(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
द्वितीय स्कन्ध: पंचम
अध्यायः श्लोक 30-42
का हिन्दी अनुवाद
श्रेष्ठ ब्रह्मवित्! जिस समय ये पंचभूत, इन्द्रिय, मन और सत्त्व आदि तीनों गुण परस्पर संगठित नहीं थे, तब अपने रहने के लिये भोगों के साधनरूप शरीर की रचना कर सके। जब भगवान ने इन्हें अपनी शक्ति से प्रेरित किया, तब वे तत्त्व परस्पर एक-दूसरे के साथ मिल गये और उन्होंने आपस में कार्य-कारणभाव स्वीकार करके व्यष्टि-समष्टि पिण्ड और ब्रह्मांड दोनों की रचना की। वह ब्रह्मांडरूप अंडा एक सहस्र वर्ष तक निर्जीव रूप से जल में पड़ा रहा; फिर काल, कर्म और स्वभाव को स्वीकार करने वाले भगवान ने उसे जीवित कर दिया।
उस अंडे को फोड़कर उसमें से वही विराट् पुरुष निकला, जिसकी जंघा, चरण, भुजाएँ, नेत्र, मुख और सिर सहस्रों की संख्या में हैं। विद्वान् पुरुष (उपासना के लिये) उसी के अंगों में समस्त लोक और उनमें रहने वाली वस्तुओं की कल्पना करते हैं। उसकी कमर से नीचे के अंगों में सातों पाताल की और उसके पेडू से ऊपर के अंगों में सातों स्वर्ग की कल्पना की जाती है। ब्राह्मण इस विराट् पुरुष का मुख है, भुजाएँ क्षत्रिय हैं, जाँघों से वैश्य और पैरों से शूद्र उत्पन्न हुए हैं। पैरों से लेकर कटीपर्यन्त सातों पाताल तथा भूलोक की कपना की गयी है; नाभि में भुवर्लोक की, हृदय में स्वर्लोक की और परमात्मा के वक्षःस्थल में महर्लोक की कल्पना की गयी है।
उसके गले में जनलोक, दोनों स्तनों में तपोलोक और मस्तक में ब्रह्मा का नित्य निवास स्थान सत्यलोक है। उस विराट् पुरुष की कमर में अतल, जाँघों में वितल, घुटनों में पवित्र सुतललोक और जंघाओं में तलातल की कल्पना की गयी है। एड़ी के ऊपर की गाँठों में महातल, पंजे और एड़ियों में रसातल और तलुओं में पाताल समझना चाहिये। इस प्रकार विराट् पुरुष सर्वलोकमय है। विराट् भगवान के अंगों में इस प्रकार भी लोकों की कल्पना की जाती है, उनके चरणों में पृथ्वी है, नाभि में भुवर्लोक है और सिर में स्वर्लोक है।\
क्रमश:
साभार krishnakosh.org
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