शुभासित.
1.
सदा जीवन, उच्च विचार के सिध्यांत पर निर्वहन करने वाले अपने दृष्टिकोण, चरित्र, व्यवहार में अधिकाधिक शालीनता अपनाते हैं।
2.
जीवन में पहले ‘विवेक’ आता हैं, जो ‘वैराग्य=भोगों में अरुचि’ को उदय करता हैं; फिर उसे ‘षठसम्पति’ की प्राप्ति होती हैं। इनमें कहीं चूक नहीं हुई तब ‘मुमुक्षत्व’ की ओर अग्रसर होता हैं। उसके पश्चात ही प्रभु कृपा से “मोक्ष” की प्राप्ति होती हैं।
(षठसम्पति = १.शम,२.दम,३.उपरति,४-तितिक्षा,५.श्रध्दा और ६.समाधान)
3.
तन, मन और वचन के 10 दोष बताये गए हैं; यथा तन के दोष=चोरी, हिंसा, व्यभिचार, मन के दोष= ईर्ष्या, क्रोध, अहंकार, छल और वचन के दोष=गाली, निंदा, झूट। इन सबसे बचने पर ही तन, मन और वाणी शुद्ध होती हैं।
4.
अपनी मानसिक तुच्छता, दीनता, हीनता, दासता, को हटाकर निर्भयता, सत्यता, पवित्रता एवं प्रसन्नता की आत्मिक प्रवृत्तियाँ बढ़ाना, करोड़ मन सोना दान करने की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण है।
5.
जिसके पास जितना है, यदि उसी में संतुष्ट है, ज्यादा पाने का मोह नहीं है, तब वह कम संसाधनों में भी ख़ुशी से रह सकता है।
6.
जिनमें आत्मविश्वास की कमी होती हैं, वहीँ दूसरों को नीचा दिखाने की कोशिस करते हैं।
7.
गलत तरीके अपनाकर सफल होने से तो अच्छा हैं, सही तरीके के साथ काम करके असफल हो जाना।
8.
उम्मीदों से बंधा हुआ इंसान, आहत भी उम्मीदों से होता है और जिंदा भी उम्मीदों पर ही है।
9.
मूर्खता और बुद्धिमता में मात्र एक ही अंतर होता हैं। बुद्धिमता की सीमा होती हैं और मूर्खता की कोई सीमा नहीं होती।
10.
कोई मनुष्य मुखौटा पहन कर अपनी मुखाकृति नहीं बदल सकता. इसी प्रकार व्यवहार-कुशलता में चापलूसी भर लेने मात्र से कोई व्यक्ति सज्जन नहीं बन सकता।
11.
मोहाच्छन्न अज्ञानी साधक, धर्म व्यवस्था की अवज्ञा कर फिर जगत की ओर लौट पड़ता हैं।
(आचारांग १/२/२)
12.
रागाग्नी, द्वेषाग्नि और मोहाग्नी, इन तीन अग्नियों से सदैव बचकर रहना चाहिए।
13.
हम समझते कम, समझाते ज्यादा हैं; इसलिए सुलझते कम, उलझते ज्यादा हैं।
14.
जिस प्रकार अग्नि, पुराने सूखे काष्ठ को जलाकर भस्म कर देती हैं, उसी प्रकार धर्म में सतत रत रहने वाला आत्मसमाहित, निस्पृह साधक, अपने कर्मो को क्षीण करता हैं|
15.
दीपक के साथ जब दूसरा दीपक जुड़ता है, तब प्रकाश और ऊष्मा का विस्तार होता है। यही आत्मज्ञानी के संग का लाभ है।
16.
प्रत्येक वह विचार जो मानव का उद्धारकर सकें, वह सकारात्मक है। प्रत्येक वह विचार जो पतन की खाइयों में धकेल दे, वह नकारात्मक है।
17.
सकारात्मक विचार में समाज-कल्याण की भावना निहित होती है। नकारात्मक विचार समाज में हिंसा और वैमनष्यता को फैलाते हैं।
18.
शोहरत की बुलंदी भी पल भर का तमाशा हैं,जिस डाल पे बैठे हो वो टूट भी सकती है।
19.
एक मिनट में ज़िन्दगी नहीं बदलती, पर एक मिनट सोचकर के लिया हुआ फैसला, पूरी ज़िन्दगी बदल देता है।
20.
ज़िन्दगी तब बेहतर होती हैं, जब हम खुश होते हैं। लेकिन यकीन करो, ज़िन्दगी तब और बेहतरीन हो जाती हैं, जब हमारी वजह से दूसरों को खुशी प्राप्त होती हैं।
21.
वाणी का नियंत्रण कई आपदाओं से बचा लेता हैं।
22.
खराब मजहब नहीं इंसान होता है, और खराब इंसान का कोई मजहब नहीं होता।
23.
“पछतावा” तो कायरता के लिए होता है; वीरता के लिए नहीं। वीरता में पछतावा का स्थान नहीं हैं।
24.
सब कुछ नही मिलता दुनियाँ मे किसी को। हर किसी की ज़िंदगी में “काश” रह ही जाता हैं।
25.
व्यवस्तिथ जीवन चाहते हैं, तब अनुशासित रहिये। अनुशासन शांति और व्यव्यस्था को बनाये रखने का सर्वोत्तम साधन हैं।
26.
