शर्मिन्दंगी

शर्मिन्दंगी

फ़ोन की घंटी तो सुनी मगर आलस की वजह से रजाई में ही लेटी रही। उसके पति राहुल को आखिर उठना ही पड़ा। दूसरे कमरे में पड़े फ़ोन की घंटी बजती ही जा रही थी।इतनी सुबह कौन हो सकता है जो सोने भी नहीं देता, इसी चिड़चिड़ाहट में उसने फ़ोन उठाया। “हेल्लो, कौन” तभी दूसरी तरफ से आवाज सुन सारी नींद खुल गयी।

“नमस्ते पापा।” “बेटा, बहुत दिनों से तुम्हे मिले नहीं सो हम दोनों ११ बजे की गाड़ी से आ रहे है। दोपहर का खाना साथ में खा कर हम ४ बजे की गाड़ी वापिस लौट जायेंगे। ठीक है।” “हाँ पापा, मैं स्टेशन पर आपको लेने आ जाऊंगा।”

रजाई में घुसी रचना का पारा एक दम सातवें आसमान पर चढ़ गया। “कोई इतवार को भी सोने नहीं देता, अब सबके के लिए खाना बनाओ। पूरी नौकरानी बना दिया है।” गुस्से से उठी और बाथरूम में घुस गयी। राहुल हक्का बक्का हो उसे देखता ही रह गया। जब वो बाहर आयी तो राहुल ने पूछा “क्या बनाओगी।” गुस्से से भरी रचना ने तुनक के जवाब दिया “अपने को तल के खिला दूँगी।” राहुल चुप रहा और मुस्कराता हुआ तैयार होने में लग गया, स्टेशन जो जाना था। थोड़ी देर बाद ग़ुस्सैल रचना को बोल कर वो मम्मी पापा को लेने स्टेशन जा रहा है वो घर से निकल गया।

दाल सब्जी में नमक, मसाले ठीक है या नहीं की परवाह किए बिना बस करछी चलाये जा रही थी। कच्चा पक्का खाना बना बेमन से परांठे तलने लगी तो कोई कच्चा तो कोई जला हुआ। आखिर उसने सब कुछ ख़तम किया, नहाने चली गयी।

फ़ोन रख कर वापिस कमरे में आ कर उसने रचना को बताया कि मम्मी पापा ११ बजे की गाड़ी से आरहे है और दोपहर का खाना हमारे साथ ही खायेंगे।

रचना गुस्से में बड़बड़ाते हुए खाना बना रही थी।

नहा के निकली और तैयार हो सोफे पर बैठ मैगज़ीन के पन्ने पलटने लगी।उसके मन में तो बस यह चल रहा था कि सारा संडे खराब कर दिया। बस अब तो आएँ , खाएँ और वापिस जाएँ। थोड़ी देर में घर की घंटी बजी तो बड़े बेमन से उठी और दरवाजा खोला। दरवाजा खुलते ही उसकी आँखें हैरानी से फटी की फटी रह गयी और मुँह से एक शब्द भी नहीं निकल सका। सामने राहुल के नहीं उसके अपने मम्मी पापा खड़े थे जिन्हें राहुल स्टेशन से लाया था।

मम्मी ने आगे बढ़ कर उसे झिंझोड़ा “अरे, क्या हुआ। इतनी हैरान परेशान क्यों लग रही है। क्या राहुल ने बताया नहीं कि हम आ रहे हैं।” जैसे मानो रचना के नींद टूटी हो “नहीं, मम्मी इन्होंने तो बताया था पर…. रर… रर। चलो आप अंदर तो आओ।” राहुल तो अपनी मुसकराहट रोक नहीं पा रहा था।

कुछ देर इधर उधर की बातें करने में बीत गया। थोड़ी देर बाद पापा ने कहाँ “रचना, गप्पे ही मारती रहोगी या कुछ खिलाओगी भी।” यह सुन रचना को मानो साँप सूँघ गया हो। क्या करती, बेचारी को अपने हाथों ही से बनाए अध पक्के और जले हुए खाने को परोसना पड़ा। मम्मी पापा खाना तो खा रहे थे मगर उनकी आँखों में एक प्रश्न था जिसका वो जवाब ढूँढ रहे थे। आखिर इतना स्वादिष्ट खाना बनाने वाली उनकी बेटी आज उन्हें कैसा खाना खिला रही है।

रचना बस मुँह नीचे किए बैठी खाना खा रही थी। मम्मी पापा से आँख मिलाने की उसकी हिम्मत नहीं हो पा रही थी। खाना ख़तम कर सब ड्राइंग रूम में आ बैठे। राहुल कुछ काम है अभी आता हुँ कह कर थोड़ी देर के लिए बाहर निकल गया। राहुल के जाते ही मम्मी, जो बहुत देर से चुप बैठी थी बोल पड़ी “क्या राहुल ने बताया नहीं था की हम आ रहे हैं।”

तो अचानक रचना के मुँह से निकल गया “उसने सिर्फ यह कहाँ था कि मम्मी पापा लंच पर आ रहे हैं, मैं समझी उसके मम्मी पापा आ रहे हैं।”

फिर क्या था रचना की मम्मी को समझते देर नहीं लगी कि ये मामला है। बहुत दुखी मन से उन्होंने रचना को समझाया “बेटी, हम हों या उसके मम्मी पापा तुम्हे तो बराबर का सम्मान करना चाहिए। मम्मी पापा क्या, कोई भी घर आए तो खुशी खुशी अपनी हैसियत के मुताबिक उसकी सेवा करो। बेटी, जितना किसी को सम्मान दोगी उतना तुम्हे ही प्यार और इज़्ज़त मिलेगी। जैसे राहुल हमारी इज़्ज़त करता है उसी तरह तुम्हे भी उसके माता पिता और सम्बन्धियों की इज़्ज़त करनी चाहिए। रिश्ता कोई भी हो, हमारा या उसका, कभी फर्क नहीं करना।”

रचना की आँखों में ऑंसू आ गए और अपने को शर्मिंदा महसूस कर उसने मम्मी को वचन दिया कि आज के बाद फिर ऐसा कभी नहीं होगा..!

झूठा अभिमान.


झूठा भिमा.

एक मक्खी एक हाथी के ऊपर बैठ गयी। हाथी को पता न चला मक्खी कब बैठी। मक्खी बहुत भिनभिनाई, आवाज की, और कहा, ‘भाई! तुझे कोई तकलीफ हो तो बता देना। वजन मालूम पड़े तो खबर कर देना, मैं हट जाऊंगी।’ लेकिन हाथी को कुछ सुनाई न पड़ा। फिर हाथी एक पुल पर से गुजरने लगा, बड़ी पहाड़ी नदी थी, भयंकर गङ्ढ था, मक्खी ने कहा कि ‘देख तो, कहीं पुल टूट न जाए! अगर ऐसा कुछ डर लगे तो मुझे बता देना। मेरे पास पंख हैं, मैं उड़ जाऊंगी।’

हाथी के कान में थोड़ी-सी कुछ भिनभिनाहट पड़ी, पर उसने कुछ ध्यान न दिया। फिर मक्खी के बिदा होने का वक्त आ गया। उसने कहा, ‘यात्रा बड़ी सुखद हुई, साथी-संगी रहे, मित्रता बनी, अब मैं जाती हूं, कोई काम हो, तो मुझे कहना, तब मक्खी की आवाज थोड़ी हाथी को सुनाई पड़ी, उसने कहा, ‘तू कौन है कुछ पता नहीं, कब तू आयी, कब तू मेरे शरीर पर बैठी, कब तू उड़ गयी, इसका मुझे कोई पता नहीं है। लेकिन मक्खी तब तक जा चुकी थी सन्त कहते हैं, ‘हमारा होना भी ऐसा ही है। इस बड़ी पृथ्वी पर हमारे होने, ना होने से कोई फर्क नहीं पड़ता।

हाथी और मक्खी के अनुपात से भी कहीं छोटा, हमारा और ब्रह्मांड का अनुपात है । हमारे ना रहने से क्या फर्क पड़ता है? लेकिन हम बड़ा शोरगुल मचाते हैं। वह शोरगुल किसलिये है? वह मक्खी क्या चाहती थी? वह चाहती थी हाथी स्वीकार करे, तू भी है; तेरा भी अस्तित्व है, वह पूछ चाहती थी। हमारा अहंकार अकेले तो नहीं जी सक रहा है। दूसरे उसे मानें, तो ही जी सकता है। इसलिए हम सब उपाय करते हैं कि किसी भांति दूसरे उसे मानें, ध्यान दें, हमारी तरफ देखें; उपेक्षा न हो।

सन्त विचार- हम वस्त्र पहनते हैं तो दूसरों को दिखाने के लिये, स्नान करते हैं सजाते-संवारते हैं ताकि दूसरे हमें सुंदर समझें। धन इकट्ठा करते, मकान बनाते, तो दूसरों को दिखाने के लिये। दूसरे देखें और स्वीकार करें कि तुम कुछ विशिष्ट हो, ना की साधारण।

तुम मिट्टी से ही बने हो और फिर मिट्टी में मिल जाओगे, तुम अज्ञान के कारण खुद को खास दिखाना चाहते हो वरना तो तुम बस एक मिट्टी के पुतले हो और कुछ नहीं। अहंकार सदा इस तलाश में है–वे आंखें मिल जाएं, जो मेरी छाया को वजन दे दें।

याद रखना आत्मा के निकलते ही यह मिट्टी का पुतला फिर मिट्टी बन जाएगा इसलिए अपना झूठा अहंकार छोड़ दो और सब का सम्मान करो क्योंकि जीवों में परमात्मा का अंश आत्मा है।

नवरात्र में माँ दुर्गाजी का आगमन एवं प्रस्थान-वाहन .


नवरात्र में माँ दुर्गाजी का
आगमन एवं  प्रस्थान-वाहन .
(ज्योतिषीय आंकलन)

देवी भागवत के अनुसार अश्विन माह के शुक्लपक्ष की प्रतिपदा तिथि से नवमी तक के नौ दिन देवी पूजा के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण माने गए हैं। इन दिनों को शारदीय नवरात्र कहा जाता है। वैसे तो मां दुर्गा का वाहन सिंह है, लेकिन हर नवरात्र पर देवी दुर्गा पृथ्वी पर अलग-अलग वाहन पर सवार होकर आती हैं। देवी के अलग-अलग वाहनों पर सवार होकर आने से इसका अलग-अलग शुभ-अशुभ फल बताया गया है।

माता दुर्गा जिस वाहन से पृथ्वी पर आती हैं, उसके अनुसार साल भर होने वाली घटनाओं का भी आंकलन किया जाता है।

शशिसूर्ये गजारूढ़ा शनिभौमे तुरंगमे।
गुरौ शुक्रे चदोलायां बुधे नौका प्रकी‌र्त्तिता


देवी भागवत के इस श्लोक के अनुसार सोमवार व रविवार को नवरात्र प्रारंभ होने पर मां दुर्गा हाथी पर सवार होकर आती हैं। शनिवार और मंगलवार को नवरात्र शुरू होने पर माता का वाहन घोड़ा होता है। गुरुवार या शुक्रवार को नवरात्र शुरू होने पर माता डोली में बैठकर आती हैं। बुधवार से नवरात्र शुरू होने पर माता नाव पर सवार होकर आती हैं।

तत्तफलम: गजे च जलदा देवी क्षत्र भंग स्तुरंगमे।
नोकायां सर्वसिद्धि स्या ढोलायां मरणंधुवम्।।


देवी जब हाथी पर सवार होकर आती है, तो पानी ज्यादा बरसता है। घोड़े पर आती हैं, तो पड़ोसी देशों से युद्ध की आशंका बढ़ जाती है। देवी नौका पर आती हैं, तो सभी की मनोकामनाएं पूरी होती हैं और डोली पर आती हैं, तो महामारी का भय बना रहता हैं।


देवी जी का प्रस्थान वाहन. 

