श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: द्वितीय अध्यायः श्लोक 14-25 का हिन्दी अनुवाद.


 (लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: द्वितीय अध्यायः श्लोक 14-25 का हिन्दी अनुवाद.

उनके प्रेमपूर्ण हास्य-विनोद और लीलामय चितवन से सम्मानित होने पर व्रजबालाओं की आँखें उन्हीं की ओर लग जाती थीं और उनका चित्त भी ऐसा तल्लीन हो जाता था कि वे घर के काम-धंधों को अधुरा छोड़कर जड़ पुतलियों की तरह खड़ी रह जाती थीं। चराचर जगत् और प्रकृति के स्वामी भगवान् ने जब अपने शान्तरूप महात्माओं को अपने ही घोररूप असुरों से सताये जाते देखा, तब वे ही करुणा भाव से द्रवित हो गये और अजन्मा होने पर भी अपने अंश बलराम जी के साथ काष्ठ में अग्नि के समान प्रकट हुए। अजन्मा होकर भी वसुदेव जी के यहाँ जन्म लेने की लीला करना, सबको अभय देने वाले होने पर भी मानो कंस के भय से व्रज में जाकर छिप रहना और अनन्त पराक्रमी होने पर भी कालयवन के सामने मथुरापुरी को छोड़कर भाग जाना-भगवान् की ये लीलाएँ याद आ-आकर मुझे बेचैन कर डालती हैं।

उन्होंने जो देवकी-वसुदेव की चरण-वन्दना करके कहा था- ‘पिताजी, माताजी! कंस का बड़ा भय रहने के कारण मुझसे आपकी कोई सेवा न बन सकी, आप मेरे इस अपराध पर ध्यान न देकर मुझ पर प्रसन्न हों।’ श्रीकृष्ण की ये बातें जब याद आती हैं, तब आज भी मेरा चित्त अत्यन्त व्यथित हो जाता है। जिन्होंने कालरूप अपने भृकुटीविलास से ही पृथ्वी का सारा भार उतार दिया था, उन श्रीकृष्ण के पादपद्मपराग का सेवन करने वाला ऐसा कौन पुरुष है, जो उसे भूल सके। आप लोगों ने राजसूय यज्ञ में प्रत्यक्ष ही देखा था कि श्रीकृष्ण से द्वेष करने वाले शिशुपाल को वह सिद्धि मिल गयी, जिसकी बड़े-बड़े योगी भलीभाँति योग-साधना करके स्पृहा करते रहते हैं। उनका विरह भला कौन सह सकता है। शिशुपाल के ही समान महाभारत के युद्ध में जिन दूसरे योद्धाओं ने अपनी आँखों से भगवान् श्रीकृष्ण के नयनाभिराम मुखकमल का मकरन्द पान करते हुए अर्जुन के बाणों से बिंधकर प्राण त्याग किया, वे पवित्र होकर सब-के-सब भगवान् के परमधाम को प्राप्त हो गये।

स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण तीनों लोकों के अधीश्वर हैं। उनके समान भी कोई नहीं है, उनसे बढ़कर तो कौन होगा। वे अपने स्वतःसिद्ध ऐश्वर्य से ही सर्वदा पूर्णकाम हैं। इन्द्रादि असंख्य लोकपालगण नाना प्रकार की भेंटे ला-लाकर अपने-अपने मुकुटों के अग्रभाग से उनके चरण रखने की चौकी को प्रणाम किया करते हैं। विदुर जी! वे ही भगवान् श्रीकृष्ण राजसिंहासन पर बैठे हुए उग्रसेन के सामने खड़े होकर निवेदन करते थे, ‘देव! हमारी प्रार्थना सुनिये।’ उनके इस सेवा-भाव की याद आते ही हम-जैसे सेवकों का चित्त अत्यन्त व्यथित हो जाता है। पापिनी पूतना ने अपने स्तनों में हलाहल विष लगाकर श्रीकृष्ण को मार डालने की नियत से उन्हें दूध पिलाया था; उसको भी भगवान् ने वह परम गति दी, जो धाय को मिलनी चाहिये। उन भगवान श्रीकृष्ण के अतिरिक्त और कौन दयालु है, जिसकी शरण ग्रहण करें। मैं असुरों को भी भगवान् का भक्त समझता हूँ; क्योंकि वैर भाव जनित क्रोध के कारण उनका चित्त सदा श्रीकृष्ण में ही लगा रहता था और उन्हें रणभूमि में सुदर्शन चक्रधारी भगवान् को कंधे पर चढ़ाकर झपटते हुए गरुड़ जी के दर्शन हुआ करते थे। ब्रह्मा जी की प्रार्थना से पृथ्वी का भार उतारकर उसे सुखी करने के लिये कंस के कारागार में वसुदेव-देवकी के यहाँ भगवान ने अवतार लिया था।



साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: द्वितीय अध्यायः श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: द्वितीय अध्यायः श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद

उद्धव जी द्वारा भगवान् की बाल लीलाओं का वर्णन श्रीशुकदेव जी कहते हैं- जब विदुर जी ने परम भक्त उद्धव से इस प्रकार उनके प्रियतम श्रीकृष्ण से सम्बन्ध रखने वाली बातें पूछीं, तब उन्हें अपने स्वामी का स्मरण हो आया और वे हृदय भर आने के कारण कुछ भी उत्तर न दे सके। जब ये पाँच वर्ष के थे, तब बालकों की तरह खेल में ही श्रीकृष्ण की मूर्ति बनाकर उसकी सेवा-पूजा में ऐसे तन्मय हो जाते थे कि कलेवे के लिये माता के बुलाने पर भी उसे छोड़कर नहीं जाना चाहते थे, अब तो दीर्घकाल से उन्हीं की सेवा में रहते-रहते ये बूढ़े हो चले थे; अतः विदुर जी के पूछने से उन्हें अपने प्यारे प्रभु के चरणकमलों का स्मरण हो आया-उनका चित्त विरह से व्याकुल हो गया। फिर वे कैसे उत्तर दे सकते थे।

उद्धव जी श्रीकृष्ण के चरणारविन्द-मकरन्द सुधा से सराबोर होकर दो घड़ी तक कुछ भी नहीं बोल सके। तीव्र भक्तियोग से उसमें डूबकर वे आनन्द-मग्न हो गये। उनके सारे शरीर में रोमांच हो आया तथा मुँदे हुए नेत्रों से प्रेम के आँसुओं की धारा बहने लगी। उद्धव जी को इस प्रकार प्रेमप्रवाह में डूबे हुए देखकर विदुर जी ने उन्हें कृतकृत्य माना। कुछ समय बाद जब उद्धव जी भगवान् के प्रेमधाम से उतरकर पुनः धीरे-धीरे संसार में आये, तब अपने नेत्रों को पोंछकर भगवल्लीलाओं का स्मरण हो आने से विस्मित हो विदुर जी से इस प्रकार कहने लगे। उद्धव जी बोले- विदुर जी! श्रीकृष्णरूप सूर्य के छिप जाने से हमारे घरों को कालरूप अजगर ने खा डाला है, वे श्रीहीन हो गये हैं; अब मैं उनकी क्या कुशल सुनाऊँ।

ओह! यह मनुष्यलोक बड़ा ही अभागा है; इसमें भी यादव तो नितान्त भाग्यहीन हैं, जिन्होंने निरन्तर श्रीकृष्ण के साथ रहते हुए भी उन्हें नहीं पहचाना-जिस तरह अमृतमय चन्द्रमा के समुद्र में रहते समय मछलियाँ उन्हें नहीं पहचान सकी थीं। यादव लोग मन के भाव को ताड़ने वाले, बड़े समझदार और भगवान् के साथ एक ही स्थान में रहकर क्रीड़ा करने वाले थे; तो भी उन सबने समस्त विश्व के आश्रय, सर्वान्तर्यामी श्रीकृष्ण को एक श्रेष्ठ यादव ही समझा। किंतु भगवान् की माया से मोहित इन यादवों और इनसे व्यर्थ का वैर ठानने वाले शिशुपाल आदि के अवहेलना और निन्दासूचक वाक्यों से भगवत्प्राण महानुभावों की बुद्धि भ्रम में नहीं पड़ती थी। जिन्होंने कभी तप नहीं किया, उन लोगों को भी इतने दिनों तक दर्शन देकर अब उनकी दर्शन-लालसा को तृप्त किये बिना ही वे भगवान् श्रीकृष्ण अपने त्रिभुवन-मोहन श्रीविग्रह को छिपाकर अन्तर्धान हो गये हैं और इस प्रकार उन्होंने मानो उनके नेत्रों को ही छीन लिया है।

भगवान् ने अपनी योगमाया का प्रभाव दिखाने के लिये मानव लीलाओं के योग्य जो दिव्य श्रीविग्रह प्रकट किया था, वह इतना सुन्दर था कि उसे देखकर सारा जगत् तो मोहित हो ही जाता था, वे स्वयं भी विस्मित हो जाते थे। सौभाग्य और सुन्दरता की पराकष्ठा थी उस रूप में। उससे आभूषण (अंगों में गहने) भी विभूषित हो जाते। धर्मराज युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में जब भगवान् के उस नयनभिराम रूप पर लोगों की दृष्टि पड़ी थी, तब त्रिलोकी ने यही माना था कि मानव-सृष्टि की रचना में विधाता की जितनी चतुराई है, सब इसी रूप में पूरी हो गयी है।

साभार krishnakosh.org

राजा दशरथ का मुकुट.


राजा दशरथ का मुकुट.


