ईश्वर को केवल शुद्ध-हृदय ही स्वीकार है.


ईश्वर को केवल
शुद्ध-हृदय ही स्वीकार है.

यजुर्वेद मंत्र 40/8 में ईश्वर के स्वरूप अलौकिक गुणों आदि का वर्णन किया है। मंत्र में परमेश्वर के 'शुद्धम् अपापविद्धम्' ये दो गुणों का भी वर्णन है। 'शुद्धम्' का अर्थ है अविद्या, अस्मिता, राग-द्वेष, अभिनिवेश इन दोषों से तथा रजोगुण, तमोगुण, सतोगुण आदि प्रकृति के प्रभाव से जन्म-मृत्यु आदि दोषों से परे है। 'अपापविद्धम्' का अर्थ है जो कभी भी पाप से युक्त अथवा पाप करने वाला नहीं है। वह पाप और पापी को भी नहीं प्रेम करता। इससे यह सिद्ध है कि ईश्वर को प्राप्त करना जो मनुष्य योनि का धर्म है उसे प्राप्त करने के लिए मनुष्य को भी वैदिक मार्ग पर चलकर शुद्धता रखना और पाप कर्म से सदा दूर रहना आवश्यक है। उक्त मंत्र में ईश्वर को प्रजा के लिए वेद के द्वारा भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों उपदेश देने वाला भी कहा है।

चारों वेदों में ईश्वर ने प्रत्येक मनुष्य को विद्वानों द्वारा वेद सुनने, उसे तत्त्व से जान लेने की आज्ञा दी है, पिछले युगों में तो जब मनुष्य द्वारा वर्तमान में बनाए हुए पूजा-पाठ आदि के मार्ग नहीं थे तब घर-घर में वेद विद्या का प्रकाश था और सभी नर-नारी संयमी, सत्यवादी और पाप कर्म से सदा दूर रहने वाले थे। वाल्मीकि रामायण में इस विषय में स्पष्ट किया है कि घर-घर में वेद विद्या आचरण में होने के कारण स्वयं राजा दशरथ वेदार्थ को जानने वाले थे। फलस्वरूप उनके राज्य में मनुष्य प्रसन्न, धर्मात्मा, बार-बार वेद सुनने वाले, अपने-अपने धन से संतुष्ट, निर्लोभ और सत्यवादी थे। ऐसा कोई नहीं था जो गरीब हो, कोई भी मनुष्य कामी, कंजूस, निर्दयी, मूर्ख और नास्तिक नहीं था, सब जितेन्द्रिय थे। ऐसा कोई भी न था जो वेद मंत्रों से यज्ञ न करता हो, इत्यादि। और इसी कारण हमारा भारतवर्ष 'सोने की चिडिय़ा एवं 'विश्वगुरू' कहलाता था। परंतु यह दुर्भाग्य है कि स्वयंभू साधु-सन्तों ने वेद विद्या को कठिन बताकर इसकी ओर से जनता का मुख मोड़ दिया। अब जो ईश्वर का नियम है कि वेद विद्या के बिना शुद्धिकरण नहीं हो सकता, पाप बढ़ते हैं। अत: तथाकथित कई संतों का जीवन कलंकित रहा है और जनता में इन्द्रियों पर संयम नियम न होने के कारण छोटी-छोटी बच्चियों से भी दुष्कर्म होने की घटनाओं ने जनता में भयावह वातावरण को अंजाम दिया है। ये सब घर-घर में पहले युगों की भांति वेद-विद्या का प्रकाश न होने के कारण हुआ है क्योंकि वर्तमान में मनुष्यों द्वारा बनाए अपनी भक्ति के मार्ग बहुत है और साधु संतों द्वारा बताए भक्ति मार्ग भी बहुत हैं और घर-घर ऐसी भक्ति भी बहुत है। परंतु वेद विद्या के अभाव में इन्द्रियों पर संयम नग्न प्राय: है और दुष्कर्म, चोरी-डकैती, गुंडागर्दी, दलित जो वास्तव में हम जैसे इंसान ही हैं उन पर अत्याचार, भ्रष्टाचार आदि अत्यधिक स्तर पर बढ़ता ही जा रहा है।

उपर लिखे यजुर्वेद मंत्र 40/8 के अनुसार ईश्वर मनुष्य को शुद्ध और पाप से परे रहने पर ही प्रेम करता है, सुख देता है अन्यथा दण्डित करता है।

अब प्रश्न यह है कि पाप से अविद्या आदि से दूर रहने का क्या उपाय है ? यजुर्वेद मंत्र 40/7 का भाव है कि जो वेद मार्ग पर चलकर ठीक-ठाक योगाभ्यास द्वारा उस सृष्टि रचयिता एक परमेश्वर का दर्शन करते हैं वह ही मोह, शोक आदि का त्याग करते हैं। ऋग्वेद मंत्र 10/31/1 का भाव है कि जो साधक परमात्मा की नित्य वेदानुसार प्रार्थना, स्तुति और उपासना करते हैं, यज्ञ-अग्निहोत्र करते है, पश्चात् ईश्वर प्राप्त योगिजनों द्वारा उपदेश सुनकर उन योगियों के साथ समान धर्मी होते हैं वह ही समस्त पापों को पार कर जाते हैं। अगले मंत्र 3 का भाव है कि इस प्रकार वेद मार्ग पर चलकर अष्टांग योग की साधना तथा उन यति-योगियों का संग और उनसे योग विद्या प्राप्त करके शुद्ध योग बुद्धि से दुष्कर्म-पाप आदि कर्म कभी नहीं होते और ऐसी बुद्धि प्राप्त हो जाने पर ध्यान लगता है और समाधिप्राप्त करके साधक योगी संसार सागर से तर जाता है। अब गहन विचार का विषय यह है कि क्या आज भारतवर्ष में कोई साधु-संत अथवा कोई साधक इस वैदिक पद्धति पर चलता है, स्वयं की इन्द्रियों को वश में रखने का उपदेश देता है? जैसे कि यजुर्वेद मंत्र 19/39 में परमेश्वर से भी प्रार्थना है और वेदों के ज्ञाता विद्वान् ज्ञानी पुरूष से भी प्रार्थना है कि मुझको वेद विद्या के दान से पवित्र करें जिससे ध्यान द्वारा हमारी बुद्धियां पवित्र हों। जैसा उपर भी कहा यदि मनुष्य वेद के ज्ञाता विद्वानों से संपर्क नहीं रखता और उनके आश्रम में रहकर वेद मार्ग पर चलते हुए योग-विद्या आदि नहीं सीखता तो इन्द्रियां पवित्र हो ही नहीं सकती मनुष्य पाप करने पर विवश होगा ही होगा। मनुष्य जब विषय विकार के वातावरण में फंस जाएगा तो वह पाप कर्म करेगा ही करेगा जैसा कि आजकल समस्त जगत् में हो रहा है। अत: पिछले युगों की भांति शुद्ध वातावरण स्थापित करने के लिए विद्वानों से वेद ज्ञान प्राप्त करना ईश्वर ने आवश्यक कहा है। क्योंकि जिसकी इन्द्रियां वश में नहीं वह पाप कर्म अवश्य करता है और उपर कहे वेद मंत्रों के अनुसार ईश्वर ऐसे पापियों का तिरस्कार करता है और दण्ड देता है परंतु शायद ऐसे ही तिरस्कार करने वाले साधु हों, संत हों, नेता हो, जनता के नुमायंदे हों, जनता के साथ रहने वाले जन हों ये ही अपने-आप को साधु-संत, सेवक आदि अनेक नामों से सुशोभित करते हुए जनता को धोखा देते हैं। हमें वैदिक मार्ग अपनाने की आवश्कता है फलस्वरूप ही पापों का नाश होगा।


(योगेन्द्र जी)

प्रकृति के विलक्षण अंकन.


प्रकृति के विलक्षण अंकन.

रेगिस्तानों में जब तेज हवा चलती है, तब वह टीलों को एक जगह से दूसरी जगह उड़ा ले जाती है। समतल को ऊबड़ खाबड़ और ऊबड़ खाबड़ को समतल कर देती है। पर यह उथल पुथल होते बेसिलसिले ही हैं। उसे प्रकृति का साधारण खेल भी माना जाता है और दूसरी ओर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया जाता।

पर आश्चर्य तब होता है जब हवाएं किसी विशेष क्रम से चलती हैं और बालू पर अपने विशेष प्रकार के निशान बनाती चली जाती हैं। नात्का, पेरू आदि के रेगिस्तानों में यह कौतूहल विशेष रूप से दृष्टिगोचर होता है। उन क्षेत्रों में जब तेज हवाएं चलती हैं तब वे चित्र विचित्र ढंग से अपनी गति बदलती हैं। कभी सीधी चलती हैं। कभी टेड़ी तिरछी कभी लहराती हुई। बालू के कण उनसे प्रभावित होते हैं। फलतः मीलों लम्बे घेरे में भूमि पर ऐसी रेखाएं बन जाती हैं मानो किसी गणितज्ञ ने रुचिपूर्वक नाप तौलकर ज्यामिती के आधार पर उन्हें बनाया हो और इस समूचे क्षेत्र को रहस्यमय कलाकारिता की पृष्ठभूमि में सजाया गया हो। आकृतियाँ इतनी अजीबोगरीब इतनी आकर्षक होती हैं कि दर्शक का मन मोह लेती हैं और प्रकृति की इस कलाकारिता को वह स्तब्ध होकर देखता रह जाता है। इस क्षेत्र में कितने ही दर्शक दूर देशों से इसी निमित्त आते हैं कि प्रकृति विनिर्मित इस कलात्मक संरचना को देखें और दृश्यों की विभिन्नता का आनन्द लूटें।

