अंधविश्वास का पर्दाफाश.
सिक्ख संप्रदाय के दसवें गुरु गोविंदसिंह एक महान् योद्धा होने के साथ बडे बुद्धिमान् व्यक्ति थे। धर्म के प्रति उनकी निष्ठा बडी गहरी थी। वह धर्म के लिए ही जिए और धर्म के लिए ही मरे। धर्म के प्रति अडिग आस्थावान् होते हुए भी वे अंधविश्वासी जरा भी न थे और न अंधविश्वासियों को पसंद करते थे।
गुरु गोविंदसिंह का संगठन और शक्ति बढा़ने की चिता में रहते थे। उनकी इस चिंता से एक पंडित ने लाभ उठाने की सोची। वह गुरु गोविंदसिंह के पास आया और बोला-यदि आप सिक्खो की शक्ति बढाना चाहते हैं, तो दुर्गा देवी का यज्ञ कराइए। यज्ञ की अग्नि से देवी प्रकट होगी और वह सिक्खों को शक्ति का वरदान दे देगी। गुरु गोविंदसिंह यज्ञ करने को तैयार हो गये। उस पंडित ने यज्ञ कराना शुरू किया।
कई दिन तक यज्ञ होते रहने पर भी जब देवी प्रकट नही हुइ तो उन्होंने पंडित से कहा-" महाराज! देवी अभी तक प्रकट नहीं हुई।'' धूर्त पंडित ने कहा-देवी अभी प्रसन्न नहीं हुई है। वह प्रसन्नता के लिये बलिदान चाहती है। यदि आप किसी पुरुष का वलिदान दे सकें तो वह प्रसन्न होकर दर्शन दे देगी और बलिदानी व्यक्ति को स्वर्ग की प्राप्ति होगी।
देवी की प्रसन्नता के लिए नर बलि की बात सुनकर गुरु गोविंदसिंह उस पंडित की धूर्तता समझ गए। उन्होंने उस पडित को पकडकर कहा- 'बलि के लिए आपसे अच्छा आदमी कहाँ मिलेगा। आपका बलिदान पाकर देवी तो प्रसन्न हो ही जायेगी, आपको भी स्वर्ग मिल जायेगा। इस प्रकार हम दोनों का काम बन जाएगा। गुरु गोविंदसिंह का व्यवहार देखकर पंडित घबरा गया, गुरु गोविंदसिंह ने बलिदान दूसरे दिन के लिए स्थगित करके पंडित को एक रावटी में रख दिया।
पंडित घबराकर गुरु गोबिंदसिंह के पैरों पर गिर पड़ा और गिडगिडाने लगा-'मुझे नहीं मालूम था कि बलिदान की बात मेरे सिर पर ही आ पडेगी, गुरु जी, मुझे छोड़ दीजिए। मैं आपसे क्षमा माँगता हूँ। गुरु गोविंदसिंह ने कहा क्यों घबराते हो ? बलिदान से तो स्वर्ग मिलेगा, क्यों पंडित जी, बलिदान की बातें तभी तक अच्छी लगती हैं न जब तक वह दूसरों के लिए होती हैं? अपने सिर आते ही असलियत खुल गई न।''
पंडित बोला- इस बार क्षमा कर दीजिए महाराज। अब कभी ऐसी बातें नहीं करूँगा।'' गुरु गोविंदसिंह ने उसे छोड़ दिया और समझाया-इस प्रकार का अंध-विश्वास समाज में फैलाना ठीक नही। देवी अपने नाम पर किसी के प्राण लेकर प्रसन्न नहीं होती। वह प्रसन्न होती है अपने नाम पर किए गए अच्छे कामो से। '' बाद में गुरु गोविंदसिंह ने उसे रास्ते का खर्च देकर भगा दिया। गोविदसिंह ने सिक्खों को समझाया। किसी देवी-देवता के नाम पर जीव हत्या करने से न तो पुण्य है और न शक्ति। धर्म के नाम पर किसी जीव का प्राण लेना घोर पाप है। शक्ति बढती आपस में प्रेम रखने से, धर्म का पालन करने से। शक्ति बढ़ती है-ईश्वर की उपासना करने से और उसके लिए त्याग-करने से। शक्ति बढ़ती है-अन्याय और अत्याचार का विरोध और निर्बल तथा असहायों की सहायता करने से। सभी लोग एक मति और एक गति होकर संगठित हो जाएँ और धर्म रक्षा में रणभूमि में अपने प्राणो की बलि दें। देवी इसी सार्थक बलिदान से प्रसन्न होगी और आज के इसी मार्ग से मुक्ति मिलेगी। अंध-विश्वास के आधार पर अपनी जान देने अथवा किसी दूसरे जीव की जान लेने से न तो देवी-देवता प्रसन्न होते हैं और न सद्गति मिलती है।
गुरु गोविंदसिंह के इन सार वचनों को सभी सिक्खों ने हृदयगम किया। उस पर आचरण किया और अपने जीवन का कण-कण देश धर्म की रक्षा में लगाकर ऐतिहासिक यश प्राप्त किया।
(संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे-पुस्तक से -by AWGP)
गुरु गोविंदसिंह का संगठन और शक्ति बढा़ने की चिता में रहते थे। उनकी इस चिंता से एक पंडित ने लाभ उठाने की सोची। वह गुरु गोविंदसिंह के पास आया और बोला-यदि आप सिक्खो की शक्ति बढाना चाहते हैं, तो दुर्गा देवी का यज्ञ कराइए। यज्ञ की अग्नि से देवी प्रकट होगी और वह सिक्खों को शक्ति का वरदान दे देगी। गुरु गोविंदसिंह यज्ञ करने को तैयार हो गये। उस पंडित ने यज्ञ कराना शुरू किया।
कई दिन तक यज्ञ होते रहने पर भी जब देवी प्रकट नही हुइ तो उन्होंने पंडित से कहा-" महाराज! देवी अभी तक प्रकट नहीं हुई।'' धूर्त पंडित ने कहा-देवी अभी प्रसन्न नहीं हुई है। वह प्रसन्नता के लिये बलिदान चाहती है। यदि आप किसी पुरुष का वलिदान दे सकें तो वह प्रसन्न होकर दर्शन दे देगी और बलिदानी व्यक्ति को स्वर्ग की प्राप्ति होगी।
देवी की प्रसन्नता के लिए नर बलि की बात सुनकर गुरु गोविंदसिंह उस पंडित की धूर्तता समझ गए। उन्होंने उस पडित को पकडकर कहा- 'बलि के लिए आपसे अच्छा आदमी कहाँ मिलेगा। आपका बलिदान पाकर देवी तो प्रसन्न हो ही जायेगी, आपको भी स्वर्ग मिल जायेगा। इस प्रकार हम दोनों का काम बन जाएगा। गुरु गोविंदसिंह का व्यवहार देखकर पंडित घबरा गया, गुरु गोविंदसिंह ने बलिदान दूसरे दिन के लिए स्थगित करके पंडित को एक रावटी में रख दिया।
पंडित घबराकर गुरु गोबिंदसिंह के पैरों पर गिर पड़ा और गिडगिडाने लगा-'मुझे नहीं मालूम था कि बलिदान की बात मेरे सिर पर ही आ पडेगी, गुरु जी, मुझे छोड़ दीजिए। मैं आपसे क्षमा माँगता हूँ। गुरु गोविंदसिंह ने कहा क्यों घबराते हो ? बलिदान से तो स्वर्ग मिलेगा, क्यों पंडित जी, बलिदान की बातें तभी तक अच्छी लगती हैं न जब तक वह दूसरों के लिए होती हैं? अपने सिर आते ही असलियत खुल गई न।''
पंडित बोला- इस बार क्षमा कर दीजिए महाराज। अब कभी ऐसी बातें नहीं करूँगा।'' गुरु गोविंदसिंह ने उसे छोड़ दिया और समझाया-इस प्रकार का अंध-विश्वास समाज में फैलाना ठीक नही। देवी अपने नाम पर किसी के प्राण लेकर प्रसन्न नहीं होती। वह प्रसन्न होती है अपने नाम पर किए गए अच्छे कामो से। '' बाद में गुरु गोविंदसिंह ने उसे रास्ते का खर्च देकर भगा दिया। गोविदसिंह ने सिक्खों को समझाया। किसी देवी-देवता के नाम पर जीव हत्या करने से न तो पुण्य है और न शक्ति। धर्म के नाम पर किसी जीव का प्राण लेना घोर पाप है। शक्ति बढती आपस में प्रेम रखने से, धर्म का पालन करने से। शक्ति बढ़ती है-ईश्वर की उपासना करने से और उसके लिए त्याग-करने से। शक्ति बढ़ती है-अन्याय और अत्याचार का विरोध और निर्बल तथा असहायों की सहायता करने से। सभी लोग एक मति और एक गति होकर संगठित हो जाएँ और धर्म रक्षा में रणभूमि में अपने प्राणो की बलि दें। देवी इसी सार्थक बलिदान से प्रसन्न होगी और आज के इसी मार्ग से मुक्ति मिलेगी। अंध-विश्वास के आधार पर अपनी जान देने अथवा किसी दूसरे जीव की जान लेने से न तो देवी-देवता प्रसन्न होते हैं और न सद्गति मिलती है।
गुरु गोविंदसिंह के इन सार वचनों को सभी सिक्खों ने हृदयगम किया। उस पर आचरण किया और अपने जीवन का कण-कण देश धर्म की रक्षा में लगाकर ऐतिहासिक यश प्राप्त किया।
(संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे-पुस्तक से -by AWGP)
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