रामायण से जुड़ी बहुत सी कथाएं प्रचलित हैं, उन्हीं में से एक कथा राजा दशरथ के मुकुट से जुड़ी है। इससे जुड़ी कथा के अनुसार राजा दशरथ अक्सर जब जंगल में भ्रमण करते थे, तो अपनी पत्नी कैकयी को भी साथ ही लेकर जाते थे। इसलिए कई बार युद्ध के दौरान कैकयी राजा दशरथ के साथ होती थी। एक बार की बात है राजा दशरथ और कैकयी वन की ओर निकलें। जहां उनका सामना बाली से हो हुआ। इस दौरान बाली ने राजा दशरथ को युद्ध के लिए ललकार दिया। जोश में आकर राजा दशरथ ने युद्ध की चुनौती को स्वीकार कर लिया परंतु वे ये भूल गए कि बाली को वरदान प्राप्त था कि जिस किसी पर भी बाली की दृष्टि पड़ेगी उसकी आधी शक्ति बाली के अंदर आ जाएगी। अतः इससे तो निश्चित था कि राजा दशरथ और बाली के बीच में से जीत बाली की होगी और हुआ भी ऐसा ही। 

राजा दशरथ के युद्ध में हार जाने पर बाली ने उनके आगे एक शर्त रखी थी कि या तो कैकयी को सौंपना होगा या फिर रघुकुल की शान अपना मुकुट उसे सौंपना होगा। जिसके बाद राजा दशरथ अपना मुकुट बाली को देकर रानी कैकेयी के साथ वापस अयोध्या लौट गए। परंतु रानी कैकयी इस बात से अत्यंत दुखी थी। उन्हें राजा दशरथ के मुकुट की चिंता सताती रहती थी। वह दिन रात उसकी वापसी की चिंता में रहने लगी। 

मान्यताओं के अनुसार जब श्रीराम के राजतिलक का समय आया तब दशरथ जी और कैकयी के बीच में मुकुट को लेकर चर्चा हुई। क्योंकि ये बात केवल यही दोनों जानते थे। कहा जाता है कि कैकेयी ने रघुकुल की शान को वापस लाने के लिए ही श्री राम को वनवास भेजने का कलंक अपने माथे लिया था। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार उन्होंने श्री राम को वनवास भेजने से पहले कहा था कि बाली से मुकुट वापस लेकर आना।

उपरोक्त के अतिरिक्त आनंद रामायण, तुलसीकृत रामायण में वनवास के लिए अन्य अन्य कारण बताये गये हैं।  

युधिष्ठिर की मर्यादा.


युधिष्टिर की मर्यादा.

एक बार द्वैतवन में रह रहे पांडवों को देखने के लिए दुर्योधन के कहने पर शकुनि, कर्ण और दुशासन ने योजना बनाई। राजा धृतराष्ट्र से कहा कि हम घोषयात्रा करना चाहते हैं। इस समय गोएं रमणिक प्रदेश में ठहरी हुई है और यह समय उनकी गणना करने का उचित समय है। इससे उनके बछड़े, रंग और आयु की गणना कर सकेंगे।

यह सुनकर धृतराष्ट्र ने यह कहकर मना कर दिया कि उस क्षेत्र में पांडव ठहरे हुए हैं, अत: तुम उधर ना जाओ तो ही उचित है। गौओं की गणना के लिए किसी दूसरे विश्‍वासपात्र व्यक्ति को भेज दें। यह सुनकर शकुनि ने कहा- राजन हम लोग केवल गोओं की गणना करना चाहते हैं। पाण्डवों से मिलने का हमारा कोई इरादा नहीं है। जहां पांडव रहते होंगे, हम वहां तो जानकर भी नहीं जाएंगे।

इस तरह शकुनि ने धृतराष्ट्र को मना लिया और दुर्योधन और शकुनि को फिर मंत्री एवं सेना सहित वहां जाने की आज्ञा दे दी। दुर्योधन के साथ हजारों स्त्रियां और उनके भाई सहित सैंकड़ों की संख्‍या में बोझा ढोने के लिए लोग चले। इस सब लश्कर के साथ दुर्योधन पड़ाव डालता हुआ, सर्वगुणसम्पन्न, रमणीय, सजल और सघन प्रदेश में पहुंच गया। वहां गाय, बछड़ों आदि की गणना करते करते, वह कुछ लोगों के साथ द्वैतवन के एक सरोवर के निकट पहुंच गया। वहां उस सरोवर के तट पर ही युधिष्ठिर आदि पांडव द्रोपदी के साथ कुटिया बनाकर रहते थे। वे उस समय राजर्षि यज्ञ कर रहे थे।

तभी दुर्योधन ने अपने सेवकों को आज्ञा दी कि यहां शीघ्र ही एक क्रीड़ाभवन तैयार करो। क्रीड़ा भवन का निर्माण करने के लिए जब वे द्वैतवन के सरोवर पर गए और वे जब उनके द्वार में घुसने लगे, तो वहां के रक्षक मुखिया गंधर्वों ने उन्हें रोक लिया। क्योंकि उनके पहुंचने से पहले ही गंधर्वराज चित्रसेन उस जल सरोवर में जलक्रीड़ा कर रहे थे। इस प्रकार सरोवर को गंधर्वों से घिरा देखकर दुर्योधन के सेवक पुन: दुर्योधन के पास लौट आए। दुर्योधन ने तब सैनिकों को आज्ञा दी कि उन गंधर्वों को वहां से निकाल दो। लेकिन उन सैनिकों को उल्टे पांव लौटना पड़ा।

इससे दुर्योधन भड़क उठा और उसने सभी सेनापतियों के साथ गंधर्वों से युद्ध करने पहुंच गए। वहां प्रारंभ में उसने कुछ गंधर्वों को पीटकर बलपूर्वक, वह वन में अपने सैनिकों के साथ घुस गया। कुछ गंधर्व ने भागकर चित्रसेन को बताया कि किस तरह दुर्योधन अपनी सेना के साथ बलात् वन में घुसा है। तब चित्रसेन को क्रोध आया और उसने अपननी माया से भयंकर युद्ध किया। कुछ देर में दुर्योधन की सेना रणभूमि से भागने लगी। दुर्योधन, शकुनि और कर्ण को गंधर्व सेना ने घायल कर दिया। कर्ण के रथ के टूकड़े टूकड़े कर डाले।

कौरवों की हार को देखने हुए दुर्योधन के भाई और साथी युद्ध छोड़ पीठ दिखाकर भागने लगे। लेकिन चित्रसेन की सेना ने दुर्योधन और दुशासन को मारने की दृष्‍टि से घेरकर पकड़ लिया। भागती हुए सेना को घेर घेर कर मारा जाने लगा। अंतत: कौरवों की सेना ने सारे बचा खुचा सामान लेकर पाण्डवों की शरण ली और उन्होंने दुर्योधन आदि के गंधर्वों की सेना के घेर लिए जाने का समाचार युधिषिठर को सुनाया।

यह समाचार सुनकर भीम ने कहा कि हम भी वनवास के बाद हाथी घोड़ों से लैस होकर जो काम करते, वह गंधर्वों ने ही कर दिया है। चलो अच्छा ही हुआ। यह सुनकर युधिष्ठिर ने कहा कि यह समय कड़वे वचन कहने का नहीं है। कुटुम्बियों में मतभेद होते हैं; लेकिन यदि कोई बाहर का व्यक्ति हमारे कुल के लोगों और स्त्रियों को पकड़कर ले जाए तो यह हमारे लिए धिक्कार की बात है। यह हमारे कुल का तिरसक्कार है। अत: शूरवीरों! हमारे ही लोग जब हमारी शरण में आकर दुर्योधन आदि को छुड़ाने की प्रार्थना कर रहे हैं, तो हमें शरणागत की रक्षा करना चाहिए।

युधिष्ठिर की यह बाते सुनकर भीमसेना निराश हो गए। लेकिन उन्हें तो युधिष्‍ठिर की आज्ञा मानना ही थी। तब पांचों पांडवों ने प्रतिज्ञा की कि यदि गंधर्वलोग समझाने बुझाने पर कौरवों को नहीं छोड़ेंगे, तो हम गंधर्वों का रक्तपात करेंगे। यह प्रतिज्ञा सुनकर कौरव सेना और उनके कुल के जी में जी आया।

गंधर्वों ने युधिष्ठिर की शांतिवार्ता को ठुकरा दिया, तब भयंकर युद्ध हुआ और हजारों गंधर्वों को यमलोक पहुंचा दिया गया। गंधर्वों और पांडवों के बीच घनघोर युद्ध हुआ। अंत में अर्जुन ने दिव्यास्त्र का संधान किया। अर्जुन के इस अस्त्र से चित्रसेन घबरा गया। तब उसने अर्जुन के समक्ष पहुंचकर कहा, मैं तुम्हारा सखा चित्रसेन हूं। अर्जुन ने यह सुनकर दिव्यास्त्र को लौटा लिया। फिर चित्रसेन, अर्जुन रथ में बैठाकर अपने महल ले गया। अर्जुन ने पूछा तुमने स्‍त्रियों सहित दुर्योधन को बंदी क्यों बनाया।

चित्रसेना ने कहा, वीर धनंजय, दुरात्मा दुर्योधन और पापी कर्ण का अभिप्राय मालूम हो गया था। वे लोग यह सोचकर ही वन में आए थे कि आप लोग यहां रहते हैं। वे तुम्हें दुर्दशा में देखकर और द्रौपदी की हंसी उड़ाने की इच्छा से सरोवर तट पर जल‍क्रीड़ा हेतु पड़ाव डाल रहे थे। किसी प्रकार का अनर्थ ना हो इसीलिए देवराज इंद्र अर्थात आपके पिता की आज्ञा से ही मैंने सरोवर पर जलक्रीड़ा की योजना बनाकर दुर्योधन के छल को असफल कर दिया और दुर्योधन को उसके भाई सहित बंदी बना लिया।