विगत आधी शताब्दी से इन कृतियों के रहस्य खोजे जा रहे हैं और किसी निष्कर्ष पर पहुँचने का प्रयत्न किया जा रहा है पर अभी तक कुछ तुक बैठा नहीं है। रहस्य तब और भी गहरा हो जाता है जब बालू और कंकड़ों से मिलकर बंदर, रीछ, बैल, भेड़ जैसे छोटे और गुलाई लिए हुए जानवरों की अनुकृतियाँ बनकर खड़ी हो जाती हैं। दूर से फोटो लेने पर वे जीव जन्तु ही प्रतीत होते हैं। पर भेद तब खुलता है जब उन्हें निकट जाकर देखा जाता है।

इस अजूबे के शोधकर्ता जर्मन वैज्ञानिक मारिया रीच ने इसी प्रयोजन की तह तक पहुँचने के लिए उनमें अपना डेरा डाला है और यह जानने का प्रयत्न किया है कि आखिर होता ऐसा क्यों है।

इन विचित्र रेखाओं का एक विशेष नामकरण किया गया है “नाज्का” इनके साथ कौतूहल ही नहीं वरन् ज्योतिष विज्ञान की भी कितनी ही तुकों का समावेश होता है। एक क्षेत्र में किसी विशेष मास में निश्चित तारीख को नियत रेखाएँ बनती हैं। जिन्हें उन दिनों के कार्यक्रम तथा भविष्य की जन्म कुण्डली कहा जा सकता है। इस आधार पर यह सोचा गया है कि यह अंकन विश्व के विभिन्न समूह क्षेत्र से संबन्धित भूतकालीन एवं भावी घटनाक्रमों को अंकन करते हैं जिसका रहस्य पढ़ लिये जाने पर यह जाना जा सकेगा कि प्रकृति अपने ढंग से अपनी भाषा में अपनी कलम से कुछ विचित्र लेखन करती है। पढ़े लिखों की तरह मनुष्यों से कहती है कि “क्या तुम इस अविज्ञात का अर्थ बता सकने जितना पढ़ लिख गये हो?”

संसार में अन्यत्र भी ऐसे क्षेत्र हैं जिनमें धरती की पट्टी पर बहुत कुछ रहस्यमय लिखा है। मिस्री रेगिस्तान में कई जगह हंसने रोने या गाने जैसी आवाजें बालू में से निकलती हैं। पर उनकी गतिविधियाँ तीव्र होना वायुवेग के ऊपर निर्भर रहता है।

नाज्का रेखाएँ 4 से 18 इंच तक ऊँची उठी हुई देखी गई हैं और उनसे बने हुए खिलौनों की ऊँचाई 90 फुट से लेकर 400 फुट तक ऊँची देखी गई है।

वाशिंगटन विश्व विद्यालय एवं ब्रिटेन के खगोल शास्त्रियों ने उस क्षेत्र में पाई जाने वाली चट्टानों पर देखे गये अंकनों में पृथ्वी का आदिम काल से अद्यावधि घटित हुए घटनाक्रम का विवरण तैयार करने का प्रयत्न आरम्भ किया है।

कैसी विचित्र है प्रकृति की रहस्यमयी भाषा और लेखनी! कौन समझ पायेगा उसके पग-पग पर बिखरे चित्र विचित्र रहस्यों को।

(अखंड ज्योति 8/ 1986)


स्वामी रामतीर्थ की संयम-निष्ठा.


स्वामी रामतीर्थ
की संयम-निष्ठा.

स्वामी रामतीर्थ की ख्याति अमेरिका में दिनोंदिन बढ़ती जा रही थी। लोग उन्हें 'जिन्दा मसीहा' कहते थे और वैसा ही आदर-सम्मान भी देते थे। कई चर्चों, क्लबों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में व्याख्यान देने के लिए उन्हें बुलाया जाता था।

उनके व्याख्यानों में बहुत भीड़ होती थी। बड़े-बड़े प्राध्यापक, दार्शनिक, वैज्ञानिक, वकील, धार्मिक जनता और पादरी इत्यादि सभी प्रकार के लोग उनके विचार सुनने के लिए आया करते थे। कभी-कभी तो इतनी भीड़ हो जाती थी कि हॉल में खड़े होने तक की जगह नहीं रहती थी। इस भीड़ में पुरुष-महिलाएँ सभी सम्मिलित होते थे। कभी-कभी पुरुषों से महिलाएँ अधिक हो जाया करती थीं, जो बहुत ध्यान से स्वामीजी का व्याख्यान सुनती थीं।

व्याख्यान के अंत में स्वामी रामतीर्थ श्रोताओं के प्रश्नों के उत्तर भी देते थे।

एक शाम को मनोरिना नाम की एक सुन्दर युवती ने अपने प्रश्नों के लिए स्वामी जी से अलग समय माँगा। स्वामी जी ने दूसरे दिन सुबह मिलने को कहा।

दूसरे दिन वह युवती स्वामी रामतीर्थ से मिलने के लिए उनके निवास स्थान पर आयी। उसने स्वामी जी से कहाः "मैं एक धनी पिता की पुत्री हूँ। मैं संसार भर में आपके नाम से कॉलेज, स्कूल, पुस्तकालय और अस्पताल खोलना चाहती हूँ। सारी दुनिया में आपके नाम से मिशन खुलवा दूँगी और प्रत्येक देश तथा नगर में आपके वेदांत के प्रचार का सफल प्रबंध करवा दूँगी।"

स्वामी रामतीर्थ ने उसके उत्तर में इतना ही कहा कि "दुनिया में जितने भी धार्मिक मिशन है, वे सब राम के ही मिशन हैं। राम अपने नाम की छाप से कोई अलग मिशन चलाना नहीं चाहता क्योंकि राम कोई नयी बात तो कहता नहीं है। राम जो कुछ कहता है, वह शाश्वत सत्य है। राम के पैदा होने से हजारों वर्ष पूर्व वेदों और उपनिषदों ने दुनिया को यही संदेश सुनाया है, जो राम आप लोगों के समक्ष यहाँ अमेरिका में प्रस्तुत कर रहा है। नाम तो केवल एक ईश्वर का ही ऐसा है, जो सदा-सदा रहेगा। व्यक्तिगत नाम तो ओस की बूँद की तरह नाशवान है।"

उस युवती ने जब बार-बार खैराती अस्पताल और कॉलेज इत्यादि खोलने तथा भारतीय विद्यार्थियों की सहायता की बात कही, तब स्वामी रामतीर्थ ने बहुत शांतिपूर्ण ढंग से पूछा कि "आखिर आपकी आंतरिक इच्छा क्या है? आप चाहती क्या हैं?" इस सीधे प्रश्न पर उस युवती ने स्वामी रामतीर्थ को घूरकर देखा, कुछ झिझकी व शर्मायी। फिर रहस्यमय चितवनि से देखकर मुस्करायी और बोली कि "मैं कुछ नहीं चाहती। केवल मैं अपना नाम मिसेज राम लिखना चाहती हूँ। मैं आपके नजदीक-से-नजदीक रहकर आपकी सेवा करना चाहती हूँ। बस, केवल इतना ही कि आप मुझे अपना लें।"

स्वामी रामतीर्थ अपने स्वभाव के अनुसार खिलखिलाकर हँस पड़े और बोलेः "राम न तो मास्टर है, न मिस। न मिस्टर है, न मिसेज। जब राम मास्टर ही नहीं तो उसकी मिसेज होने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता !"

वह युवती लज्जित होकर व्याकुल हो उठी। उसकी प्यारभरी एक मुस्कराहट से अन्य लोग अपनी सुध खो बैठे थे और यह भारतीय स्वामी उसकी प्रार्थना का यों अनादर कर रहा है! वह खीझकर बोलीः "जब तुम मास्टर और मिस्टर कुछ नहीं हो तो तुम क्या हो ?"

स्वामी रामतीर्थ फिर मुस्कराये और बोलेः "राम एक मिस्ट्री है, एक रहस्य है।" वह युवती अब बिल्कुल बौखला उठीः "नहीं, नहीं राम ! मैं फिलॉस्फी नहीं चाहती। मैं तुम्हें दिल से प्यार करती हूँ। मुझे आत्महत्या से बचाओ। मैं तुमसे नजदीक का रिश्ता चाहती हूँ।"

स्वामी रामतीर्थ शांतिपूर्वक बोलेः "ठीक है, मुझे मंजूर है।" युवती के चेहरे पर खुशी की लहर दौड़ गयी। स्वामी रामतीर्थ ने कहा कि "मैं तुमसे नजदीक-से-नजदीक तो हूँ ही। कहने को हम दोनों अलग-अलग दिखायी देते हैं किंतु आत्मा के रिश्ते से हम तुम दोनों एक ही हैं। इससे और ज्यादा नजदीक का रिश्ता क्या हो सकता है !" युवती इस उत्तर से पागल हो उठी। वह कहने लगीः "फिर वही फिलॉस्फी !" उसने परेशानी दिखलाते हुए कहा कि "मैं आत्मा का रिश्ता नहीं चाहती। मैं तुमसे शारीरिक नजदीकी का (हाड़-मांस का) रिश्ता चाहती हूँ। राम ! मुझे निराश मत करो। मैं तुमसे प्यार की भीख माँगती हूँ। बस, और कुछ नहीं।"

