श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः द्वादश अध्यायः श्लोक 15-36 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
प्रथम स्कन्धः द्वादश अध्यायः श्लोक 15-36 का हिन्दी अनुवाद

ब्राह्मणों ने सन्तुष्ट होकर अत्यन्त विनयी युधिष्ठिर से कहा- ‘पुरुवंशशिरोमणे! काल की दुर्निवार गति से यह पवित्र पुरुवंश मिटना ही चाहता था, परन्तु तुम लोगों पर कृपा करने के लिये भगवान विष्णु ने यह बालक देकर इसकी रक्षा कर दी। इसीलिये इसका नाम 'विष्णुरात' होगा। निस्सन्देह यह बालक संसार में बड़ा यशस्वी, भगवान का परम भक्त और महापुरुष होगा’। युधिष्ठिर ने कहा- महात्माओं! यह बालक क्या अपने उज्ज्वल यश से हमारे वंश के पवित्र कीर्ति महात्मा राजर्षियों का अनुसरण करेगा? ब्राह्मणों ने कहा- धर्मराज! यह मनुपुत्र इक्ष्वाकु के समान अपनी प्रजा का पालन करेगा तथा दशरथनन्दन भगवान श्रीराम के समान ब्राह्मणभक्त और सत्य प्रतिज्ञ होगा। यह उशीनर-नरेश शिबि के समान दाता और शरणागतवत्सल होगा तथा याज्ञिकों में दुष्यन्त के पुत्र भरत के समान अपने वंश का यश फैलायेगा। धनुर्धरों में यह सहस्राबाहु अर्जुन और अपने दादा पार्थ के समान अग्रगण्य होगा। यह अग्नि के समान दुर्धर्ष और समुद्र के समान दुस्तर होगा। यह सिंह के समान पराक्रमी, हिमाचल की तरह आश्रय लेने योग्य, पृथ्वी के सदृश तितिक्षु और माता-पिता के समान सहनशील होगा। इसमें पितामह ब्रह्मा के समान समता रहेगी, भगवान शंकर की तरह यह कृपालु होगा और सम्पूर्ण प्राणियों को आश्रय देने में यह लक्ष्मीपति भगवान विष्णु के समान होगा। यह समस्त सद्गुणों की महिमा धारण करने में श्रीकृष्ण का अनुयायी होगा, रन्तिदेव के समान उदार होगा और ययाति के समान धार्मिक होगा। धैर्य में बलि के समान और भगवान श्रीकृष्ण के प्रति दृढ़ निष्ठा में यह प्रह्लाद के समान होगा। यह बहुत से अश्वमेध यज्ञों का करने वाला और वृद्धों का सेवक होगा। इसके पुत्र राजर्षि होंगे। मर्यादा का उल्लंघन करने वालों को यह दण्ड देगा। यह पृथ्वी माता और धर्म की रक्षा के लिये कलियुग का भी दमन करेगा। ब्राह्मण कुमार के शाप से तक्षक के द्वारा अपनी मृत्यु सुनकर यह सबकी आसक्ति छोड़ देगा और भगवान के चरणों की शरण लेगा। राजन्! व्यासनन्दन शुकदेव जी से यह आत्मा के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करेगा और अन्त में गंगा तट पर अपने शरीर को त्यागकर निश्चय ही अभयपद प्राप्त करेगा।

ज्यौतिषशास्त्र के विशेषज्ञ ब्राह्मण राजा युधिष्ठिर को इस प्रकार बालक के जन्म लग्न का फल बताकर और भेंट-पूजा लेकर अपने-अपने घर चले गये। वही यह बालक संसार में परीक्षित के नाम से प्रसिद्ध हुआ; क्योंकि वह समर्थ बालक गर्भ में जिस पुरुष का दर्शन पा चुका था, उसका स्मरण करता हुआ लोगों में उसी की परीक्षा करता रहता था कि देखें इनमें से कौन-सा वह है। जैसे शुक्ल पक्ष में दिन-प्रतिदिन चन्द्रमा अपनी कलाओं से पूर्ण होता हुआ बढ़ता है, वैसे ही वह राजकुमार भी अपने गुरुजनों के लालन-पालन से क्रमशः अनुदिन बढ़ता हुआ शीघ्र ही सयाना हो गया। इसी समय स्वजनों के वध का प्रायश्चित् करने के लिये राजा युधिष्ठिर ने अश्वमेध यज्ञ के द्वारा भगवान की आराधना करने का विचार किया, परन्तु प्रजा से वसूल किये हुए कर और दण्ड (जुर्माने) की रकम के अतिरिक्त और धन न होने के कारण वे बड़ी चिन्ता में पड़ गये।

