ऋषि अत्री.


ऋषि अत्री.

ऋषि अत्रि, ब्रह्मा के मानस पुत्र थे, जो ब्रह्मा जी के नेत्रों से उत्पन्न हुए थे. यह सोम के पिता थे, जो इनके नेत्र से आविर्भूत हुए. इन्होंने कर्दम ऋषि की पुत्री अनुसूया से विवाह किया था, जो महान पतिव्रता के रूप में विख्यात हुईं हैं. पुत्रोत्पत्ति के लिए इन्होंने ऋक्ष पर्वत पर पत्नी अनुसूया के साथ घोर तप किया था जिस कारण इन्हें त्रिमूर्तियों की प्राप्ति हुई, जिनसे त्रिदेवों के अशं रूप में दत्त (विष्णु) दुर्वासा (शिव) और सोम (ब्रह्मा) उत्पन्न हुए.

कथा

ऋषि अत्री और माता अनुसूइया अपने दाम्पत्य जीवन को बहुत सहज भाव से व्यतीत कर रहे थे. देवी अनुसूइया जी की पतिव्रतता के आगे सभी नतमस्तक थे. इनके जीवन को देखकर देवता भी प्रसन्न होते थे. एक बार देवी लक्ष्मी, पार्वती और सरस्वती को ऋषि अत्रि की पत्नि अनुसूइया के दिव्य पतिव्रत के बारे में ज्ञात होता है, तो उनकी परीक्षा लेने का विचार करती हैं और तीनों देवियां अपने पतियों यथा विष्णु,, शंकर व ब्रह्मा को अनुसूइया के पतिव्रत धर्म की परीक्षा लेने को कहती हैं.

विवश होकर त्रिदेव अपना रूप बदलकर एक साधू रूप में ऋषि अत्रि के आश्रम में आते हैं और अनुसूइया से भोजन की मांग सशर्त करते हैं कि भोजन निर्वस्त्र होकर कराना पड़ेगा. इस पर देवी अनुसूइया धर्मसंकट आ जातीं हैं. यदि याचक साधुओं को भोजन न दिया धर्माचरण के विरुद्ध होगा और भोजन करने पर शर्त के पालन से पतिव्रत का अपमान होता है. मन में विचार आता हैं कि बालक रूप में ही वह ऐसा कर सकती हैं, तब हाथ में जल लेकर संकल्प द्वारा वह तीनों साधुओं को शिशु रूप में परिवर्तित कर भोजन करती हैं.

इस प्रकार तीनों देवता ऋषी अत्रि के आश्रम में बालक रूप में रहने लगते हैं और देवी अनसूइया उनकी माँ के समान देखभाल करती हैं. कुछ समय पश्चात जब त्रिदेवियों को इस बात का बोध होता है तो वह अपने पतियों को पुन: प्राप्त करने हेतु ऋषि अत्रि के आश्रम में आतीं हैं और अपनी भूल के लिए क्षमा याचना करती हैं.

इस तरह से ऋषि अत्री के कहने पर माता अनुसूइया त्रिदेवों को मुक्त करती हैं. अपने स्वरूप में आने पर तीनों देव, ऋषि अत्रि व माता अनुसूइया को वरदान देते हैं कि वह कालान्तर में उनके घर पुत्र रूप में जन्म लेंगे, इसीलिए त्रिदेवों के अशं रूप में दत्तात्रेय , दुर्वासा और सोम रुप में उत्पन्न हुए थे.

वैदिक मन्त्रद्रष्टा.

महर्षि अत्रि वैदिक मन्त्रद्रष्टा ऋषि माने गए हैं. अनेक धार्मिक ग्रंथों में इनके आविर्भाव तथा चरित्र का सुन्दर वर्णन किया गया है. महर्षि अत्रि को ज्ञान, तपस्या, सदाचार, भक्ति एवं मन्त्रशक्ति के ज्ञाता रूप में व्यक्त किया जाता है.

ऋषि अत्रि और श्री राम.

भगवान श्री राम अपने भक्त महर्षि अत्रि एवं देवी अनुसूया की भक्ति को सफल करने के लिए स्वयं उनके आश्रम पर पधारते हैं और माता अनुसूइया ने देवी सीता को पतिव्रत का उपदेश दिया था. उन्हें दिव्य वस्त्र एवं आभूषण भी प्रदान किया था. महर्षि अत्रि तीनों गुणों सत्त्व, रज, तम से से परे थे, अर्थात गुणातीत थे. महर्षि अत्रि सदाचार का जीवन व्यतीत करते हुए चित्रकूट के तपोवन में रहा करते थे.


ऋषि अत्रि जीवन वृतांत.

ऋषि अत्रि को अश्विनीकुमारों की कृपा प्राप्त थी. इस पर एक कथा भी प्राप्त होती है कि एक बार जब महर्षि अत्रि समाधिस्थ थे, तब दैत्यों ने इन्हें उठाकर शतद्वार यन्त्र में डाल कर जलाने का प्रयत्न करते हैं परंतु समाधी में होने के कारण इन्हें इस बात का ज्ञान नहीं होता तभी उचित समय पर अश्विनीकुमार वहाँ पहुँचकर ऋषि अत्रि को उन दैत्यों के चंगुल से बचाते हैं. यही कथा ऋग्वेद के प्रथम मण्डल में भी बताई गई है. ऋग्वेद के दशम मण्डल में महर्षि अत्रि के तपस्या अनुष्ठान का वर्णन है एवं अश्विनीकुमारों ने इन्हें यौवन प्रदान किया, इस तथ्य को व्यक्त किया गया है.

ऋग्वेद के पंचम मण्डल में वसूयु, सप्तवध्रि नामक अनेक पुत्रों को ऋषि अत्रि के पुत्र कहा गया है. ऋग्वेद के पंचम ‘आत्रेय मण्डल′, ‘कल्याण सूक्त’ ऋग्वेदीय ‘स्वस्ति-सूक्त’ महर्षि अत्रि द्वारा रचित हैं. यह सूक्त मांगलिक कार्यों, शुभ संस्कारों तथा पूजा, अनुष्ठानों में पठित होते हैं. इन्होंने अलर्क, प्रह्लाद आदि को शिक्षा भी दी थी.

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