देवी भागवत के अनुसार नवरात्र का आखिरी दिन तय करता है कि जाते समय माता का वाहन कौन सा होगा। यानी नवरात्र के अंतिम दिन कौन सा वार है, उसी के अनुसार देवी का वाहन भी तय होता है। 

शशि सूर्य दिने यदि सा विजया महिषागमने रुज शोककरा।
शनि भौमदिने यदि सा विजया चरणायुध यानि करी विकला।।
बुधशुक्र दिने यदि सा विजया गजवाहन गा शुभ वृष्टिकरा।
सुरराजगुरौ यदि सा विजया नरवाहन गा शुभ सौख्य करा॥

रविवार और सोमवार को देवी भैंसा की सवारी से जाती हैं, तो देश में रोग और शोक बढ़ता है। शनिवार और मंगलवार को देवी चरणायुध पर (मुर्गे पर सवार होकर) जाती हैं। जिससे दुख और कष्ट की वृद्धि होती है। बुधवार और शुक्रवार को देवी हाथी पर जाती हैं। इससे बारिश ज्यादा होती है। गुरुवार को मां भगवती मनुष्य की सवारी से जाती हैं। इससे जो सुख और शांति की वृद्धि होती है।

निर्दिष्ट फलाफल की अवधि आगामी नवरात्र तक की मानी गई हैं।

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: त्रयोविंश अध्यायः श्लोक 12-29 का हिन्दी अनुवाद


 (लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: त्रयोविंश अध्यायः श्लोक 12-29 का हिन्दी अनुवाद


मैत्रेय जी कहते हैं- विदुर जी! कर्दम मुनि ने अपनी प्रिया की इच्छा पूर्ण करने के लिये उसी समय योग में स्थित होकर एक विमान रचा, जो इच्छानुसार सर्वत्र जा सकता था। यह विमान सब प्रकार के इच्छित भोग-सुख प्रदान करने वाला, अत्यन्त सुन्दर, सब प्रकार के रत्नों से युक्त, सब सम्पत्तियों की उत्तरोत्तर वृद्धि से सम्पन्न तथा मणिमय खंभों से सुशोभित था। वह सभी ऋतुओं में सुखदायक था और उसमें जहाँ-तहाँ सब प्रकार की दिव्य सामग्रियाँ रखी हुईं थीं तथा उसे चित्र-विचित्र रेशमी झंडियों और पताकाओं से खूब सजाया गया था। जिन पर भ्रमरगण मधुर गुंजार कर रहे थे, ऐसे रंग-बिरंगे पुष्पों की मालाओं से तथा अनेक प्रकार के सूती और रेशमी वस्त्रों से वह अत्यन्त शोभायमान हो रहा था। एक के ऊपर एक बनाये हुए कमरों में अलग-अलग रखी हुई शय्या, पलंग, पंखे और आसनों के कारण वह बड़ा सुन्दर जान पड़ता था। जहाँ-तहाँ दीवारों में की हुई शिल्प रचना से उसकी अपूर्व शोभा हो रही थी। उसमें पन्ने का फर्श था और बैठने के लिये मूँगे की वेदियाँ बनायी गयी थीं। मूँगे की ही देहलियाँ थीं। उसके द्वारों में हीरे के किवाड़ थे तथा इन्द्रनील मणि के शिखरों पर सोने के कलश रखे हुए थे। उसकी हीरे की दीवारों में बढ़िया लाल जड़े हुए थे, जो ऐसे जान पड़ते थे मानो विमान की आँखें हों तथा उसे रंग-बिरंगे चंदोवे और बहुमूल्य सुनहरी बन्दनवारों से सजाया गया था।

उस विमान में जहाँ-तहाँ कृत्रिम हंस और कबूतर आदि पक्षी बनाये गये थे, जो बिलकुल सजीव-से मालूम पड़ते थे; उन्हें अपना सजातीय समझकर बहुत-से हंस और कबूतर उनके पास बैठ-बैठकर अपनी बोली बोलते थे। उसमें सुविधानुसार क्रीड़ास्थली, शयनगृह, बैठक, आँगन और चौक आदि बनाये गये थे-जिनके कारण वह विमान स्वयं कर्दम जी को भी विस्मित-सा कर रहा था। ऐसे सुन्दर घर को भी जब देवहूति ने बहुत प्रसन्न चित्त से नहीं देखा तो सबके आन्तरिक भाव को परख लेने वाले कर्दम जी ने स्वयं ही कहा- ‘भीरु! तुम इस बिन्दुसर सरोवर में स्नान करके विमान पर चढ़ जाओ; यह विष्णु भगवान् का रचा हुआ तीर्थ मनुष्यों को सभी कामनाओं की प्राप्ति कराने वाला है’।

विदुरजी! कमललोचना देवहूति ने अपने पति की बात मानकर सरस्वती के पवित्र जल से भरे हुए उस सरोवर में प्रवेश किया। उस समय वह बड़ी मैली-कुचैली साड़ी पहले हुए थी, उसके सिर के बाल चिपक जाने से उनमें लटें पड़ गयी थीं, शरीर में मैल जम गया था तथा स्तन कान्तिहीन हो गये थे। सरोवर में गोता लगाने पर उसने उसके भीतर एक महल में एक हजार कन्याएँ देखीं। वे सभी किशोर-अवस्था की थीं और उनके शरीर से कमल की-सी गन्ध आती थी। देवहूति को देखते ही वे सब स्त्रियाँ सहसा खड़ी हो गयीं और हाथ जोड़कर कहने लगीं, ‘हम आपकी दासियाँ हैं; हमें आज्ञा दीजिये, आपकी क्या सेवा करें?
तब स्वामिनी को सम्मान देने वाली उन रमणियों ने बहुमूल्य मसालों तथा गन्ध आदि से मिश्रित जल के द्वारा मनस्विनी देवहूति को स्नान कराया तथा उसे दो नवीन और निर्मल वस्त्र पहनने को दिये। फिर उन्होंने ये बहुत मूल्य के बड़े सुन्दर और कान्तिमान् आभूषण, सर्वगुणसम्पन्न भोजन और पीने के लिये अमृत के समान स्वादिष्ट आसव प्रस्तुत किये।


साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: त्रयोविंश अध्यायः श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: त्रयोविंश अध्यायः श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद

कर्दम और देवहूति का विहा.

श्रीमैत्रेय जी ने कहा- विदुर जी! माता-पिता के चले जाने पर पति के अभिप्राय को समझ लेने में कुशल साध्वी देवहूति कर्दम जी की प्रतिदिन प्रेमपूर्वक सेवा करने लगी, ठीक उसी तरह, जैसे श्रीपार्वती जी भगवान् शंकर की सेवा करती हैं। उसने काम-वासना, दम्भ, द्वेष, लोभ, पाप और मद का त्याग कर बड़ी सावधानी और लगन के साथ सेवा में तत्पर रहकर विश्वास, पवित्रता, गौरव, संयम, शुश्रूषा, प्रेम और मधुर भाषणादि गुणों से अपने परम तेजस्वी पतिदेव को सन्तुष्ट कर लिया।

देवहूति समझती थी कि मेरे पतिदेव दैव से भी बढ़कर हैं, इसलिये वह उनसे बड़ी-बड़ी आशाएँ रखकर उनकी सेवा में लगी रहती थी। इस प्रकार बहुत दिनों तक अपना अनुवर्तन करने वाली उस मनुपुत्री को व्रतादि का पालन करने से दुर्बल हुई देख देवर्षिश्रेष्ठ कर्दम को दयावश कुछ खेद हुआ और उन्होंने उससे प्रेमगद्गद वाणी में कहा।

कर्दम जी बोले- मनुनन्दिनी! तुमने मेरा बड़ा आदर किया है। मैं तुम्हारी उत्तम सेवा और परम भक्ति से बहुत सन्तुष्ट हूँ। सभी देहधारियों को अपना शरीर बहुत प्रिय एवं आदर की वस्तु होता है, किन्तु तुमने मेरी सेवा के आगे उसके क्षीण होने की भी कोई परवा नहीं की। अतः अपने धर्म का पालन करते रहने से मुझे तप, समाधि, उपासना और योग के द्वारा जो भय और शोक से रहित भगवत्प्रसाद-स्वरूप विभूतियाँ प्राप्त हुईं हैं, उन पर मेरी सेवा के प्रभाव से अब तुम्हारा भी अधिकार हो गया है। मैं तुम्हें दिव्य-दृष्टि प्रदान करता हूँ, उसके द्वारा तुम उन्हें देखो। अन्य जितने भी भोग हैं, वे तो भगवान् श्रीहरि के भ्रुकुटि-विलासमात्र से नष्ट हो जाते हैं; अतः वे इनके आगे कुछ भी नहीं है। तुम मेरी सेवा से भी कृतार्थ हो गयी हो; अपने पातिव्रत-धर्म का पालन करने से तुम्हें ये दिव्य भोग प्राप्त हो गये हैं, तुम इन्हें भोग सकती हो। हम राजा हैं, हमें सब कुछ सुलभ है, इस प्रकार जो अभिमान आदि विकार हैं, उनके रहते हुए मनुष्यों को इन दिव्य भोगों की प्राप्ति होनी कठिन है।

कर्दम जी के इस प्रकार कहने से अपने पतिदेव को सम्पूर्ण योगमाया और विद्याओं में कुशल जानकर उस अबला की सारी चिन्ता जाती रही। उसका मुख किंचित् संकोच भरी चितवन और मधुर मुस्कान से खिल उठा और वह विनय एवं प्रेम से गद्गद वाणी में इस प्रकार कहने लगी।

देवहूति ने कहा- द्विजश्रेष्ठ! स्वामिन्! मैं यह जानती हूँ कि कभी निष्फल न होने वाली योगशक्ति और त्रिगुणात्मिक माया पर अधिकार रखने वाले आपको ये सब ऐश्वर्य प्राप्त हैं। किन्तु प्रभो! आपने विवाह के समय जो प्रतिज्ञा की थी कि गर्भाधान होने तक मैं तुम्हारे साथ गृहस्थ-सुख का उपभोग करूँगा, उसकी अब पूर्ति होनी चाहिये। क्योंकि श्रेष्ठ पति के द्वारा सन्तान प्राप्त होना पतिव्रता स्त्री के लिये महान् लाभ है। हम दोनों के समागम के लिये शास्त्र के अनुसार जो कर्तव्य हो, उसका आप उपदेश दीजिये और उबटन, गन्ध, भोजन आदि उपयोगी सामग्रियाँ भी जुटा दीजिये, जिससे मिलन की इच्छा से अत्यन्त दीन दुर्बल हुआ मेरा यह शरीर आपके अंग-संग के योग्य हो जाये; क्योंकि आपकी ही बढ़ायी हुई कामवेदना से मैं पीड़ित हो रही हूँ। स्वामिन्! इस कार्य के लिये एक उपयुक्त भवन तैयार हो जाये, इसका भी विचार कीजिये।

साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: द्वाविंश अध्यायः श्लोक 32-39 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: द्वाविंश अध्यायः श्लोक 32-39 का हिन्दी अनुवाद



जिस बर्हिष्मती पुरी में मनु जी निवास करते थे, उसमें पहुँचकर उन्होंने अपने त्रितापनाशक भवन में प्रवेश किया। वहाँ अपनी भार्या और सन्तति के सहित वे धर्म, अर्थ और मोक्ष के अनुकूल भोगों को भोगने लगे। प्रातःकाल होने पर गन्धर्वगण अपनी स्त्रियों के सहित उनका गुणगान करते थे; किन्तु मनु जी उसमें आसक्त न होकर प्रेमपूर्ण हृदय से श्रीहरि कथाएँ ही सुना करते थे। वे इच्छानुसार भोगों का निर्माण करने में कुशल थे; किन्तु मननशील और भगवत्परायण होने के कारण भोग उन्हें किंचित् भी विचलित नहीं कर पाते थे।

