शुभासित.-22


शुभासि.
01.
लक्ष्य की कामयाबी में निर्णय और प्रयास ही मुख्य भूमिका निभाते हैं। यदि आप रोजमर्रा की जिंदगी जीते हुये, कुछ अलग से करने का निर्णय और प्रयास नहीं करते, तब जीवन स्तर को ऊंचा भी नहीं उठा सकते हैं। 

02.
कुमंत्रणा से राजा का, कुसंगति से साधु का, अत्यधिक दुलार से पुत्र का और अविद्या से ब्राह्मण का नाश होता है।

03.
जो धर्म और अधर्म से सर्वथा अनजान व्यक्ति केवल कल्पित तर्कों के आधार पर ही अपने मंतव्य का प्रतिपादन करते हैं, वे अपने कर्म-बंधन को तोड़ नहीं सकते, जैसे कि पक्षी पिंजरे को नहीं तोड़ पाता हैं| 

04.
तर्क से अभिप्राय है-प्रमाणों के अनुसार सत्य का निश्चय करना। प्रमाण ही न्याय का देवता अथवा मुख्य प्रतिपाद्य विषय है। लोक में उसी को तर्कविज्ञान या तर्कशास्त्र भी कहते हैं। जब तक वादी-प्रतिवादी होकर वाद न किया जाय, जब तक सत्यासत्य का निर्णय नहीं हो सकता। समस्त दार्शनिक, धार्मिक तथा व्यावहारिक ऊहापोह का नियमन न्यायदर्शन के सिद्धान्तों के द्वारा ही होता है। अन्यथा चिरकाल तक मन्थन करते रहने पर भी तत्त्वार्थ की प्राप्ति नहीं होती।

05.
शास्त्रोक्त वर्णित नित्य, नैमित्तिक और प्रायश्चित कर्मों का प्रयोजन या फल चित्त की शुध्दि हैं जबकि उपासनाओं का प्रयोजन या फल, चित्त की एकाग्रता होती हैं| कर्म से पितृलोक और उपासना से सत्यलोक की प्राप्ति होती हैं, ऐसा मनुस्मृति में उल्लिखित हैं इसलिए प्रयाश्चित और उपासना, मानव जीवन के अनिवार्य अंग हैं| इन्हें हर संभव प्रयास से करना चाहिये|

06.
शास्त्र में यह भी आया हैं-”अयं में हस्तो भगवान”-इसका अर्थ हैं-मेरा यह हाथ भगवान हैं। संस्कृति की दृष्टि से देखे तो हाथ को कहा जाता हैं-हस्त। हस्+त। यानी वह अव्ययव जिसके द्वारा ऐसा किया जाए, जिससे पूरी दुनियां में हास्य (आनंद) फैले। परिश्रम, दान, सेवा, प्रणाम, गिरे हुए को उठाना, डूबते हुए को बचाना...। जिस दिन हंसती और आनंदमयी दुनियां का निर्माण हाथों से हो जाएगा, उस रोज इस दुनियां में ही भगवान दिखने लगेंगे। 

07.
इस संसार में अन्धकार भी हैं और प्रकाश भी, स्वर्ग भी हैं और नर्क भी, पतन भी हैं और उत्थान भी, त्रास भी हैं और आनंद भी। इन दोनों में से, जिसे भी चाहे, मनुष्य चुन सकता हैं। कुछ भी करने की छूट सभी को हैं, पर प्रतिबन्ध इतना ही हैं कि कृत्य के प्रतिफल से बचा नहीं जा सकता और न ही श्रृष्टा के क्रम में उलटफेर किया जा सकता हैं। 

08.
जब सबंध “भाव” पर आधारित होते हैं, वहां तर्क और समाजिक व्यवस्था बोनी हो जाती हैं। 

09.
विपत्ति में मनुष्य परान्मुखी हो जाता हैं 
(परान्मुखी=दूसरों का मुंह ताकने वाला) 

10.
काना आदमी जब किसी को हँसते हुए देखता हैं, तो समझता हैं कि ये लोग मुझ पर ही हँस रहे हैं। 

11.
ज्ञान जब उन्मुक्तता को वरण कर लेता हैं, तब वह नास्तिकता के क्षेत्र में पहुच जाता हैं।

12.
खाज खुजाने के समय तो बड़ा आनन्द आता है, पीछे बड़ा दर्द होता है और घाव पड़ जाते हैं। विषय भोगते समय तो बड़े अच्छे मालूम होते हैं, पर पीछे से वे नारकीय यातना में जलाते हैं। 

13.
जिस धन को अर्जित करने में मन तथा शरीर को क्लेश हो, धर्म का उल्लंघन करना पड़े, शत्रु के सामने अपना सिर झुकाने की बाध्यता उपस्थित हो, उसे प्राप्त करने का विचार ही त्याग देना श्रेयस्कर है। 

14.
अध्ययन हमें आनन्द तो प्रदान करता ही है, अलंकृत भी करता है और योग्य भी बनाता है। मस्तिष्क के लिये अध्ययन की उतनी ही आवश्यकता है जितनी शरीर के लिये व्यायाम की। 

15.
अच्छे दिन सदैव नहीं रहते, इसलिए सुख के समय अपने मन को अपने वश में रखें। साथ ही अपने शब्दों और कार्यों का चयन सोच-समझ कर करें।
16.
जब तक हम अपनी आदत नहीं बदलते, सोच नहीं बदलते, तब तक हमारा भला नहीं हो सकता। 

17.
जीवन को बिना समझे जीने का परिणाम ही आज हमारे सामने दुरूह स्थिति बोधक बनके खड़ा हैं। मिले अनमोल जीवन के उद्देश्य को समझिये और संभव लक्ष्य निर्धारित कर बढ़ चलिए। कुछ समझ में न आये, तब गुरु के पास पहुच कर, उनसे ज्ञान के दीपक का उजियाला ले लीजिए। 

18.
विपरीत समय में समझदारी से काम लें और किसी भी रूप में अधर्म न करें तो जल्द ही अच्छा समय भी आ जाता है। दुख और परेशानी में हमें मन को वश में रखकर सूझ-बूझ के साथ काम करना चाहिए। धैर्य का अवलंबन लेना चाहिए। 

19.
लोहा गरम भले ही हो जाए पर हथौड़ा तो ठंडा रह कर ही काम कर सकता है।  

20.
जब तक हम स्वयं निरपराध न हों तब तक दूसरों पर कोई आक्षेप सफलतापूर्वक नहीं कर सकते।

21.
अनुभव, ज्ञान, उन्मेष और उम्र, मनुष्य के विचारों को बदलते हैं। 

22.
भोग में रोग का, उच्च-कुल में पतन का, धन में राजा का, मान में अपमान का, बल में शत्रु का, रूप में बुढ़ापे का और शास्त्र में विवाद का डर है। भय रहित तो केवल वैराग्य ही है।

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