उनका अभिप्राय समझकर भगवान श्रीकृष्ण की प्रेरणा से उनके भाई उत्तर दिशा में राजा मरुत्त और ब्राह्मणों द्वारा छोड़ा हुआ, बहुत-सा धन ले आये।

उससे यज्ञ की सामग्री एकत्र करके धर्मभीरु महाराज युधिष्ठिर ने तीन अश्वमेध यज्ञों के द्वारा भगवान की पूजा की। युधिष्ठिर के निमन्त्रण से पधारे हुए भगवान ब्राह्मणों द्वारा उनका यज्ञ सम्पन्न कराकर अपने सुहृद् पाण्डवों की प्रसन्नता के लिये कई महीनों तक वहीं रहे।

शौनक जी! इसके बाद भाइयों सहित राजा युधिष्ठिर और द्रौपदी से अनुमति लेकर अर्जुन के साथ यदुवंशियों से घिरे हुए भगवान श्रीकृष्ण ने द्वारका के लिये प्रस्थान किया।

क्रमश:

साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः द्वादश अध्यायः श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
प्रथम स्कन्धः द्वादश अध्यायः श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद

परीक्षित का जन्म.

शौनक जी! ने कहा- अश्वत्थामा ने जो अत्यन्त तेजस्वी ब्रह्मास्त्र चलाया था, उससे उत्तरा का गर्भ नष्ट हो गया था; परन्तु भगवान ने उसे पुनः जीवित कर दिया। उस गर्भ से पैदा हुए महाज्ञानी महात्मा परीक्षित के, जिन्हें शुकदेव जी ने ज्ञानोपदेश दिया था, जन्म, कर्म, मृत्यु और उसके बाद जो गति उन्हें प्राप्त हुई, वह सब यदि आप ठीक समझें तो कहें; हम लोग बड़ी श्रद्धा के साथ सुनना चाहते हैं।

सूत जी ने कहा- धर्मराज युधिष्ठिर अपनी प्रजा को प्रसन्न रखते हुए पिता के समान उसका पालन करने लगे। भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमलों के सेवन से वे समस्त भोगों से निःस्पृह हो गये थे। शौनकादि ऋषियों!

उनके पास अतुल सम्पत्ति थी, उन्होंने बड़े-बड़े यज्ञ किये थे तथा उनके फलस्वरूप श्रेष्ठ लोकों का अधिकार प्राप्त किया था। उनकी रानियाँ और भाई अनुकूल थे, सारी पृथ्वी उनकी थी, वे जम्बूद्वीप के स्वामी थे और उनकी कीर्ति स्वर्ग तक फैली हुई थी। उनके पास भोग की ऐसी सामग्री थी, जिसके लिये देवता लोग भी लालायित रहते हैं। परन्तु जैसे भूखे मनुष्य को भोजन के अतिरिक्त दूसरे पदार्थ नहीं सुहाते, वैसे ही उन्हें भगवान के सिवा दूसरी कोई वस्तु सुख नहीं देती थी। शौनक जी!

उत्तरा के गर्भ में स्थित वह वीर शिशु परीक्षित जब अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र के तेज से जलने लगा, तब उसने देखा कि उसकी आँखों के सामने एक ज्योतिर्मय पुरुष है। वह देखने में तो अँगूठे भर का है, परन्तु उसका स्वरूप बहुत ही निर्मल है। अत्यन्त सुन्दर श्याम शरीर है, बिजली के समान चमकता हुआ पीताम्बर धारण किये हुए है, सिर पर सोने का मुकुट झिलमिला रहा है। उस निर्विकार पुरुष के बड़ी ही सुन्दर लम्बी-लम्बी चार भुजाएँ हैं। कानों में तपाये हुए स्वर्ण के सुन्दर कुण्डल है, आँखों में लालिमा है, हाथ में लूके के समान जलती हुई गदा लेकर उसे बार-बार घुमाता जा रहा है और स्वयं शिशु के चारों ओर घूम रहा है। जैसे सूर्य अपनी किरणों से कुहरे को भगा देते हैं, वैसे ही वह उस गदा के द्वारा ब्रह्मास्त्र के तेज को शान्त करता जा रहा था। उस पुरुष को अपने समीप देखकर वह गर्भस्थ शिशु सोचने लगा कि यह कौन है। इस प्रकार उस दस मास के गर्भस्थ शिशु के सामने ही धर्म रक्षक अप्रमेय भगवान श्रीकृष्ण ब्रह्मास्त्र के तेज को शान्त करे वहीं अन्तर्धान हो गये।