भगवान् विष्णु की कथाओं का श्रवण, ध्यान, रचना और निरूपण करते रहने के कारण उनके मन्वन्तर को व्यतीत करने वाले क्षण कभी व्यर्थ नहीं जाते थे। इस प्रकार अपनी जाग्रत् आदि तीनों अवस्थाओं अथवा तीनों गुणों को अभिभूत करके उन्होंने भगवान् वासुदेव के कथाप्रसंग में अपने मन्वन्तर के इकहत्तर चतुर्युग पूरे कर दिये।

व्यासनन्दन विदुर जी! जो पुरुष श्रीहरि के आश्रित रहता है उसे शारीरिक, मानसिक, दैविक, मानुषिक अथवा भौतिक दुःख किस प्रकार कष्ट पहुँचा सकते हैं। मनु जी निरन्तर समस्त प्राणियों के हित में लगे रहते थे। मुनियों के पूछने पर उन्होंने मनुष्यों के तथा समस्त वर्ण और आश्रमों के अनेक प्रकार के मंगलमय धर्मों का भी वर्णन किया (जो मनुसंहिता के रूप में अब भी उपलब्ध है)। जगत् के सर्वप्रथम सम्राट् महाराज मनु वास्तव में कीर्तन के योग्य थे। यह मैंने उनके अद्भुत चरित्र का वर्णन किया, अब उनकी कन्या देवहूति का प्रभाव सुनो।

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: द्वाविंश अध्यायः श्लोक 17-31 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: द्वाविंश अध्यायः श्लोक 17-31 का हिन्दी अनुवाद

एक बार यह अपने महल की छत पर गेंद खेल रही थी। गेंद के पीछे इधर-उधर दौड़ने के कारण इसके नेत्र चंचल हो रहे थे तथा पैरों के पायजेब मधुर झनकार करते जाते थे। उस समय इसे देखकर विश्वावसु गन्धर्व मोहवश अचेत होकर अपने विमान से गिर पड़ा था। वही इस समय यहाँ स्वयं आकर प्रार्थना कर रही है; ऐसी अवस्था में कौन समझदार पुरुष इसे स्वीकार न करेगा? यह तो साक्षात् आप महाराज श्रीस्वायम्भुव मनु की दुलारी कन्या और उत्तानपाद की प्यारी बहिन है; तथा यह रमणियों में रत्न के समान है। जिन लोगों ने कभी श्रीलक्ष्मी जी के चरणों की उपासना नहीं की है, उन्हें तो इसका दर्शन भी नहीं हो सकता। अतः मैं आपकी इस साध्वी कन्या को अवश्य स्वीकार करूँगा, किन्तु एक शर्त के साथ। जब तक इसके संतान न हो जायेगी, तब तक मैं गृहस्थ-धर्मानुसार इसके साथ रहूँगा। उसके बाद भगवान् के बताये हुए संन्यासप्रधान हिंसारहित शम-दामादि धर्मों को ही अधिक महत्त्व दूँगा। जिनसे इस विचित्र जगत् की उत्पत्ति हुई है, जिनमें यह लीन हो जाता है और जिनके आश्रय से यह स्थित है-मुझे तो वे प्रजापतियों के भी पति भगवान् श्रीअनन्त ही सबसे अधिक मान्य हैं।

मैत्रेय जी कहते हैं- प्रचण्ड धनुर्धर विदुर! कर्दम जी केवल इतना ही कह सके, फिर वे हृदय में भगवान् कमलनाभ का ध्यान करते हुए मौन हो गये। उस समय उसके मन्द हास्ययुक्त मुखकमल को देखकर देवहूति का चित्त लुभा गया। मनु जी ने देखा कि इस सम्बन्ध में महारानी शतरूपा और राजकुमारी की स्पष्ट अनुमति है, अतः उन्होंने अनेक गुणों में सम्पन्न कर्दम जी को उन्हीं के समान गुणवती कन्या का प्रसन्नतापूर्वक दान कर दिया। महारानी शतरूपा ने भी बेटी और दामाद को बड़े प्रेमपूर्वक बहुत-से बहुमूल्य वस्त्र, आभूषण और गृहस्थोचित पात्रादि दहेज में दिये। इस प्रकार सुयोग्य वर को अपनी कन्या देकर महाराज मनु निश्चिन्त हो गये। चलती बार उसका वियोग न सह सकने के कारण उन्होंने उत्कण्ठावश विह्वलचित्त होकर उसे अपनी छाती से चिपटा लिया और ‘बेटी! बेटी!’ कहकर रोने लगे। उनकी आँखों से आँसुओं की झड़ी लग गयी और उनसे उन्होंने देवहूति के सिर के सारे बाल भिगो दिये। फिर वे मुनिवर कर्दम से पूछकर, उनकी आज्ञा ले रानी के सहित रथ पर सवार हुए और अपने सेवकों सहित ऋषिकुल सेवित सरस्वती नदी के दोनों तीरों पर मुनियों के आश्रमों की शोभा देखते हुए अपनी राजधानी में चले आये।


जब ब्रह्मावर्त की प्रजा को यह समाचार मिला कि उसके स्वामी आ रहे हैं, तब वह अत्यन्त आनन्दित होकर स्तुति, गीत एवं बाजे-गाजे के साथ अगवानी करने के लिये ब्रह्मावर्त की राजधानी से बाहर आयी। सब प्रकार की सम्पदाओं से युक्त बर्हिष्मती नगरी मनु जी की राजधानी थी, जहाँ पृथ्वी को रसातल से ले आने के पश्चात् शरीर कँपाते समय श्रीवराह भगवान् के रोम झड़कर गिरे थे। वे रोम ही निरन्तर हरे-भरे रहने वाले कुश और कास हुए, जिनके द्वारा मुनियों ने यज्ञ में विघ्न डालने वाले दैत्यों का तिरस्कार कर भगवान् यज्ञपुरुष की यज्ञों द्वारा आराधना की है। महाराज मनु ने भी श्रीवराह भगवान् से भूमिरूप निवासस्थान प्राप्त होने पर इसी स्थान में कुश और कास की बर्हि (चटाई) बिछाकर श्रीयज्ञ भगवान् की पूजा की थी।

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: अथ द्वाविंश अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: अथ द्वाविंश अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद

देवहूति के साथ कर्दम प्रजापति का विवाह.

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- विदुर जी! इस प्रकार जब कर्दम जी ने मनु जी के सम्पूर्ण गुणों और कर्मों की श्रेष्ठता का वर्णन किया तो उन्होंने उन निवृत्तिपरायण मुनि से कुछ सकुचाकर कहा। मनु जी ने कहा- मुने! वेदमूर्ति भगवान् ब्रह्मा ने अपने वेदमय विग्रह की रक्षा के लिए तप, विद्या और योग से सम्पन्न तथा विषयों में अनासक्त आप ब्राह्मणों को अपने मुख से प्रकट किया है और फिर उन सहस्र चरणों वाले विराट् पुरुष ने आप लोगों की रक्षा के लिये ही अपनी सहस्रों भुजाओं से हम क्षत्रियों को उत्पन्न किया है। इस प्रकार ब्राह्मण उनके हृदय और क्षत्रिय शरीर कहलाते हैं। अतः एक ही शरीर से सम्बद्ध होने के कारण अपनी-अपनी और एक-दूसरे की रक्षा करने वाले उन ब्राह्मण और क्षत्रियों की वास्तव में श्रीहरि ही रक्षा करते हैं, जो समस्त कार्यकारणरूप होकर भी वास्तव में निर्विकार हैं। आपके दर्शनमात्र से ही मेरे सारे सन्देह दूर हो गये, क्योंकि आपने मेरी प्रशंसा के मिस से स्वयं ही प्रजापालन की इच्छा वाले के धर्मों का बड़े प्रेम से निरूपण किया है। आपका दर्शन अजितेन्द्रिय पुरुषों को बहुत दुर्लभ है; मेरा बड़ा भाग्य है जो मुझे आपका दर्शन हुआ और मैं आपके चरणों की मंगलमयी रज अपने सिर पर चढ़ा सका। मेरे भाग्योदय से ही आपने मुझे राजधर्मों की शिक्षा देकर मुझ पर महान् अनुग्रह किया है और मैंने भी शुभ प्रारब्ध का उदय होने से ही आपकी पवित्र वाणी कान खोलकर सुनी है।

मुने! इस कन्या के स्नेहवश मेरा चित्त बहुत चिन्ताग्रस्त हो रहा है; अतः मुझ दीन की यह प्रार्थना आप कृपापूर्वक सुनें। यह मेरी कन्या-जो प्रियव्रत और उत्तानपाद की बहिन है-अवस्था, शील और गुण आदि में अपने योग्य पति को पाने की इच्छा रखती है। जब से नारद जी के मुख से आपके शील, विद्या, रूप, आयु और गुणों का वर्णन सुना है, तभी से यह आपको अपना पति बनाने का निश्चय कर चुकी है। द्विजवर! मैं बड़ी श्रद्धा से आपको यह कन्या समर्पित करता हूँ, आप इसे स्वीकार कीजिये। यह गृहस्थोचित कार्यों के लिये सब प्रकार आपके योग्य है। जो भोग स्वतः प्राप्त हो जाये, उसकी अवहेलना करना विरक्त पुरुष को भी उचित नहीं है; फिर विषयासक्त की तो बात ही क्या है। जो पुरुष स्वयं प्राप्त हुए भोग का निरादर कर फिर किसी कृपण के आगे हाथ पसारता है, उसका बहुत फैला हुआ यश भी नष्ट हो जाता है और दूसरों के तिरस्कार से मान भंग भी होता है।

विद्वन्! मैंने सुना है, आप विवाह करने के लिये उद्यत हैं। आपका ब्रह्मचर्य एक सीमा तक है, आप नैष्ठित ब्रह्मचारी तो हैं नहीं। इसलिये अब आप इस कन्या को स्वीकार कीजिये, मैं इसे आपको अर्पित करता हूँ। श्रीकर्दम मुनि ने कहा- ठीक है, मैं विवाह करना चाहता हूँ और आपकी कन्या का अभी किसी से साथ वाग्दान नहीं हुआ है, इसलिये हम दोनों का सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मा विधि से विवाह होना उचित ही होगा। राजन्! वेदोक्त विवाह-विधि में प्रसिद्ध जो ‘गृभ्णामि ते’ इत्यादि मन्त्रों में बताया हुआ काम (संतानोत्पादनरूप मनोरथ) है, वह आपकी इस कन्या के साथ हमारा सम्बन्ध होने से सफल होगा। भला, जो अपनी अंगकान्ति से आभूषणादि की शोभा को भी तिरस्कृत कर रही है, आपकी उस कन्या का कौन आदर न करेगा?


साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: एकविंश अध्यायः श्लोक 45-56 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: एकविंश अध्यायः श्लोक 45-56 का हिन्दी अनुवाद

आदिराज महाराज मनु ने उस उत्तम तीर्थ में कन्या के सहित पहुँचकर देखा कि मुनिवर कर्दम अग्निहोत्र से निवृत्त होकर बैठे हुए हैं। बहुत दिनों तक उग्र तपस्या करने के कारण वे शरीर से बड़े तेजस्वी दीख पड़ते थे तथा भगवान् के स्नेहपूर्ण चितवन के दर्शन और उनके उच्चारण किये हुए कर्णामृतरूप सुमधुर वचनों को सुनने से, इतने दिनों तक तपस्या करने पर भी वे विशेष दुर्बल नहीं जान पड़ते थे। उनका शरीर लम्बा था, नेत्र कमलदल के समान विशाल और मनोहर थे, सिर पर जटाएँ सुशोभित थीं और कमर में चीर-वस्त्र थे। वे निकट से देखने पर बिना सान पर चढ़ी हुई महामूल्य मणि के समान मलिन जान पड़ते थे।

महाराज स्वायम्भुव मनु को अपनी कुटी में आकर प्रणाम करते देख उन्होंने उन्हें आशीर्वाद से प्रसन्न किया और यथोचित आतिथ्य की रीति से उनका स्वागत-सत्कार किया। जब मनु जी उनकी पूजा ग्रहण कर स्वस्थचित्त से आसन पर बैठ गये, तब मुनिवर कर्दम ने भगवान् की आज्ञा का स्मरण कर उन्हें मधुर वाणी से प्रसन्न करते हुए इस प्रकार कहा- ‘देव! आप भगवान् विष्णु की पालनशक्तिरूप हैं, इसलिये आपका घूमना-फिरना निःसन्देह सज्जनों की रक्षा और दुष्टों के संहार के लिए ही होता है। आप साक्षात् विशुद्ध विष्णुस्वरूप हैं तथा भिन्न-भिन्न कार्यों के लिये सूर्य, चन्द्र, अग्नि, इन्द्र, वायु, यम, धर्म और वरुण आदि रूप धारण करते हैं; आपको नमस्कार है।

आप मणियों से जड़े हुए जयदायक रथ पर सवार हो अपने प्रचण्ड धनुष की टंकार करते हुए उस रथ की घरघराहट से ही पापियों को भयभीत कर देते हैं और अपनी सेना के चरणों से रौंदे हुए भूमण्डल को कँपाते अपनी उस विशाल सेना को साथ लेकर पृथ्वी पर सूर्य के समान विचरते हैं। यदि आप ऐसा न करें तो चोर-डाकू भगवान् की बनायी हुई वर्णाश्रम धर्म की मर्यादा को तत्काल नष्ट कर दें तथा विषयलोलुप निरंकुश मानवों द्वारा सर्वत्र अधर्म फैल जाये। यदि आप संसार की ओर से निश्चिन्त हो जायें तो यह लोक दुराचारियों के पंजे में पड़कर नष्ट हो जाये। तो भी वीरवर! मैं आपसे पूछता हूँ कि इस समय यहाँ आपका आगमन किस प्रयोजन से हुआ है; मेरे लिये जो आज्ञा होगी, उसे मैं निष्कपट भाव से सहर्ष स्वीकार करूँगा।

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: एकविंश अध्यायः श्लोक 29-44 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: एकविंश अध्यायः श्लोक 29-44 का हिन्दी अनुवाद

वह तुम्हारा वीर्य अपने गर्भ में धारणकर उससे नौ कन्याएँ उत्पन्न करेगी और फिर तुम्हारी उन कन्याओं से लोकरीति के अनुसार मरीचि आदि ऋषिगण पुत्र उत्पन्न करेंगें। तुम भी मेरी आज्ञा का अच्छी तरह पालन करने से शुद्धचित्त हो, फिर अपने सब कर्मों का फल मुझे अर्पण कर मुझको ही प्राप्त होओगे। जीवों पर दया करते हुए तुम आत्मज्ञान प्राप्त करोगे और फिर सबको अभयदान दे अपने सहित सम्पूर्ण जगत् को मुझमें और मुझको अपने में स्थित देखोगे। महामुने! मैं भी अपने अंश-कलारूप से तुम्हारे वीर्य द्वारा तुम्हारी पत्नी देवहूति के गर्भ में अवतीर्ण होकर सांख्य शास्त्र की रचना करूँगा। मैत्रेय जी कहते हैं- विदुर जी! कर्दम ऋषि से इस प्रकार सम्भाषण करके, इन्द्रियों के अन्तर्मुख होने पर प्रकट होने वाले श्रीहरि सरस्वती नदी से घिरे हुए बिन्दुसर तीर्थ से (जहाँ कर्दम ऋषि तप कर रहे थे) अपने लोक को चले गये।

भगवान के सिद्धमार्ग (वैकुण्ठ मार्ग) की सभी सिद्धेश्वर प्रशंसा करते हैं। वे कर्दम जी के देखते-देखते अपने लोक को सिधार गये। उस समय गरुड़ जी के पक्षों से जो साम की आधार भूता ऋचाएँ निकल रही थीं, उन्हें वे सुनते जाते थे। विदुर जी! श्रीहरि के चले जाने पर भगवान कर्दम उनके बताये हुए समय की प्रतीक्षा करते हुए बिन्दु सरोवर पर ही ठहरे रहे। वीरवर! इधर मनु जी भी महारानी शतरूपा के साथ सुवर्णजटित रथ पर सवार होकर तथा उस पर अपनी कन्या को भी बिठाकर पृथ्वी पर विचरते हुए, जो दिन भगवान ने बताया था, उसी दिन शान्तिपरायण महर्षि कर्दम के उस आश्रम पर पहुँचे। सरस्वती के जल से भरा हुआ यह बिन्दु सरोवर वह स्थान है, जहाँ अपने शरणागत भक्त कर्दम के प्रति उत्पन्न हुई अत्यन्त करुणा के वशीभूत हुए भगवान् के नेत्रों से आँसुओं की बूँदें गिरी थीं। यह तीर्थ बड़ा पवित्र है, इसका जल कल्याणमय और अमृत के समान मधुर है तथा महर्षिगण सदा इसका सेवन करते हैं। उस समय बिन्दु सरोवर पवित्र वृक्ष-लताओं से घिरा हुआ था, जिनमें तरह-तरह की बोली बोलने वाले पवित्र मृग और पक्षी रहते थे, वह स्थान सभी ऋतुओं के फल और फूलों से सम्पन्न था और सुन्दर वन श्रेणी भी उसकी शोभा बढ़ाती थी। वहाँ झुंड-के-झुंड मतवाले पक्षी चहक रहे थे, मतवाले भौंरे मंडरा रहे थे, उन्मत्त मयूर अपने पिच्छ फैला-फैलाकर नट की भाँति नृत्य कर रहे थे और मतवाले कोकिल कुहू-कुहू करके मानो एक-दूसरे को बुला रहे थे। वह आश्रम कदम्ब, चम्पक, अशोक, करंज, बकुल, असन, कुन्द, मन्दार, कुटज और नये-नये आम के वृक्षों से अलंकृत था। वहाँ जलकाग, बत्तख आदि जल पर तैरने वाले पक्षी हंस, कुरर, जलमुर्ग, सारस, चकवा और चकोर मधुर स्वर से कलरव कर रहे थे। हरिन, सूअर, स्याही, नीलगाय, हाथी, लंगूर, सिंह, वानर, नेवले और कस्तूरी मृग आदि पशुओं से भी वह आश्रम घिरा हुआ था।


साभार krishnakosh.org

संत की परीक्षा.

सं की रीक्षा.

सन्त पुरन्दर की निर्लोभिता एवं तपश्चर्या की चर्चा विजय नगर के महाराज कृष्णदेवराय ने बहुत सुनी थी- पर, उन्हें सहसा विश्वास नहीं होता था कि क्या ऐसा भी सम्भव है। क्या व्यक्ति स्वयं विद्वान होते हुए तथा साधनों के सहज उपलब्ध रहते हुए भी उन्हें ठुकरा दे और लोकसेवी का जीवन जिए? गृहस्थ जीवन और लोक सेवा ऐसी गरीबी में कैसे साथ- साथ निभ सकते हैं? 

''अपने मन्त्री व्यासराय की सहायता से उन्होंने सन्त की परीक्षा लेने का निश्चय किया। उन्होंने सन्त को परीक्षत: कहलवाया कि वे अपनी भिक्षा राजभवन से ले लिया करें। भिक्षा में दिये जाने वाले चावलों में उन्होंने रत्न- हीरे मिला दिये। नित्य उन्हें इसी प्रकार प्रसन्नभाव से आते देख उन्हें शंका हुई, अपने मन्त्री से बोले- ''आइये! जिन सन्त की निस्पृहता की बड़ी प्रशंसा सुनी थी, उसे उनके घर चलकर परखे। '' वहाँ पहुँचे तो बड़ा विचित्र दृश्य देखा। सादगी भरा जीवन जी रहे सन्त व उनकी पत्नी में परस्पर सम्वाद चल रहा था। पत्नी हीरे आदि बीनकर अलग रखती जाती थी व कहती जा रही थी-'' आजकल आप न जाने कहाँ से भिक्षा लाते हैं। इन चावलों में तो कंकड़- पत्थर भरे पड़े हैं। इतना कहकर छद्मवेशधारी राजा मन्त्री के सामने ही उसे वे कचरे के ढेर में फेंक आयीं।

राजा के आश्चर्य व्यक्त करने पर वे बोलीं- 'पहले हम भी यही सोचते थे कि ये हीरे- मोती हैं। पर जब से भक्ति का पथ अपनाया, लोक सेवा की ओर कदम बढ़ाया तो निर्वाह योग्य ब्राह्मणोचित आजीविका से ही काम चल जाता है। अब इस बाह्य सम्पदा का मूल्य हमारे लिए तो हीरो के नहीं, कंकड़- पत्थर के बराबर ही है।''

स्वतन्त्र विवेक बुद्धि ही है जो व्यक्ति को दो मार्गो- आत्मिक प्रगति तथा भौतिक समृद्धि के चयन, अनुपयोग, दुरुपयोग, सदुपयोग के माध्यम से स्वर्ग व नरक के दृश्य इसी जीवन में दिखाती है व उसका भविष्य निर्धारित करती है।

असफलताओं का कारण.


सफलताओं का का.

हम दूसरों को बरबस अपनी तरह विश्वास, मत, स्वभाव एवं नियमों के अनुसार कार्य करने और जीवन व्यतीत करने के लिए बाध्य करते हैं। दूसरों को बरबस सुधार डालने, अपने विचार या दृष्टिकोण को जबरदस्ती थोपने से न सुधार होता है, न मन प्रसन्न होता है।

यदि हम अमुक व्यक्ति को दबाए रखेंगे, तो अवश्य परोक्ष रूप से हमारी उन्नति हो जायेगी। अमुक व्यक्ति हमारी उन्नति में बाधक है। अमुक हमारी चुगली करता है, दोष निकालता है, मानहानि करता है। अत: हमें अपनी उन्नति न देखकर पहले अपने प्रतिपक्षी को रोके रखना चाहिए -ऐसा सोचना और दूसरों को अपनी असफलताओं का कारण मानना, भ्रम मूलक है।


(पं श्रीराम शर्मा आचार्य)

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: एकविंश अध्यायः श्लोक 16-28 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: एकविंश अध्यायः श्लोक 16-28 का हिन्दी अनुवाद

सर्वेश्वर! आप सम्पूर्ण लोकों के अधिपति हैं। नाना प्रकार की कामनाओं में फँसा हुआ यह लोक आपकी वेद-वाणीरूप डोरी में बँधा है। धर्ममूर्ते! उसी का अनुगमन करता हुआ मैं भी कालरूप आपको आज्ञापालनरूप पुजोपहारादि समर्पित करता हूँ। प्रभो! आपके भक्त विषयासक्त लोगों और उन्हीं के मार्ग का अनुसरण करने वाले मुझ-जैसे कर्मजड़ पशुओं को कुछ भी न गिनकर आपके चरणों की छत्रच्छाया का ही आश्रय लेते हैं तथा परस्पर आपके गुणगानरूप मादक सुधा का ही पान करके अपने क्षुधा-पिपासादि देहधर्मों को शान्त करते रहते हैं। प्रभो! यह कालचक्र बड़ा प्रबल है। साक्षात् ब्रह्म ही इसके घूमने की धुरी है, अधिक माससहित तेरह महीने अरे हैं, तीन सौ साठ दिन जोड़ हैं, छः ऋतुएँ नेमि (हाल) हैं, अनन्त क्षण-पल आदि इसमें पत्राकार धाराएँ हैं तथा तीन चातुर्मास्य इसके आधारभूत नाभि हैं। यह अत्यन्त वेगवान् संवत्सररूप कालचक्र चराचर जगत् की आयु का छेदन करता हुआ घूमता रहता है, किंतु आपके भक्तों की आयु का ह्रास नहीं कर सकता। भगवन्! जिस प्रकार मकड़ी स्वयं ही जाले को फैलाती, उसकी रक्षा करती और अन्त में उसे निगल जाती है-उसी प्रकार आप अकेले ही जगत् की रचना करने के लिये अपने में अभिन्न अपनी योगमाया को स्वीकार कर उसे अभीव्यक्त हुई अपनी सत्त्वादि शक्तियों द्वारा स्वयं ही इस जगत् की रचना, पालन और संहार करते हैं।