स्वामी रामतीर्थ शांत भाव से बैठे थे। वे तनिक भी विचलित नहीं हुए। उन्होंने कहाः "जानती हो हाड़ और मांस का नजदीक-से-नजदीक का रिश्ता माँ और बेटे का ही होता है। माँ के खून और हाड़-मांस से बेटे का खून और हाड़-मांस बनता है। बस, आज से तुम मेरी माँ हुई और मैं तुम्हारा बेटा।"

यह उत्तर सुनकर युवती ने अपना माथा पीट लिया और बोलीः "आपने पूर्णरूप से परास्त कर दिया। राम ! तुम्हारा दिल पत्थर का है। सचमुच मैं पागल हो जाऊँगी ! मैं क्या करूँ स्वामी ! मैं क्या करूँ ?" युवती ने अपनी दोनों हथेलियाँ अपनी दोनों आँखों पर रखीं और फूट-फूटकर रोने लगी। उधर स्वामी रामतीर्थ ने भी अपनी आँखें बंद कर लीं और वे समाधिस्थ हो गये। जब उनकी समाधि खुली तो उन्होंने देखा कि वह युवती कमरे से बाहर जा चुकी थी।

उस घटना के पश्चात वह युवती बराबर स्वामी रामतीर्थ के व्याख्यानों में आती तो रही, किंतु दूर एक कोने में बैठकर रोती रहती थी। एक दिन स्वामी रामतीर्थ ने व्याख्यान के पश्चात उसे अपने पास बुलाकर बहुत समझा-बुझाकर शांत कर दिया। बाद में वह स्वामी रामतीर्थ की भक्त बन गई और उनकी इण्डो-अमेरिकन सोसाइटी की एक प्रमुख संरक्षक भी रही।

परमात्मा एवं जीवात्मा के बीच आकाश-घटाकाश के सदृश संबंध.


परमात्मा एवं जीवात्मा के बीच
आकाश-घटाकाश के सदृश संबंध.
(माण्डूक्योपनिषद् वचन)

यह नितांत सत्य है कि सभी जीवधारियों का भौतिक अस्तित्व पदार्थ-मूलक है, अर्थात् उनके अस्तित्व की अनुभूति उनके दृश्य या स्पृश्य शरीर के माध्यम से ही होती है। क्या इस भौतिक शरीर से परे भी कोई ऐसी सत्ता है, जो जीव के निर्जीव पदार्थों से भेद का आधार हो? क्या कुछ ऐसा है, जो जीव के दैहिक नाश के बाद भी बचा रहता है, जो स्वयं नष्ट नहीं होता है? अनादि काल से मनुष्य इन प्रश्नों के उत्तर खोजता आ रहा है।

आधुनिक वैज्ञानिक युग में अनेक विज्ञानी, किंतु सभी नहीं, इस मत के हैं कि निर्जीव पदार्थ ही विशिष्ट भौतिक संरचना ग्रहण करते हुए विशेष रासायनिक प्रक्रियाओं के अधीन सजीव रूप धारण कर लेता है। उसकी ‘मृत्यु’ के साथ ही उसके भौतिक ढांचे का आधार ‘पदार्थ’ अपने मूल अवयवों से जा मिलता है और शेष कुछ भी नहीं बचता। अर्थात् उनके मतानुसार देहावसान के बाद ‘अनश्वर’ प्रकृति की कोई सत्ता सृष्टि में नहीं बची रह जाती है। इस धारणा के विपरीत शरीर से परे ‘आत्मा’ या तत्सदृश ‘अविनाशी’ कोई सत्ता बची रहती है, ऐसी धारणा प्रचलित प्रायः सभी दर्शनों में देखने को मिलती है। वैदिक दर्शन में जीवधारी भौतिक पदार्थ और ‘आत्मा’ के संयोग का परिणाम है। यह आत्मा स्वयं सर्वव्यापी अशरीरी परमात्मा का अंश है, लेकिन उससे विभक्त अलग अस्तित्व धारण किये रहती है। अपने मूल ‘परमात्म’ तत्व में उसके विलय को मोक्ष कहा गया है।

‘माण्डूक्य’ उपनिषद् में शरीर, आत्मा, तथा परमात्मा को क्रमशः घट (घड़ा), उसके भीतर सीमाबद्ध आकाश, और बाहर अनंत तक फैले आकाश से तुलना के माध्यम से समझाया गया है। गुरु द्वारा अपने जिज्ञासु शिष्य के समक्ष कही गयी बात अधोलिखित दो श्लोकों में अभिव्यक्त है:


आत्मा ह्याकाशवज्जीवैर्घटाकाशैरिवोदितः ।
घटादिवच्च संघातैर्जातावेतन्निदर्शनम् ।।
घटादीषु प्रलीनेषु घटाकाशादयो यथा ।
आकाशे प्रलीयन्ते तद्वज्जीवा इहात्मनि ।।
(माण्डूक्योपनिषद्, अद्वैतप्रकरण, श्लोक ३ एवं ४)

जिनकी सम्मिलित व्याख्या कुछ इस प्रकार की जा सकती है; जिस प्रकार घड़ों के निर्माण पर आकाश विभक्त हो जाता है और उसके अलग-अलग भाग उन घड़ों के अंदर सीमित हो जाते हैं और ऐसा प्रतीत होने लगता है जैसे कि उनके भीतर का रिक्त स्थान बाहर के विस्तृत आकाश से भिन्न है, उसी प्रकार आत्मा (परमात्मा) पदार्थों के मिलन से जीव रूपों में प्रकट होता है। और घड़ों के टूटकर बिखर जाने पर जैसे उनके भीतर समाये हुए आकाशीय क्षेत्रों का बाह्याकाश से भेद मिट जाता है और वे पुनः बाह्याकाश के साथ एकाकार हो जाते हैं, ठीक वैसे ही जीवात्माएं पदार्थों के संयोग से विमुक्त होकर परम आत्मा में विलीन हो जाते हैं।

यहां यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि वैदिक दर्शन में यह अवधारणा प्रचलित है कि जीवधारी के दो प्रकार के शरीर होते हैं, एक ‘स्थूल शरीर’ और दूसरा ‘लिंग देह’ या ‘सूक्ष्म शरीर’। हमें जीवधारी के अस्तित्व का भान उसके स्थूल शरीर के माध्यम से होता है। यही शरीर है, जिसे वह मृत्यु के समय त्यागता है। मान्यता है कि वह तब भी प्रकृति से सूक्ष्म शरीर के माध्यम से बंधा रहता है। इस सूक्ष्म शरीर में पंचमहाभूत (‘क्षिति जल पावक गगन समीरा’ अर्थात्‌ पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश एवं वायु) सूक्ष्म रूप से विद्यमान रहते हैं; मृत्यु पश्चात् इसी का ‘प्रेत’ रूप में संसार के साथ बंधन बना रहता है; और इसी में जीव के संस्कार संचित रहते हैं। वस्तुतः घटाकाश की जो तुलना यहां प्रस्तुत है, वह इस सूक्ष्म शरीर से संबंधित है, न कि स्थूल शरीर से। यह सूक्ष्म शरीर जन्म-मृत्यु के चक्र में उलझा रहता है और मोक्ष की अवस्था में आत्मा इससे बंधन तोड़कर परमात्मा में प्रलीन हो जाती है।

आत्मा-परमात्मा, सूक्ष्म-स्थूल शरीरों और जन्म-मृत्यु आदि का दर्शन मैं स्वयं नहीं समझ पाया हूं। इतना ही कहूंगा कि वैदिक चिंतकों ने अपने दर्शन को स्पष्ट करने के लिए जो दृष्टांत प्रस्तुत किया है, वह अवश्य मुझे प्रभावी लगा है। वैदिक चिंतक यदा-कदा इस बात पर भी बल डालते रहे हैं कि दृष्टांतों को शब्दशः न लिया जाये।



(योगेन्द्र जी)

कहीं ऐसा तो नहीं कर रहे?


कहीं ऐसा तो नहीं कर रहे?
(स्वामी मनोहर दास ज्ञानतीर्थ)

मूर्ख दो प्रकार के होते हैं; एक मूर्ख, दूसरा पठित मूर्ख। आज मैं आपके सामने मूर्खों ही के लक्षणों का धर्म शास्त्र के आधार पर वर्णन करुँगाक्या आप में भी निम्नाँकित सूक्तियों के लक्षण मिलते हैं? यदि मिलते हों, तो आप अपना भी परिमार्जन करिए और मूर्खता के कलंक से बचकर निर्मल होने का प्रयत्न करिए।

1.  जिसके उदर से जन्म लिया,  ऐसी माता और पिता के साथ विरोध करे,  सर्व परिवार को छोड़ स्त्री में रमा रहे,  अपने गुप्त मत का प्रकाश स्त्री से करे-जो कि उसके दायरे से बाहर की बात है, वह मूर्ख है।

2.  बलवान से बैर करे,  अपने शरीर पर गर्व करे,  बिना बल के सत्ता दिखावे, आत्म स्तुति करे,  दरिद्र स्थिति में रहकर भी बड़ी बड़ी डींगें हाँके,  चिकित्सक एवं सत्ता-धारी से अकारण विरोध करे, वह मूर्ख है।

3.  जेबों में हाथ डाले अकड़ कर बात करे वह मूर्ख है।

4.  बिना कारण हंसे,  अत्यन्त अविवेकी विचार शून्य और बहुतों का शत्रु हो,  उसे मूर्ख जानो।

5.  नीच से मित्रता करे, रात-दिन पर छिन्द्रान्वेषण को तत्पर रहे, वह मूर्ख है।

6.  जहाँ बहुत लोग बैठे हैं, उनके मध्य में जाकर सोना और विदेश में हर व्यक्ति पर बिना जाने विश्वास कर लेना मूर्खता है।