तदनन्तर अनुकूल ग्रहों के उदय से युक्त समस्त सद्गुणों को विकसित करने वाले शुभ समय में पाण्डु के वंशधर परीक्षित का जन्म हुआ। जन्म के समय ही वह बालक इतना तेजस्वी दीख पड़ता था, मानो स्वयं पाण्डु ने ही फिर से जन्म लिया हो। पौत्र के जन्म की बात सुनकर राजा युधिष्ठिर मन में बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने धौम्य, कृपाचार्य आदि ब्राह्मणों से मंगलवाचन और जातकर्म-संस्कार करवाये।

महाराज युधिष्ठिर दान के योग्य समय को जानते थे। उन्होंने प्रजातीर्थ नामक काल में अर्थात् नाल काटने के पहले ही ब्राह्मणों को सुवर्ण, गौएँ, पृथ्वी, गाँव, उत्तम जाति के हाथी-घोड़े और उत्तम अन्न का दान दिया।

क्रमश:

साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः एकादश अध्यायः श्लोक 30-39 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
प्रथम स्कन्धः एकादश अध्यायः श्लोक 30-39 का हिन्दी अनुवाद

माताओं से आज्ञा लेकर वे अपने समस्त भोग-सामग्रियों से सम्पन्न सर्वश्रेष्ठ भवन में गये। उसमें सोलह हजार पत्नियों के अलग-अलग महल थे। अपने प्राणनाथ भगवान श्रीकृष्ण को बहुत दिन बाहर रहने के बाद घर आया देखकर रानियों के हृदय में बड़ा आनन्द हुआ। उन्हें अपने निकट देखकर वे एकाएक ध्यान छोड़कर उठ खड़ी हुई; उन्होंने केवल आसन को ही नहीं; बल्कि उन नियमों को भी त्याग दिया, जिन्हें उन्होंने पति के प्रवासी होने पर ग्रहण किया था। उस समय उनके मुख और नेत्रों में लज्जा छा गयी।

भगवान के प्रति उनका भाव बड़ा ही गम्भीर था। उन्होंने पहले मन-ही-मन, फिर नेत्रों के द्वारा और तत्पश्चात् पुत्रों के बहाने शरीर से उनका आलिंगन किया। शौनक जी! उस समय उनके नेत्रों में जो प्रेम के आँसू छलक आये थे, उन्हें संकोंचवश उन्होंने बहुत रोका। फिर भी विवशता के कारण वे ढलक ही गये।

यद्यपि भगवान श्रीकृष्ण एकान्त में सर्वदा ही उनके पास रहते थे, तथापि उनके चरण-कमल उन्हें पद-पद पर नये-नये जान पड़ते। भला, स्वभाव से ही चंचल लक्ष्मी जिन्हें एक क्षण के लिये भी कभी नहीं छोड़तीं, उनकी सनिधि से किस स्त्री की तृप्ति हो सकती है। जैस वायु बाँसों के संघर्ष से दावानल पैदा करके उन्हें जला देता है, वैसे ही पृथ्वी के भारभूत और शक्तिशाली राजाओं में परस्पर फूट डालकर बिना शस्त्र ग्रहण किये ही भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें कई अक्षौहिणी सेना सहित एक-दूसरे से मरवा डाला और उसके बाद आप भी उपराम हो गये।

