चिंता नहीं,
चिंतन करें.
बुलंदियों का आसमान छूने वाले एक करोड़पति को भी चिंताएं घेर सकती हैं। लेकिन एक विकसित एवं रूपांतरित आदमी की कोई चिंताएं नहीं होती क्योंकि उसके विचार, उसकी चिंताएं, चिंतन से होकर गुजरते हैं। विचार जब चिंता से गुजरते हैं तो जीवन चिता तुल्य हो जाता है और जब चिंतन से गुजरते हैं तो मुक्ति का माध्यम बन जाते हैं। चिंता, चिता और चिंतन में मात्र, मात्रा का ही भेद नहीं है बल्कि अर्थ का भी अंतर है।
चिंता का अपना कोई अस्तित्व नहीं है इसे मनुष्य स्वयं इजाद करता है, तभी तो जितने लोग है उतनी चिंताएं है तथा हर इंसान की चिंता की अपनी ही अवधि और अपने ही विषय हैं। तभी तो किसी का दुख किसी के लिए सुख है तो किसी का सुख किसी के लिए दुख है। चिंता सागर की उस सतह के समान है जहां पर सदा उथल-पुथल रहती है, लहरें बनती और बिगड़ती है। और चिंतन सागर में उस गहरे तल का नाम है जहां शांति, रत्न एवं खजानें छिपे हुए हैं।
चिंता यानी संसार और चिंतन यानी स्वयं। चिंता करने वाला सदा दूसरे में उलझा रहता है। कमी स्वयं में नहीं दूसरे में ढूंढ़ता है अपनी नाकामयाबियों एवं दुखों का जिम्मेदार दूसरों को ठहराता है तथा सुख के लिए स्वयं को नहीं दूसरे को परिवर्तित करने में लगा रहता है। चिंतन में व्यक्ति स्वयं को टटोलता है, अपनी नजरें अपने पर ही टिकाता है, स्वयं की जांच पड़ताल करता हुआ कमी किसी दूसरे में नहीं स्वयं अपने में देखने की कोशिश करता है।
चिंता करने वाली की यात्रा सांसारिक यात्रा है तो चिंतन करने वाली की यात्रा अंतर्यात्रा है। चिंता श्रृंखलाबद्ध समस्याओं की निरन्तरता का नाम है। तभी तो एक समस्या खत्म होती नहीं उसके साथ अनेक प्रश्न, नई समस्याएं और जुड़ जाती हैं। जिसके चलते चिंता एक आदत बन जाती है। जो इंसान को भीतर ही भीतर खोखला करती रहती है।
चिंतन इस आदत से छुटकारा पाने का नाम है। चिंता में व्यक्ति सब कुछ गंवाता है तो चिंतन में वह हर खोई हुई वस्तु को पा लेता है बल्कि वह सभी स्त्रोत एवं मार्ग ढूंढ लेता है जिनसे वह अनभिज्ञ है। चिंता का परिणाम दुख होता है चिंतन का परिणाम आनंद। इसलिए व्यक्तित्व विकास के लिए जरूरी है आत्मिक विकास और आत्मिक विकास के लिए जरूरी है चिंतन।
(शशिकांत 'सदैव')
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