अध्यात्म भगोड़ों का नहीं शूरवीरों का क्षेत्र.


अध्यात्म भगोड़ों का नहीं
शूरवीरों का क्षेत्र.

वैयक्तिक जीवन में आत्म परिष्कार, पारिवारिक जीवन में सहयोगियों का पोषण-संवर्द्धन सामाजिक जीवन में सत्प्रवृत्तियों का समर्थन जैसे उत्तरदायित्व हर किसी के सामने मौजूद हैं। उनका निर्वाह भली प्रकार किया जाना चाहिए। इन तीनों ही मोर्चों पर कर्म कौशल का शौर्य-साहस का विवेक सन्तुलन का परिचय दिया जाना चाहिए। इन से मन हटा लेना और तथाकथित धर्म या अध्यात्म के कोतर में जा छिपना और कल्पना लोक में विचरण करके मन को समझाना, ऐसा प्रयत्न है, जिससे किसी उद्देश्य की पूर्ति नहीं होती।

भाग खड़े होने से समस्याएँ और भी अधिक विकराल होती हैं और पहले जितना उपद्रव चल रहा था, उस में और भी अधिक वृद्धि हो जाती है। मन जिस समाधान को खोजने चला था, वह भी भटकाव भरी पगडंडियों में कहाँ मिलता है? उपेक्षा, उदासीनता कर रीति-नीति से चैन मिलने की कल्पना जिनने भी की है, उन्हें प्रयोग के उपरान्त निराशा ही हाथ लगी है।

प्रायः कायरता से उत्पन्न पलायनवाद की चपेट में बहुत से लोग धर्म का-अध्यात्म का आवरण ओढ़ते और व्यावहारिक जीवन से जुड़ी हुई समस्याओं से मुँह मोड़ते देखे जाते हैं। अपने कर्तव्यों और आश्रितों से उदासीन हो जाने वालों के लिए उदासी से उत्पन्न शिथिलता भी भारी पड़ती है। ऐसे ही धर्मात्मा सर्वत्र उपहासास्पद बनते हैं। इसी तरह भगोड़ों में से कितने ही एकान्त में भजन करने और आरंभ में ही एकान्त ढूँढ़ते और पहले ही दिन समाधि लगाने की बात सोचते हैं। उनकी बालबुद्धि इस तथ्य से अनभिज्ञ बनी रहती है कि अध्यात्म साधना एक वैज्ञानिक अन्वेषण एवं अभ्यास प्रकरण है। उसमें अन्तर्मुखी होकर सूक्ष्म अतिसूक्ष्म सत्ता के गहरे समुद्र में डुबकी लगाने और वहाँ से बहुमूल्य रत्न-राशि ढूँढ़ लाने के लिए कुशल पनडुब्बी का सा-दुस्साहस भरा महत्वपूर्ण कदम उठाया जाता है और वही भी बन तब पड़ता है जब पहल मन को भली प्रकार निग्रहित कर लिया जाय।

यह समय साध्य और अभ्यास साध्य प्रक्रिया है। इसके लिए उनकी पूर्व तैयारी तो होती नहीं। जो उत्साह होता है वह भी श्रद्धा जन्य नहीं, जीवन संग्राम की भयंकरता से डर कर कहीं जा छिपने की पलायनवादी मनोवृत्ति से उत्पन्न हुआ होता है। उसमें न श्रद्धा होती है और न गहराई। फलतः मन वहाँ भी नहीं लगता। वापिस लौटने में उपहास होने की झिझक से एक नया असमंजस और खड़ा हो जाता है।