साक्षात् परमेश्वर ही अपनी लीला से इस मनुष्य लोक में अवतीर्ण हुए थे और सहस्रों रमणी-रत्नों में रहकर उन्होंने साधारण मनुष्य की तरह क्रीड़ा की। जिनकी निर्मल और मधुर हँसी उनके हृदय के उन्मुक्त भावों को सूचित करने वाली थी, जिनकी लजीली चितवन की चोट से बेसुध होकर विश्वविजयी कामदेव ने भी अपने धनुष का परित्याग कर दिया था- वे कमनीये कामिनियाँ अपने काम-विलासों से जिनके मन में तनिक भी क्षोभ नहीं पैदा कर सकीं, उन असंग भगवान श्रीकृष्ण को संसार के लोग अपने ही समान कर्म करते देखकर आसक्त मनुष्य समझते हैं- यह उनकी मूर्खता है। यही तो भगवान की भगवत्ता है कि वे प्रकृति में स्थित होकर भी उसके गुणों से कभी लिप्त नहीं होते, जैसे भगवान की शरणागत बुद्धि अपने में रहने वाले प्राकृत गुणों से लिप्त नहीं होती। वे मूढ़ स्त्रियाँ भी श्रीकृष्ण को अपना एकान्तसेवी, स्त्रीपरायण भक्त ही समझ बैठी थीं; क्योंकि वे अपने स्वामी के ऐश्वर्य को नहीं जानती थीं- ठीक वैसे ही जैसे अहंकार की वृत्तियाँ ईश्वर को अपने धर्म से युक्त मानती हैं।

क्रमश:


साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः एकादश अध्यायः श्लोक 15-29 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
प्रथम स्कन्धः एकादश अध्यायः श्लोक 15-29 का हिन्दी अनुवाद

घरों के प्रत्येक द्वार पर दही, अक्षत, फल, ईख, जल से भरे हुए कलश, उपहार की वस्तुएँ और धूप-दीप आदि सजा दिये गये थे। उदारशिरोमणि वसुदेव, अक्रूर, उग्रसेन, अद्भुत पराक्रमी बलराम, प्रद्युम्न, चारुदेष्ण और जाम्बन्तीनन्दन साम्ब ने जब यह सुना कि हमारे प्रियतम भगवान श्रीकृष्ण आ रहे हैं, तब उनके मन में इतना आनन्द उमड़ा कि उन लोगों ने अपने सभी आवश्यक कार्य- सोना, बैठना और भोजन आदि छोड़ दिये।

प्रेम के आवेग से उनका हृदय उछलने लगा। वे मंगलशकुन के लिये एक गजराज को आगे करके स्वस्तयन पाठ करते हुए और मांगलिक सामग्रियों से सुसज्जित ब्राह्मणों को साथ लेकर चले। शंख और तुरही आदि बाजे बजने लगे और देवध्वनि होने लगी।

वे सब हर्षित होकर रथों पर सवार हुए और बड़ी आदर बुद्धि से भगवान की अगवानी करने चले। साथ ही भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन के लिये उत्सुक सैकड़ों श्रेष्ठ वारांगनाएँ, जिनके मुख कपोलों पर चमचमाते हुए कुण्डलों की कान्ति पड़ने से बड़े सुन्दर दीखते थे, पालकियों पर चढ़कर भगवान की अगवानी के लिये चलीं। बहुत-से नट, नाचने वाले, गाने वाले, विरद बखानने वाले सूत, मागध और वंदीजन भगवान श्रीकृष्ण के अद्भुत चरित्रों का गायन करते हुए चले।

भगवान श्रीकृष्ण ने बन्धु-बान्धवों, नागरिकों और सेवकों से उनकी योग्यता के अनुसार अलग-अलग मिलकर सबका सम्मान किया। किसी को सिर झुकाकर प्रणाम किया, किसी को वाणी से अभिवादन किया, किसी को हृदय से लगाया, किसी से हाथ मिलाया, किसी की ओर देखकर मुसकुरा भर दिया और किसी को केवल प्रेमभरी दृष्टि से देख दिया। जिसकी जो इच्छा थी, उसे वही वरदान दिया।

इस प्रकार चाण्डालपर्यन्त सबको संतुष्ट करके गुरुजन, सपत्नीक ब्राह्मण और वृद्धों का तथा दूसरे लोगों का भी आशीर्वाद ग्रहण करते एवं वंदीजनों से विरुदावली सुनते हुए सबके साथ भगवान श्रीकृष्ण ने नगर में प्रवेश किया। शौनक जी!