पांचों पांडवों ने जब यह सुना तो वे सन्न रह गए। तब भी अर्जुन ने कहा कि चित्रसेन यदि तुम मेरा प्रिय करना चाहते हो तो धर्मराज के आदेश से तुम हमारे भाई दुर्योधन को छोड़ दो। चित्रसेन ने कहा कि अर्जुन यह पापी है। इसे छोड़ दिया तब भी यह पाप ही करेगा। इसे धर्मराज (युधिष्ठिर) और श्रीकृष्ण को धोखा दिया था। चित्रसेन कुछ देर रुकने के बाद कहते हैं कि अच्छा चलो पहले हम युधिष्‍ठिर को इसके छल के बारे में बताते हैं। फिर वे जो निर्णय करें मुझे मंजूर है।

चित्रसेन ने युधिष्ठिर से सब बातें कही और उन्होंने बताया कि किस तरह यह पापी दुर्योधन आपका अहित करने आया था। इस पर भी युधिष्ठिर ने चित्रसेन से दुर्योधन, दुशासन और अन्य कौरवों सहित सभी स्त्रियों को छोड़ने का आदेश दिया। तब अंत में देवराज इंद्र ने कौरवों के हाथ से मारे गए गंधर्वों को अमृत की वर्षा करके जीवित कर दिया।

फिर दुर्योधन आदि कौरव को गंधर्व लोग युधिष्‍ठिर के पास लेकर आए और उन्होंने उन्हें युधिष्‍ठिर के सुपर्द कर दिया। युधिष्ठिर सहित सभी पांडवों ने दुर्योधन, दुशासन और सभी राजमहिषियों का स्वागत किया। दुर्योधन ने भरे मन से युधिष्ठिर को प्रणाम किया और लज्जित होकर अपने नगर हस्तिनापुर की ओर चला गया।

सोचिए यदि युधिष्ठिर आदि पांडव यह काम नहीं करते तो दुर्योधन आदि कौरवों को गंधर्व बंदीगृह में ही मार देते। इससे पांडवों के बीच का सबसे बड़ा कांटा निकल जाता। तब भविष्‍य में किसी भी प्रकार का युद्ध नहीं होता। युद्ध नहीं होता तो भयंकर रक्तपात भी नहीं होता। वनवास के बाद स्वत: ही युधिष्‍ठिर को हस्तिनापुर का राज भी मिल जाता। सांप भी मर जाता और लाठी भी नहीं टूटती। न रहता बांस तो बांसूरी भी नहीं बजती।


संदर्भ: महाभारत वनपर्व-अखंड ज्योति 

सुविचार-57


सुविचा
01.
आचरण और व्यवहार से कुल का पता चलता हैं बोली से मनुष्य के क्षेत्र का पता चलता हैं। आदरभाव से प्रीति का पता चलता हैं। आँखों से मन के भावों का पता चलता है। संकट के समय धैर्य का पता चलता हैं। संगती से मनुष्य की प्रकृति का पता चलता हैं और कोई भी काम, कैसा हैं, उसके परिणाम से पता चलता हैं।

02.
इस संसार में साधन-हीन होने का अर्थ हैं कि प्यासे को पानी छोड़कर सब मिल जायेगा।

03.
पाप के पंजे में फंसा हुआ मन, पतझड़ का पत्ता हैं, जो हवा के झोकें में गिर पड़ता हैं।

04.
शीलवान और लज्जावान होने से कुपथ-गामी नहीं हो सकते; क्योकि “लज्जा और शील” कुपथ की सबसे बड़ी शत्रु हैं।

05.
जन्म के बाद मृत्यु, उत्थान के बाद पतन, संयोग के बाद वियोग, संचय के बाद क्षय निश्चित हैं; इसलिए ज्ञानी-जन इन बातों को जानकर हर्ष और शोक के वशीभूत नहीं होते हैं।

06.
आक्रामकता सिर्फ एक मुखौटा हैं, जिसके पीछे मनुष्य अपनी कमजोरियों को, अपने और संसार से छिपाकर चलता हैं। असली और स्थाईशक्तिसहनशीलता में हैं। त्वरित और कठोर प्रतिक्रिया सिर्फ कमजोर लोग ही करते हैं, जिससे वे अपनी मनुष्यता खो देते हैं।

07.
आपका लक्ष्य हर चीज को जानने का होना चाहिए। कम से कम उतनी जानकारी होनी ही चाहिए; जितनी जीवन लिये बहुत जरुरी हैं।


08.
जैसा आप चाह रहे है;, वैसा नहीं हो रहा हैं, तो इसका मतलब यह नहीं कि वह भगवान की मरजी के अनुकूल भी नहीं हो रही हैं।

09.
जरूरी नहीं हैं, कोई साहस लेकर जन्मा हो; किन्तु शक्ति लेकर प्रत्येक का जन्म होता हैं और यह शक्ति ही अभ्यास से साहस में परिवर्तित होती हैं।

10.
मानवीय प्रवत्ति हैं कि हम झूटी प्रंशसा के द्वारा बर्वाद हो जाना तो पसंद करते हैं; परन्तु वास्तविक आलोचना के द्वारा संभल जाना नहीं।

11.
अगर कोई व्यक्ति कुछ चीजों को सुधारने या दुरुस्त करने की कला जानता हैं, तो इसका यह अर्थ नहीं कि वह हर चीज को सुधारने का हुनर रखता हैं।

12.
राक्षस, यक्ष और असुर तीनों में भेद हैं। राक्षस, अरण्य (जंगल) में निवास करते हैं और इंसान से लड़ते हैं। असुर, पाताल में रहते हैं और देवताओं से लड़ते हैं। यक्ष, का निवास कैलाश पर्वत है और वे राक्षसों से लड़ते हैं।


13.
बिना साहस के हम कोई दूसरा गुण यथा कृपालुता, दयालुता, सत्यवादिता, उदारता या इमानदारी अपना ही नहीं सकते; इसलिए साहसी होना प्रथमत: अनिवार्य और आवश्यक धर्म हैं|

14.
रूप और गर्व में दीपक और प्रकाश का सम्बन्ध हैं। गर्व, रूप का प्रकाश हैं।

15.
जब आप कर्तव्यपथ पर उठ खड़े हुए हैं, तब आलस्य और घमंड नहीं करना चाहिए| आलस्य आपको लक्ष्य प्राप्त नहीं करने देगा और घमंड आपकी प्रतिष्ठा को कलंकित कर देगा|

16.
धर्म का निवास स्थानअंतरात्माहैं; इसलिए धर्माचरण करने के लिए आप हर स्थान में स्वतंत्र हैं। धर्म के लिए स्थान की खोज करना व्यर्थ हैं।

17.
शास्त्र के अनुसार कृपण मनुष्य, स्वर्ग का अधिकारी नहीं होता| इसलिए मानवीय जीवन में कृपणता नहीं रखना चाहिए।

18.
अतिथि का अर्थमेहमाननहीं होता। अतिथि वह हैं, जिसका आगमन एकाएक हो।

19.
अपरिचित अतिथि को भोजन अवश्य देवें; किन्तु निवास नहीं देना चाहिए।

20.
अपरिचित अतिथि की अवधि सिर्फ भोजन तक और परिचित अतिथि की अवधि तीन दिन तक ही मानी जाती हैं।

21.
संसार रूपी कटु-वृक्ष के केवल दो फल ही अमृत के समान हैं; पहला-सुभाषितों का रसास्वाद और दूसरा, अच्छे लोगों की संगति।

22.
जैसे अंधे के लिये जगत अंधकारमय है और आंखों वाले के लिये प्रकाशमय है; वैसे ही अज्ञानी के लिये जगत दुखदायक है और ज्ञानी के लिये आनंदमय।

23.
प्रयास करने पर भी गौरांग प्राप्त नहीं कर सकते; किन्तु अज्ञान को अवश्य दूर कर सकते हैं।

24.
अतिसय भोग से धन का ही सर्वनाश नहीं होता, इससे कहीं अधिक बुध्दी और बल का विनाश होता हैं।

25.
जीवन में पहले ‘विवेक’ आता हैं, जो ‘वैराग्य=भोगों में अरुचि’ को उदय करता हैं; फिर उसे ‘षठसम्पति’ की प्राप्ति होती हैं। इनमें कहीं चूक नहीं हुई तब ‘मुमुक्षत्व’ की ओर अग्रसर होता हैं। उसके पश्चात ही प्रभु कृपा से “मोक्ष” की प्राप्ति होती हैं।
(‘षठसम्पति’ = १.शम, २.दम, ३.उपरति, ४-तितिक्षा, ५.श्रध्दा और ६.समाधान)

26.
हम सब अपनी ही आदतों के गुलाम बन गए हैं। सामंजस्य का अभाव तो ही। अब तनाव घटे, तो कैसे घटे।

27.
मात्र कुढ़ते रहने से, चिन्ता की चादर ओढ़कर निष्क्रिय हो जाने से और मन ही मन कुड़-बुड़ाते रहने से, किसी को रत्ती भर लाभ न तो कभी हुआ है, न कभी आगे होने वाला है।

28.
अपने सुख या मोक्ष के लिए साधना करते रहना ही “अध्यात्म” नहीं हैं। सच्चा अध्यात्म हैं-अपने समस्त गुणों, सारी उपलब्धियों को समाज हित में निछावर कर देना।