श्रम करने पर ही उपलब्धियाँ हस्तगत होती हैं। धर्म क्षेत्र में प्रवेश करने पर व्यक्तित्व में तद्विषयक प्रखरता उत्पन्न न हो तो सहज ही उसे निरर्थक ठहराया जाने लगेगा। दर्शकों और पर्यवेक्षकों में सहज ही उसकी बुरी प्रतिक्रिया होगी। धर्मात्माओं की अपरिपक्वता का दोष धर्म पर धार्मिकता पर मढ़ा जायेगा। देखा यही जाता है धर्म-चर्चा करने वाले लोग अपने स्वजन सम्बन्धियों से उदास होते जाते हैं। जिम्मेदारियों से हाथ खींच कर उन्हें और भी अधिक विकृत करते अपने आप के लिए भारभूत बने हैं। जहाँ रहते हैं वहाँ भी नीरसता का वातावरण उत्पन्न करते हैं। जिस समुदाय के बीच रहा जाए, जिन लोगों के साथ घनिष्ठतापूर्वक निर्वाह किया जाय, उन्हें पारस्परिक स्नेह, सहयोग, विनोद, उल्लास-उत्साह लाभ मिलना चाहिए। इसके बिना सह निर्वाह के साथ जुड़े हुए कर्तव्य की अवहेलना ही होती है। जो माँ स्वयं उदास रहती है और अपने बच्चे तथा पति पर, परिवार पर उदासी थोपे रहती है वह प्रकारान्तर से उन पर अत्याचार ही करती है भले ही वह निर्दोष दुखी ही क्यों न हो? यह बात उपेक्षा बरतने वाले हर नर-नारी बाल-वृद्ध रुचि घटा लेना, उनके प्रति अपने कर्तव्यों में शिथिलता बरतना हर दृष्टि से अनुचित है। भले ही इस के लिए धार्मिकता की आड़ क्यों न ली गई हो? धर्म-धारणा का निर्वाह करने के लिए नीरस और उत्तरदायित्व विहीन जीवन क्रम अपनाना आवश्यक नहीं है। उसे सरसता और सक्रियता के साथ अपेक्षाकृत और भी अच्छी तरह निभाया जा सकता है।

ऐसी पलायनवादी धार्मिकता पर करारे व्यंग करते हुए सुप्रसिद्ध दार्शनिक मनोविज्ञानविद् विन्सेन्टपील ने अपने ग्रंथ में लिखा है “कमजोर मनःस्थिति के लोग जीवन संग्राम की स्वाभाविक कठिनाइयों को तिल का ताड़ बनाते हैं और भयभीत होकर मुँह छिपाने का कोई आसरा तकते हैं। कोई धर्म रूपी अफीम का पल्ला पकड़ते हैं तो कोई किसी नशे का आश्रय लेते हैं, पर इससे उन्हें मिलता कुछ नहीं। ऐसे सभी आसरे परिस्थिति में सुधार नहीं बिगाड़ ही उत्पन्न करते हैं।” धर्म को अफीम की गोली कह कर अनास्थावादी लोगों ने उसे खूब बदनाम किया है और कहा है कि इस जंजाल में फँसने वाले लोग काहिल और गैर जिम्मेदारी से लद जाते हैं। यह बदनामी किसी भी भले बुरे इरादे से क्यों न की जाती हो, इसमें इतना तथ्य तो है ही कि धार्मिकता उद्देश्यहीनता से जुड़ कर उदासीनता के साथ जब पर्यायवाचक बनती दिखाई पड़ती है तो उस परिणाम को देखते हुए इस प्रकार के निष्कर्ष निकालने वालों को अधिक दोष नहीं दिया जा सकता।

मनीषीगणों ने कहा है धार्मिकता, आध्यात्मिकता, औषधियाँ पूजा-अर्चा कथा-कीर्तन आदि सभी साधन यदि सुनियोजित रूप में प्रयुक्त किये जायें तो ही इनके सहारे प्रगति होती है और प्रसन्नता मिलती है। किन्तु इन पर इतना आश्रित न बना जाय कि कठोर कर्तव्यों की उपेक्षा ही होने लगे। औषधियों पर आश्रित रहने से नहीं स्वास्थ्य रक्षा के ठोस प्रयत्नों से काम चलता है। मनोरंजन के अवसर ढूँढ़ने से नहीं आन्तरिक उल्लास से प्रसन्नता स्थिर रहती है। इसी तरह धर्म के कल्पना लोक में विचरण करने से नहीं, जीवन संग्राम में कर्म का गाण्डीव उठाने से समाधान मिलता है। कर्म निष्ठा का स्थान यदि पलायनवादी धार्मिकता ग्रहण करने लगे तो उसमें अनर्थ की ही संभावना बनी रहती है।