7.  व्यसनों के वश होकर अपनी महत्ता को खो बैठे वह मूर्ख है।

8.  पर आशा से परिश्रम करना छोड़कर जो अकेले पन में आनन्द माने वह मूर्ख है।

9.  घर में बड़े विवेकी बनते हैं, बहुत बोल कर अपने परिवार के भोले जीवों पर अपनी धाक जमाये रखते हैं, एवं स्त्रियों के सन्मुख बहादुरी दिखाते और मौका पड़ने पर पीठ दिखाकर भागते है। स्त्रियों में वक्ता बनते हैं, किन्तु सभा में शर्माते हैं, वे मूर्ख हैं।

10. वृद्धों के सन्मुख ज्ञानीपना प्रकट करे, सात्विक और सरल हृदय के जीवों से छल करे, अपने से श्रेष्ठ के साथ स्नेह करने जाये और उनका उपदेश नहीं माने, वह मूर्ख है।

11. विषयी और निर्लज्ज होकर मर्यादा से बाहर कार्य करता फिरे, रोगी होकर पथ्य का पालन न करे, उसे मूर्ख जानो।

12. विदेश में बिना परिचय किसी का साथ करे और जाने बूझे बिना किसी बड़े नगर (शहर) में जावे, यह लक्षण मूर्खों में ही होते हैं।

13.जहाँ अपमान होता हो वहाँ बारम्बार जाए, बिना पूछे उपदेश देने लगे, वह मूर्ख है।

14. बिना विचारे तनिक अपराध पर भी दंड दे, मामूली-2 बातें में भी कृपा दिखावे, वह मूर्ख है।

15. वास्तविकता को न मानना, शक्ति बिना बड़ी-बड़ी बातें करना, मुख से अपशब्द बोलना मूर्खों ही का काम है।

16. घर में अपनी बड़ी बहादुरी प्रकट करे और बाहर दीन बनकर फिरे उसे मूर्ख जानो।

17. नीच की मित्रता, पर स्त्री के साथ एकान्त और मार्ग चलते खाना मूर्ख के लक्षण है।

18. किसी के किये उपकार को अपकार माने, अपना थोड़ा किया बहुत बतावें, ऐसे कृतघ्न को मूर्ख जानना चाहिए।

19. तामसी, आलसी, मन से कुटिल और अधीर मनुष्य मूर्ख होता है।

20. विद्या, वैभव, धन, पुरुषार्थ, बल और मान बिना मिथ्या अभिमान करने वाला मूर्ख होता है।

21. मलीन रहना दाँत, आँख, हाथ, वस्त्र और शरीर सर्व काल मैले रक्खे, यह कार्य मूर्खों ही के हैं।

22. क्रोध से, अभिमान से और कुबुद्धि से अपना आप ही घात करे, ऐसा अव्यवस्थित चित्त वाला मूर्ख है।

23. अपने सुहृद के साथ बुरा व्यवहार करे, सुख और शान्ति का एक शब्द भी न बोले और नीच जनों की स्तुति करे, वह मूर्ख है।

24. अपने आप को सर्व प्रकार से पूर्ण माने, शरणागत को धिक्कारे, लक्ष्मी और आयु का भरोसा करे, वह मूर्ख है।

25. सांसारिक विषय वासना को ही मुख्य मान कर ईश्वर को भूल जावे, कर्त्तव्य का ज्ञान न हो, वह मूर्ख है।

26. बुरे का संग करे, आँख मींचकर मार्ग चले, पितृ, गुरु देव, माता-पिता, गुरु भाई, स्वामी आदि बड़ों का विरोध करे, वह मूर्ख है।

27. दूसरे को दुख में देख हंसे और सुखी देख कर कुढ़े, गई वस्तु का शोक करे, अपनी प्रतिष्ठा की रक्षा न कर सके, सदा हँसी ठट्ठा करे, हँसते 2 लड़ने लग जाय, उसे मूर्ख जानो।।

विवाह योग.


विवाह योग.
(ज्योतिषीय विचार)

विवाह योग के लिये जो कारक मुख्य है, वे इस प्रकार हैं...

सप्तम भाव का स्वामी खराब है या सही है किन्तु आवश्यक हैं कि वह अपने भाव में बैठ कर या किसी अन्य स्थान पर बैठ कर अपने भाव को देख रहा हों।

सप्तम भाव पर किसी अन्य पाप ग्रह की दृष्टि न हों।

कोई पाप ग्रह सप्तम में बैठा न हों।

सप्तमेश और शुक्र सम राशि में हों।

सप्तमेश बली हों।

यदि सप्तम में कोई ग्रह न होने की स्तिथि में...

किसी पाप ग्रह की दृष्टि सप्तम भाव और सप्तमेश पर न हों।

दूसरे, सातवें, बारहवें भाव के स्वामी केन्द्र या त्रिकोण में हों और गुरु से दृष्ट हों।

सप्तमेश की स्थिति से आगे के भाव में या सातवें भाव में कोई क्रूर ग्रह न हों।

विवाह नही होगा यदि...

सप्तमेश शुभ स्थान पर न हों।

सप्तमेश छ:, आठ या बारहवें स्थान पर अस्त होकर बैठा हों।

सप्तमेश नीच राशि में हों।

सप्तमेश बारहवें भाव में हों और लगनेश या राशिपति सप्तम में बैठा हों।

चन्द्र शुक्र साथ हों और उनसे सप्तम में मंगल और शनि विराजमान हों।

शुक्र और मंगल दोनों सप्तम में हों।

शुक्र मंगल दोनो पंचम या नवें भाव में हों।

शुक्र किसी पाप ग्रह के साथ और पंचम या नवें भाव में हो।

शुक्र बुध शनि तीनो ही नीच हों।

पंचम में चन्द्र हो, सातवें या बारहवें भाव में दो या दो से अधिक पापग्रह हों।

सूर्य स्पष्ट और सप्तम स्पष्ट बराबर का हो।

विवाह में देरी.

सप्तम में बुध और शुक्र दोनो के होने पर विवाह की बातें चलती तहती है, किन्तु विवाह आधी उम्र में होता है।

चौथा या लगन भाव मंगल (बाल्यावस्था) से युक्त हो, सप्तम में शनि हो तो कन्या की रुचि शादी में नही होती है।

सप्तम में शनि और गुरु शादी देर से करवाते हैं।

चन्द्रमा से सप्तम में गुरु शादी देर से करवाता है, यही बात चन्द्रमा की राशि कर्क से भी माना जाता है।

सप्तम में त्रिक भाव का स्वामी हो, कोई शुभ ग्रह योगकारक नही हो, तो पुरुष विवाह में देरी होती है।

‘सूर्य’ मंगल, लग्न या राशिपति को देखता हो,और गुरु बारहवें भाव में बैठा हो तो आध्यात्मिकता अधिक होने से विवाह में देरी होती है।

लग्न में, सप्तम में और बारहवें भाव में गुरु या शुभ ग्रह योग कारक नही हों,परिवार भाव में चन्द्रमा कमजोर हो तो विवाह नही होता है,अगर हो भी जावे तो संतान नही होती है।

महिला की कुन्डली में सप्तमेश या सप्तम, शनि से पीडित हो तो विवाह देर से होता है।

राहु की दशा में शादी हो,या राहु सप्तम को पीडित कर रहा हो,तो शादी होकर टूट जाती है,यह सब दिमागी भ्रम के कारण होता है।

विवाह का समय.

सप्तम या सप्तम से सम्बन्ध रखने वाले ग्रह की महादशा या अन्तर्दशा में विवाह होता है।

कन्या की कुन्डली में शुक्र से सप्तम और पुरुष की कुन्डली में गुरु से सप्तम की दशा में या अन्तर्दशा में विवाह होता है।

सप्तमेश की महादशा में पुरुष के प्रति शुक्र या चन्द्र की अन्तर्दशा में और स्त्री के प्रति गुरु या मंगल की अन्तर्दशा में विवाह होता है।

सप्तमेश जिस राशि में हो, उस राशि के स्वामी के त्रिकोण में गुरु के आने पर विवाह होता है।

गुरु गोचर से सप्तम में या लग्न में या चन्द्र राशि में या चन्द्र राशि के सप्तम में आये तो विवाह होता है।

गुरु का गोचर जब सप्तमेश और लगनेश की स्पष्ट राशि के जोड में आये तो विवाह होता है।

सप्तमेश जब गोचर से शुक्र की राशि में आये और गुरु से सम्बन्ध बना ले तो विवाह या शारीरिक सम्बन्ध बनता है।

सप्तमेश और गुरु का त्रिकोणात्मक सम्पर्क गोचर से शादी करवा देता है,या प्यार प्रेम चालू हो जाता है।

चन्द्रमा मन का कारक है और वह जब बलवान होकर सप्तम भाव या सप्तमेश से सम्बन्ध रखता हो तो चौबीसवें साल तक विवाह करवा ही देता है।

अचानक लुप्त होने वाली वस्तुएँ.


अचानक लुप्त
होने वाली वस्तुएँ.

