(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
द्वितीय स्कन्ध: षष्ठ
अध्यायः श्लोक 18-32
का हिन्दी अनुवाद
जिस समय इस विराट् पुरुष के नाभिकमल से मेरा जन्म हुआ, उस समय इस पुरुष के अंगों के अतिरिक्त मुझे और कोई भी यज्ञ की सामग्री नहीं मिली। तब मैंने उनके अंगों में ही यज्ञ के पशु, यूप (स्तम्भ), कुश, यह यज्ञभूमि और यज्ञ के योग्य उत्तम काल की कल्पना की।
ऋषिश्रेष्ठ! यज्ञ के लिये आवश्यक पात्र आदि वस्तुएँ, जौ, चावल आदि ओषधियाँ, घृत आदि स्नेह पदार्थ, छः रस, लोहा, मिट्टी, जल, ऋक्, यजुः, साम, चातुर्होत्र, यज्ञों के नाम, मन्त्र, दक्षिणा, व्रत, देवताओं के नाम, पद्धति ग्रन्थ, संकल्प, तन्त्र (अनुष्ठान की रीति), गति, मति, श्रद्धा, प्रायश्चित और समर्पण- यह समस्त यज्ञ-सामग्री मैंने विराट् पुरुष के अंगों से ही इकट्ठी की। इस प्रकार विराट् पुरुष के अंगों से ही सारी सामग्री का संग्रह करके मैंने उन्हीं सामग्रियों से उन यज्ञस्वरूप परमात्मा का यज्ञ के द्वारा यजन किया। तदनन्तर तुम्हारे बड़े भाई इन नौ प्रजापतियों ने अपने चित्त को पूर्ण समाहित करके विराट् एवं अन्तर्यामी रूप से स्थित उस पुरुष की आराधना की। इसके पश्चात् समय-समय पर मनु, ऋषि, पितर, देवता, दैत्य और मनुष्यों ने यज्ञों के द्वारा भगवान् की आराधना की।
नारद! यह सम्पूर्ण विश्व उन्हीं भगवान् नारायण में स्थित है जो स्वयं तो प्राकृत गुणों से रहित हैं, परन्तु सृष्टि के प्रारम्भ में माया के द्वारा बहुत-से गुण ग्रहण कर लेते हैं। उन्हीं की प्रेरणा से मैं इस संसार की रचना करता हूँ। उन्हीं के अधीन होकर रुद्र इसका संहार करते हैं और वे स्वयं ही विष्णु के रूप से इसका पालन करते हैं। क्योंकि उन्होंने सत्त्व, रज और तम की तीन शक्तियाँ- स्वीकार कर रखी हैं। बेटा! जो कुछ तुमने पूछा था, उसका उत्तर मैंने तुम्हें दे दिया; भाव या अभाव, कार्य या कारण के रूप में ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है जो भगवान् से भिन्न हो।
क्रमश:
साभार krishnakosh.org
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