29.
महर्षि अत्री के वंश में उत्पन्न विदुषी विश्ववारा ने योग्याभ्यास और विशाल अध्ययन के बल पर ब्रह्मवादिनी पद पाया। ऋग्वेद के कितने ही अनुच्छेदों की गहन विवेचना की और उन लोगो का मुंह बंद कर दिया, जो स्त्रियों को वेद की अनाधिकरिणी मानते हैं।

30.
“विज्ञान”, बाहर की प्रगति हैं और “ज्ञान” अंत: की अनुभूति।

31.
पुराने जमाने में ईश्वर पर विश्वास न करने वाला नास्तिक होता था; पर अब स्वयं पर विश्वास न करने वाला नास्तिक कहलाता हैं।


32.
धर्म को जीने वाले, धर्म को समझते हैं, पर धर्म के लिए झगड़ते और मरते-मारते नहीं हैं।

33.
सदा जीवन, उच्च विचार के सिध्यांत पर निर्वहन करने वाले अपने दृष्टिकोण, चरित्र, व्यवहार में अधिकाधिक शालीनता अपनाते हैं।

34.
“गुण” छोटे लोगों में द्वेष और बड़े लोगो में स्पर्धा पैदा करता है।

35.
जिस तरह रंग, सादगी को निखार देती है, उसी तरह सादगी भी रंगों को निखार प्रदान करता हैं| इससे सिद्ध होता हैं कि सहयोग ही सफलता का सर्वश्रेष्ट उपाय हैं|

36.
“सांसारिक-सुख” जीवन को सरस एवं सर्वांगपूर्ण बनायें रखने की दृष्टि से उपयोगी हो सकते हैं, किन्तु इनको ही जीवन का लक्ष्य मान लेना, आत्म-कल्याण के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा हैं।

37.
मानव हृदय में सत्य-कामनाएं मौजूद रहती हैं, परन्तु विषयों के प्रति होने वाली मिथ्या तृष्णा का, उन पर आवरण चढ़ा रहता हैं

38.
“परमार्थ” मानव जीवन का अत्यंत आवश्यक धर्म-कर्तव्य हैं। इसकी उपेक्षा करते रहने से अपनी आध्यात्मिक पूँजी घटती हैं, आत्मबल क्षीण होता हैं और अंतर्चेतना में गिरावट आने लगती हैं।

39.
प्रेम स्वयं में सृजन हैं। वह जहाँ उत्पन्न होता हैं, वहाँ देवत्व उत्पन्न करता हैं और जिस पर उसे प्रयुक्त किया हैं, वह समर्थ बनता हैं। शर्त इतनी ही हैं कि प्रेम सच्चे अर्थों में प्रेम ही होना चाहिए।

40.
जिसके पास अच्छे विचारों और सत-साहित्य का भंडार हैं, वह कभी निर्धन तथा एकाकी नहीं हो सकता।

41.
सत्य अकेला नहीं, प्रेम और न्याय को भी साथ लेकर चलता हैं। इसी प्रकार असत्य के साथ पतन और संकट की जोड़ी चलती हैं।

42.
आशा, उत्साह और गति का समन्वय ही जीवन हैं।

43.
आदर्शों के लिए घाटा उठाने और लड़-मरने की साहसिकता का अनुदान “अवतार” अथवा कारक-पुरुष” के अतिरिक्त और किसी के पास नहीं होता।

44.
मरण के उपरांत ही स्वर्ग, नरक या मोक्ष मिलता हैं, यह सोचना ठीक नहीं। इनका आरम्भ तो जन्म लेते ही आरम्भ हो जाता हैं।

45.
भलाई का पुरुष्कार पाने और बुरे का दंड भुगतने में देर नहीं लगती। आत्मा के संतोष और पश्चाताप के रूप में वह हाथों-हाथ मिलता हैं।

46.
जब तक अपने को उठाने और सुधारने के लिए स्वयं तैयार नहीं होते, तब तक कोई दूसरा तुम्हे उठा या सुधार नहीं सकता।

47.
सत-साहित्य का अध्ययन, भावी जीवन के विभेदों और संकटों को शांति तथा प्रसन्नता में बदलने का मार्ग सुझा देता हैं।

48.
जो मनन नहीं करता, उसे कुछ भी समझ में नहीं आता मनन करने पर गूढ़ से गूढ़ रहस्य भी समझ में आ जाते हैं|

49.
घड़े में एक बार पानी भरकर यदि फिर उसे कहीं यों ही रखा रहने दो तो कुछ दिन में पानी सूख जायेगा; किन्तु यदि पानी के भीतर ही वह घड़ा रखा रहे तो पानी कभी न सूखेगा। यदि एक बार सत्य मार्ग का अवलम्बन करके फिर उस ओर से उदासीन हो जाओ तो परिश्रम व्यर्थ चला जाएगा; किन्तु यदि उस पथ पर सदैव आरुढ़ रहो तो जीवन उसी तत्व से ओत-प्रोत हो जायेगा।

50.
“रिस्ते” जिनसे जिन्दगी की साँस घुटने लगें, उनमें अटके रहना व्यर्थ हैं। कोई भी परम्परा का बंधन, जीवन से बड़ा नहीं होता। जिन्दगी पर किसी को भी भारी पड़ने मत दीजिये।

51.
जिन्दगी की कला के सारे सूत्र केवल वर्तमान में सिमटे हैं। अगर हम आज को, सघन प्रसन्नता से जीना सीख सकें, तो अतीत और भविष्य दोनोँ सुखद हो जायेंगे। 

52.
अतीत की गलियों में बहुत अधिक भटकने के कारण हम वर्तमान से दूर होते जा रहे हैं। वर्तमान से दूर होने का अर्थ अतीत की घुटन और भविष्‍य से भटकाव है। अपने आपको वर्तमान मे केन्द्रित रखिये।

53.

अगर आपके भीतर सत्‍यबोध है, तो केवल उस आवाज पर भरोसा करिये जो अंतर्मन से आए। दुनिया के नजरिए की चिंता मत करिए, बस अपने इरादे, चुनाव पर दृढ़ रहिए।


54.

हमने सुख-दुख, जीवन के अनुभवों को विशेष मान लिया, जबकि यह जीवन के सामान्‍य राग हैं। इनमें कुछ भी विशेष नहीं। हमें इनका साक्षी बनकर जीवन जीना है, इनके चौकीदार बनकर नही।


55.
संकट से जूझने पर आदमी, साहसी और समझदार हो जाता हैं।

56.
अजीब विडंबना हैं, विद्वान-विद्वान को देखकर, साधू-साधू को देखकर और कवि-कवि को देखकर जलता हैं, जबकि जुआरी-जुआरी को देखकर, शराबी-शराबी को देखकर और चोर-चोर को देखकर हर्षित होते हैं, और सहयोग करते हैं। बुराई से सब घृणा करते हैं; इसलिए उनमें परस्पर प्रेम होता हैं भलाई की सारा संसार प्रशंसा करता है, इसलिए भलों में विरोध होता हैं। बुराई को नहीं किन्तु उनके आपसी प्रेम और सहयोगी आचरण की सीख अपनाने के लिए भले लोगो को, यह बुराई की चेतावनी हैं।

57.
अपने हितकारी या शुभचिंतक की खोज बाहर करने में समय खराब करना हैं इन्द्रिय निग्रह कर, स्वयं अपना हित, शुभ और कल्याण किया जा सकता हैं

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: प्रथम अध्यायः श्लोक 40-45 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: प्रथम अध्यायः श्लोक 40-45 का हिन्दी अनुवाद

अहो! बेचारी कुन्ती तो राजर्षिश्रेष्ठ पाण्डु के वियोग में मृतप्राय-सी होकर भी इन बालकों के लिये ही प्राण धारण किये हुए हैं। रथियों में श्रेष्ठ महाराज पाण्डु ऐसे अनुपम वीर थे कि उन्होंने केवल एक धनुष लेकर ही अकेले चारों दिशाओं को जीत लिया था।

सौम्यस्वभाव उद्धव जी! मुझे तो अधःपतन की ओर जाने वाले उन धृतराष्ट्र के लिये बार-बार शोक होता है, जिन्होंने पाण्डवों के रूप में अपने परलोकवासी भाई पाण्डु से ही द्रोह किया तथा अपने पुत्रों की हाँ-में-हाँ मिलाकर अपने हितचिन्तक मुझको भी नगर से निकलवा दिया। किंतु भाई! मुझे इसका कुछ भी खेद अथवा आश्चर्य नहीं है। जगद्विधाता भगवान् श्रीकृष्ण ही मनुष्यों की-सी लीलाएँ करके लोगों की मनोवृत्तियों को भ्रमित कर देते हैं। मैं तो उन्हीं की कृपा से उनकी महिमा को देखता हुआ दूसरों की दृष्टि से दूर रहकर सानन्द विचर रहा हूँ।

यद्यपि कौरवों ने उनके बहुत-से अपराध किये, फिर भी भगवान् ने उनकी इसीलिये उपेक्षा कर दी थी कि वे उनके साथ उन दुष्ट राजाओं को भी मारकर अपने शरणागतों का दुःख दूर करना चाहते थे, जो धन, विद्या और जाति के मद से अंधे होकर कुमार्गगामी हो रहे थे और बार-बार अपनी सेनाओं से पृथ्वी को कंपा रहे थे। उद्धव जी! भगवान् श्रीकृष्ण जन्म और कर्म से रहित हैं, फिर भी दुष्टों का नाश करने के लिये और लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने के लिये उनके दिव्य जन्म-कर्म हुआ करते हैं। नहीं तो, भगवान् की तो बात ही क्या- दूसरे जो लोग गुणों से पार हो गये हैं, उनमें भी ऐसा कौन है, जो इस कर्माधीन देह के बन्धन में पड़ना चाहेगा। अतः मित्र! जिन्होंने अजन्मा होकर भी अपनी शरण में आये हुए समस्त लोकपाल और आज्ञाकारी भक्तों का प्रिय करने के लिये यदुकुल में जन्म लिया है, उन पवित्रकीर्ति श्रीहरि की बातें सुनाओ।