धर्म का वास्तविक तात्पर्य है-मानवी चेतना में ऐसी सत्प्रवृत्तियों का समावेश जो सदाचरण और कर्तव्य पालन के रूप में समावेश में वातावरण को उल्लासपूर्ण बनाने में समर्थ हो। सहिष्णुता, दया, प्रेम, विवेक, उदारता, संयम, सेवा जैसे गुणों में सच्ची धर्म निष्ठा का परिचय मिलता है। कर्तव्य परायणता को धर्मात्मा कहा जा सकता है, किन्तु आज वे इन सब की उपेक्षा करके मात्र पूजा-पाठ के ढकोसले में निरत रहना ही धर्म-धर्म परायणता का चिन्ह बन गया है। धर्म के प्रति अनास्था इसी विकृति के कारण उत्पन्न हुई है। धर्म के कारण लोग पिछड़ेपन के शिकार नहीं हुए हैं, वरन् पिछड़े एवं पलायनवादी लोगों ने धर्म का आडम्बर ओढ़ कर उसकी उपयोगिता में सन्देह उत्पन्न कर दिया है।

नींद की गोली खाने से नशा पीने से, भाग्यवाद का आश्रय लेने भाग खड़े होने, उदासीनता धारण कर लेने से उलझनें सुलझती नहीं और न पलायनवादी धार्मिकता से किसी को समाधान मिलता है। तथ्यों को समझा जाना चाहिए और समस्याओं का समाधान ढूँढ़ा जाना चाहिए। वह एक तरह हम हल चाहते हैं वही एक मात्र उपाय हो, ऐसी बात नहीं है। खोजने पर ऐसे अनेकों आधार मिल सकते हैं जिससे प्रस्तुत कठिनाइयों से आसानी से निपटना या बचना संभव हो सके। निराशा कायरता और भीरुता में लिया गया धर्मावलम्बन किसी के कुछ काम नहीं आ सकता। धर्म तो कर्तव्य परायणता का पर्यायवाचक है। धर्मनिष्ठा और कर्मनिष्ठा समान अर्थबोधक हैं। दूरदर्शी दृष्टिकोण अपनाकर अपनी और अपने सम्पर्क क्षेत्र की समस्याओं का समाधान करने की क्षमता का विकास ही सच्ची धार्मिकता है। इसी विशेषता के कारण धर्मतत्त्व को मानव जीवन में सम्मान और उच्चस्थान मिला है। इस मौलिकता से विरत होकर तो वह अनुपयोगी बन जाता है।

धर्म और ईश्वर के प्रति आस्था होने का तात्पर्य है जीवन की गरिमा और उसकी श्रेष्ठता पर सुदृढ़ विश्वास। इस आस्तिकता के सहारे ही ईश्वर विश्वास विकसित किया और सत्कर्मों में उसकी सहायता मिलने का भरोसा रखा जा सकता है। आस्तिकता के माध्यम से आत्म गौरव और आत्म विश्वास विकसित किया और सत्कर्मों में उसकी सहायता मिलने का भरोसा रखा जा सकता है। आस्तिकता के माध्यम से आत्म गौरव और आस्तिकता के माध्यम से आत्म गौरव और आत्म विश्वास बढ़ाते हुए आत्मावलम्बन की दिशा में आगे बढ़ा और आत्म निर्भर रहा जा सकता है। धार्मिकता का तत्त्वज्ञान हमें कर्तव्य परायण बने रहने और जीवन संग्राम के हर मोर्चे पर आदर्शों की लड़ाई लड़ने का शौर्य साहस प्रदान करता है। क्या यह उपलब्धियाँ जीवन को सार्थक बनाने के लिए पर्याप्त नहीं हैं? धर्म और अध्यात्म को पलायनवाद का पर्याय क्यों बनाया जाय, जब कि उसमें सज्जनता, शालीनता एवं प्रखरता प्रदान करने वाली विभूतियाँ आदि से अन्त तक भरी पूरी हैं। यह मानकर चलना चाहिए कि अगले दिनों अनेक क्षेत्रों की सफाई अवांछनीयताओं की निष्कासन प्रक्रिया की तरह धर्म-अध्यात्म के क्षेत्र में श्री महाकाल बुहारी लगाएगा व मात्र वे ही अपना अस्तित्व बनाये रख सकेंगे जिनका आधार आदर्शवादी कर्मनिष्ठा, ब्रह्मपरायण चिंतन व जीवन है।

(अखंड ज्योति-12/1990)

कोई टिप्पणी नहीं: