सुविचार
01.
आचरण और व्यवहार से कुल का पता चलता हैं। बोली से मनुष्य के क्षेत्र का पता चलता हैं।
आदरभाव से प्रीति का पता चलता हैं। आँखों से मन के भावों का पता चलता है। संकट के
समय धैर्य का पता चलता हैं। संगती से मनुष्य की प्रकृति का पता चलता हैं और कोई भी
काम, कैसा हैं, उसके परिणाम से पता
चलता हैं।
02.
इस संसार में साधन-हीन होने का अर्थ हैं कि
प्यासे को पानी छोड़कर सब मिल जायेगा।
03.
पाप के पंजे में फंसा हुआ मन, पतझड़ का पत्ता हैं, जो
हवा के झोकें में गिर पड़ता हैं।
04.
शीलवान और लज्जावान होने से
कुपथ-गामी नहीं हो सकते; क्योकि “लज्जा और शील” कुपथ की सबसे बड़ी शत्रु हैं।
05.
जन्म के बाद मृत्यु, उत्थान के बाद पतन, संयोग
के बाद वियोग, संचय के बाद क्षय निश्चित हैं; इसलिए ज्ञानी-जन इन बातों को जानकर हर्ष और शोक के वशीभूत नहीं होते हैं।
06.
आक्रामकता सिर्फ एक मुखौटा हैं, जिसके पीछे
मनुष्य अपनी कमजोरियों को, अपने
और संसार से छिपाकर चलता हैं। असली और स्थाई “शक्ति” सहनशीलता में हैं। त्वरित और कठोर प्रतिक्रिया सिर्फ कमजोर लोग ही करते
हैं, जिससे वे अपनी मनुष्यता खो देते हैं।
07.
आपका लक्ष्य हर चीज को जानने का होना चाहिए।
कम से कम उतनी जानकारी होनी ही चाहिए; जितनी जीवन लिये बहुत जरुरी हैं।
08.
जैसा आप चाह रहे है;, वैसा नहीं हो रहा हैं, तो इसका मतलब यह
नहीं कि वह भगवान की मरजी के अनुकूल भी नहीं हो रही हैं।
09.
जरूरी नहीं हैं, कोई साहस लेकर जन्मा हो;
किन्तु शक्ति लेकर प्रत्येक का जन्म होता हैं और यह शक्ति ही अभ्यास से साहस में
परिवर्तित होती हैं।
10.
मानवीय प्रवत्ति हैं कि हम झूटी प्रंशसा के
द्वारा बर्वाद हो जाना तो पसंद करते हैं; परन्तु वास्तविक आलोचना के द्वारा संभल जाना नहीं।
11.
अगर कोई व्यक्ति कुछ चीजों को सुधारने या
दुरुस्त करने की कला जानता हैं, तो इसका यह अर्थ नहीं कि वह हर चीज को सुधारने का हुनर रखता हैं।
12.
राक्षस, यक्ष और असुर तीनों में भेद हैं। राक्षस, अरण्य (जंगल) में निवास करते हैं और इंसान से लड़ते हैं। असुर, पाताल में रहते हैं और देवताओं से लड़ते हैं। यक्ष, का
निवास कैलाश पर्वत है और वे राक्षसों से लड़ते हैं।
13.
बिना साहस के हम कोई दूसरा गुण यथा कृपालुता, दयालुता, सत्यवादिता,
उदारता या इमानदारी अपना ही नहीं सकते; इसलिए साहसी होना प्रथमत:
अनिवार्य और आवश्यक धर्म हैं|
14.
रूप और गर्व में दीपक और प्रकाश का सम्बन्ध
हैं। गर्व, रूप का प्रकाश हैं।
15.
जब आप कर्तव्यपथ पर उठ खड़े हुए हैं, तब आलस्य और घमंड नहीं करना चाहिए| आलस्य आपको लक्ष्य प्राप्त नहीं करने देगा और घमंड आपकी प्रतिष्ठा को
कलंकित कर देगा|
16.
धर्म का निवास स्थान “अंतरात्मा” हैं;
इसलिए धर्माचरण करने के लिए आप हर स्थान में स्वतंत्र हैं। धर्म के लिए स्थान की
खोज करना व्यर्थ हैं।
17.
शास्त्र के अनुसार कृपण मनुष्य, स्वर्ग का अधिकारी नहीं होता| इसलिए मानवीय जीवन में कृपणता नहीं रखना चाहिए।
18.
अतिथि का अर्थ “मेहमान” नहीं होता।
अतिथि वह हैं, जिसका आगमन एकाएक हो।
19.
अपरिचित अतिथि को भोजन अवश्य देवें; किन्तु निवास नहीं देना चाहिए।
20.
अपरिचित अतिथि की अवधि सिर्फ भोजन तक और
परिचित अतिथि की अवधि तीन दिन तक ही मानी जाती हैं।
21.
संसार रूपी कटु-वृक्ष के केवल दो फल ही अमृत
के समान हैं; पहला-सुभाषितों का रसास्वाद
और दूसरा, अच्छे लोगों की संगति।
22.
जैसे अंधे के लिये जगत अंधकारमय है और आंखों
वाले के लिये प्रकाशमय है; वैसे
ही अज्ञानी के लिये जगत दुखदायक है और ज्ञानी के लिये आनंदमय।
23.
प्रयास करने पर भी गौरांग प्राप्त नहीं कर
सकते; किन्तु अज्ञान को अवश्य दूर
कर सकते हैं।
24.
अतिसय भोग से धन का ही सर्वनाश नहीं होता, इससे कहीं अधिक बुध्दी और बल का विनाश होता
हैं।
25.
जीवन में पहले ‘विवेक’ आता
हैं, जो ‘वैराग्य=भोगों में अरुचि’ को उदय करता हैं; फिर उसे ‘षठसम्पति’ की
प्राप्ति होती हैं। इनमें कहीं चूक नहीं हुई तब ‘मुमुक्षत्व’ की ओर अग्रसर होता
हैं। उसके पश्चात ही प्रभु कृपा से “मोक्ष” की प्राप्ति होती हैं।
(‘षठसम्पति’ = १.शम, २.दम, ३.उपरति,
४-तितिक्षा, ५.श्रध्दा और ६.समाधान)
26.
हम सब अपनी ही आदतों के
गुलाम बन गए हैं। सामंजस्य का अभाव तो ही। अब तनाव घटे, तो कैसे घटे।
27.
मात्र कुढ़ते रहने से, चिन्ता
की चादर ओढ़कर निष्क्रिय हो जाने से और मन ही मन कुड़-बुड़ाते रहने से, किसी को रत्ती भर लाभ न तो
कभी हुआ है, न कभी आगे होने वाला है।
28.
अपने सुख या मोक्ष के लिए
साधना करते रहना ही “अध्यात्म” नहीं हैं। सच्चा अध्यात्म हैं-अपने समस्त गुणों, सारी
उपलब्धियों को समाज हित में निछावर कर देना।
29.
महर्षि अत्री के वंश में
उत्पन्न विदुषी विश्ववारा ने योग्याभ्यास और विशाल अध्ययन के बल पर ब्रह्मवादिनी
पद पाया। ऋग्वेद के कितने ही अनुच्छेदों की गहन विवेचना की और उन लोगो का मुंह बंद
कर दिया, जो स्त्रियों को वेद की अनाधिकरिणी मानते हैं।
30.
“विज्ञान”, बाहर की प्रगति
हैं और “ज्ञान” अंत: की अनुभूति।
31.
पुराने जमाने में ईश्वर पर
विश्वास न करने वाला नास्तिक होता था; पर अब स्वयं पर विश्वास न करने वाला नास्तिक
कहलाता हैं।
32.
धर्म को जीने वाले, धर्म को
समझते हैं, पर धर्म के लिए झगड़ते और मरते-मारते नहीं हैं।
33.
सदा जीवन, उच्च विचार के
सिध्यांत पर निर्वहन करने वाले अपने दृष्टिकोण, चरित्र, व्यवहार में अधिकाधिक
शालीनता अपनाते हैं।
34.
“गुण” छोटे लोगों में द्वेष
और बड़े लोगो में स्पर्धा पैदा करता है।
35.
जिस तरह रंग, सादगी को निखार
देती है, उसी तरह सादगी भी रंगों को निखार प्रदान करता हैं| इससे सिद्ध होता हैं
कि सहयोग ही सफलता का सर्वश्रेष्ट उपाय हैं|
36.
“सांसारिक-सुख” जीवन को सरस
एवं सर्वांगपूर्ण बनायें रखने की दृष्टि से उपयोगी हो सकते हैं, किन्तु इनको ही
जीवन का लक्ष्य मान लेना, आत्म-कल्याण के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा हैं।
37.
मानव हृदय में सत्य-कामनाएं
मौजूद रहती हैं, परन्तु विषयों के प्रति होने वाली मिथ्या तृष्णा का, उन पर आवरण
चढ़ा रहता हैं।
38.
“परमार्थ” मानव जीवन का
अत्यंत आवश्यक धर्म-कर्तव्य हैं। इसकी उपेक्षा करते रहने से अपनी आध्यात्मिक पूँजी
घटती हैं, आत्मबल क्षीण होता हैं और अंतर्चेतना में गिरावट आने लगती हैं।
39.
प्रेम स्वयं में सृजन हैं।
वह जहाँ उत्पन्न होता हैं, वहाँ देवत्व उत्पन्न करता हैं और जिस पर उसे प्रयुक्त
किया हैं, वह समर्थ बनता हैं। शर्त इतनी ही हैं कि प्रेम सच्चे अर्थों में प्रेम
ही होना चाहिए।
40.