मनुष्य भूल वश अपनी वस्तुओं को खोता गँवाता तो रहता ही है पर कई बार ऐसी घटनाएँ घटित होती हैं जिनमें गायब हुई वस्तु के बारे में यह नहीं कहा जा सकता कि वह रास्ते में कहीं छूट गई होगी या किसी ने चुरा लिया होगा।

भारी चीजें धीरे-धीरे गुम हों तो यह अनुमान भी लगाया जा सकता है कि किसी ने उन्हें काटपीट कर कहीं से कहीं पहुँचाया होगा, पर उसमें भी समय तो लगेगा ही और जहाँ ले जायी गई है वहाँ तक कोई पद चिन्ह सुराग तो मिलेगा ही पर जब ऐसा कुछ नहीं होता और भारी चीजें यकायक लुप्त हो जाती हैं तो उनका बुद्धि संगत समाधान नहीं सूझता और उसके पीछे कोई देव-दानव काम करता प्रतीत होता है ऐसी आश्चर्यजनक घटनाएँ भूतकाल में भी होती रही हैं और कभी-कभी अभी भी घटित होती हैं।

बरमूडा त्रिकोण के सम्बन्ध में प्रसिद्ध है कि उस क्षेत्र में से गुजरने वाले अनेकों जलयान एवं वायुयान खो चुके हैं। साधारण खोजबीन से पता न चला तो वैज्ञानिकों ने अन्तरिक्ष सम्बन्धी रहस्यों को आधार बनाया और इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि इस क्षेत्र में किसी छोटे ‘ब्लैक होल’ का प्रभाव होना चाहिए। बड़ा ब्लैक होल तो समूची पृथ्वी को भी निगल सकता है। मृत तारों का प्रेत ब्लैक होल बन जाता है उसके मुँह में जो भी समाता है उसे निगल लेता है। उसका अन्त कहाँ है? इसके बारे में अभी कोई निर्णय नहीं हो सका।

किन्तु छुटपुट स्थानों से जब बड़ी वस्तुओं के गायब होने के समाचार मिलते हैं तो ब्लैक होल की करतूत उसे नहीं कहा जा सकता। क्योंकि उसका मुँह चौड़ा होता है और एक दायरे की समूची वस्तुओं का प्रचण्ड चक्रवात की तरह उड़ा ले जाता है पर कम वस्तुओं की, कम घेर की वस्तुओं के सम्बन्ध में वैसा अनुमान नहीं लगाया जा सकता।

सेन्ट न्याटस के गैरिज से 16 फुट लम्बा एक केबिन जहाज गुम हो गया। उसे कौन ले गया? कहाँ ले गया? कैसे ले गया? इसकी मुद्दतों तलाशी होती रही पर कुछ पता न चला।

एक जलयान गुम होने की ऐसी ही घटना इसी प्रकार की और घटी। एक 16 हजार टन का जहाज 211 यात्रियों को लेकर रवाना हुआ। लाइफ वोट आदि का पूरा सुरक्षा सामान साथ था। सूचना देने के रेडियो यंत्र भी। पर वह बिना कोई सूचना दिये, बिना एक आदमी के जीवित बचे, अचानक गायब हो गया। सम्भावित क्षेत्र की गहराई में उसके मलबे की तलाश की गई पर इस घटना का कोई सूत्र हाथ न लगा।

इसके कुछ ही समय पश्चात् सन् 1872 की घटना है। यह जहाज मिसीसिपी बन्दरगाह से रवाना हुआ था। इस व्यापारी जहाज में कपास लदा था और 88 यात्री भी सवार थे। कुछ दूर चलने के बाद वह भी यकायक गुम हो गया। अग्निकाण्ड जैसी दुर्घटना का भी कोई चिन्ह कहीं नहीं था। एक शताब्दी तक सब स्तर की खोज चलती रही बाद में भी निराश होकर उसकी खोज फाइल बन्द करनी पड़ी।

अबरैल नदी में एक 35 फुट लम्बा जलयान एक नाविक ने खाली बहता हुआ देखा। वह अपनी डोंगी लेकर उस तक पहुँचा और चढ़ने पर देखा कि उसमें न तो कोई सामान है और न व्यक्ति। वह उसे किसी प्रकार घसीटता हुआ निकटवर्ती नगर तक लाया। और पुलिस को सौंप दिया। पुलिस ने सभी साधनों से संसार भर के सभी देशों को इस सम्बन्ध में सूचना दी। पर उसके मालिक का कोई पता न चलने पर उस पकड़ने वाले नाविक की सुपुर्दगी में तब तक के लिए छोड़ दिया जब तक असली मालिक का पता न चले। फिर पता चला ही नहीं।

सन् 1945 में पाँच बम वर्षक प्रशिक्षण की उड़ानों पर उड़ रहे थे। अचानक कन्ट्रोल रूम से उन सभी का सम्बन्ध टूट गया और वे कहाँ गये इसका किसी भी प्रकार पता नहीं चला। हवाई जहाजों के एक बड़े बेड़े ने भी उनका समूचा मार्ग छान मारा पर कहीं कोई पता नहीं चला।

ऐसी ही एक विचित्र घटना आक्सफोर्ड शायन की है। उस क्षेत्र में जमीन के नीचे एक बड़ी नाली बनाई जा रही थी इस निमित्त एक खास जगह के लिए 6 टन भारी पत्थर की आवश्यकता हुई और उसे काट-छाँटकर काम योग्य बनाया गया। कई दिनों ढूंढ़ने और जासूस छोड़ने के उपरान्त भी जब कुछ पता न लगा तो उसे ढूंढ़ने के लिए 5 हजार का सरकारी इनाम घोषित किया गया फिर भी उसकी कोई जानकारी न मिल सकी। गुम सो गुम।

18वीं सदी की सबसे बड़ी चोरी वह है जिसमें स्पेनिश युद्ध में लड़ने वाले सैनिकों की एक पूरी कम्पनी ही गायब हो गई। उसमें चार हजार सैनिक थे। रात को अच्छे-भले सोये पर सवेरे उनका कोई अता-पता न लगा। न भागने का कोई चिन्ह था। न शत्रु पक्ष से मिलने का। शत्रु पक्ष से संपर्क मिलाया तो उसने भी इस सेना के सम्बन्ध में कोई जानकारी न होने का उत्तर दिया। सेना का कैम्प पियरेनीस के बाद दूसरे दिन मार्चकिन में पड़ाव डाले थे। सैनिकों के घरों पर इन्क्वायरी की गई तो इस कम्पनी का एक भी आदमी अपने घर परिवार में नहीं लौटा था।

इस प्रकार की छूटपुट घटनाएँ तो होती रहती हैं पर उन्हें मनुष्य कृत चोरी छिपे की घटना माना जाता है, पर ऐसी घटनाएँ जिसमें जमीन में समा जाने या आकाश में उड़ जाने भर की कल्पना की जा सके कदाचित ही कभी-कभी घटित होती है।

उड़न तश्तरियों के सम्बन्ध में कभी-कभी अवश्य सुना जाता है कि वे जीवित मनुष्यों या बहुमूल्य उपकरणों को अन्तरिक्ष में पृथ्वी सम्बन्धी जानकारियाँ अधिक विस्तारपूर्वक जानने के लिए उड़ा ले जाती हैं। कहा जाता है। कि विकसित सभ्यता वाले किसी अन्य लोकवासी पृथ्वी के सम्बन्ध में विशेष दिलचस्पी रखते हैं। वे पहले भी यहाँ आते रहे हैं और अपने आगमन के प्रमाण छोड़ते रहे हैं। इस आधार पर कल्पना की जाती है कि उपरोक्त घटनाओं में उसका हाथ रहा हो। ऐसा है कि अन्तरिक्ष में पड़ने वाले वायुमंडलीय या विद्युत चुम्बकीय भँवरों की कोई लहर इस तरह अपनी चपेट में लेकर उसका अस्तित्व विलुप्त कर देती हो।

पर यह सभी कल्पनाएं हैं। मानवी सूझ-बूझ और खोजबीन की भी एक छोटी सीमा है और उससे बाहर भी बहुत कुछ होता रहता है अभी तो इतना ही कहा जा सकता है।

(अखंड ज्योति 1/1986)


छल-पूर्वक ऋषि से संबंध बनाने पर अप्सरा को दंड.


छल-पूर्वक ऋषि से संबंध
बनाने पर अप्सरा को दंड.

चैत्र महीने की कृष्ण पक्ष की एकादशी को पाप मोचिनी एकदशी कहा गया है। यानी यह एकादशी मनुष्य के कई प्रकार के पापों का नाश करने वाली है। इस बात का उल्लेख स्वयं नारद मुनि ने पद्म पुराण में किया है। इस एकादशी के विषय में पुराण में रोचक कथा मिलती है।

तदनुसार एक ऋषि थे, जिनका नाम था ‘मेधावी’ अपने नाम के अनुसार ही ऋषि बहुत ही ज्ञानी और तेजस्वी थे। इनकी तपस्या को देखकर देवराज इंद्र घबरा गए और मंजुघोषा नाम की अप्सरा को इनका तप भंग करने के लिए भेजा। अप्सरा ने अपने भाव-भाव और रूप से मेधावी ऋषि का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर लिया और ऋषि को तपस्या से विमुख कर दिया।

ऋषि मेधावी मंजुघोषा के साथ गृहस्थी बसाकर साथ रहने लगे। जब कई वर्षों तक ऋषि और अप्सरा प्रेम में डूबे रहे तो देवराज इंद्र ने मंजुघोषा को वापस स्वर्ग आने का आदेश दिया। देवराज इंद्र से आदेश प्राप्त होने के बाद अप्सरा ने ऋषि से वापस स्वर्ग जाने की आज्ञा मांगी। अप्सरा के जाने की बात सुनकर ऋषि की चेतना जगी और उन्हें बोध हुआ कि वह तो देवराज इंद्र और अप्सरा द्वारा छले गए हैं।

ऐसा सोचकर ऋषि बडे़ क्रोधित हुए और उन्होंने अप्सरा को पिशाचिनी होने का शाप दे दिया। शाप मिलते ही अप्सरा घबरा गई और ऋषि से शाप वापस लेने की प्रार्थना करने लगी। अप्सरा की विनती से ऋषि नहीं पिघले और तपस्या के लिए चले गए। इस बीच नारद मुनि वहां पहुंचे और अप्सरा को शाप से मुक्ति के लिए पापमोचिनी एकादशी व्रत करने की विधि और सलाह बताई।

अप्सरा ने विधि पूर्वक इस व्रत का पालन किया और शाप मुक्त होकर वापस स्वर्ग चली गई। पुराण में बताया गया है कि जो इस कथा को सुनता और पढ़ता है उसे हजारों गाएं दान करने का पुण्य प्राप्त होता है। इस व्रत से मनुष्य जाने-अनजाने में हुए कई तरह के पापों से मुक्त हो जाता है।

जो व्रत नहीं करते, वह क्या करें.

