्यारजसि मुख्यकालातिक्रमभिया तत्रैवकार्यः,
एवमाश्विनशुक्लपंचम्यंतकालेप्यूहम्। (धर्मसिन्धौ)


2- यदि कोई महालय में पिता की मृत्यु तिथि में श्राद्ध न करके अष्टमी आदि शास्त्रों में बताए गए अन्य विकल्पों में श्राद्ध करता है, तब यदि पत्नी ऋतुमती हो जाती है तो उस दिन श्राद्ध नहीं करे। 4 दिन बाद जब भी कोई अमावस्या आदि शास्त्रोचित विकल्प हो उस दिन महालय श्राद्ध करें।

अष्टम्यादौसकृन्महालयो भार्यारजोदोषे न कार्य:,
कालान्तरसत्त्वादित्यादिमहालयप्रकरणोक्त मनुसंधेयम्। (धर्मसिन्धौ)


3- कुछ श्राद्ध ऐसे हैं, जिनके लिए शास्त्रों में विकल्प
हैं...

प्रतिसांवत्सरिक श्राद्ध
मासिक श्राद्ध

प्रथम पक्ष... उपर्युक्त दोनों श्राद्धों को नियत तिथि पर ही करें चाहे पत्नी रजस्वला हो या न हो यह प्रथम पक्ष है। यही मुख्य-पक्ष है।

द्वितीय पक्ष...उपर्युक्त दोनों श्राद्धों को पत्नी के रजस्वला होने पर पाँचवें दिन में करें, यह दूसरा पक्ष भी है।

प्रत्याब्दिकं मासिकं च रजोदोषेपि तद्दिनएवकार्यमित्येक: पक्ष:,
पंचमेहनिकार्यमित्यपर: पक्षद्वयेपियंथसंमति: शिष्टाचारसमतिश्च। (धर्मसिन्धौ)


4- यदि किसी की दो पत्नियाँ हों
...

तो श्राद्ध नियत काल पर ही होगा, यह सर्व सम्मत मत है।

"भार्यान्तरसत्त्वे तद्दिन एवेति सर्वसंमतम्।"

5- रजस्वला के दिन श्राद्ध किये जाने पर
..

श्राद्धकाले रजस्वला दर्शनादिकं वर्ज्यं। (धर्मसिन्धौ)
अर्थ….जिस दिन पत्नी रजस्वला हो और उस दिन यदि श्राद्ध करें तो श्राद्ध काल में रजस्वला को नहीं देखना चाहिए तथा रजस्वला के द्वारा भी श्राद्ध संभारादि का दर्शन नहीं होना चाहिए।

श्राद्धकल्पे च दैवे च तैर्थिके पर्वणीषु च ।
रजस्वला च या नारी श्वित्रिकापुत्रिका च या ।।
एताभिश्चक्षुषा दृष्टं हविर्नाश्नन्ति देवता:।
पितरश्च न तुष्यन्ति वर्षाण्यपि त्रयोदश ।।
(महाभारत_अनु.127/12-14)

6- छोटा घर एवं रजस्वला की स्तिथि पर ….

योग्यपाककर्त्रसंभवे_च
पंचमेहनीतिपक्षःश्रेयान्।
(धर्मसिन्धौ)

अर्थ... यदि किसी का घर इस प्रकार का नहीं हो, इतना बड़ा न हो कि श्राद्धकाल में रजस्वला को न दिखे अथवा श्राद्ध का भोजन बनाने वाला कोई दूसरा न हो, तो सभी प्रकार के श्राद्धों को पांचवे दिन (रजस्वला के शुद्ध होने पर) करना चाहिए अथवा आमान्नदानात्मक (कच्चा अन्न/ सीधा) श्राद्ध करना चाहिए।

अपत्नीकः प्रवासी च यस्य भार्या रजस्वला।
आमश्राद्धं दीवारों कार्यं शूद्रेण तु सदैव हि।।
(श्राद्धविवेक)

7- पुत्र विहीन विधवा के रजस्वला के होने पर

भर्तुराब्दिकादिकं पंचमेहनि_कुर्यान्नत्वन्यद्वातरातद्दिने। (धर्मसिन्धौ)

अर्थ…. अपुत्रा विधवा स्त्री को रजस्वलावस्था में अपने पति का श्राद्ध पांचवें दिन में करना चाहिए।

रजस्वला अवस्था में 5 दिन से पहले किसी ब्राह्मण आदि से भी नहीं कराना चाहिए

श्राद्ध संबंधित नियमपालन पूर्वक विधिवत् श्राद्ध अवश्य करना चाहिए।