ऋषि पंचमी का व्रत.

ऋषि पंचमी  का व्रत.

भादो मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी को ऋषी पंचमी का त्योहार मनाया जाता है। इस दिन महिलाएं व्रत करती हैं। ऋषियों की पूजा करने के बाद कहानी सुनी जाती हैं, उसके बाद एक समय फलाहार करते हैं।

अनजाने में हुये पाप, अपराध के लिए यह व्रत उपयोगी होता हैं। व्रत के साथ ही अपने परिचितों सहित अपरचितों से अनजाने में हुई हर प्रकार की गलतियों के लिए क्षमा-याचना भी कर ली जाना चाहिए।

व्रत में सप्त-ऋषियों का पूजन होता हैं और उनसे अनजाने में हुये पाप और गलतियों के लिए क्षमा-याचना की जाती हैं।

पौराणिक कथा के अनुसार... एक समय की बात है, विदर्भ देश में उत्तंक नामक एक सदाचारी ब्राह्मण रहता था। उसकी पत्नी बड़ी पतिव्रता थी, जिसका नाम सुशीला था। उस ब्राह्मण के एक पुत्र तथा एक पुत्री, दो संतान थी। विवाह योग्य होने पर उसने समान कुलशील वर के साथ कन्या का विवाह कर दिया। दैवयोग से कुछ दिनों बाद वह विधवा हो गई। दुखी ब्राह्मण दम्पति कन्या सहित गंगा तट पर कुटिया बनाकर रहने लगे।

एक दिन ब्राह्मण कन्या सो रही थी कि उसका शरीर कीड़ों से भर गया। कन्या ने सारी बात मां से कही। मां ने पति से सब बताते हुए पूछा- प्राणनाथ! मेरी साध्वी कन्या की यह गति होने का क्या कारण है?


उत्तंक ने समाधि द्वारा इस घटना का पता लगाकर बताया- पूर्व जन्म में भी यह कन्या ब्राह्मणी थी। इसने रजस्वला होते ही बर्तन छू दिए थे। इस जन्म में भी इसने लोगों की देखा-देखी ऋषि पंचमी का व्रत नहीं किया। इसलिए इसके शरीर में कीड़े पड़े हैं।

धर्म-शास्त्रों की मान्यता है कि रजस्वला स्त्री पहले दिन चाण्डालिनी, दूसरे दिन ब्रह्मघातिनी तथा तीसरे दिन धोबिन के समान अपवित्र होती है। वह चौथे दिन स्नान करके शुद्ध होती है। यदि यह शुद्ध मन से अब भी ऋषि पंचमी का व्रत करें तो इसके सारे दुख दूर हो जाएंगे और अगले जन्म में अटल सौभाग्य प्राप्त करेगी। पिता की आज्ञा से पुत्री ने विधिपूर्वक ऋषि पंचमी का व्रत एवं पूजन किया। व्रत के प्रभाव से वह सारे दुखों से मुक्त हो गई। अगले जन्म में उसे अटल सौभाग्य सहित अक्षय सुखों का भोग मिला।

परिक्रमा.

रिक्रमा.

सभी ग्रह सूर्य की परिक्रमा कर रहे हैं और सभी ग्रहों को साथ लेकर यह सूर्य महासूर्य की परिक्रमा कर रहा है। भारतीय धर्मों में पवित्र स्थलों के चारों ओर श्रद्धाभाव से चलना 'परिक्रमा' या 'प्रदक्षिणा' कहलाता है, जो षोडशोपचार पूजा का एक अंग है। दुनिया के सभी धर्मों में परिक्रमा का प्रचलन हिन्दू धर्म की देन है। भगवान गणेश और कार्तिकेय ने भी परिक्रमा की थी। यह प्रचलन वहीं से शुरू हुआ है।

परिक्रमा मार्ग और दिशा : 'प्रगतं दक्षिणमिति प्रदक्षिणं' के अनुसार अपने दक्षिण भाग की ओर गति करना प्रदक्षिणा कहलाता है। प्रदक्षिणा में व्यक्ति का दाहिना अंग देवता की ओर होता है। 'शब्दकल्पद्रुम' में कहा गया है कि देवता को उद्देश्य करके दक्षिणावर्त भ्रमण करना ही प्रदक्षिणा है।

ये हैं प्रमुख परिक्रमाएं:-

1.देवमंदिर और मूर्ति परिक्रमा:- जैसे देव मंदिर में जगन्नाथ पुरी परिक्रमा, रामेश्वरम, तिरुवन्नमल, तिरुवनन्तपुरम परिक्रमा और देवमूर्ति में शिव, दुर्गा, गणेश, विष्णु, हनुमान, कार्तिकेय आदि देवमूर्तियों की परिक्रमा करना।