छोटे छोटे कदमों की निरंतरता मीलों का सफर तय कर देती हैं।
27.
जो सीखने और समझने को तैयार न हो, उसी को जिंदगी के उतार-चढ़ाव से शिकायत होती रहती हैं।
28.
सबके भला ही में, अपना भला छुपा हैं।
29.
आत्मिक शक्ति के विकाश से इंसान उत्साहित और निर्द्वंद रह सकता हैं।
30.
लोग इतनी जल्दी बात नहीं मानते, जितनी जल्दी बुरा मान जाते है।
31.
उत्तम समय कभी नहीं आता, समय को उत्तम बनाना पड़ता है।
32.
अक्सर लोग ज़िन्दगी में इसलिए पिछड़ जाते हैं, क्योकि वे व्यर्थ में व्यस्त रहते हैं और स्वयं के कर्म-धर्म में पर्याप्त समय नहीं देते।
33.
इस युग में पढ़ना तो सबको आ गया, लेकिन क्या पढ़ना चाहिए, यह कमी रह गई।
34.
जीवन के हर एक दिन और हर एक पल को पूरी तरह जीने की कोशिश करें, कोई भी दिन बिना कोई ठोस काम किए नहीं बिताना चाहिए।
35.
गलती की स्वीकारोक्ति यह स्पष्ट करती हैं कि विवेक जागृत हो गया हैं।
36.
योजनाबद्ध तरीके से काम करने पर तन मन में चुस्तीफूर्ति व दिमाग में सक्रियता बनी रहती है।
37.
खुद पर भरोसे का हुनर सीख लो, क्योंकि सहारे कितने भी सच्चे हों, साथ छूट ही जाता हैं।
38.
‘ब्रह्मज्ञानी’, अपने पांडित्य अर्थात विद्वता के दर्प (अहंकार) को छोड़कर, बालक जैसा सरल बन जाता हैं|
39.
मर्द लज्जित करता है, तो क्रोध उत्पन्न होता है, वहीँ जब स्त्रियाँ लज्जित करती हैं- तो ग्लानि उत्पन्न होती है।
40.
चोर को पकड़ने के लिए विरले ही निकलते हैं; किन्तु पकड़े गए चोर को लतियाने के लिए सभी पहुँच जाते हैं।
41.
जीव का म्रत्यु से, शरीर का आग से, शक्ति का समय से और संपदा का दुर्गुणों से, अंत (नष्ट) हो जाता हैं।
42.
बिना विचारे शीघ्रता से किया जाने वाला निर्णय, स्वार्थ की ओर ही झुकता हैं।
43.
सृष्टि क्या हैं? सृजेता की आत्माभिव्यक्ति ही तो हैं। भावमय परमात्मा द्वारा रची गई यह सृष्टि भी भावमय ही हैं। अन्तरंग जीवन हो या वहिरंग, हम उसमें अपनी भावनाओं को ही प्रतिबिंबित या प्रतिफलित होते देखते हैं। मन की कल्पनाओं, बुध्दी के विचारों और कर्म की हलचलों के ताने-बाने भावनाओं के आधार पर ही बनते-बदलते रहते हैं।
44.
जैसे अंधे के लिये जगत अंधकारमय है और आंखों वाले के लिये प्रकाशमय है; वैसे ही अज्ञानी के लिये जगत दुखदायक है और ज्ञानी के लिये आनंदमय।
45.
अगर आप हतोत्साहित विचारधारा से प्रेरित हैं, तो निश्चित मानिये अवसाद (डिप्रेशन) ग्रस्त हो ही जायेंगे और अवसाद के लक्षणों का मूल्य भी चुकाना पड़ेगा।
46.
बिना सुने दूसरे का दर्द समझने की क्षमता बस अपनत्व में ही होती है।
47.
मनुष्य, सृष्टि के सब जीवों में अधिक दायित्वपूर्ण माना गया है, इसके सिर पर प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से बड़ी-बड़ी जिम्मेदारियाँ हैं, जिनको प्रसन्नता के साथ वहन करते हुए किनारे लगा देना ही जीवन का आदर्श है। माँ, बाप, भाई, बन्धु, स्त्री, पुत्र आदि के साथ कर्त्तव्य निभाते हुए परमार्थिक कर्त्तव्य पालन ही सच्ची मनुष्यता है। सिर्फ खाने, पीने तथा आराम से रहने में जीवन को सुखी समझना पशुता है। वस्तुतः परमार्थ में अपनेपन का त्याग ही जीवन का सच्चा आदर्श है।‘’
48.
स्त्री और पुरुष दोनों मूल रूप से संयुक्त (एकमेक) हैं। ईश्वर ने अपने आपको दो खंडो (टुकड़ों) में विभाजित किया| वे ही दो खण्ड परस्पर पति-पत्नी हो गए।
49.
कष्ट ही तो वह प्रेरक शक्ति है, जो मनुष्य को कसौटी पर परखती, और आगे बढाती है।
50.
अनंत की अनुभूति के कई मार्ग हैं। अब यह यात्री की क्षमता पर निर्भर करता है कि वह अपने लिए किस मार्ग को चुने। साधना की पहली सीढी है-उपयुक्त का चुनाव और अनिवार्य तत्व हैं-आस्था।
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