जिस समय भगवान राजमार्ग से जा रहे थे, उस समय द्वारका की कुल-कामिनियाँ भगवान के दर्शन को ही परमानन्द मानकर अपनी-अपनी अटारियों पर चढ़ गयीं। भगवान का वक्षःस्थल मूर्तिमान् सौन्दर्य लक्ष्मी का निवास स्थान है। उनका मुखाविन्द नेत्रों के द्वारा पान करने के लिये सौन्दर्य-सुधा से भरा हुआ पात्र है। उनकी भुजाएँ लोकपालों को भी शक्ति देने वाली हैं। उनके चरणकमल भक्त परमहंसों के आश्रय हैं। उनके अंग-अंग शोभा के धाम हैं। भगवान की इस छवि को द्वारकवासी नित्य-निरन्तर निहारते रहते हैं, फिर भी उनकी आँखें एक क्षण के लिये भी तृप्त नहीं होतीं।

द्वारका के राजपथ पर भगवान श्रीकृष्ण के ऊपर श्वेतवर्ण का छत्र तना हुआ था, श्वेत चँवर डुलाये जा रहे थे, चारों ओर से पुष्पों की वर्षा हो रही थी, वे पीताम्बर और वनमाला धारण किये हुए थे। इस समय वे ऐसे शोभायमान हुए, मानो श्याम मेघ एक ही साथ सूर्य, चन्द्रमा, इन्द्रधनुष और बिजली से शोभायमान हो।

भगवान सबसे पहले अपने माता-पिता के महल में गये। वहाँ उन्होंने बड़े आनन्द से देवकी आदि सातों माताओं को चरणों पर सिर रखकर प्रणाम किया और माताओं ने उन्हें अपने हृदय से लगाकर गोद में बैठा लिया। स्नेह के कारण उनके स्तनों से दूध की धारा बहने लगी, उनका हृदय हर्ष से विह्वल हो गया और वे आनन्द के आँसुओं से उनका अभिषेक करने लगीं।

क्रमश:

साभार krishnakosh.org

गजेन्द्र-स्तुति.

गजेन्द्र-स्तुति.

जिसके ऊपर बहुत भारी आर्थिक संकट आ गया है, जो कर्जे में डूबा हुआ है, कोई रास्ता नहीं सूझ रहा है, उसके लिये एक अचूक उपाय है- “गजेन्द्र-स्तुति”। मैंने भाईजी श्री हनुमानप्रसादजी पोद्दार द्वारा लिखित एक संस्मरण पढ़ा था, जो महामना मदनमोहन मालवीयजी से सम्बंधित है।

महामना के एक पुत्र बड़े अर्थसंकट (पैसे की कमी) में थे। उनको महामना ने तार में लिखा- “तुम आर्त होकर विश्वास से गजेन्द्र-स्तुति का पाठ करो, इससे तुम्हारा संकट दूर हो जायेगा”। फिर एक पत्र में उनको लिखा- “भगवान पर विश्वास रखो, धैर्य मत छोडो और गजेन्द्र-स्तुति का आर्त भाव से विश्वास पूर्वक पाठ करो। मैं एक बार नाक तक कर्ज़ में डूब गया था, गजेन्द्र-स्तुति के पाठ से मैं ऋणमुक्त हो गया था, तुम भी इसका आश्रय लो”।

श्रीमद्भागवत के अष्टम स्कन्ध का तीसरा अध्याय में यह स्तुति है। इसे मैं नीचे दे रहा हूँ-


श्रीमद्भागवतान्तर्गत
गजेन्द्र कृत भगवान का स्तवन


श्री शुक उवाच – श्री शुकदेव जी ने कहा-


एवं व्यवसितो बुद्ध्या समाधाय मनो हृदि ।
जजाप परमं जाप्यं प्राग्जन्मन्यनुशिक्षितम ॥१॥
अर्थ ... बुद्धि के द्वारा पिछले अध्याय में वर्णित रीति से निश्चय करके तथा मन को हृदय देश में स्थिर करके वह गजराज अपने पूर्व जन्म में सीखकर कण्ठस्थ किये हुए सर्वश्रेष्ठ एवं बार बार दोहराने योग्य निम्नलिखित स्तोत्र का मन ही मन पाठ करने लगा ॥१॥