जो लोग इस व्रत को नहीं भी रखते हैं, वह इस दिन भगवान विष्णु के मंत्र ‘ओम नमो भगवते वासुदेवाय’ का जप करें और भगवान श्री विष्णु के अवतारों और उनकी लीलाओं की कथाओं का पाठ करें तथा छल, कपट, काम और क्रोध से बचें तो अत्यंत पुण्य की प्राप्ति होती है और मनुष्य पाप मुक्त होकर स्वर्ग में स्थान प्राप्त करता है।

उदारता के साथ सतर्कता भी बनायें रहें.


दाता के साथ
र्कता भी बनायें रहें.

अपने को पवित्र रखें। रीति-नीति में शालीनता का समावेश करें और इसके लिए प्रयत्नरत रहें कि अपनी शालीनता का स्तर गिरने न पाये।

किन्तु साथ ही यह सतर्कता रखने की भी आवश्यकता है कि बरती गई भलमनसाहत का लोग अनुचित लाभ न उठाने पायें। इस संसार में भले लोग कम हैं, बुरे अधिक। बुरे लोग बुरों से टकराकर अपना पराक्रम दिखाने और विजयी बनकर अपनी प्रतिभा का परिचय देने के झंझट में नहीं पड़ते। वरन् यह देखते हैं कि किसी भावुक की सज्जनता को उसकी मूर्खता समझकर अनुचित लाभ कैसे उठाया जाये। सज्जनों को ठग लेना अन्य किसी प्रकार बढ़-चढ़कर लाभ उठाना कठिन है। इसलिए भले लोग ही अक्सर ठगे जाते हैं और कृतघ्नता या विश्वासघात की शिकायत करते हैं।

अपने सज्जनों के साथ बुद्धिमत्ता को भी जोड़कर रखना चाहिए। इतना भावुक या उदारचेता नहीं बनना चाहिए कि किसी की मोहनी बातों में आकर अपने कपड़े उतार दिये जायें और खुद ठण्ड सहकर बीमार पड़ा जाये।

संकटग्रस्तों की सहायता करना उचित है। पर इससे पूर्व यह जाँच पड़ताल करनी चाहिए कि संकट की बात बनावटी तो नहीं है। विपत्ति की बात मनगढ़न्त तो नहीं है। हितैषी बनकर जेब काटने का कोई कुचक्र तो नहीं चल रहा है?

जहाँ वस्तुस्थिति समझने में भूल होती है वहाँ अनावश्यक उदारता भी पीछे पश्चात्ताप बनती है। जेब कटाना और आपत्ति ग्रस्त की सहायता करना दो पृथक बातें हैं। उदारता को सद्गुण माना गया है पर कुपात्रों के बहकावे में आकर अपना सर्वस्व गँवा देना लोक व्यवहार नहीं है।

दुर्जन बनना इसलिए बुरा है कि उससे आत्मा का पतन होता है। व्यक्तित्व का स्तर गिरता है और अप्रामाणिक समझे जाने पर स्नेह सहयोग का रास्ता बन्द होता है। सज्जनता के अनेक गुण हैं। उनके कारण मनुष्य देवोपम एवं श्रद्धा का पात्र बनता है। उसमें बुराई का समावेश तब होता है जब अतिशय भावुकता प्रदर्शित की जाती है और वह सतर्कता चली जाती है जिसकी कसौटी पर कसकर वस्तुस्थिति समझी जाती है।

यथा सम्भव शारीरिक श्रम और मानसिक सत्परामर्श से, सहानुभूति और सेवा भावना को चरितार्थ करने तक ही सीमित रहना चाहिए। आर्थिक लेन-देन का सिलसिला वहाँ से चलाना चाहिए जहाँ वस्तुतः कोई व्यक्ति संकट में घिर गया हो। ऐसी सहायता करते हुए यह आशा नहीं करनी चाहिए कि जो दिया गया है वह वापस लौटेगा। सच तो यह है कि जो अपव्ययी या दुर्गुणी होते हैं वे ही आर्थिक संकट में फंसते और सन्तुलन बिठाने के लिए अनेकों से ऋण या सहायता प्राप्त करने का कुचक्र रचते रहते हैं। उनकी स्थिति कभी ऐसी नहीं बन पाती जो उपकार का बदला चुका सके। इसलिए इन दिनों उदारता के साथ सतर्कता को सम्मिलित रखना भी आवश्यक है।


(अखंड ज्योति 1/1986)

अपनी ऊर्जा को शक्ति में कैसे बदलें?


अपनी ऊर्जा को शक्ति में कैसे बदलें?
(सद्गुरु जग्गी वासुदेव)

हम सभी के भीतर ऊर्जा मौजूद होती है, लेकिन सब लोग इसे व्यक्तिगत शक्ति में नहीं बदल पाते। कहाँ खर्च हो जाती है ये ऊर्जा? और क्या उपाय है इसे शक्ति में बदलने का?

कोई भी इंसान भौतिक, आध्यात्मिक या किसी भी स्तर पर कितना आगे जा सकता है, यह बुनियादी तौर पर इस बात पर निर्भर करता है कि अपने भीतर मौजूद ऊर्जा की कितनी मात्रा वह इस्तेमाल कर सकता है। यहां बहुत सारे ऐसे लोग हैं जिनके पास काफी ऊर्जा है, लेकिन उनके भीतर इतना विवेक या फिर कोई ऐसा सिस्टम नहीं है, जो इस ऊर्जा को एक तरह की निजी शक्ति में बदल दे। शक्ति के बारे में लोगों का यह सोचना उनकी सबसे बड़ी भूल है कि यह दूसरों पर इस्तेमाल करने के लिए है। शक्ति का आशय खुद आपसे है, शक्ति आपके अपने बारे में है। आप के अंदर शक्ति कितनी सक्रिय है, इससे न सिर्फ आपके जीवन की तीव्रता व गहराई तय होती है, बल्कि आप जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में कितने प्रभावशाली होंगे, यह भी तय होता है।

बाहरी चीज़ों को विकसित किया गया है, व्यक्तिगत शक्ति को नहीं. 

आधुनिक समाज में व्यक्तिगत शक्तियों को विकसित करने का बहुत ही कम प्रयास हुआ है, क्योंकि समानता को लेकर हमारी सोच बिल्कुल गलत थी।

यह बड़ी ही अजीब बात है कि आज हमें ये लगता है कि हमारे जीवन की क्वालिटी बैंकों में जमा पैसों से, हमारी गाड़ी व घर के साइज से तय होती है। समानता का मतलब यह नहीं है कि हर किसी को बराबर करने के लिए छांटकर बराबर कर दिया जाए। समानता का मतलब है कि हरेक के पास विकास के समान अवसर हों। अगर आप अपनी सोच में भी हर चीज को एक जैसी बनाने की कोशिश करेंगे तो आप जीवन के हर रूप के अनोखेपन और संभावना को नष्ट कर देंगे। यह बड़ी ही अजीब बात है कि आज हमें ये लगता है कि हमारे जीवन की क्वालिटी बैंकों में जमा पैसों से, हमारी गाड़ी व घर के साइज से तय होती है। आज से हजार साल पहले जब न तो डॉलर थे और न ही गाड़ियां और न ही वैसे घर, जिनमें हम आज रहते हैं तो क्या तब लोग अच्छा जीवन नहीं जीते थे?

राय, विचारों और प्रतिक्रियाओं में बर्बाद करते हैं हम ऊर्जा. 

जीवन में जहां भौतिक रूप से सफल होना, पेशेवर तौर पर सफल होना भी जरुरी है, वहीं मेरी चिंता है कि आप आध्यात्मिक रूप से सफल हों। मगर इसके लिए भी आपको कुछ खास तरह की निजी शक्ति चाहिए। अगर वो शक्ति पानी है तो आपको अपनी ऊर्जाओं का समझदारी से इस्तेमाल करना होगा। आवश्यक समझदारी, बुद्धिमानी व जरूरी साधनों की मदद से ऊर्जा को शक्ति में बदला जा सकता है। वर्ना आपकी ऊर्जा अनंत सोच-विचारों व असंख्य प्रतिक्रियाओं और चिंताओं में बर्बाद हो सकती है। आपने गौर किया होगा कि जब आप किसी दिन ज्यादा चिंतित या परेशान होते हैं, उस दिन आपको ज्यादा थकावट होती है। मैं चाहता हूं कि आप अपनी रोजमर्रा के जीवन पर गौर करें।

एक आसान तरीका अपनाएं

छोटी-छोटी चीजों पर गौर करें। जैसे एक दिन में आप कितने शब्द बोलते हैं? कल जरा इसका अनुमान लगाइए कि सुबह से रात तक आप कितने शब्दों का उच्चारण करते हैं?