क्रमश:


साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: प्रथम अध्यायः श्लोक 27-39 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: प्रथम अध्यायः श्लोक 27-39 का हिन्दी अनुवाद

प्रियवर! हम कुरुवंशियों के परम सुहृद् और पूज्य वसुदेव जी, जो पिता के समान उदारतापूर्वक अपनी कुन्ती आदि बहिनों को उनके स्वामियों का सन्तोष कराते हुए, उनकी सभी मनचाही वस्तुएँ देते आये हैं, आनन्दपूर्वक हैं न? प्यारे उद्धव जी! यादवों के सेनापति वीरवर प्रद्युम्न जी तो प्रसन्न हैं न, जो पूर्वजन्म में कामदेव थे तथा जिन्हें देवी रुक्मिणी जी ने ब्राह्मणों की आराधना करके भगवान् से प्राप्त किया था। सात्वत, वृष्णि, भोज और दाशार्हवंशी यादवों के अधिपति महाराज उग्रसेन तो सुख से हैं न, जिन्होंने राज्य पाने की आशा का सर्वथा परित्याग कर दिया था, किंतु कमलनयन भगवान् श्रीकृष्ण ने जिन्हें फिर से राजसिंहासन पर बैठाया। सौम्य! अपने पिता श्रीकृष्ण के समान समस्त रथियों में अग्रगण्य श्रीकृष्णतनय साम्ब सकुशल तो हैं न? ये पहले पार्वती जी के द्वारा गर्भ में धारण किये हुए स्वामि कार्तिक हैं। अनेकों व्रत करके जाम्बवती ने इन्हें जन्म दिया था।

जिन्होंने अर्जुन से रहस्ययुक्त धनुर्विद्या की शिक्षा पायी है, वे सात्यकि तो कुशलपूर्वक हैं? वे भगवान् श्रीकृष्ण की सेवा से अनायास ही भगवज्जनों की उस महान् स्थिति पर पहुँच गये हैं, जो बड़े-बड़े योगियों को भी दुर्लभ है। भगवान् के शरणागत निर्मल भक्त बुद्धिमान् अक्रूर जी भी प्रसन्न हैं न, जो श्रीकृष्ण के चरणचिह्नों से अंकित व्रज के मार्ग की रज में प्रेम से अधीर होकर लोटने लगे थे? भोजवंशी देवक की पुत्री देवकी जी अच्छी तरह हैं न, जो देवमाता अदिति के समान ही साक्षात् विष्णु भगवान् की माता हैं? जैसे वेदत्रयी यज्ञविस्ताररूप अर्थ को अपने मन्त्रों में धारण किये रहती है, उसी प्रकार उन्होंने भगवान् श्रीकृष्ण को अपने गर्भ में धारण किया था।

आप भक्तजनों की कामनाएँ पूर्ण करने वाले भगवान् अनिरुद्ध जी सुखपूर्वक हैं न, जिन्हें शास्त्र वेदों के आदिकारण और अन्तःकरणचतुष्टय के चौथे अंश मन के अधिष्ठाता बतलाते हैं। सौम्यस्वभाव उद्धव जी! अपने हृदयेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण का अनन्यभाव से अनुसरण करने वाले जो हृदीक, सत्यभामानन्दन चारूदेष्ण और गद आदि अन्य भगवान् के पुत्र हैं, वे सब भी कुशलपूर्वक हैं न? महाराज युधिष्ठिर अपनी अर्जुन और श्रीकृष्ण-रूप दोनों भुजाओं की सहायता से धर्ममर्यादा का न्यायपूर्वक पालन करते हैं न?

मय दानव की बनायी हुई सभा में इनके राज्य वैभव और दबदबे को देखकर दुर्योधन को बड़ा डाह हुआ था। अपराधियों के प्रति अत्यन्त असहिष्णु भीमसेन ने सर्प के समान दीर्घकालीन क्रोध को छोड़ दिया है क्या? जब वे गदायुद्ध में तरह-तरह के पैंतरे बदलते थे, तब उनके पैरों की धमक से धरती डोलने लगती थी। जिनके बाणों के जाल से छिपकर किरात वेषधारी, अतएव किसी की पहचान में न आने वाले भगवान् शंकर प्रसन्न हो गये थे, वे रथी और यूथपतियों का सुयश बढ़ाने वाले गाण्डीवधारी अर्जुन तो प्रसन्न हैं न? अब तो उनके सभी शत्रु शान्त हो चुके होंगे? पलक जिस प्रकार नेत्रों की रक्षा करते हैं, उसी प्रकार कुन्ती के पुत्र युधिष्ठिरादि जिनकी सर्वदा सँभाल रखते हैं और कुन्ती ने ही जिनका लालन-पालन किया है, वे माद्री के यमज पुत्र नकुल-सहदेव कुशल से तो हैं न? उन्होंने युद्ध में में शत्रु से अपना राज्य उसी प्रकार छीन लिया, जैसे दो गरुड़ इन्द्र के मुख से अमृत निकाल लायें।


क्रमश:


साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: प्रथम अध्यायः श्लोक 14-26 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: प्रथम अध्यायः श्लोक 14-26 का हिन्दी अनुवाद

विदुर जी का ऐसा सुन्दर स्वभाव था कि साधुजन भी उसे प्राप्त करने की इच्छा करते थे। किंतु उनकी यह बात सुनते ही कर्ण, दुःशासन और शकुनि के सहित दुर्योधन के होठ अत्यन्त क्रोध से फड़कने लगे और उसने उनका तिरस्कार करते हुए कहा- ‘अरे! इस कुटिल दासी पुत्र को यहाँ किसने बुलाया है? यह जिनके टुकड़े खा-खाकर जीता है, उन्हीं के प्रतिकूल होकर शत्रु का काम बनाना चाहता है। इसके प्राण तो मत लो, परंतु इसे हमारे नगर से तुरन्त बाहर कर दो’। भाई के सामने ही कानों में बाण के समान लगने वाले इन अत्यन्त कठोर वचनों से मर्माहत होकर भी विदुर जी ने कुछ बुरा न माना और भगवान् की माया को प्रबल समझकर अपना धनुष राजद्वार पर रख वे हस्तिनापुर से चल दिये।

कौरवों को विदुर-जैसे महात्मा बड़े पुण्य से प्राप्त हुए थे। वे हस्तिनापुर से चलकर पुण्य करने की इच्छा से भूमण्डल में तीर्थपाद भगवान् के क्षेत्रों में विचरने लगे, जहाँ श्रीहरि, ब्रह्मा, रुद्र, अनन्त आदि अनेकों मूर्तियों के रूप में विराजमान हैं। जहाँ-जहाँ भगवान् की प्रतिमाओं से सुशोभित तीर्थस्थान, नगर, पवित्र वन, पर्वत, निकुंज और निर्मल जल से भरे हुए नदी-सरोवर आदि थे, उन सभी स्थानों में वे अकेले ही विचरते रहे। वे अवधूत-वेष में स्वच्छन्दतापूर्वक पृथ्वी पर विचरते थे, जिससे आत्मीयजन उन्हें पहचान न सकें। वे शरीर को सजाते न थे, पवित्र और साधारण भोजन करते, शुद्धिवृत्ति से जीवन-निर्वाह करते, प्रत्येक तीर्थ में स्नान करते, जमीन पर सोते और भगवान् को प्रसन्न करने वाले व्रतों का पालन करते रहते थे।

इस प्रकार भारतवर्ष में ही विचरते-विचरते जब तक वे प्रभास क्षेत्र में पहुँचे, तब तक भगवान् श्रीकृष्ण की सहायता से महाराज युधिष्ठिर पृथ्वी का एकच्छत्र अखण्ड राज्य करने लगे थे। वहाँ उन्होंने अपने कौरव बन्धुओं के विनाश का समाचार सुना, जो आपस की कलह के कारण परस्पर लड़-भिड़कर उसी प्रकार नष्ट हो गये थे, जैसे अपनी ही रगड़ से उत्पन्न हुई आग से बाँसों का सारा जंगल जलकर खाक हो जाता है। यह सुनकर वे शोक करते हुए चुपचाप सरस्वती के तीर पर आये। वहाँ उन्होंने त्रित, उशना, मनु, पृथु, अग्नि, असित, वायु, सुदास, गौ, गुह्य और श्राद्धदेव के नामों से प्रसिद्ध ग्यारह तीर्थों का सेवन किया। इनके सिवा पृथ्वी में ब्राह्मण और देवताओं के स्थापित किये हुए जो भगवान् विष्णु के और भी अनेकों मन्दिर थे, जिनके शिखरों पर भगवान् के प्रधान आयुध चक्र के चिह्न थे और जिनके दर्शन मात्र से श्रीकृष्ण का स्मरण हो आता था, उनका भी सेवन किया।

वहाँ से चलकर वे धन-धान्यपूर्ण सौराष्ट्र, सौवीर, मत्स्य और कुरुजांगल आदि देशों में होते हुए जब कुछ दिनों में यमुना तट पर पहुँचे, तब वहाँ उन्होंने परमभागवत उद्धव जी का दर्शन किया। वे भगवान् श्रीकृष्ण के प्रख्यात सेवक और अत्यन्त शान्त स्वभाव थे। वे पहले बृहस्पति जी के शिष्य रह चुके थे। विदुर जी ने उन्हें देखकर प्रेम से गाढ़ आलिंगन किया और उनसे अपने आराध्य भगवान् श्रीकृष्ण और उनके आश्रित अपने स्वजनों का कुशल-समाचार पूछा।

विदुर जी कहने लगे- उद्धव जी! पुराणपुरुष बलराम जी और श्रीकृष्ण ने अपने ही नाभि कमल से उत्पन्न हुए ब्रह्मा जी की प्रार्थना से इस जगत् में अवतार लिया है। वे पृथ्वी का भार उतारकर सबको आनन्द देते हुए अब श्रीवसुदेव जी के घर कुशल से रह रहे हैं न?