गजेन्द्र उवाच गजराज ने (मन ही मन) कहा -

ऊं नमो भगवते तस्मै यत एतच्चिदात्मकम ।
पुरुषायादिबीजाय परेशायाभिधीमहि ॥२॥
अर्थ ... जिनके प्रवेश करने पर (जिनकी चेतना को पाकर) ये जड शरीर और मन आदि भी चेतन बन जाते हैं (चेतन की भांति व्यवहार करने लगते हैं), ‘ओम’ शब्द के द्वारा लक्षित तथा सम्पूर्ण शरीर में प्रकृति एवं पुरुष रूप से प्रविष्ट हुए उन सर्व समर्थ परमेश्वर को हम मन ही मन नमन करते हैं ॥२॥

यस्मिन्निदं यतश्चेदं येनेदं य इदं स्वयं ।
योस्मात्परस्माच्च परस्तं प्रपद्ये स्वयम्भुवम ॥३॥
अर्थ ... जिनके सहारे यह विश्व टिका है, जिनसे यह निकला है , जिन्होने इसकी रचना की है और जो स्वयं ही इसके रूप में प्रकट हैं – फिर भी जो इस दृश्य जगत से एवं इसकी कारणभूता प्रकृति से सर्वथा परे (विलक्षण ) एवं श्रेष्ठ हैं – उन अपने आप – बिना किसी कारण के – बने हुए भगवान की मैं शरण लेता हूं॥३॥

यः स्वात्मनीदं निजमाययार्पितं
क्कचिद्विभातं क्क च तत्तिरोहितम ।
अविद्धदृक साक्ष्युभयं तदीक्षते
स आत्ममूलोवतु मां परात्परः ॥४॥
अर्थ ... अपने संकल्प शक्ति के द्वार अपने ही स्वरूप में रचे हुए और इसीलिये सृष्टिकाल में प्रकट और प्रलयकाल में उसी प्रकार अप्रकट रहने वाले इस शास्त्र प्रसिद्ध कार्य कारण रूप जगत को जो अकुण्ठित दृष्टि होने के कारण साक्षी रूप से देखते रहते हैं उनसे लिप्त नही होते, वे चक्षु आदि प्रकाशकों के भी परम प्रकाशक प्रभु मेरी रक्षा करें ॥४॥

कालेन पंचत्वमितेषु कृत्स्नशो
लोकेषु पालेषु च सर्व हेतुषु ।
तमस्तदाsssसीद गहनं गभीरं
यस्तस्य पारेsभिविराजते विभुः ॥५॥
अर्थ ... समय के प्रवाह से सम्पूर्ण लोकों के एवं ब्रह्मादि लोकपालों के पंचभूत में प्रवेश कर जाने पर तथा पंचभूतों से लेकर महत्वपर्यंत सम्पूर्ण कारणों के उनकी परमकरुणारूप प्रकृति में लीन हो जाने पर उस समय दुर्ज्ञेय तथा अपार अंधकाररूप प्रकृति ही बच रही थी। उस अंधकार के परे अपने परम धाम में जो सर्वव्यापक भगवान सब ओर प्रकाशित रहते हैं वे प्रभु मेरी रक्षा करें ॥५॥

न यस्य देवा ऋषयः पदं विदु-
र्जन्तुः पुनः कोsर्हति गन्तुमीरितुम ।
यथा नटस्याकृतिभिर्विचेष्टतो
दुरत्ययानुक्रमणः स मावतु ॥६॥
अर्थ ... भिन्न भिन्न रूपों में नाट्य करने वाले अभिनेता के वास्तविक स्वरूप को जिस प्रकार साधारण दर्शक नही जान पाते , उसी प्रकार सत्त्व प्रधान देवता तथा ऋषि भी जिनके स्वरूप को नही जानते , फिर दूसरा साधारण जीव तो कौन जान अथवा वर्णन कर सकता है–वे दुर्गम चरित्र वाले प्रभु मेरी रक्षा करें॥६॥

दिदृक्षवो यस्य पदं सुमंगलम
विमुक्त संगा मुनयः सुसाधवः ।
चरन्त्यलोकव्रतमव्रणं वने
भूतत्मभूता सुहृदः स मे गतिः ॥७॥
अर्थ ... आसक्ति से सर्वदा छूटे हुए , सम्पूर्ण प्राणियों में आत्मबुद्धि रखने वाले , सबके अकारण हितू एवं अतिशय साधु स्वभाव मुनिगण जिनके परम मंगलमय स्वरूप का साक्षात्कार करने की इच्छा से वन में रह कर अखण्ड ब्रह्मचार्य आदि अलौकिक व्रतों का पालन करते हैं , वे प्रभु ही मेरी गति हैं ॥७॥