अगर आपके भीतर अपनी कोई निजी शक्ति ही नहीं होगी, तो आप दूसरों की राय के मुताबिक ही जिएंगे। तब दूसरों की राय या बात आपको या तो तोड़ देगी या आपको बना देगी। अगले दिन उन्हीं बातों को कहें, लेकिन पिछले दिन की अपेक्षा लगभग आधे शब्दों का इस्तेमाल करके इसे कहने की कोशिश कीजिए। ऐसा करके आप लोगों से संवाद कम नहीं कर रहे, आप अभी भी उनसे संवाद कर रहे हैं, बस आपने शब्दों का इस्तेमाल घटा कर आधा कर दिया है। निश्चित तौर पर इससे भाषा में आपकी कुशलता भी बढ़ेगी। और तब आप देखेंगे कि आपने अपने भीतर निजी शक्ति विकसित कर ली है। अगर आपके भीतर अपनी कोई निजी शक्ति ही नहीं होगी, तो आप दूसरों की राय के मुताबिक ही जिएंगे। तब दूसरों की राय या बात आपको या तो तोड़ देगी या आपको बना देगी। अगर आपमें किसी भी चीज या व्यक्ति को लेकर कोई राय ही नहीं होगी, तो फिर आपको दूसरों की राय की भी कोई परवाह नहीं होगी, क्योंकि उस स्थिति में वह चीज या व्यक्ति आपके दिलो-दिमाग पर हावी नहीं होगा।

अगर कोई व्यक्ति आपसे कमतर है और यह जानकर आप बेहतर महसूस करते हैं तो इसका मतलब है कि आप ताकतवर नहीं, बल्कि बीमार हैं। दूसरों के पास जो नहीं है, उसका आनंद लेना अपने आप में एक तरह की बीमारी है। दरअसल, अगर आप सिर्फ तुलना और राय के भरोसे रहेंगे और आपको लगता है कि जीवन जीने का सिर्फ यही एक तरीका है, तो आप हमेशा उस चीज में आनंद लेंगे, जो दूसरों के पास नहीं है। तब आप उसका आनंद नहीं ले पाएंगे, जो आपके पास है।

खुद को मजबूत बनाएं, सहारे की तलाश छोड़ दें.

मान लीजिए कि आपको यहां रहने के लिए किसी व्यक्ति या चीज की जरूरत नहीं है, तो जीवन जीने का यह सर्वश्रेष्ठ तरीका है। चूंकि यह संभव नहीं है, इसलिए आप उन चीजों का इस्तेमाल करते हैं। कोई बात नहीं। अगर आप खुद चलने में सक्षम नहीं हैं तो आप छड़ी का सहारा लेते हैं, इसमें कोई हर्ज नहीं। लेकिन यह मत सोचिए कि छड़ी ही आपकी ताकत है। यह ताकत नहीं है। आप जो हैं, वही आपकी असली ताकत है। इस शक्ति को बढ़ाने के बजाय हम सहारों को बढ़ाने में लगे हैं। हम अपने लिए बैसाखियों को जुटाने में लगे हैं। आप कब मजबूत कहलाएंगे – जब आप कम से कम मदद के बिना खड़े हो सकें तब, या जब आपको खड़ा होने के लिए हजार पैर वाली मेज की जरूरत हो? अगर आप कम से कम मदद के बिना खड़े हो सकें तो इसका मतलब होगा कि आप मजबूत हैं। इसका मतलब हुआ कि आप कहीं भी जा सकते हैं।

चिंता नहीं, चिंतन करें.


चिंता नहीं,
 चिंतन करें.

व्यक्तित्व का विकास बिना आत्मिक विकास के असंभव है। सच तो यह है कि बिना आत्मा के व्यक्ति कुछ भी नहीं है। आत्मा पहचान है, व्यक्ति की या यूं कहें व्यक्ति आत्मा का खोल है। इसलिए आत्मिक विकास में ही व्यक्ति का विकास छुपा है और आत्मिक विकास के लिए जरूरी है स्वयं का परिचय और आत्मा का बोध। आत्म बोध ही अध्यात्म है और इस पथ पर चलना ही अंतर्यात्रा है। जिसके लिए जरूरी है चिंतन।

बुलंदियों का आसमान छूने वाले एक करोड़पति को भी चिंताएं घेर सकती हैं। लेकिन एक विकसित एवं रूपांतरित आदमी की कोई चिंताएं नहीं होती क्योंकि उसके विचार, उसकी चिंताएं, चिंतन से होकर गुजरते हैं। विचार जब चिंता से गुजरते हैं तो जीवन चिता तुल्य हो जाता है और जब चिंतन से गुजरते हैं तो मुक्ति का माध्यम बन जाते हैं। चिंता, चिता और चिंतन में मात्र, मात्रा का ही भेद नहीं है बल्कि अर्थ का भी अंतर है।

चिंता का अपना कोई अस्तित्व नहीं है इसे मनुष्य स्वयं इजाद करता है, तभी तो जितने लोग है उतनी चिंताएं है तथा हर इंसान की चिंता की अपनी ही अवधि और अपने ही विषय हैं। तभी तो किसी का दुख किसी के लिए सुख है तो किसी का सुख किसी के लिए दुख है। चिंता सागर की उस सतह के समान है जहां पर सदा उथल-पुथल रहती है, लहरें बनती और बिगड़ती है। और चिंतन सागर में उस गहरे तल का नाम है जहां शांति, रत्न एवं खजानें छिपे हुए हैं।

चिंता यानी संसार और चिंतन यानी स्वयं। चिंता करने वाला सदा दूसरे में उलझा रहता है। कमी स्वयं में नहीं दूसरे में ढूंढ़ता है अपनी नाकामयाबियों एवं दुखों का जिम्मेदार दूसरों को ठहराता है तथा सुख के लिए स्वयं को नहीं दूसरे को परिवर्तित करने में लगा रहता है। चिंतन में व्यक्ति स्वयं को टटोलता है, अपनी नजरें अपने पर ही टिकाता है, स्वयं की जांच पड़ताल करता हुआ कमी किसी दूसरे में नहीं स्वयं अपने में देखने की कोशिश करता है।

चिंता करने वाली की यात्रा सांसारिक यात्रा है तो चिंतन करने वाली की यात्रा अंतर्यात्रा है। चिंता श्रृंखलाबद्ध समस्याओं की निरन्तरता का नाम है। तभी तो एक समस्या खत्म होती नहीं उसके साथ अनेक प्रश्न, नई समस्याएं और जुड़ जाती हैं। जिसके चलते चिंता एक आदत बन जाती है। जो इंसान को भीतर ही भीतर खोखला करती रहती है।

चिंतन इस आदत से छुटकारा पाने का नाम है। चिंता में व्यक्ति सब कुछ गंवाता है तो चिंतन में वह हर खोई हुई वस्तु को पा लेता है बल्कि वह सभी स्त्रोत एवं मार्ग ढूंढ लेता है जिनसे वह अनभिज्ञ है। चिंता का परिणाम दुख होता है चिंतन का परिणाम आनंद। इसलिए व्यक्तित्व विकास के लिए जरूरी है आत्मिक विकास और आत्मिक विकास के लिए जरूरी है चिंतन।



(शशिकांत 'सदैव')

ज्योतिष और रोग.


ज्योतिष और रोग.

कुंडली के ग्रह दर्शाते है कि जातक जीवन में किन रोगों से पीड़ित रह सकते है। किस ग्रह से क्या रोग सम्भव है?

ज्योतिष शास्त्र के अनुसार व्यक्ति के वर्तमान जीवन में जो भी उसकी शारीरिक, मानसिक, सामाजिक या अध्यात्मिक परिस्थितियां या प्रवृत्ति है, वह उसके पूर्व जन्म के संचित कर्मों के आधार पर निर्धारित होती है। व्यक्ति की कुंडली में उसी प्रकार ग्रहों की स्थितियाँ या युतियाँ होती हैं। चूँकि प्रत्येक ग्रह व्यक्ति के शरीर में उपस्थित किसी न किसी तत्व का प्रतिनिधित्व भी करता है और कारक होता है अतः उस ग्रह की किसी विशेष भाव में उपस्थिति, युति या उसका बल व्यक्ति में किसी न किसी प्रकार की शारीरिक, मानसिक व्याधि को जन्म देता है।

कैंसर

1. सभी लग्नो में कर्क लग्न के जातकों को सबसे ज्यादा खतरा इस रोग का होता है।

2. कर्क लग्न में बृहस्पति कैंसर का मुख्य कारक है, यदि बृहस्पति की युति मंगल और शनि के साथ छठे, आठवें, बारहवें या दूसरे भाव के स्वामियों के साथ हो जाये तब व्यक्ति की मृत्यु कैंसर के कारण होना लगभग तय है।

3. शनि या मंगल किसी भी कुंडली में यदि छठे या आठवें स्थान में राहु या केतु के साथ हों तो कैंसर होने की प्रबल सम्भावना होती है।

4. छठे भाव का स्वामी लग्न, आठवें या दसवें में भाव में बैठा हो और पाप ग्रहों से दृष्ट हो तो भी कैंसर की प्रबल सम्भावना होती है।

5. किसी जातक की कुंडली में सूर्य यदि छठे, आठवें या बारहवें भाव में पाप ग्रहों के साथ हो तो जातक को पेट या आंतों में अल्सर और कैंसर होने की प्रबल सम्भावना होती है।

6. किसी जातक की कुंडली में यदि सूर्य कहीं भी पाप ग्रहों के साथ हो और लग्नेश या लग्न भी पाप ग्रहों के प्रभाव में हो तो भी कैंसर की प्रबल सम्भावना रहती है।