2.नदी परिक्रमा:- जैसे नर्मदा, गंगा, सरयु, क्षिप्रा, गोदावरी, कावेरी परिक्रमा आदि।

3.पर्वत परिक्रमा:- जैसे गोवर्धन परिक्रमा, गिरनार, कामदगिरि, तिरुमलै परिक्रमा आदि।

4.वृक्ष परिक्रमा:- जैसे पीपल और बरगद की परिक्रमा करना।

5.तीर्थ परिक्रमा:- जैसे चौरासी कोस परिक्रमा, अयोध्या, उज्जैन या प्रयाग पंचकोशी यात्रा, राजिम परिक्रमा आदि।

6.चार धाम परिक्रमा:- जैसे छोटा चार धाम परिक्रमा या बड़ा चार धाम यात्रा।

7. भरत खण्ड परिक्रमा:- अर्थात संपूर्ण भारत की परिक्रमा करना। परिवाज्रक संत और साधु ये यात्राएं करते हैं। इस यात्रा के पहले क्रम में सिंधु की यात्रा, दूसरे में गंगा की यात्रा, तीसरे में ब्रह्मपु‍त्र की यात्रा, चौथे में नर्मदा, पांचवें में महानदी, छठे में गोदावरी, सातवें में कावेरा, आठवें में कृष्णा और अंत में कन्याकुमारी में इस यात्रा का अंत होता है। हालांकि प्रत्येक साधु समाज में इस यात्रा का अलग अलग विधान और नियम है।

8.विवाह परिक्रम:- मनु स्मृति में विवाह के समक्ष वधू को अग्नि के चारों ओर तीन बार प्रदक्षिणा करने का विधान बतलाया गया है जबकि दोनों मिलकर 7 बार प्रदक्षिणा करते हैं तो विवाह संपन्न माना जाता है।

किस देव की कितनी बार परिक्रमा?

1.भगवान शिव की आधी परिक्रमा की जाती है।

2.माता दुर्गा की एक परिक्रमा की जाती है।

3.हनुमानजी और गणेशजी की तीन परिक्रमा की जाती है।

4.भगवान विष्णु की चार परिक्रमा की जाती है।

5.सूर्यदेव की चार परिक्रमा की जाती है।

6.पीपल वृक्ष की 108 परिक्रमाएं करना चाहिए।

7. जिन देवताओं की प्रदक्षिणा का विधान नही प्राप्त होता है, उनकी तीन प्रदक्षिणा की जा सकती है।

शास्त्रों के अनुसार पूजा के समय सभी देवी-देवताओं की परिक्रमा करने की परंपरा है। सभी देवी-देवताओं की परिक्रमा की संख्या अलग-अलग बताई गई है, जैसे दुर्गाजी की एक, सूर्य की सात, गणेश की तीन, विष्णु की चार और शिव की आधी प्रदक्षिणा करना चाहिए।- नारद पुराण


किस देवता की कितनी प्रदक्षिणा करनी चाहिए, इस संदर्भ में 'कर्म लोचन' नामक ग्रंथ में लिखा गया है कि- ''एका चण्ड्या रवे: सप्त तिस्र: कार्या विनायके। हरेश्चतस्र: कर्तव्या: शिवस्यार्धप्रदक्षिणा।'' अर्थात दुर्गाजी की एक, सूर्य की सात, गणेशजी की तीन, विष्णु भगवान की चार एवं शिवजी की आधी प्रदक्षिणा करनी चाहिए।

श्री गणेश की तीन परिक्रमा ही करनी चाहिए जिससे गणेशजी भक्त को रिद्ध-सिद्धि सहित समृद्धि का वर देते हैं।

पुराण के अनुसार श्रीराम के परम भक्त पवनपुत्र श्री हनुमानजी की तीन परिक्रमा करने का विधान है।

*माता दुर्गा मां की एक परिक्रमा की जाती है। माता अपने भक्तों को शक्ति प्रदान करती है।

भगवान नारायण अर्थात् विष्णु की चार परिक्रमा करने पर अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है।

एकमात्र प्रत्यक्ष देवता सूर्य की सात परिक्रमा करने पर सारी मनोकामनाएं जल्द ही पूरी हो जाती हैं।

प्राय: सोमवती अमावास्या को महिलाएं पीपल वृक्ष की 108 परिक्रमाएं करती हैं। हालांकि सभी देववृक्षों की परिक्रमा करने का विधान है।