क्रमश:

साभार krishnakosh.org

विचार और कार्य में संतुलित करो.


विचार और कार्य में
संतुलित करो.

एक साथ बहुत सारे काम निबटाने के चक्कर में मनोयोग से कोई कार्य पूरा नहीं हो पाता। आधा- अधूरा कार्य छोडक़र मन दूसरे कार्यों की ओर दौडऩे लगता है। यहीं से श्रम, समय की बर्बादी प्रारंभ होती है तथा मन में खीझ उत्पन्न होती है। विचार और कार्य सीमित एवं संतुलित कर लेने से श्रम और शक्ति का अपव्यय रूक जाता है और व्यक्ति सफलता के सोपानों पर चढ़ता चला जाता है।

कोई भी काम करते समय अपने मन को उच्च भावों से और संस्कारों से ओत- प्रोत रखना ही साँसारिक जीवन में सफलता का मूल मंत्र है। हम जहाँ रह रहे हैं, उसे नहीं बदल सकते पर अपने आपको बदल कर हर स्थिति में आनंद ले सकते हैं।


(पं श्रीराम शर्मा आचार्य)

बन्दा बैरागी की साधना.


बन्दा बैरागी की साधना.

बन्दा वैरागी भी इसी प्रकार समय की पुकार की अवहेलना कर, संघर्ष में न लगकर एकान्त साधना कर रहे थे। उन्हीं दिनों गुरुगोविन्दसिंह की बैरागी से मुलाकात हुई। उन्होंने एकान्त सेवन को आपत्तिकाल में हानिकारक बताते हुए कहा-"बन्धु! जब देश, धर्म, संस्कृति की मर्यादाएँ नष्ट हो रही है और हम गुलामी का जीवन बिता रहे है, आताताइयों के अत्याचार हम पर हो रहे है, उस समय यह भजन, पूजन, ध्यान, समाधि आदि किस काम के हैं?"

गुरुगोविन्दसिंह की युक्तियुक्त वाणी सुनकर बन्दा वैरागी, उनके अनुयायी हो गए और गुरु की तरह उसने भी आजीवन देश को स्वतन्त्र कराने, अधर्मियों को नष्ट करने और संस्कृति की रक्षा करने की प्रतिज्ञा की। इसी उद्देश्य के लिए बन्दा वैरागी आजीवन प्रयत्नशील रहे। मुसलमानों द्वारा वैरागी पकड़े गये, उन्हें एक पिंजरें में बन्द किया गया। मौत या धर्म परिवर्तन की शर्त रखी गई, लेकिन वे तिल मात्र भी विचलित नहीं हुए। अन्तत: आतताइयों ने उनके टुकड़े-टुकडे कर दिये। बन्दा अन्त तक मुस्कराते ही रहे। भले ही बन्दा मर गये परन्तु अक्षय यश और कीर्ति के अधिकारी बने।

प्रज्ञा पुराण भाग-१
by AWGP

राम-लक्ष्मण का नाग-फांश बंधन.


राम-लक्ष्मण का
नाग-फांश बंधन.

राम-रावण-सेनाओं के भयंकर युद्ध को देखकर भगवान सूर्य अस्ताचल की ओर चल दिये और चारों ओर अन्धकार छा गया तो इस अन्धकार का लाभ उठाकर राक्षस दूने उत्साह से वानरों पर पिल पड़े। उनके आकार को देखकर वानर भी राक्षस को पहचानकर 'यह राक्षस है' 'यह राक्षस है' कहते, उन पर प्रतिघात करने लगे। दोनों ओर से ही भयंकर संग्राम मचा हुआ था। ऐसा प्रतीत होता था कि प्रत्येक वीर आज ही सम्पूर्ण शत्रु सेना का विनाश कर डालना चाहता था। अन्धकार का जितना लाभ राक्षस उठा सकते थे, उतना लाभ वानरों के लिये उठाना सम्भव नहीं था।

अपनी सेना की यह स्थिति देख कर राम ने स्वयं धनुष बाण उठाकर शत्रु सेना का संहार करना प्रारम्भ किया।

उनके बाणों की मार से रजनीचरों के समूह के समूह कट-कट कर धराशायी होने लगे। इस प्रकार अपने साथियों को मरते देख बहुत से सैनिक अपने प्राणों को लेकर भाग चले। राक्षस सेना की यह दुर्दशा देखकर रावण के पुत्र मेघनाद के तन-बदन में आग लग गई। उसने शीघ्र ही नाग बाणों की फाँस बना कर राम-लक्ष्मण दोनों को उसमें बाँध दिया। नाग फाँस में बँधने पर दोनों भाई मूर्छित हो गये।

श्री राम-लक्ष्मण के मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिरते ही मेघनाद ने हर्षोन्मत्त होकर दसों दिशाओं को गुँजाने वाली गर्जना की। राक्षस सेना में फिर से नवजीवन आ गया और वह मेघनाद की जयजयकार करती हुई बड़े उत्साह से वानर सेना पर टूट पड़ी। मेघनाद उनके उत्साह को बढ़ाते हुये कह रहा था, "जिनके कारण आज शोणित की सरिता बह रही है, वे ही दोनों भाई नागपाश कें बँधे पृथ्वी पर मूर्छित पड़े हैं। अब देव, नर, किन्नर किसी में इतनी सामर्थ्य नहीं है, जो इन्हें नापाश से मुक्त कर सके। अब युद्ध समाप्त हो गया, लंकापति की विजय हुई।" इस प्रकार विजयघोष करता हुआ मेघनाद लंका को लौट गया।" राम-लक्ष्मण के मूर्छित हो जाने से सम्पूर्ण वानर सेना में शोक छा गया। सुग्रीव, अंगद, हनुमान, जाम्बवन्त आदि सभी सेनध्यक्ष किंकर्तव्यविमूढ़ होकर दोनों भाइयों को घेर कर खड़े हो गये और इस विपत्ति से त्राण पाने का उपाय खोजने लगे। तभी विभीषण ने उन्हें धैर्य बँधाते हुये कहा, "हे वीरों! भयभीत होने की आवश्कता नहीं है। यह नागपाश इन दोनों भाइयों का कुछ नहीं बिगाड़ सकती और न वे मर ही सकते हैं। इसलिये तुम इनकी चिन्ता छोड़कर अपने-अपने मोर्चों पर जाकर युद्ध करो। इन दोनों भाइयों को तुम मेरे ऊपर छोड़ दो।"

उधर जब रावण ने मेघनाद के मुख से राम-लक्ष्मण के नागपाश में बँधकर मूर्छित होने का समाचार सुना तो उसके हर्ष का पारावार न रहा। उसने सीता की रक्षा पर नियुक्त राक्षस नारियों को बुलाकर आदेश दिया, "तुम लोग सीता को पुष्पक विमान पर चढ़ाकर युद्ध भूमि में ले जाओ और उन्हें ले जाकर राम-लक्ष्मण को दिखाओ, जो पृथ्वी पर मरे पड़े हैं।" रावण की आज्ञा पाते ही राक्षसनियाँ, जानकी को विमान में चढ़ाकर युद्धभूमि में ले गईं, जहाँ राम-लक्ष्मण मूर्छित अवस्था में पड़े थे। सीता ने देखा- राक्षस सेना जयजयनाद कर रही है और वानर सेना शोक में डूबी हुई निराश खड़ी है। दोनों भाइयों को इस प्रकार पृथ्वी पर पड़ा देखकर सीता के धैर्य का बाँध टूट गया और वे फूट-फूट कर रोने लगी, "हाय! आज मैं विधवा हो गई। बड़े-बड़े ज्योतिषियों की यह भविष्वाणी मिथ्या हो गई कि मैं आजीवन सधवा रहूँगी, सपूती बनूँगी। हे नाथ! आपने तो कहा था कि मैं अयोध्या लौटकर अश्वमेघ यज्ञ करूँगा। अब उस कथन का क्या होगा! जो विश्व को जीतने की शक्ति रखते थे, आज वे कैसे मौन पड़े हैं! हा विधाता! तेरी यह क्या लीला है! हे त्रिजटे! तू मेरे सती होने का प्रबन्ध करा दे। अब मैं इस संसार में अपने राम के बिना नहीं रहूँगी। अब मेरा जीना व्यर्थ है।"

