शनिदेव की मंथर गति.
पौराणिक कथा.
प्राचीन काल में एक बड़े श्रेष्ठ व तपस्वी मुनि हुए हैं, जिनका नाम ’पिप्पलाद’ था। पिप्पलाद मुनि के पिता पर जब शनि की साढ़ेसाती प्रारम्भ हुई तो उन्हें बहुत कष्ट हुआ। कष्ट इतना भयँकर था कि इस कष्ट के कारण पिप्पलाद मुनि के पिता की मृत्यु हो गई।
जब अपनी माता से पिप्पलाद मुनि को अपने पिता की मृत्यु
का कारण पता चला तो उन्हें शनिदेव पर बहुत क्रोध आया और उन्होंने ब्रह्मदण्ड का सँधान
कर शनिदेव पर प्रहार कर दिया। शनिदेव को जब पिप्पलाद मुनि और ब्रह्मदण्ड के बारे
में ज्ञात हुआ तब वे तीनों लोको में शरण के लिए गए, लेकिन उन्हें कहीं भी शरण नहीं मिली। तब शनिदेव भूतभावन
चन्द्रमौलिश्वर भगवान शिव के पास गए और उन्हें पूरी कथा सुनाई। भगवान शिव ने शनिदेव
को एक पीपल के वृक्ष पर छिपने का परामर्श दिया और पिप्पलाद मुनि को समझाया कि शनिदेव
पर उनका क्रोध व्यर्थ है क्योंकि शनिदेव न्यायाधिपति होने के कारण केवल अपने कर्त्तव्य
का निर्वहन कर रहे थे। भगवान शिव के समझाने पर पिप्पलाद मुनि ने अपना क्रोध त्याग दिया।
चूँकि ब्रह्मदण्ड को लौटाया नहीं जा सकता था, इसलिए पिप्ललाद मुनि ने ब्रह्मदण्ड से शनिदेव की एक
टाँग को क्षतिग्रस्त कर, उन्हें सदैव के
लिए लँगड़ा कर दिया। कथानुसार उसी दिन से शनिदेव लँगड़ाकर धीरे-धीरे चलने लगे। शनिदेव
को भगवान शिव व पीपल ने शरण प्रदान की थी इसलिए शनिदेव ने भगवान शिव को यह वचन दिया
कि साढ़ेसाती व ढैय्या की अवधि में जो उनकी अर्थात् भगवान शिव व पीपल की पूजा करेगा, वे उसे कभी कष्ट नहीं देंगे।
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