जिन देवताओं की प्रदक्षिणा का विधान नही प्राप्त होता है, उनकी तीन प्रदक्षिणा की जा सकती है। लिखा गया है कि- ‘यस्त्रि: प्रदक्षिणं कुर्यात् साष्टांगकप्रणामकम्। दशाश्वमेधस्य फलं प्राप्रुन्नात्र संशय:॥'

काशी ऐसी ही प्रदक्षिणा के लिए पवित्र मार्ग है जिसमें यहां के सभी पुण्यस्थल घिरे हुए हैं और जिस पर यात्री चलकर काशीधाम की प्रदक्षिणा करते हैं। ऐसे ही प्रदक्षिणा मार्ग मथुरा, अयोध्या, प्रयाग, चित्रकूट आदि में हैं।

मनु स्मृति में विवाह के समय वधू को अग्नि के चारों ओर तीन बार प्रदक्षिणा करने का विधान बतलाया गया है जबकि दोनों मिलकर 7 बार प्रदक्षिणा करते हैं, तो विवाह संपन्न माना जाता है।

पवित्र धर्मस्थानों- अयोध्या, मथुरा आदि पुण्यपुरियों की पंचकोसी (25 कोस की), ब्रज में गोवर्धन पूजा की सप्तकोसी, ब्रह्ममंडल की चौरासी कोस, नर्मदाजी की अमरकंटक से समुद्र तक छ:मासी और समस्त भारत खंड की वर्षों में पूरी होने वाली इस प्रकार की विविध परिक्रमाएं भूमि में पद-पद पर दंडवत लेटकर पूरी की जाती है। यही 108-108 बार प्रति पद पर आवृत्ति करके वर्षों में समाप्त होती है।

तिलक लगाने के बाद यज्ञ देवता अग्नि या वेदी की तीन प्रदक्षिणा (परिक्रमा) लगानी चाहिए। ये तीन प्रदक्षिणा जन्म, जरा और मृत्यु के विनाश हेतु तथा मन, वचन और कर्म से भक्ति की प्रतीक रूप, बाएं हाथ से दाएं हाथ की तरफ लगाई जाती है।

वसुधैव कुटुम्बकम् की ओर बढ़ते चरण.


वसुधैव कुटुम्बकम् की ओर बढ़ते चरण.

धर्म और संस्कृति दोनों ही सार्वभौम और सर्वजनीन है। शारीरिक संरचना की तरह मानवी अन्तःकरण की मूलसत्ता भी एक ही प्रकार कह है। भौतिक प्रवृत्तियाँ भी लगभग एक सी हैं। अतः एकता व्यापक और शाश्वत हैं पृथकता सामयिक है और क्षणिक। हम सब एक ही परमपिता की संतानें हैं। एक ही धरती पर पैदा हुए हैं। एक ही आकाश के नीचे रहते हैं। एक ही सूर्य से गर्मी पाते हैं और बादलों के अनुदान से एक ही तरह गुजारा करते हैं, फिर कृत्रिम विभेद से बहुत दिनों तक बहुत दूरी तक किस प्रकार बँधे रह सकते हैं। औचित्य को आधार मानकर परस्पर आदान-प्रदान का द्वारा जितना खोलकर रखा जायेगा उतना ही स्वच्छ हवा और रोशनी का लाभ मिलेगा। खिड़कियाँ बन्द रखकर हम अपनी विशेषताओं को न तो सुरक्षित रख सकते हैं और न स्वच्छ हवा और खुली धूप से मिलने वाले लाभों से लाभान्वित हो सकते हैं। संकीर्णता अपनाकर पाया कम और खोया अधिक जाता है।

अब राष्ट्रवाद के दिन लदते जा रहे हैं। देश भक्ति के जोश को अब उतना नहीं उभारा जाता जिसमें अपने ही क्षेत्र या वर्ग को सर्वोच्च ठहराया जाय अथवा विश्व विजय करके सर्वत्र अपना ही झण्डा फहराने का उन्माद उठ खड़ा हो। ऐसी पक्षपाती और आवेशग्रस्त देश भक्ति अब विचारशील वर्ग में नापसंद की जाती है और विश्व नागरिकता की वसुधैव कुटुम्बकम् की बात को महत्व दिया जाता है। विश्व एकता के सिद्धान्त को मान्यता मिली है और राष्ट्र संघ बना है। इस दिशा में अभी तक प्रगति के चरण धीमे रहे हैं किन्तु अब अपेक्षा यही की जानी चाहिए कि अगले ही दिनों व्यापक समस्याओं के समाधान के लिए समूचा विश्व एकता के सूत्र में आबद्ध होगा। एक राष्ट्र एक भाषा, एक संस्कृति एक धर्म अपनाकर ही उज्ज्वल भविष्य की विश्व शान्ति की स्थापना हो सकेगी। यह तथ्य मानवी विवेक ने स्वीकार कर लिया है और विभेद उभारने वाले, कट्टरता के कटघरे में मनुष्य की बुद्धि को कैद रखने वाले तत्वों को अब सामान्य ठहराया जा रहा है। धर्म और संस्कृति के क्षेत्र में भी ऐसी ही व्यापक एकता उत्पन्न करने वाला वातावरण विनिर्मित हो रहा है।

नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों की स्थापना के लिए ऐसे एकतावादी विवेक को जागृत करने की अब आवश्यकता है जिसमें अपने ही पक्ष को सर्वोपरि ठहराये जाने का आग्रह न हो। अपने पराये का भेद भाव न करके औचित्य, न्याय, तथ्य और विवेक को ही जब मान्यता दी जायेगी तो फिर उपयोगिता स्वीकार करने की मनःस्थिति बन जायेगी। तब जो कुछ भी तथ्य तर्क सम्मत होगा वह स्वीकार कर लिया जायेगा।

मनुष्य के अपने रहन-सहन एवं सोचने विचारने के तरीके अलग-अलग हैं जिसे सभ्यता के नाम से भी जाना जाता है। अपने नाम, रूप, धन, परिवार क्षेत्र आदि की तरह ही भाषा एवं धर्म भी लोगों को प्रिय लगता है। यह प्रियता बहुधा कट्टरता का रूप धारण कर लेती या पक्षपात के रूप में बदल जाती है और अपने को श्रेष्ठ तथा दूसरों को निकृष्ट ठहराने लगती है। पूर्वाग्रह और पक्षपात का गहरा पुट रहने से प्रायः यही भ्रम बना रहता है कि मानों सत्य अपने ही हिस्से में आया है और सभी गलत सोचने और झूठ बोलते हैं। अपना धर्म श्रेष्ठ दूसरे का निकृष्ट, अपनी जाति ऊँची दूसरे की नीची, अपनी मान्यता सच-सूदरे की झूठ ऐसा दुराग्रह यदि आरंभ से ही हो तो फिर सत्य-असत्य का निर्णय हो ही नहीं सकता। एकता के लिए न्याय और औचित्य की रक्षा के लिए आवश्यक है कि तथ्यों को ढूँढ़ने के लिए खुला मस्तिष्क रखा जाय और अपने पराये का भेद भाव न रख कर विवेक और तर्क का सहारा लेने की नीति अपनाई जाय। सत्य को प्राप्त करने का लक्ष्य इस नीति को अपनाने से ही पूरा हो सकता है।

मूर्धन्य मनीषियों, भविष्य दर्शियों का कहना है कि अगले दिनों मानवी विवेक और अधिक विकसित होगा और समूचे विश्व को एकता के सूत्र में आबद्ध करेगा। अध्यात्म पक्ष की इस संदर्भ में महती भूमिका होगी। शास्त्र उल्लेख और आप्त वचनों को ही तब पूर्ण न मानकर नये अनुसंधानों के लिए उसका द्वारा खुला रखा जायेगा ताकि उसकी प्रखरता, प्रामाणिकता और उपयोगिता को कसौटियों पर कसने के उपरान्त ही उसे सार्वभौम मान्यता मिले। विवेक दृष्टि जाग्रत होते ही धर्म-सम्प्रदाय संबंधी परस्पर विरोधी असंख्य मान्यताओं के संबंध में यह सोच उभरेगा कि सच्चाई तो एक ही हो सकती है, फिर समग्रता को समझते हुए असहमतियों को शिथिल करते हुए किसी एक निश्चय पर क्यों न पहुँचा जाय?

इतना बन पड़ने पर सम्प्रदायों की भिन्नता एकता में विकसित होकर लोक कल्याण में भली प्रकार समर्थ हो सकेगी। विग्रहों में भिन्नताओं में जो शक्ति खर्च होती है, उसका उपयोग सदुद्देश्यों के लिए बन पड़ना संभव होगा यह सब अगले दस वर्षों में होने जा रहा है।



(अखंड ज्योति-12/1990)

भारत के प्रधान मंत्रियों की सूची.


भारत के प्रधान मंत्रियों की सूची.

कुंजी:


सं.
नाम
कार्यकाल आरंभ
कार्यकाल समाप्त
राजनैतिक दल
जन्म स्थान
शिक्षा
चुनाव क्षेत्र
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(अज्ञात)
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(अज्ञात)
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कांग्रेस आई***
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डीएवी कॉलेज, हैली कामर्स कॉलेजलाहौर
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पंजाब प्रान्त के एक गाँव (अब पाकिस्तान में)
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पजाब प्रान्त के एक गाँव (अब पाकिस्तान में)
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