7. कमजोर चंद्रमा पापग्रहों की राशी में छठे, आठवें या बारहवें हो और लग्न अथवा चंद्रमा, शनि और मंगल से दृष्ट हो तो अवश्य ही कैंसर होता है।

नेत्र रोग

1. लग्नेश यदि बुध अर्थात् 3-6 या मंगल 1-8 वीं राशी में स्थित हो तो आँखों में कोई न कोई रोग होने की प्रवल सम्भावना होती है।

2. अष्टमेश व लग्नेश छठे भाव में एक साथ हों तो बायीं आँख में विकार तय है।

3. शुक्र छठे या आठवें में हो तो दाई आँख में विकार संभव है।

4. यदि 10 वें और छठे भावों के स्वामी द्वितीयेश के साथ लग्न में स्थित हो जाये तो व्यक्ति जीवन में दृष्टि अवश्य खो देगा।

5. मंगल द्वादश भाव में हो तो बाएं और शनि द्वितीय भाव में हो तो दायें आँख में चोट लगने की प्रबल सम्भावना होती है।

6. त्रिकोण में पाप ग्रहों से दृष्ट सूर्य स्थित हो तो व्यक्ति को आँखों में रोग के कारण कम दिखाई देगा।

मूकता (गूंगापन)

1. द्वितीयेश यदि गुरु के साथ आठवें भाव में स्थित हो तो व्यक्ति के गूंगा होने की प्रबल सम्भावना रहती है।

2. बुध और छठे घर का स्वामी लग्न में हो तो भी व्यक्ति गूंगा हो सकता है।

3. कर्क, वृष्चिक या मीन लग्नों में बुध कहीं भी और कमजोर चंद्रमा उसे देखे तो जातक को हकलाहट की समस्या हो सकती है।

4. कोई भी लग्न हो परन्तु शुक्र यदि द्वितीय भाव में क्रूर ग्रह से युक्त हो तो व्यक्ति काना या नेत्र विकार युक्त अथवा तुतलाकर बोलने वाला होता है।

5. द्वितीयेश और अष्टमेश की युति हो या द्वितीयेश पाप पीड़ित हो और अष्टमेश उसे देखे तो हकलाहट या गूंगेपन की पूरी सम्भावना रहेगी।

क्षयरोग (टी बी)

1. राहु छठे, लग्न से केंद्र में शनि और लग्नाधिपति अष्टम में हो तो क्षयरोग की प्रबल संभावना होती है।

2. चंद्रमा के घर में यदि बुध बैठा हो तो क्षय रोग या कुष्ठ रोग या दोनों की प्रबल संभावना होती है।

3. मंगल और शनि दोनों की दृष्टि यदि लग्न पर हो तो श्वास या कषय की बीमारी होती ही है।

4. सिंह या कर्क राशी में सूर्य और चंद्रमा की युति क्षय रोग देने वाली होती है।

5. कर्क, मकर, कुम्भ या मीन राशी में चंद्रमा हो और गुरु अष्टम में हो और उसे पाप ग्रह भी देखते हों तो क्षय रोग के कारण मृत्यु हो सकती है।

पागलपन (मतिभ्रम)

1. लग्न और सातवें भाव में क्रमशः गुरु और मंगल स्थित हों तो व्यक्ति मति भ्रम का शिकार हो सकता है।

2. लग्न में शनि और 9, 5 या 7 वे भाव से मंगल का सम्बन्ध हो तो व्यक्ति मतिभ्रम का शिकार होकर धीरे-धीरे पागल हो जायेगा।

3. 12 वें भाव में शनि और कमजोर चंद्रमा की युति भी व्यक्ति को मतिभ्रम का शिकार बना देती है।

4. शुक्र और गुरु की युति हो व्यक्ति मतिभ्रम का शिकार होगा ही और यदि लग्न पर राहु या शनि के साथ कमजोर चंद्रमा का प्रभाव भी हो जाये तो पागल हो जायेगा।

रक्तचाप

1. चंद्रमा के क्षेत्र में मंगल बैठा हो।

2. शनि चतुर्थ में हो तो भी उच्च रक्तचाप के साथ व्यक्ति तेज दिल का दौरा पड़ सकता है। प्रथम भाव में हो और चंद्रमा भी पीड़ित हो तो व्यक्ति तीव्र हृदय घात होगा।

3. कोई भी लग्न हो यदि शनि या राहु चतुर्थ भाव में हो और चंद्रमा भी पीड़ित हो तो व्यक्ति तीव्र हृदय घात होगा।

4. किसी भी लग्न में द्वादशेष $ चंद्रमा $ शुक्र की युति एक साथ दुह्स्थानों में हो तो व्यक्ति को तेज दिल का दौरा के साथ दुर्घटना का भी प्रबल योग होता है।

5. किसी भी लग्न में यदि चतुर्थेश यदि अष्टम में हो तो भी जातक तीव्र रक्तचाप की बीमारी होगी।

कुष्ठ रोग

1. शनि, मंगल और चंद्रमा ये तीनों यदि मेष या वृषभ राषि में हों तो सफेद कुष्ठ की प्रबल सम्भावना होती है।

2. चंद्रमा यदि राहु के साथ लग्न में हो तो भी कुष्ठ रोग होता है।

3. जल राशि में गया हुआ चंद्रमा यदि शुक्र से युक्त हो तो भी सफेद कुष्ठ की पूरी सम्भावना होगी।

4. मेष राशी में बुध हो और दशम में चंद्रमा, शनि और मंगल की युति हो तो भी कुष्ठ रोग होगा।

5. बुध, चंद्रमा और लग्न का स्वामी यदि राहु या केतु से युत हों तो कुष्ठ रोग होता है।

पीलिया (पांडू रोग)

1. लग्न में सूर्य, मंगल और शनि की युति अन्य शुभ ग्रहों की संगत या दृष्टि होने के बावजूद पीलिया रोग जीवन में हो ही जाता है।

2. अष्टम में गया हुआ बृहस्पति और नीच गत मंगल भी पीलिया रोग दे देता है।

3. अष्टम में राहु और गुरु की युति भी लीवर सम्बन्धी रोग दे देती है।

नशा (व्यसन)

1. बारहवें पाप ग्रह हो।

2. लग्न में मकर का गुरु।

3. लग्नेश निर्बल हो और उस पर पाप ग्रहों की दृष्टि हो।

4. लग्न का स्वामी नीच राशि में अथवा अपने शत्रु राशि में स्थित हो।

5. बारहवें भाव का स्वामी नीच राशी गत हो।

6. राहु की दशा- अंतर दशा भी जातक को व्यसन की ओर अग्रसर करती है।

अन्य रोग एवं ग्रह 

1. लग्नेश पाप पीड़ित हो या लग्न में कमजोर चंद्रमा हो तो व्यक्ति आजीवन रोगी रहेगा।

2. लग्न अथवा अष्टम का गुरु मोटापा का कारक होता है यदि गुरु अष्टम में है तो मोटापा के साथ साथ थाइरायड की समस्या अवश्य दे देगा।

3. अष्टम का राहु, शुक्र या शनि वात रोग अवश्य देते है।

4. पाप पीड़ित बुध पित्त की बीमारी अवश्य दे देगा।

5. मकर और कुम्भ लग्न के जातको को वात रोग अवश्य होता है यदि शनि पीड़ित हो तो आर्थराइटिस होने की पूरी सम्भावना रहेगी।

6. लग्नेश निर्बल हो चंद्रमा तथा सूर्य भी निर्बल और पाप ग्रसित हों तो व्यक्ति की प्रवृत्ति आत्महत्या करने की होती है या व्यक्ति अवसाद में जा सकता है।

7. चाहे कोई भी लग्न हो अष्टम में शनि और चंद्रमा के युति व्यक्ति को शत्रु कृत कर्म और प्रेत बाधा से मृत्यु देने में समर्थ है।

विशे 

1. ऊपर दिए गए रोग के और भी योग होते हैं परन्तु यहाँ केवल मुख्य योग ही दिए गए हैं, वह भी जानकारी मात्र के लिए
 

2. प्रत्येक योग के कुछ परिहार भी कुंडली में होते हैं अतः केवल यहाँ लिखे योग को ही अंतिम मानकर किसी परिणाम पर न पहुँचे, अपितु अपनी कुंडली की जाँच करा कर ही किसी निष्कर्ष पर पहुँचे।

कविता-सच है, विपत्ति जब आती है,


  सच है, विपत्ति जब आती है,
कायर को ही दहलाती है,

(रामधारी सिंह दिनकर)

सच है, विपत्ति जब आती है,
कायर को ही दहलाती है,
सूरमा नही विचलित होते,
क्षण एक नहीं धीरज खोते,
विघ्नों को गले लगाते हैं,
काँटों में राह बनाते हैं
मुँह से न कभी उफ़ कहते हैं,
संकट का चरण न गहते हैं,
जो आ पड़ता सब सहते हैं,
उद्योग-निरत नित रहते हैं,
शूलों का मूल नसाते हैं,
बढ़ खुद विपत्ति पर छाते हैं।
है कौन विघ्न ऐसा जग में,
टिक सके आदमी के मग में?
खम ठोक ठेलता है जब नर,
पर्वत के जाते पाँव उखड़,
मानव जब ज़ोर लगाता है,
पत्थर पानी बन जाता है।
गुण बड़े एक से एक प्रखर,
है छिपे मानवों के भीतर,
मेंहदी में जैसे लाली हो,
वर्तिका-बीच उजियाली हो,
बत्ती जो नही जलाता है,
रोशनी नहीं वह पाता है।