प्रभो! इस समय आपने हमें अपनी तुलसी मालामण्डित, माया से परिच्छिन्न-सी दिखायी देने वाली सगुणमूर्ति से दर्शन दिया है। आप हम भक्तों को जो शब्दादि विषय-सुख प्रदान करते हैं, वे मायिक होने के कारण यद्यपि आपकी पसंद नहीं हैं, तथापि परिणाम में हमारा शुभ करने के लिये वे हमें प्राप्त हों-नाथ! आप स्वरूप से निष्क्रिय होने पर भी माया के द्वारा सारे संसार का व्यवहार चलाने वाले हैं तथा थोड़ी-सी उपासना करने वाले पर भी समस्त अभिलाषित वस्तुओं की वर्षा करते रहते हैं। आपके चरणकमल वन्दनीय हैं, मैं आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ। मैत्रेय जी कहते हैं- भगवान् की भौंहें प्रणय मुस्कान भरी चितवन से चंचल हो रही थीं, वे गरुड़ जी के कंधे पर विराजमान थे। जब कर्दम जी ने इस प्रकार निष्कपट भाव से उनकी स्तुति की, तब वे उनसे अमृतमयी वाणी से कहते लगे।

श्रीभगवान् ने कहा- जिसके लिये तुमने आत्मसंयमादि के द्वारा मेरी आराधना की है, तुम्हारे हृदय के उस भाव को जानकर मैंने पहले से ही उसकी व्यवस्था कर दी है। प्रजापते! मेरी आराधना तो कभी भी निष्फल नहीं होती; फिर जिसका चित्त निरन्तर एकान्तरूप से मुझमें ही लगा रहता है, उन तुम-जैसे महात्माओं के द्वारा की हुई उपासना का तो और भी अधिक फल होता है। प्रसिद्ध यशस्वी सम्राट् स्वायम्भुव मनु ब्रह्मावर्त में रहकर सात समुद्र वाली सारी पृथ्वी का शासन करते हैं। विप्रवर! वे परम धर्मज्ञ महाराज महारानी शतरूपा के साथ तुमसे मिलने के लिये परसों यहाँ आयेंगे। उनकी एक रूप-यौवन, शील और गुणों से सम्पन्न श्यामलोचना कन्या इस समय विवाह के योग्य है। प्रजापते! तुम सर्वथा उसके योग्य हो, इसलिये वे तुम्हीं को वह कन्या अर्पण करेंगे। ब्रह्मन्! गत अनेकों वर्षों से तुम्हारा चित्त जैसी भार्या के लिये समाहित रहा है, अब शीघ्र ही वह राजकन्या तुम्हारी वैसी ही पत्नी होकर यथेष्ट सेवा करेगी।

साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: एकविंश अध्यायः श्लोक 1-15 का हिंदी अनुवाद.


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: एकविंश अध्यायः श्लोक 1-15 का हिंदी अनुवाद.

कर्दम जी की तपस्या और भगवान् का वरदान. 


विदुर जी ने पूछा- भगवन्! स्वयाम्भुव मनु का वंश बड़ा आदरणीय माना गया है। उसमें मैथुन धर्म के द्वारा प्रजा की वृद्धि हुई थी। अब आप मुझे उसी की कथा सुनाइये। बह्मन्! आपने कहा था कि स्वायम्भुव मनु के पुत्र प्रियव्रत और उत्तानपाद ने सातों द्वीपों वाली पृथ्वी का धर्मपूर्वक पालन किया था तथा उनकी पुत्री जो देवहूति नाम से विख्यात थी, कर्दम प्रजापति को ब्याही गयी थी। देवहूति योग के लक्षण यमादि से सम्पन्न थी, उससे महायोगी कर्दम जी ने कितनी संतानें उत्पन्न कीं? वह सब प्रसंग आप मुझे सुनाइये, मुझे उसके सुनने की बड़ी इच्छा है। इसी प्रकार भगवान् रुचि और ब्रह्मा जी के पुत्र दक्ष प्रजापति ने भी मनु जी की कन्याओं का पाणिग्रहण करके उनसे किस प्रकार क्या-क्या सन्तान उत्पन्न की, वह सब चरित भी मुझे सुनाइये।

मैत्रेय जी ने कहा- विदुर जी! जब ब्रह्मा जी ने भगवान् कर्दम को आज्ञा दी कि तुम संतान उत्पत्ति करो तो उन्होंने दस हजार वर्षों तक सरस्वती नदी के तीर पर तपस्या की। वे एकाग्रचित्त से प्रेमपूर्वक पूजनोपचार द्वारा शरणागत वरदायक श्रीहरि की आराधना करने लगे। तब सत्ययुग के आरम्भ में कमलनयन भगवान् श्रीहरि ने उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर उन्हें अपने शब्द ब्रह्ममयस्वरूप से मूर्तिमान् होकर दर्शन दिये। भगवान् की वह भव्यमूर्ति सूर्य के समान तेजोमयी थी। वे गले में श्वेत कमल और कुमुद के फूलों की माला धारण किये हुए थे, मुखकमल नीली और चिकनी अलकावली से सुशोभित था। वे निर्मल वस्त्र धारण किये हुए थे। सिर पर झिलमिलाता हुआ सुवर्णमय मुकुट, कानों में जगमगाते हुए कुण्डल और करकमलों में शंख, चक्र, गदा आदि आयुध विराजमान थे। उनके एक हाथ में क्रीड़ा के लिये श्वेत कमल सुशोभित था। प्रभु की मधुर मुस्कान भरी चितवन चित्त को चुराये लेती थी। उनके चरणकमल गरुड़ जी के कंधों पर विराजमान थे, तथा वक्षःस्थल में श्रीलक्ष्मी जी और कण्ठ में कौस्तुभ मणि सुशोभित थी। प्रभु की इस आकाशास्थित मनोहर मूर्ति का दर्शन करके कर्दम जी को बड़ा हर्ष हुआ, मानो उनकी सभी कामनाएँ पूर्ण हो गयीं। उन्होंने सानन्दहृदय से पृथ्वी पर सिर टेककर भगवान् को साष्टांग प्रणाम किया और फिर प्रेमप्रवणचित्त से हाथ जोड़कर सुमधुर वाणी से वे उनकी स्तुति करने लगे।

कर्दम जी ने कहा- स्तुति करने योग्य परमेश्वर! आप सम्पूर्ण सत्त्वगुण के आधार हैं। योगिजन उत्तरोत्तर शुभ योनियों में जन्म लेकर अन्त में योगस्थ होने पर आपके दर्शनों की इच्छा करते हैं; आज आपका वही दर्शन पाकर हमें नेत्रों का फल मिल गया। आपके चरणकमल भवसागर से पार जाने के लिये जहाज हैं। जिनकी बुद्धि आपकी माया से मारी गयी है, वे ही उन तुच्छ क्षणिक विषय-सुखों के लिये, जो नरक में भी मिल सकते हैं, उन चरणों का आश्रय लेते हैं; किन्तु स्वामिन्! आप तो उन्हें वे विषय-भोग भी दे देते हैं। प्रभो! आप कल्पवृक्ष हैं। आपके चरण समस्त मनोरथों को पूर्ण करने वाले हैं। मेरा हृदय काम-कलुषित है। मैं भी अपने अनुरूप स्वभाव-वाली और गृहस्थ धर्म के पालन में सहायक शीलवती कन्या से विवाह करने के लिये आपके चरणकमलों की शरण में आया हूँ।


साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: विंश अध्यायः श्लोक 36-53 का हिन्दी अनुवाद


लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: विंश अध्यायः श्लोक 36-53 का हिन्दी अनुवाद

सुन्दरि! जब तुम उछलती हुई गेंद पर अपनी हथेली की थपकी मारती हो, तब तुम्हारा चरण-कमल एक जगह नहीं ठहरता; तुम्हारा कटिप्रदेश स्थूल स्तनों के भार से थक-सा जाता है और तुम्हारी निर्मल दृष्टि से भी थकावट झलकने लगती है। अहो! तुम्हारा केशपाश कैसा सुन्दर है’। इस प्रकार स्त्रीरूप से प्रकट हुई उस सायंकालीन सन्ध्या ने उन्हें अत्यन्त कामासक्त कर दिया और उन मूढ़ों ने उसे कोई रमणीरत्न समझकर ग्रहण कर लिया।

तदनन्तर ब्रह्मा जी ने गम्भीर भाव से हँसकर अपनी कान्तिमयी मूर्ति से, जो अपने सौन्दर्य का मानो आप ही आस्वादन करती थी, गन्धर्व और अप्सराओं को उत्पन्न किया। उन्होंने ज्योत्स्ना (चन्द्रिका) रूप अपने उस कान्तिमय प्रिय शरीर को त्याग दिया। उसी को विश्वावसु आदि गन्धर्वों ने प्रसन्नतापूर्वक ग्रहण किया। इसके पश्चात् भगवान् ब्रह्मा ने अपनी तन्द्रा से भूत-पिशाच उत्पन्न किये। उन्हें दिगम्बर (वस्त्रहीन) और बाल बिखेरे देख उन्होंने आँखें मूँद लीं। ब्रह्मा जी के त्यागे हुए उस जँभाईरूप शरीर को भूत-पिशाचों ने ग्रहण किया। इसी को निद्रा भी कहते हैं, जिससे जीवों की इन्द्रियों में शिथिलता आती देखी जाती है। यदि कोई मनुष्य जूठे मुँह सो जाता है तो उस पर भूत-पिशाचादि आक्रमण करते हैं; उसी को उन्माद कहते हैं।

फिर भगवान् ब्रह्मा ने भावना की कि मैं तेजोमय हूँ और अपने अदृश्यरूप से साध्यगण एवं पितृगण को उत्पन्न किया। पितरों ने अपनी उत्पत्ति के स्थान उस अदृश्य शरीर को ग्रहण कर लिया। इसी को लक्ष्य में रखकर पण्डितजन श्राद्धादि के द्वारा पितर और साध्यगणों को क्रमशः कव्य (पिण्ड) और हव्य अर्पण करते हैं। अपनी तिरोधान शक्ति से ब्रह्मा जी ने सिद्ध और विद्याधरों की सृष्टि की और उन्हें अपना वह अन्तर्धान नामक अद्भुत शरीर दिया।

एक बार ब्रह्मा जी ने अपना प्रतिबिम्ब देखा। तब अपने को बहुत सुन्दर मानकर उस प्रतिबिम्ब से किन्नर और किम्पुरुष उत्पन्न किये। उन्होंने ब्रह्मा जी के त्याग देने पर उनका वह प्रतिबिम्ब-शरीर ग्रहण किया। इसीलिये ये सब उषःकाल में अपनी पत्नियों के साथ मिलकर ब्रह्मा जी के गुण-कर्मादी का गान किया करते हैं। एक बार ब्रह्मा जी सृष्टि की वृद्धि न होने के कारण बहुत चिन्तित होकर हाथ-पैर आदि अवयवों को फैलाकर लेट गये और फिर क्रोधवश उस भोगमय शरीर को त्याग दिया। उससे जो बाल झड़कर गिरे, वे अहि हुए तथा उसके हाथ-पैर सिकोड़कर चलने से क्रूर स्वभाव सर्प और नाग हुए, जिनका शरीर फणरूप से कंधे के पास बहुत फैला होता है।

एक बार ब्रह्मा जी ने अपने को कृतकृत्य-सा अनुभव किया। उस समय अन्त में उन्होंने अपने मन से मनुओं की सृष्टि की। ये सब प्रजा की वृद्धि करने वाले हैं। मनस्वी ब्रह्मा जी ने उनके लिये अपना पुरुषाकार शरीर त्याग दिया। मनुओं को देखकर उनसे पहले उत्पन्न हुए देवता-गन्धर्वादि ब्रह्मा जी की स्तुति करने लगे। वे बोले, ‘विश्वकर्ता ब्रह्मा जी! आपकी यह (मनुओं की) सृष्टि बड़ी ही सुन्दर है। इसमें अग्निहोत्र आदि सभी कर्म प्रतिष्ठित हैं। इसकी सहायता से हम भी अपना अन्न (हविर्भाग) ग्रहण कर सकेंगे’। फिर आदिऋषि ब्रह्मा जी ने इन्द्रियसंयमपूर्वक तप, विद्या, योग और समाधि से सम्पन्न हो अपनी प्रिय सन्तान ऋषिगण की रचना की और उनमें से प्रत्येक को अपने समाधि, योग, ऐश्वर्य, तप, विद्या और वैराग्यमय शरीर का अंश दिया।

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: विंश अध्यायः श्लोक 18-35 का हिन्दी अनुवाद


 (लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: विंश अध्यायः श्लोक 18-35 का हिन्दी अनुवाद

सबसे पहले उन्होंने अपनी छाया से तामिस्र, अन्धतामिस्र, तम, मोह और महामोह- यों पाँच प्रकार की अविद्या उत्पन की। ब्रह्मा जी को अपना वह तमोमय शरीर अच्छा नहीं लगा, अतः उन्होंने उसे त्याग दिया। तब जिससे भूख-प्यास की उत्पत्ति होती है-ऐसे रात्रिरूप उस शरीर को उसी से उत्पन्न हुए यक्ष और राक्षसों ने ग्रहण कर लिया। उस समय भूख-प्यास से अभिभूत होकर वे ब्रह्मा जी को खाने को दौड़ पड़े और कहने लगे- ‘इसे खा जाओ, इसकी रक्षा मत करो’, क्योंकि वे भूख-प्यास से व्याकुल हो रहे थे। ब्रह्मा जी ने घबराकर उनसे कहा- ‘अरे यक्ष-राक्षसों! तुम मेरी सन्तान हो; इसलिये मुझे भक्षण मत करो, मेरी रक्षा करो!’ (उनमें से जिन्होंने कहा ‘खा जाओ’, वे यक्ष हुए और जिन्होंने कहा ‘रक्षा मत करो’, वे राक्षस कहलाये)।

फिर ब्रह्मा जी ने सात्त्विक प्रभा से देदीप्यमान होकर मुख्य-मुख्य देवताओं की रचना की। उन्होंने क्रीड़ा करते हुए, ब्रह्मा जी के त्यागने पर, उनका वह दिनरूप प्रकाशमय शरीर ग्रहण कर लिया। इसके पश्चात् ब्रह्मा जी ने अपने जघनदेश से कामासक्त असुरों को उत्पन्न किया। वे अत्यन्त कामलोलुप होने के कारण उत्पन्न होते ही मैथुन के लिये ब्रह्मा जी की ओर चले। यह देखकर पहले तो वे हँसे; किन्तु फिर उन निर्लज्ज असुरों को अपने पीछे लगा देख भयभीत और क्रोधित होकर बड़े जोर से भागे। तब उन्होंने भक्तों पर कृपा करने के लिये उनकी भावना के अनुसार दर्शन देने वाले, शरणागतवत्सल वरदायक श्रीहरि के पास जाकर कहा- ‘परमात्मन्! मेरी रक्षा कीजिये; मैंने तो आपकी ही आज्ञा से प्रजा उत्पन्न की थी, किन्तु यह तो पाप में प्रवृत्त होकर मुझको ही तंग करने चली है। नाथ! एकमात्र आप ही दुःखी जीवों का दुःख दूर करने वाले हैं और जो आपकी चरणशरण में नहीं आते, उन्हें दुःख देने वाले भी एकमात्र आप ही हैं’।

प्रभु तो प्रत्यक्षवत् सबके हृदय की जानने वाले हैं। उन्होंने ब्रह्मा जी की आतुरता देखकर कहा- ‘तुम अपने इस कामकलुषित शरीर को त्याग दो।’ भगवान् के यों कहते ही उन्होंने वह शरीर भी छोड़ दिया। (ब्रह्मा जी का छोड़ा हुआ वह शरीर एक सुन्दरी स्त्री-संध्यादेवी के रूप में परिणत हो गया।) उसके चरणकमलों के पायजेब झंकृत हो रहे थे। उसकी आँखें मतवाली हो रही थीं और कमर करधनी की लड़ों से सुशोभित सजीली साड़ी से ढकी हुई थी। उसके उभरे हुए स्तन इस प्रकार एक-दूसरे से सटे हुए थे कि उनके बीच में कोई अन्तर ही नहीं रह गया था। उसकी नासिका और दन्तावली बड़ी ही सुघड़ थी तथा वह मधुर-मधुर मुसकराती हुई असुरों की ओर हाव-भावपूर्ण दृष्टि से देख रही थी। वह नीली-नीली अलकावली से सुशोभित सुकुमारी मानो लज्जा के मारे अपने अंचल में ही सिमटी जाती थी।

विदुर जी! उस सुन्दरी को देखकर सब-के-सब असुर मोहित हो गये। ‘अहो! इसका कैसा विचित्र रूप, कैसा अलौकिक धैर्य और कैसी नयी अवस्था है। देखो, हम कामपीड़ितों के बीच में यह कैसी बेपरवाह-सी विचर रही है’।

इस प्रकार उन कुबुद्धि दैत्यों ने स्त्रीरूपिणी सन्ध्या के विषय में तरह-तरह के तर्क-वितर्क करके फिर उसका बहुत आदर करते हुए प्रेमपूर्वक पूछा- ‘सुन्दरि! तुम कौन हो और किसकी पुत्री हो? भामिनी! यहाँ तुम्हारे आने का क्या प्रयोजन है? तुम अपने अनूप रूप का यह बेमोल सौदा दिखाकर हम अभागों को क्यों तरसा रही हो। अबले! तुम कोई भी क्यों न हो, हमें तुम्हारा दर्शन हुआ-यह बड़े सौभाग्य की बात है। तुम अपनी गेंद उछाल-उछालकर तो हम दर्शकों के मन को मथे डालती हो।

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: विंश अध्यायः श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: विंश अध्यायः श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद

ब्रह्मा जी की रची हुई अनेक प्रकार की सृष्टि का वर्णन.

शौनक जी कहते हैं- सूत जी! पृथ्वीरूप आधार पाकर स्वायम्भुव मनु ने आगे होने वाली सन्तति को उत्पन्न करने के लिये किन-किन उपायों का अवलम्बन किया? विदुर जी बड़े ही भगवद्भक्त और भगवान् श्रीकृष्ण के अनन्य सुहृद् थे। इसीलिये उन्होंने अपने बड़े भाई धृतराष्ट्र को, उनके पुत्र दुर्योधन के सहित, भगवान् श्रीकृष्ण का अनादर करने के कारण अपराधी समझकर त्याग दिया था। वे महर्षि द्वैपायन के पुत्र थे और महिमा में उनसे किसी प्रकार कम नहीं थे तथा सब प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण के आश्रित और कृष्णभक्तों के अनुगामी थे। तीर्थ सेवन से उनका अन्तःकरण और भी शुद्ध हो गया था। उन्होंने कुशावर्त क्षेत्र (हरिद्वार) में बैठे हुए तत्त्वज्ञानियों में श्रेष्ठ मैत्रेय जी के पास जाकर और क्या पूछा? सूत जी! उन दोनों में वार्तालाप होने पर श्रीहरिके चरणों से सम्बन्ध रखने वाली बड़ी पवित्र कथाएँ हुई होंगी, जो उन्हीं चरणों से निकले हुए गंगाजल के समान सम्पूर्ण पापों का नाश करने वाली होंगी।

सूत जी! आपका मंगल हो, आप हमें भगवान् की वे पवित्र कथाएँ सुनाइये। प्रभु के उदार चरित्र तो कीर्तन करने योग्य होते हैं। भला, ऐसा कौन रसिक होगा जो श्रीहरि के लीलामृत का पान करते-करते तृप्त हो जाये। नैमिषारण्यवासी मुनियों के इस प्रकार पूछने पर उग्रश्रवा सूत जी ने भगवान् में चित्त लगाकर उनसे कहा- ‘सुनिये’।

सूत जी ने कहा- मुनिगण! अपनी माया से वराहरूप धारण करने वाले श्रीहरि की रसातल से पृथ्वी को निकालने और खेल में ही तिरस्कारपूर्वक हिरण्याक्ष को मार डालने की लीला सुनकर विदुर जी को बड़ा आनन्द हुआ और उन्होंने मुनिवर मैत्रेय जी से कहा। विदुर जी ने कहा- ब्रह्ममन्! आप परोक्ष विषयों को भी जानने वाले हैं; अतः यह बतलाइये कि प्रजापतियों के पति श्रीब्रह्मा जी ने मरीचि आदि प्रजापतियों को उत्पन्न करके फिर सृष्टि को बढ़ाने के लिये क्या किया। मरीचि आदि मुनीश्वरों ने और स्वायम्भुव मनु ने भी ब्रह्मा जी की आज्ञा से किस प्रकार प्रजा की वृद्धि की? क्या उन्होंने इस जगत् को पत्नियों के सहयोग से उत्पन्न किया या अपने-अपने कार्य में स्वतन्त्र रहकर अथवा सबने एक साथ मिलकर इस जगत् की रचना की?

श्रीमैत्रेय जी ने कहा- विदुर जी! जिसकी गति को जानना अत्यन्त कठिन है-उन जीवों के प्रारब्ध, प्रकृति के नियन्ता पुरुष और काल-इन तीनों हेतुओं से तथा भगवान् की सन्निधि से त्रिगुणमय प्रकृति में क्षोभ होने पर उससे महत्तत्त्व उत्पन्न हुआ। दैव की प्रेरणा से रजःप्रधान महत्तत्त्व से वैकारिक (सात्त्विक), राजस और तामस- तीन प्रकार का अहंकार उत्पन्न हुआ। उसने आकाशादि पाँच-पाँच तत्त्वों के अनेक वर्ग प्रकट किये। वे सब अलग-अलग रहकर भूतों के कार्यरूप ब्रह्माण्ड की रचना नहीं कर सकते थे; इसलिये उन्होंने भगवान् की शक्ति से परस्पर संगठित होकर एक सुवर्णवर्ण अण्ड की रचना की। 


वह अण्ड चेतनाशून्य अवस्था में एक हजार वर्षों से भी अधिक समय तक कारणाब्धि के जल में पड़ा रहा। फिर उसमें श्रीभगवान् ने प्रवेश किया। उसमें अधिष्ठित होने पर उनकी नाभि से सहस्र सूर्यों के समान अत्यन्त देदीप्यमान एक कमल प्रकट हुआ, जो सम्पूर्ण जीव-समुदाय का आश्रय था। उसी से स्वयं ब्रह्मा जी का भी आविर्भाव हुआ है। जब ब्रह्माण्ड के गर्भरूप जल में शयन करने वाले श्रीनारायणदेव ने ब्रह्मा जी के अन्तःकरण में प्रवेश किया, तब वे पूर्वकल्पों में अपने ही द्वारा निश्चित की हुई नाम-रूपमयी व्यवस्था के अनुसार लोकों की रचना करने लगे।

साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: एकोनविंश अध्यायः श्लोक 32-38 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: एकोनविंश अध्यायः श्लोक 32-38 का हिन्दी अनुवाद


भगवान् अवतार लेकर जैसी लीलाएँ करते हैं और जिस प्रकार उन्होंने भीषण संग्राम में खिलौने की भाँति महापराक्रमी हिरण्याक्ष का वध कर डाला, मित्र विदुर जी! वह सब चरित्र जैसा मैंने गुरुमुख से सुना था, तुम्हें सुना दिया।

सूत जी कहते हैं- शौनक जी! मैत्रेय जी के मुख से भगवान् की कथा सुनकर परमभागवत विदुर जी को बड़ा आनन्द हुआ। जब अन्य पवित्रकीर्ति और परमयशस्वी महापुरुषों का चरित्र सुनने से ही बड़ा आनन्द होता है, तब श्रीवत्सधारी भगवान् की ललितललाम लीलाओं की तो बात ही क्या है।

जिस समय ग्राह के पकड़ने पर गजराज प्रभु के चरणों का ध्यान करने लगे और उनकी हथिनियाँ दुःख से चिग्घाड़ने लगीं, उस समय जिन्होंने उन्हें तत्काल दुःख से छुड़ाया और जो सब ओर से निराश होकर अपनी शरण में आये हुए सरल हृदय भक्तों से सहज में ही प्रसन्न हो जाते हैं, किंतु दुष्ट पुरुषों के लिये अत्यन्त दुराराध्य हैं-उन पर जल्दी प्रसन्न नहीं होते, उन प्रभु के उपकारों को जानने वाला कौन ऐसा पुरुष है, जो उनका सेवन न करेगा?

शौनकादि ऋषियों! पृथ्वी का उद्धार करने के लिये वराहरूप धारण करने वाले श्रीहरि की इस हिरण्याक्ष-वध नामक परम अद्भुत लीला को जो पुरुष सुनता, गाता अथवा अनुमोदन करता है, वह ब्रह्महत्या-जैसे घोर पाप से भी सहज में ही छूट जाता हैं। यह चरित्र अत्यन्त पुण्यप्रद परमपवित्र, धन और यश की प्राप्ति कराने वाला तथा आयुवर्धक और कामनाओं की पूर्ति करने वाला तथा युद्ध में प्राण और इन्द्रियों की शक्ति बढ़ाने वाला है। जो लोग इसे सुनते हैं, उन्हें अन्त में श्रीभगवान् का आश्रय प्राप्त होता है।

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: एकोनविंश अध्यायः श्लोक 16-31 का हिन्दी अनुवाद


 (लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: एकोनविंश अध्यायः श्लोक 16-31 का हिन्दी अनुवाद

विदुर जी! जैसे हाथी पर पुष्पमाला की चोट का कोई असर नहीं होता, उसी प्रकार उसके इस प्रकार घूँसा मारने से भगवान् आदिवराह तनिक भी टस-से-मस नहीं हुए। तब वह महामायावी दैत्य मायापति श्रीहरि पर अनेक प्रकार की मायाओं का प्रयोग करने लगा, जिन्हें देखकर सभी प्रजा बहुत डर गयी और समझने लगी कि अब संसार का प्रलय होने वाला है। बड़ी प्रचण्ड आँधी चलने लगी, जिसके कारण धूल से सब ओर अन्धकार छा गया। सब ओर से पत्थरों की वर्षा होने लगी, जो ऐसे जान पड़ते थे मानो किसी क्षेपण यन्त्र (गुलेल) से फेंके जा रहे हों। बिजली की चमचमाहट और कड़क के साथ बादलों के घिर आने से आकाश में सूर्य, चन्द्र आदि ग्रह छिप गये तथा उनसे निरन्तर पीब, केश, रुधिर, विष्ठा, मूत्र और हड्डियों की वर्षा होने लगी। 

विदुर जी! ऐसे-ऐसे पहाड़ दिखायी देने लगे, जो तरह-तरह के अस्त्र-शस्त्र बरसा रहे थे। हाथ में त्रिशूल लिये बाल खोले नंगी राक्षसियाँ दीखने लगीं। बहुत-से पैदल, घुड़सवार, रथी और हाथियों पर चढ़े सनिकों के साथ आततायी यक्ष-राक्षसों का ‘मारो-मारो, काटो-काटो’ ऐसा अत्यन्त क्रूर और हिंसामय कोलाहल सुनायी देने लगा। इस प्रकार प्रकट हुए उस आसुरी माया-जाल का नाश करने के लिये यज्ञमूर्ति भगवान् वराह ने अपना प्रिय सुदर्शन चक्र छोड़ा। उस समय अपने पति का कथन स्मरण हो आने से दिति का हृदय सहसा काँप उठा और उसके स्तनों से रक्त बहने लगा। अपना माया-जाल नष्ट हो जाने पर वह दैत्य फिर भगवान् के पास आया। उसने उन्हें क्रोध से दबाकर चूर-चूर करने की इच्छा से भुजाओं में भर लिया, किंतु देखा कि वे तो बाहर ही खड़े हैं। अब वह भगवान् को वज्र के समान कठोर मुक्कों से मारने लगा। तब इन्द्र ने जैसे वृत्रासुर पर प्रहार किया था, उसी प्रकार भगवान् ने उसकी कनपटी पर एक तमाचा मारा। विश्व विजयी भगवान् ने यद्यपि बड़ी उपेक्षा से तमाचा मारा था, तो भी उसकी चोट से हिरण्याक्ष का शरीर घूमने लगा, उसके नेत्र बाहर निकल आये तथा हाथ-पैर और बाल छिन्न-भिन्न हो गये और वह निष्प्राण होकर आँधी से उखड़े हुए विशाल वृक्ष के समान पृथ्वी पर गिर पड़ा। 

हिरण्याक्ष का तेज अब भी मलिन नहीं हुआ था। उस कराल दाढ़ों वाले दैत्य को दाँतों से होठ चबाते पृथ्वी पर पड़ा देख वहाँ युद्ध देखने के लिये आये हुए ब्रह्मादि देवता उसकी प्रशंसा करने लगे कि ‘अहो! ऐसी अलभ्य मृत्यु किसको मिल सकती है। अपनी मिथ्या उपाधि से छूटने के लिये जिनका योगिजन समाधियोग के द्वारा एकान्त में ध्यान करते हैं, उन्हीं के चरण-प्रहार उनका मुख देखते-देखते इस दैत्यराज ने अपना शरीर त्यागा। ये हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु भगवान् के ही पार्षद हैं। इन्हें शापवश यह अधोगति प्राप्त हुई है। अब कुछ जन्मों में ये फिर अपने स्थान पर पहुँच जायँगे’। 

देवता लोग कहने लगे- 'प्रभो! आपको बारम्बार नमस्कार है। आप सम्पूर्ण यज्ञों का विस्तार करने वाले हैं तथा संसार की स्थिति के लिये शुद्धसत्त्वमय मंगलविग्रह प्रकट करते हैं। बड़े आनन्द की बात है कि संसार को कष्ट देने वाला यह दुष्ट दैत्य मारा गया। अब आपके चरणों की भक्ति के प्रभाव से हमें भी सुख-शान्ति मिल गयी।' मैत्रेय जी कहते हैं- विदुर जी! इस प्रकार महापराक्रमी हिरण्याक्ष का वध करके भगवान् आदिवराह अपने अखण्ड आनन्दमय धाम को पधार गये। उस समय ब्रह्मादि देवता उनकी स्तुति कर रहे थे।

साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: एकोनविंश अध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: एकोनविंश अध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद

हिरण्याक्ष वध.

मैत्रेय जी कहते हैं- विदुर जी! ब्रह्मा जी के कपटरहित अमृतमय वचन सुनकर भगवान् ने उनके भोलेपन पर मुसकराकर अपने प्रेमपूर्ण कटाक्ष के द्वारा उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। फिर उन्होंने झपटकर अपने सामने निर्भय विचरते हुए शत्रु की ठुड्डी पर गदा मारी। किन्तु हिरण्याक्ष की गदा से टकराकर वह गदा भगवान् के हाथ से छूट गयी और चक्कर काटती हुई जमीन पर गिरकर सुशोभित हुई। किंतु यह बड़ी अद्भुत-सी घटना हुई। उस समय शत्रु पर वार करने का अच्छा अवसर पाकर भी हिरण्याक्ष ने उन्हें निरस्त्र देखकर युद्ध धर्म का पालन करते हुए उन पर आक्रमण नहीं किया। उसने भगवान् का क्रोध बढ़ाने के लिये ही ऐसा किया था। गदा गिर जाने पर और लोगों का हाहाकार बंद हो जाने पर प्रभु ने उसकी धर्म बुद्धि की प्रशंसा की और अपने सुदर्शन चक्र का स्मरण किया। चक्र तुरंत ही उपस्थित होकर भगवान् के हाथ में घूमने लगा। किंतु वे अपने प्रमुख पार्षद दैत्यधम हिरण्याक्ष के साथ विशेष रूप से क्रीड़ा करने लगे। उस समय उनके प्रभाव को न जानने वाले देवताओं के ये विचित्र वचन सुनायी देने लगे- ‘प्रभो! आपकी जय हो; इसे और न खेलाइये, शीघ्र ही मार डालिये’। 

जब हिरण्याक्ष ने देखा कि कमल-दल-लोचन श्रीहरि उसके सामने चक्र लिये खड़े हैं, तब उसकी सारी इन्द्रियाँ क्रोध से तिलमिला उठीं और वह लम्बी साँसें लेता हुआ अपने दाँतों से होंठ चबाने लगा। उस समय वह तीखी दाढ़ों वाला दैत्य, अपने नेत्रों से इस प्रकार उनकी ओर घूरने लगा मानो वह भगवान् को भस्म कर देगा। उसने छलकर ‘ले अब तू नहीं बच सकता’ इस प्रकार ललकारते हुए श्रीहरि पर गदा से प्रहार किया। 

साधुस्वभाव विदुर जी! यज्ञमूर्ति श्रीवाराह भगवान् ने शत्रु के देखते-देखते लीला से ही अपने बायें पैर से उसकी वह वायु के समान वेग वाली गदा पृथ्वी पर गिरा दी और उससे कहा, ‘अरे दैत्य! तू मुझे जीतना चाहता है, इसलिये अपना शस्त्र उठा ले और एक बार फिर वार कर।’ भगवान् के इस प्रकार कहने पर उसने फिर गदा चलायी और बड़ी भीषण गर्जना करने लगा। गदा को अपनी ओर आते देखकर भगवान् ने, जहाँ खड़े थे वहीं से, उसे आते ही अनायास इस प्रकार पकड़ लिया, जैसे गरुड़ साँपिनी को पकड़ कर लें। अपने उद्यम को इस प्रकार व्यर्थ हुआ देख उस महादैत्य का घमंड ठंडा पड़ गया और उसका तेज नष्ट हो गया। अबकी बार भगवान् के देने पर उसने उस गदा को लेना न चाहा। किन्तु जिस प्रकार कोई ब्राह्मण के ऊपर निष्फल अभिचार (मारणादि प्रयोग) करे-मूठ आदि चलाये, वैसे ही उसने श्रीयज्ञपुरुष पर प्रहार करने के लिये एक प्रज्वलित अग्नि के समान लपलपाता हुआ त्रिशूल लिया। महाबली हिरण्याक्ष का अत्यन्त वेग से छोड़ा हुआ वह तेजस्वी त्रिशूल आकाश में बड़ी तेजी से चमकने लगा। 

तब भगवान् ने उसे अपनी तीखी धार वाले चक्र से इस प्रकार काट डाला, जैसे इन्द्र ने गरुड़ जी के छोड़े हुए तेजस्वी पंख को काट डाला था। भगवान् के चक्र से अपने त्रिशूल के बहुत-से टुकड़े हुए देखकर उसे बड़ा क्रोध हुआ। उसने पास आकर उनके विशाल वक्षःस्थल पर, जिस पर श्रीवत्स का चिह्न सुशोभित है, कसकर घूँसा मारा और फिर बड़े जोर से गरजकर अन्तर्धान हो गया।

साभार krishnakosh.org

दुःखद स्मृतियों को भूलो.


दुःखद स्मृतियों को भूलो.

जब मन में पुरानी दु:खद स्मृतियाँ सजग हों, तो उन्हें भूला देने में ही श्रेष्टता है। अप्रिय बातों को भुलाना आवश्यक है। भुलाना उतना ही जरूरी है, जितना अच्छी बात का स्मरण करना। यदि तुम शरीर से, मन से और आचरण से स्वस्थ होना चाहते हो तो अस्वस्थता की सारी बातें भूल जाओ।

माना कि किसी ‘अपने’ ने ही तुम्हें चोट पहुँचाई है, तुम्हारा दिल दुखाया है, तो क्या तुम उसे लेकर मानसिक उधेड़बुन में लगे रहोगे। अरे भाई! उन कष्टकारक अप्रिय प्रसंगों को भूला दो, उधर ध्यान न देकर अच्छे शुभ कर्मों से मन को केंद्रीभूत कर दो।

चिंता से मुक्ति पाने का सर्वोत्तम उपाय, दु:खों को भूलना ही है।


(पं श्रीराम शर्मा आचार्य)

स्वाद का लालच.


स्वा का लालच.


दो उल्लू एक पेड़ पर एक साथ आकर बैठ गए। एक उल्लू के मुंह में सांप था। जबकि दूसरे के मुंह में चूहा था। लेकिन तभी सांप ने चूहे को देखा तो वह चूहे को खाने के लिए झटपटाने लगा। लेकिन यह भूल गया कि वह खुद मौत के मुंह में है।

जब चूहे ने सांप को देखा तो उसे डर लगने लगा कि सांप उसे खा लेगा। यह देखकर दोनों उल्लू काफी हैरान हो गए और दोनों ने अपने शिकार को मुंह में दबाकर मार डाला। फिर एक उल्लू ने दूसरे उल्लू से पूछा कि सांप और चूहे को देखकर तुम्हें क्या पता चला।

दूसरे उल्लू ने कहा कि पहली बात तो मुझे यह समझ आई कि जीभ के रस और स्वाद की इच्छा सबसे बड़ी होती है। जब किसी व्यक्ति की ये इच्छा प्रबल होती है, तो व्यक्ति को सामने खड़ी हुई मौत भी नजर नहीं आती है।

इस घटना से दूसरी बात यह पता चली कि मृत्यु से भी बड़ा मृत्यु होने का भय होता है। चूहा खुद मरने वाला था, लेकिन जब उसने सांप को देखा तो वह डरने लगा। लेकिन वह यह नहीं समझ पाया कि वह तो पहले से ही मौत के मुंह में था।

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: अष्टादश अध्यायः श्लोक 12-28 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: अष्टादश अध्यायः श्लोक 12-28 का हिन्दी अनुवाद

तू पैदल वीरों का सरदार है, इसलिये अब निःशंक होकर-उधेड़-बुन छोड़कर हमारा अनिष्ट करने का प्रयत्न कर और हमें मारकर अपने भाई-बन्धुओं के आँसू पोंछ। अब इसमें देर न कर। जो अपनी प्रतिज्ञा का पालन नहीं करता, वह असभ्य है-भले आदमियों में बैठने लायक नहीं है। 

मैत्रेय जी कहते हैं- विदुर जी! जब भगवान् ने रोष से उस दैत्य का इस प्रकार खूब उपहास और तिरस्कार किया, वह पकड़कर खेलाये जाते हुए सर्प के समान क्रोध से तिलमिला उठा। वह खीझकर लम्बी-लम्बी साँसें लेने लगा, उसकी इन्द्रियाँ क्रोध से क्षुब्ध हो उठीं और उस दुष्ट दैत्य ने बड़े वेग से लपककर भगवान् पर गदा का प्रहार किया। किन्तु भगवान् ने अपनी छाती पर चलाई हुई शत्रु की गदा के प्रहार को कुछ टेढ़े होकर बचा लिया-ठीक वैसे ही, जैसे योगसिद्ध पुरुष मृत्यु के आक्रमण से अपने को बचा लेता है। फिर जब वह क्रोध से होठ चबाता अपनी गदा लेकर बार-बार घुमाने लगा, तब श्रीहरि कुपित होकर बड़े वेग से उसकी ओर झपटे। 

सौम्यस्वभाव विदुर जी! तब प्रभु ने शत्रु की दायीं भौंह पर गदा की चोट की, किन्तु गदायुद्ध में कुशल हिरण्याक्ष ने उसे बीच में ही अपनी गदा पर ले लिया। इस प्रकार श्रीहरि और हिरण्याक्ष एक-दूसरे को जीतने की इच्छा से अत्यन्त क्रुद्ध होकर आपस में अपनी भारी गदाओं से प्रहार करने लगे। उस समय उन दोनों में ही जीतने की होड़ लग गयी, दोनों के ही अंग गदाओं की चोटों से घायल हो गये थे, अपने अंगों के घावों से बहने वाले रुधिर की गन्ध से दोनों का क्रोध बढ़ रहा था और वे दोनों ही तरह-तरह के पैतरे बदल रहे थे। इस प्रकार गौ के लिये आपस में लड़ने वाले दो साँडों के समान उन दोनों में एक-दूसरे को जीतने की इच्छा से बड़ा भयंकर युद्ध हुआ। 

विदुर जी! जब इस प्रकार हिरण्याक्ष और माया से वराह रूप धारण करने वाले भगवान् यज्ञमूर्ति पृथ्वी के लिये द्वेष बाँधकर युद्ध करने लगे, तब उसे देखने वहाँ ऋषियों के सहित ब्रह्मा जी आये। वे हजारों ऋषियों से घिरे हुए थे। जब उन्होंने देखा कि वह दैत्य बड़ा शूरवीर है, उसमें भय नाम भी नहीं है, वह मुकाबला करने में भी समर्थ है और उसके पराक्रम को चूर्ण करना बड़ा कठिन काम है, तब वे भगवान् आदिसूकररूप नारायण से इस प्रकार कहने लगे। 

श्रीब्रह्मा जी ने कहा- देव! मुझसे वर पाकर यह दुष्ट दैत्य बड़ा प्रबल हो गया है। इस समय यह आपके चरणों की शरण में रहने वाले देवताओं, ब्राह्मणों, गौओं तथा अन्य निरपराध जीवों को बहुत ही हानि पहुँचाने वाला, दुःखदायी और भयप्रद हो रहा है। इसकी जोड़ का और कोई योद्धा नहीं है, इसलिये यह महाकण्टक अपना मुकाबला करने वाले वीर की खोज में समस्त लोकों में घूम रहा है। यह दुष्ट बड़ा ही मायावी, घमण्डी और निरंकुश है। बच्चा जिस प्रकार क्रुद्ध हुए साँप से खेलता है; वैसे ही आप इससे खिलवाड़ न करें। देव! अच्युत! जब तक यह दारुण दैत्य अपनी बल-वृद्धि वेला को पाकर प्रबल हो, उससे पहले-पहले ही आप अपनी योगमाया को स्वीकार करके इस पापी को मार डालिये। प्रभो! देखिये, लोकों का संहार करने वाली सन्ध्या की भयंकर वेला आना ही चाहती है। सर्वात्मन्! आप उससे पहले ही इस असुर को मारकर देवताओं को विजय प्रदान कीजिये। इस समय अभिजित् नामक मंगलमय मुहूर्त का भी योग आ गया है। अतः अपन सुहृद् हम लोगों के कल्याण के लिये शीघ्र ही इस दुर्जय दैत्य से निपट लीजिये। प्रभो! इसकी मृत्यु आपके ही हाथ बदी है। हम लोगों के बड़े भाग्य हैं। अब आप युद्ध में बलपूर्वक इसे मारकर लोकों को शान्ति प्रदान कीजिये।
साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: अष्टादश अध्यायः श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: अष्टादश अध्यायः श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद

हिरण्याक्ष के साथ वराह भगवान् का युद्ध

श्रीमैत्रेय जी ने कहा- तात! वरुण जी की यह बात सुनकर वह मदोन्मत्त दैत्य बड़ा प्रसन्न हुआ। उसने उनके इस कथन पर कि ‘तू उनके हाथ से मारा जायेगा’ कुछ भी ध्यान नहीं दिया और चट नारद जी से श्रीहरि का पता लगाकर रसातल में पहुँच गया। वहाँ उसने विश्वविजयी वराह भगवान् को अपनी दाढ़ों की नोक पर पृथ्वी को ऊपर की ओर ले जाते हुए देखा। वे अपने लाल-लाल चमकीले नेत्रों से उसके तेज को हरे लेते थे। उन्हें देखकर वह खिलखिलाकर हँस पड़ा और बोला, ‘अरे! यह जंगली पशु यहाँ जल में कहाँ से आया’। फिर वराह जी से कहा, ‘रे नासमझ! इधर आ, इस पृथ्वी को छोड़ दे; इसे विश्वविधाता ब्रह्मा जी ने हम रसातलवासियों के हवाले कर दिया है। रे सूकररूपधारी सुराधम! मेरे देखते-देखते तू इसे लेकर कुशलपूर्वक नहीं जा सकता। तू माया से लुक-छिपकर ही दैत्यों को जीत लेता और मार डालता है। क्या इसी से हमारे शत्रुओं ने हमारा नाश कराने के लिये तुझे पाला है? मूढ़! तेरा बल तो योगमाया ही है और कोई पुरुषार्थ तुझमें थोड़े ही है। आज तुझे समाप्त कर मैं अपने बन्धुओं का शोक दूर करूँगा। जब मेरे हाथ से छूटी हुई गदा के प्रहार से सिर फट जाने के कारण तू मर जायेगा, तब तेरी आराधना करने वाले जो देवता और ऋषि हैं, वे सब भी जड़ कटे हुए वृक्षों की भाँति स्वयं ही नष्ट हो जायँगे’।

हिरण्याक्ष भगवान् को दुर्वचन-बाणों से छेदे जा रहा था; परन्तु उन्होंने दाँत की नोक पर स्थित पृथ्वी को भयभीत देखकर वह चोट सह ली तथा जल से उसी प्रकार बाहर निकल आये, जैसे ग्राह की चोट खाकर हथिनी सहित गजराज। जब उसकी चुनौती का कोई उत्तर न देकर वे जल से बाहर आने लगे, तब ग्राह जैसे गज का पीछा करता है, उसी प्रकार पीले केश और तीखी दाढ़ों वाले उस दैत्य ने उनका पीछा किया तथा वज्र के समान कड़ककर वह कहने लगा, ‘तुझे भागने में लज्जा नहीं आती? सच है, असत् पुरुषों के लिये कौन-सा काम न करने योग्य है?

भगवान् ने पृथ्वी को ले जाकर जल के ऊपर व्यवहार योग्य स्थान में स्थित कर दिया और उसमें अपनी आधारशक्ति का संचार किया। उस समय हिरण्याक्ष के सामने ही ब्रह्मा जी ने उनकी स्तुति की और देवताओं ने फूल बरसाये। तब श्रीहरि ने बड़ी भारी गदा लिये अपने पीछे आ रहे हिरण्याक्ष से, जो सोने के आभूषण और अद्भुत कवच धारण किये था तथा अपने कटुवाक्यों से उन्हें निरन्तर मर्माहत कर रहा था, अत्यन्त क्रोधपूर्वक हँसते हुए कहा।

श्रीभगवान् ने कहा- अरे! सचमुच ही हम जंगली जीव हैं, जो तुझ-जैसे ग्रामसिंहों (कुत्तों) को ढूँढ़ते फिरते हैं। दुष्ट! वीर पुरुष तुझ-जैसे मृत्युपाश में बँधे हुए अभागे जीवों की आत्मश्लाघा पर ध्यान नहीं देते। हाँ, हम रसातलवासियों की धरोहर चुराकर और लज्जा छोड़कर तेरी गदा के भय से यहाँ भाग आये हैं। हममें ऐसी सामर्थ्य ही कहाँ कि तेरे-जैसे अद्वितीय वीर के सामने युद्ध में ठहर सकें। फिर भी हम जैसे-तैसे तेरे सामने खड़े हैं; तुझ-जैसे बलवानों से वैर बाँधकर हम जा भी कहाँ सकते हैं?