सीता को इस प्रकार विलाप करते देख- त्रिजटा ने कहा, "हे जानकी! तुम व्यर्थ में विलाप करके जी छोटा मत करो। मेरा विश्वास है, राम-लक्ष्मण दोनों जीवित हैं, केवल मूर्छित हो गये हैं। यह देखो वानर सेना फिर युद्ध के लिये लौट रही है। सुग्रीव और विभीषण उनके चेतन होने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। मेरा अनुमान मिथ्या नहीं है। वे उठकर फिर युद्ध करेंगे और रावण का वध करके तुम्हें अवश्य ले जायेंगे, तुम धैर्य धारण करो।" इस प्रकार सीता को समझा-बुझा कर त्रिजटा सीता सहित विमान को पुनः अशोक वाटिका में ले आई। नागपाश में बँधे राम और लक्ष्मण काफी देर तक भूमि पर पड़े रहे। तभी अकस्मात् जोर से आँधी चलने लगी, आकाश में घने बादल छा गये। इतने में ही आकाशमार्ग से विनता का पुत्र गरुड़ उड़ता हुआ आया। उसने दोनों भाइयों के पास बैठकर उनके शरीर का स्पर्श किया। गरुड़ के स्पर्श करते ही समस्त नाग भयभीत होकर पृथ्वी में छिप गये। नागों के बन्धन से मुक्त होने पर राम और लक्ष्मण ने अपने नेत्र खोले। उनके पीले पड़े हुये मुखमण्डल, नवीन आभा से चमकने लगे। चैतन्य होकर राम ने गरुड़ को धन्यवाद देते हुये कहा, "हे वैनतेश! तुम्हारे अनुग्रह से हम दोनों भाई इस बन्धन से मुक्त हुये हैं। हम तुम्हारा कैसे आभार प्रदर्शन कर सकते हैं?" राम की यह विनम्र वाणी सुनकर गरुड़ ने उत्तर दिया, "हे राघव! मैं तुम्हारा मित्र हूँ। वन में विचरण करते हुये, मैंने सुना था कि मेघनाद ने तुम्हें इस नागपाश में बाँध लिया है, जिसे देवता, राक्षस, यक्ष, गन्धर्व कोई भी नहीं खोल सकते। इसलिए मैं मित्र धर्म के नाते यहाँ आ पहुँचा और मैंने तुम्हें नागपाश से मुक्त करा दिया। भविष्य में अधिक सतर्क रहकर युद्ध करना; क्योंकि ये राक्षस बड़े कपटी तथा मायावी हैं।" यह कहकर गरुड़ ने उनसे विदा ली। राम और लक्ष्मण को पूर्णतया स्वस्थ पाकर वानर सेना के आनन्द का पारावार न रहा। वे रघुवीर की जयजयकार करके बाजे-नगाड़े, रणभेरी आदि बजाकर राक्षसों को भयभीत करने लगे।

धूम्राक्ष का वध.

जब हर्षोन्मत्त वानरों का शोर रावण तक पहुँचा तो उसे आश्चर्य और आशंका ने आ घेरा। उसने तत्काल मन्त्रियों से कहा, "मेघनाद ने राम और लक्ष्मण का वध कर दिया था। फिर वानर सेना में यह नया उत्साह कैसे आ गया? शीघ्र पता लगाकर बताओ, इसका क्या कारण है? भरत तो अयोध्या से विशाल सेना लेकर नहीं आ गया? आखिर ऐसी कौन सी बात हुई है, जो वानर सेना राम की मुत्यु का दुःख भी भूलकार गर्जना कर रही है।" तभी एक गुप्तचर ने आकर सूचना दी कि राम और लक्ष्मण मरे नहीं हैं, वे नागपाश से मुक्त होकर युद्ध की तैयारी कर रहे हैं। यह सुनते ही रावण का मुख फीका पड़ गया। उसने क्रोधित होकर पराक्रमी धूम्राक्ष को आज्ञा दी, "हे वीरश्रेष्ठ धूम्राक्ष! तुमने अब तक अनेक बार अद्भुत पराक्रम दिखाया है। तुम सहस्त्रों वीरों को अकेले मार सकते हो। एक विशाल सेना लेकर जाओ और राम-लक्ष्मण सहित शत्रु सेना का नाश करो।"

रावण की आज्ञा पाते ही शूल, गदा, तोमर, भाले, पट्टिश आदि शस्त्रों से युक्त राक्षसों की विशाल सेना लेकर धूम्राक्ष रणभूमि में जा पहुँचा। इस विशाल सेना को देख कर वानर सेना घोर गर्जना करती हुई उस पर टूट पड़ी। धूम्राक्ष कंकपत्रों वाले तीक्ष्ण बाणों से वानरों को घायल करने लगा। वे भी राक्षसों के वार बचाकर बड़े-बड़े शिलाखण्ड ले आकाश में उड़ कर उन पर फेंकने लगे। आकाश को उद्यत राक्षसी सेना को अपने प्राण बचाने कठिन हो गये। फिर भी राक्षस सेना का एक भाग अपने प्राणों की चिन्ता न करके बाणों, त्रिशूलों आदि से वानरों का लहू बहा रहा था। चारों ओर रक्त की नदियाँ बहने लगीं। जिधर देखो उधर ही राक्षसों और वानरों के रुण्ड-मुण्ड दिखाई देते थे। कानों के पर्दों को फाड़ने वाला चीत्कार और हाहाकार सुनाई दे रहा था। रणोन्मत्त धूम्राक्ष हताहत वीरों के शरीरों को रौंदता हुआ अपने अग्नि बाणों से वानर सेना को भस्मीभूत कर रहा था। उसके आक्रमण की ताव न लाकर वानर सेना इधर-उधर भागने लगी। अपनी सेना की यह दुर्दशा देख कर हनुमान ने क्रोध से भरकर एक विशाल शिला उखाड़ी और लक्ष्य तानकर धूम्राक्ष की ओर फेंक दी। उस शिला को अपनी ओर आते देख वह फुर्ती से रथ से कूद पड़ा। इस बीच में रथ चूर-चूर हो चुका था और घोड़े तथा सारथी मर चुके थे। राक्षस सेनापति को इस प्रकार बचता देख हनुमान का क्रोध और भी भड़क उठा। उन्होंने दाँतों, नाखूनों से उनके और धूम्राक्ष के बीच में आने वाले राक्षस समुदाय का विनाश करके मार्ग साफ कर लिया। जब उसने हनुमान को भयंकर रूप से अपनी ओर आते देखा तो लोहे के काँटों से भरी हुई गदा उठाकर उनके सिर पर दे मारी। हनुमान ने वार बचा कर एक भारी शिला उठाई और आकाश में उड़ कर धूम्राक्ष को दे मारी। इससे उसके शरीर की समस्त हड्डियाँ टूट गईं और वह पृथ्वी पर गिरकर यमलोक सिधार गया। उसके मरते ही राक्षस भी भाग छूटे।

वज्रदंष्ट्र का वध.

रावण ने जब धूम्राक्ष की मृत्यु का समाचार सुना तो वह क्रोध से पागल हो गया। उसके नेत्रों से चिंगारियाँ निकलने लगीं। उसने वज्रदंष्ट्र को बुलाकर आज्ञा दी कि वह राम-लक्ष्मण तथा हनुमान सहित वानरसेना का वध करके अपने शौर्य का परिचय दे। वज्रदंष्ट्र जितना वीर था, उससे अधिक मायावी था। वह अपनी भीमकर्मा पराक्रमी सेना लेकर दक्षिण द्वार से चला। युद्धभूमि में पहुँचते ही उसने अपने सम्मुख अंगद को पाया जो अपनी सेना के साथ उससे युद्ध करने के लिये तत्पर खड़ा था। वज्रदंष्ट्र को देखते ही वानर सेना किचकिचा कर राक्षसों पर टूट पड़ी। दोनों ओर से भयंकर मारकाट मच गई। सम्पूर्ण युद्धभूमि रुण्ड-मुण्डों, हताहत सैनिकों तथा रक्त के नालों एवं सरिताओं से भर गई। रक्त सरिताओं में नाना प्रकार के शस्त्र-शस्त्र, कटे हुये हाथ तथा मस्तक छोटे-छोटे द्वीपों की भाँति दिखाई देने लगे। अंगद तथा वानर सेनापतियों द्वारा बार-बार की जाने वाली सिंहगर्जना ने राक्षस सैनिकों का मनोबल तोड़ दिया। जब उन्हें अपने चारों ओर राक्षसों के कटे हुये अंग दिखाई देने लगे तो वह अपने प्राणों के मोह से रणभूमि से पलायन करने लगे। अपनी सेना को मरते-कटते और कायरों की तरह भागते देख वज्रदंष्ट्र दुगने पराक्रम और क्रोध से युद्ध करने लगा। उसने तीक्ष्णतर बाणों का प्रयोग करके वानरों को घायल करना आरम्भ कर दिया। क्रुद्ध वज्रदंष्ट्र के भयानक आक्रमण से पीड़ित होकर वानर सेना भी इधर-उधर छिपने लगी। उनकी यह दशा देखकर अंगद ने उस राक्षस सेनापति को ललकारा, "वज्रदंष्ट्र! तूने बहुत मारकाट कर ली। तेरा अंत समय आ गया है। अब मैं तुझे धूम्राक्ष के पास भेजता हूँ।" यह कहकर अंगद उससे जाकर भिड़ गये। दोनों महान योद्धा मस्त हाथियों की भाँति एक दूसरे पर प्रहार करने लगे। दोनों ही रक्त से लथपथ हो गये। फिर अवसर पाकर अंगद ने तलवार से वज्रदंष्ट्र का सिर काट डाला। अपने सेनापति के मरते ही राक्षस सेना मैदान से भाग खड़ी हुई।

अकम्पन का वध.