जिसके पास अच्छे विचारों और
सत-साहित्य का भंडार हैं, वह कभी निर्धन तथा एकाकी नहीं हो सकता।
41.
सत्य अकेला नहीं, प्रेम और
न्याय को भी साथ लेकर चलता हैं। इसी प्रकार असत्य के साथ पतन और संकट की जोड़ी चलती
हैं।
42.
आशा, उत्साह और गति का समन्वय ही
जीवन हैं।
43.
आदर्शों के लिए घाटा उठाने
और लड़-मरने की साहसिकता का अनुदान “अवतार” अथवा कारक-पुरुष” के अतिरिक्त और किसी
के पास नहीं होता।
44.
मरण के उपरांत ही स्वर्ग, नरक
या मोक्ष मिलता हैं, यह सोचना ठीक नहीं। इनका आरम्भ तो जन्म लेते ही आरम्भ हो जाता
हैं।
45.
भलाई का पुरुष्कार पाने और
बुरे का दंड भुगतने में देर नहीं लगती। आत्मा के संतोष और पश्चाताप के रूप में वह
हाथों-हाथ मिलता हैं।
46.
जब तक अपने को उठाने और
सुधारने के लिए स्वयं तैयार नहीं होते, तब तक कोई दूसरा तुम्हे उठा या सुधार नहीं
सकता।
47.
सत-साहित्य का अध्ययन, भावी
जीवन के विभेदों और संकटों को शांति तथा प्रसन्नता में बदलने का मार्ग सुझा देता
हैं।
48.
जो मनन नहीं करता, उसे कुछ
भी समझ में नहीं आता। मनन करने पर गूढ़
से गूढ़ रहस्य भी समझ में आ जाते हैं|
49.
घड़े में एक बार पानी भरकर
यदि फिर उसे कहीं यों ही रखा रहने दो तो कुछ दिन में पानी सूख जायेगा; किन्तु यदि
पानी के भीतर ही वह घड़ा रखा रहे तो पानी कभी न सूखेगा। यदि एक बार सत्य मार्ग का
अवलम्बन करके फिर उस ओर से उदासीन हो जाओ तो परिश्रम व्यर्थ चला जाएगा; किन्तु यदि
उस पथ पर सदैव आरुढ़ रहो तो जीवन उसी तत्व से ओत-प्रोत हो जायेगा।
50.
“रिस्ते” जिनसे
जिन्दगी की साँस घुटने लगें, उनमें अटके रहना व्यर्थ हैं। कोई भी परम्परा का बंधन,
जीवन से बड़ा नहीं होता। जिन्दगी पर किसी को भी भारी पड़ने मत दीजिये।
51.
जिन्दगी की कला
के सारे सूत्र केवल वर्तमान में सिमटे हैं। अगर हम आज को, सघन प्रसन्नता से जीना
सीख सकें, तो अतीत और भविष्य दोनोँ सुखद हो जायेंगे।
52.
अतीत की
गलियों में बहुत अधिक भटकने के कारण हम वर्तमान से दूर होते जा रहे हैं। वर्तमान
से दूर होने का अर्थ अतीत की घुटन और भविष्य से भटकाव है। अपने आपको वर्तमान मे
केन्द्रित रखिये।
53.
अगर आपके
भीतर सत्यबोध है, तो केवल उस आवाज पर भरोसा करिये जो अंतर्मन से आए। दुनिया के
नजरिए की चिंता मत करिए, बस अपने इरादे, चुनाव पर दृढ़ रहिए।
54.
हमने सुख-दुख,
जीवन के अनुभवों को विशेष मान लिया, जबकि यह जीवन के सामान्य राग हैं। इनमें कुछ
भी विशेष नहीं। हमें इनका साक्षी बनकर जीवन जीना है, इनके चौकीदार बनकर नही।
55.
संकट से जूझने पर आदमी, साहसी और समझदार हो जाता
हैं।
56.
अजीब
विडंबना हैं, विद्वान-विद्वान को देखकर, साधू-साधू को देखकर और कवि-कवि को देखकर
जलता हैं, जबकि जुआरी-जुआरी को देखकर, शराबी-शराबी को देखकर और चोर-चोर को देखकर
हर्षित होते हैं, और सहयोग करते हैं। बुराई से सब घृणा करते हैं; इसलिए उनमें परस्पर प्रेम होता हैं। भलाई की
सारा संसार प्रशंसा करता है, इसलिए भलों में विरोध होता हैं। बुराई को नहीं किन्तु
उनके आपसी प्रेम और सहयोगी आचरण की सीख अपनाने के लिए भले लोगो को, यह बुराई की चेतावनी हैं।
57.
अपने
हितकारी या शुभचिंतक की खोज बाहर करने में समय खराब करना हैं। इन्द्रिय निग्रह कर, स्वयं
अपना हित, शुभ और कल्याण किया जा सकता हैं।