वज्रदंष्ट्र की मृत्यु का समाचार सुनकर रावण के सेनापति अकम्पन को उसके शौर्य एवं पराक्रम की प्रशंसा करते हुये राम-लक्ष्मण के विरुद्ध युद्ध करने के लिये भेजा। रावण की आज्ञा पाकर महापराक्रमी अकम्पन सोने के रथ में बैठकर असंख्य चुने हुये भीमकर्मा सैनिको के साथ नगर से बाहर निकला। उसे अपने ऊपर अगाध विश्‍वास था। वह समझता था कि उसके सामने मनुष्य और वानर तो क्या, देवता भी नहीं ठहर सकते। रणभूमि में पहुँचते ही उसने दसों दिशाओं को कँपाने वाला सिंहनाद दिया। उसके सिंहनाद से अविचल वीर वानर सेना राक्षस दल पर टूट पड़ी। एक बार फिर अभूतपरूर्व मारकाट मच गई। उन सबके ललकारने और गरजने के स्वर के सामने सागर का गर्जन भी फीका प्रतीत होता था। अकम्पन ने एक बाण छोड़कर सम्पूर्ण वातावरण को अन्धकारमय कर दिया। हाथ को हाथ सूझना बंद हो गया। योद्धा अपने तथा विपक्षी दल के सैनिकों में भेद न कर सके। वानर वानरों को और राक्षस राक्षसों को मारने लगे। घायल होने पर उनके मुख से निकलने वाली ध्वनि से ही आक्रमणकारी को ज्ञान होता था कि उसने अपने ही दल के सैनिक पर वार किया है। तब सुग्रीव ने एक बाण छोड़कर इस अन्धकार को दूर किया। अपने साथियों को अपने ही हाथों से मरा देख वानरों ने क्रुद्ध होकर वृक्षों, शिलाओं, दाँतों तथा नाखूनों से रिपुदल में भयंकर मारकाट मचा दी जिससे उसके पाँव उखड़ने लगे।

अपनी सेना को भागने के लिये उद्यत देख अकम्पन मेघों के सद‍ृश गर्जना करके अग्नि बाणों से वानर दल को जलाने लगा। वानर सेना को इस प्रकार अग्नि में भस्म होते देख परम तेजस्वी पवनपुत्र हनुमान ने आगे बढ़कर अकम्पन को ललकारा। जब अन्य वानरों ने हनुमान का रौद्ररूप देखा तो वे भी उनके साथ फिर फुर्ती से युद्ध करने लगे। उधर हनुमान को देखकर अकम्पन्न भी गरजा। उसने अपने तरकस से तीक्ष्ण बाण निकालकर हनुमान को अपने लक्ष्य बनाया। उन्होंने वार बचाकर एक विशाल शिला अकम्पन की ओर फेंकी। जब तक वह शिला अकम्पन तक पहुँचती तब कर उसने अर्द्धचन्द्राकार बाण छोड़कर उस शिला को चूर-चूर कर दिया। इस प्रकार शिला के नषृट होने पर हनुमान ने कर्णिकार का वृक्ष उखाड़कर अकम्पन की ओर फेंका। अकम्पन ने अपने एक बाण से उस वृक्ष को भी नष्ट किया और एक साथ चौदह बाण छोड़कर हनुमान के शरीर को रक्‍तरंजित कर दिया। इससे हनुमान के क्रोध की सीमा न रही। उन्होंने एक विशाल वृक्ष उखाड़कर अकम्पन के सिर पर दे मारा। इससे वह प्राणहीन होकर भूमि पर गिर पड़ा। अकम्पन के मरते ही सारे राक्षस सिर पर पैर रख कर भागे। वानरों ने उन भागते हुये शत्रुओं को पेड़ों तथा पत्थरों से वहीं कुचल दिया। जो शेष बचे, उन्होंने रावण को अकम्पन के मरने की सूचना सुनाई।

प्रहस्त का वध.

अकम्पन के पराक्रम एवं शौर्य पर रावण को अत्यधिक विश्‍वास था। उसकी मृत्यु से उसे भारी आघात पहुँचा। वह शोक सागर में ड़ूब गया। रात्रि को वह शान्ति से सो भी न सका। दूसरे दिन उसने मन्त्रियों को बुलाकर कहा, "वानरों की सेना हमारी कल्पना से भी अधिक शक्तिशाली और पराक्रमी सिद्ध हुई है। पिछले चार दिनों में हमारी बहुत सी सेना मारी जा चुकी है। सैनिकों का मनोबल टूटने लगा है। नागरिकों को शत्रु के घेरे के कारण बाहर से उपलब्ध होने वाली खाद्य सामग्री प्राप्त नहीं हो रही है। वे अत्यन्त दुःखी हो रहे हैं। चार दिन के युद्ध को देखकर मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि शत्रु पर विजय प्राप्त करना साधारण राक्षसों के लिये सम्भव नहीं है। इसलिये हे वीर प्रहस्त! मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि शत्रु को परास्त करने के लिये कुम्भकर्ण को, मेघनाद को, तुम्हें अथवा मुझे ही आगे आना पड़ेगा। मेरे विचार से आज युद्ध का नेतृत्व तुम करो। तुम युद्ध कला विशारद हो। ये वानर चंचल और वीर तो हैं, परन्तु प्रशिक्षित नहीं हैं। तुम युद्ध नीति से उन पर विजय प्राप्त कर सकते हो। इसलिये हे वीर! तुम शीघ्र जाकर राम-लक्ष्मण सहित समस्त शत्रुओं का संहार कर मुझे निश्‍चिंत करो।"

अपने ऊपर इस प्रकार का विश्‍वास व्यक्‍त करते देख प्रहस्त ने म्यान से तलवार निकालकर कहा, "आज मैं अपने अतुल पराक्रम से शत्रु सेना का विनाश करके आप को निश्‍चिंत कर दूँगा। आज मेरे कृपाण के शौर्य से मैं रणचण्डी को प्रसन्न करके चील, कौवों, गीदड़ों आदि को शत्रु का माँस खिलाकर तृप्त करूँगा।" यह कहकर वह सुभट राक्षसों की सेना को लेकर युद्धस्थल की ओर चल दिया। इस विशालकाय सेनापति को सदल-बल आते देख रामचन्द्र जी ने विभीषण से पूछा, "हे लंकापति! यह विशाल देह वाला सेनापति कौन है? क्या शूरवीर है?" तब विभीषण ने उत्तर दिया, "हे रघुकुलतिलक! यह रावण का मन्त्री और वीर सेनापति प्रहस्त है। लंका की सेना का तीसरा भाग इसके अधिकार में है। यह बड़ा बलवान, पराक्रमी तथा युद्धकला में प्रवीण है।" यह सुनकर श्रीराम ने सुग्रीव से कहा, "हे वानराधिपति! ऐसा प्रतीत होता है कि रावण को इस पर बहुत विश्‍वास है। तुम इसे मारकर रावण का विश्‍वास भंग करो। इसके मरने पर रावण का मनोबल गिर जायेगा।" राम का निर्देश पाते ही सुग्रीव ने श्रेष्ठ वानर सेनापतियों को यथोचित आज्ञा दी, जो बड़े वेग से राक्षसों पर टूट पड़े। राक्षस भी तोमर, त्रिशूल, गदा, तीर-कमान आदि से वानर सेना पर आक्रमण करने लगे। प्रहस्त ने स्वयं और उसके सेनानायकों ने अपने अप्रतिम रण कौशल से भयंकर द‍ृश्य उपस्थित कर दिया और सहस्त्रों वानरों का सफाया करके रणभूमि को शवागार बना दिया। यह देख अनेक महारथी वानर अपनी पूरी शक्ति से राक्षसों से जूझने लगे। उन्होंने भी भयानक प्रतिशोध लेकर सहस्त्रों राक्षसों को सदा के लिये समरभूमि में सुला दिया। एक ओर राक्षसों की तलवार से कट-कट कर सैकड़ों वानर भूमि पर धराशायी हो रहे थे तो दूसरी ओर वानरों के घूँसों और थप्पड़ों की मार से सहस्त्रों राक्षस रक्त की उल्टियाँ कर रहे थे। कभी वीरों की गर्जना से भूमि काँप उठती और कभी आहतों के चीत्कार से आकाश थर्रा उठता। ऐसा प्रतीत होता था कि शोणित सरिता में बाढ़ आ गई है और उसने सागर का रूप धारण कर लिया है।

जब वानर वीर द्विविद ने महावीर नरात्तक के हाथों अपने सैनिकों की दुर्गति होती देखी तो एक भारी शिला का वार करके उसका प्राणान्त कर दिया। द्विविद के इस शौर्य से उत्साहित होकर दुर्मुख ने प्रहस्त के प्रमुख सेनापति समुन्नत को मार गिराया। उधर जाम्बवन्त ने एक भारी शिला से प्रहार करके महानाद का अन्त कर दिया। फिर तारा नामक वानर ने अपने नाखूनों से कम्भानु का पेट चीरकर उसे यमलोक भेज दिया। कुछ ही क्षणों में इन चार सेनानायकों को मरते देख प्रहस्त ने क्रोध करके चारों दिशाओं में बाण छोड़ने आरम्भ कर दिये। इस आकस्मिक आक्रमण से अत्यधिक क्रुद्ध होकर वानर सेना अपने प्राणों का मोह छोड़कर शत्रुओं पर पिल पड़ी। उधर सेनापति नील पर्वत का एक टीला उठाकर प्रहस्त को मारने के लिये दौड़ा। मार्ग में ही प्रहस्त ने अपने बाणों से उस टीले की धज्जियाँ उड़ा दीं। इस पर नील ने एक दूसरा टीला उठाकर उसके रथ पर दे मारा जिससे उसका रथ टूट गया और घोड़े मर गये। रथ के टूटते ही प्रहस्त हाथ में मूसल लेकर नील को मारने के लिये दौड़ा। नील भी कम न था। दोनों परस्पर भिड़ गये। अवसर पाकर प्रहस्त ने मूसल नील के सिर पर दे मारा जिससे उसका सिर फट गया और रक्त बहने लगा। इससे नील को और भी क्रोध आ गया। उसने फुर्ती से एक शिला उठाकर प्रहस्त के सिर पर पूरे वेग से दे मारा जिससे उसका सिर चूर-चूर हो गया और वह मर गया। प्रहस्त के मरते ही उसकी सेना ने पलायन कर दिया।