न विद्यते यस्य न जन्म कर्म वा
न नाम रूपे गुणदोष एव वा ।
तथापि लोकाप्ययाम्भवाय यः
स्वमायया तान्युलाकमृच्छति ॥८॥
अर्थ ... जिनका हमारी तरह कर्मवश ना तो जन्म होता है और न जिनके द्वारा अहंकार प्रेरित कर्म ही होते हैं, जिनके निर्गुण स्वरूप का न तो कोई नाम है न रूप ही, फिर भी समयानुसार जगत की सृष्टि एवं प्रलय (संहार) के लिये स्वेच्छा से जन्म आदि को स्वीकार करते हैं ॥८॥
तस्मै नमः परेशाय ब्राह्मणेsनन्तशक्तये ।
अरूपायोरुरूपाय नम आश्चर्य कर्मणे ॥९॥
अर्थ ... उन अन्नतशक्ति संपन्न परं ब्रह्म परमेश्वर को नमस्कार है । उन प्राकृत आकाररहित एवं अनेको आकारवाले अद्भुतकर्मा भगवान को बारंबार नमस्कार है ॥९॥


नम आत्म प्रदीपाय साक्षिणे परमात्मने ।
नमो गिरां विदूराय मनसश्चेतसामपि ॥१०॥
अर्थ ... स्वयं प्रकाश एवं सबके साक्षी परमात्मा को नमस्कार है । उन प्रभु को जो नम, वाणी एवं चित्तवृत्तियों से भी सर्वथा परे हैं, बार बार नमस्कार है ॥१०॥


सत्त्वेन प्रतिलभ्याय नैष्कर्म्येण विपश्चिता ।
नमः केवल्यनाथाय निर्वाणसुखसंविदे ॥११॥
अर्थ ... विवेकी पुरुष के द्वारा सत्त्वगुणविशिष्ट निवृत्तिधर्म के आचरण से प्राप्त होने योग्य, मोक्ष सुख की अनुभूति रूप प्रभु को नमस्कार है ॥११॥

नमः शान्ताय घोराय मूढाय गुण धर्मिणे ।
निर्विशेषाय साम्याय नमो ज्ञानघनाय च ॥१२॥
अर्थ ... सत्त्वगुण को स्वीकार करके शान्त , रजोगुण को स्वीकर करके घोर एवं तमोगुण को स्वीकार करके मूढ से प्रतीत होने वाले, भेद रहित, अतएव सदा समभाव से स्थित ज्ञानघन प्रभु को नमस्कार है ॥१२॥

क्षेत्रज्ञाय नमस्तुभ्यं सर्वाध्यक्षाय साक्षिणे ।
पुरुषायात्ममूलय मूलप्रकृतये नमः ॥१३॥
अर्थ ... शरीर इन्द्रीय आदि के समुदाय रूप सम्पूर्ण पिण्डों के ज्ञाता, सबके स्वामी एवं साक्षी रूप आपको नमस्कार है । सबके अन्तर्यामी , प्रकृति के भी परम कारण, किन्तु स्वयं कारण रहित प्रभु को नमस्कार है ॥१३॥

सर्वेन्द्रियगुणद्रष्ट्रे सर्वप्रत्ययहेतवे ।
असताच्छाययोक्ताय सदाभासय ते नमः ॥१४॥
अर्थ ... सम्पूर्ण इन्द्रियों एवं उनके विषयों के ज्ञाता, समस्त प्रतीतियों के कारण रूप, सम्पूर्ण जड-प्रपंच एवं सबकी मूलभूता अविद्या के द्वारा सूचित होने वाले तथा सम्पूर्ण विषयों में अविद्यारूप से भासने वाले आपको नमस्कार है ॥१४॥

नमो नमस्ते खिल कारणाय
निष्कारणायद्भुत कारणाय ।
सर्वागमान्मायमहार्णवाय
नमोपवर्गाय परायणाय ॥१५॥
अर्थ ... सबके कारण किंतु स्वयं कारण रहित तथा कारण होने पर भी परिणाम रहित होने के कारण, अन्य कारणों से विलक्षण कारण आपको बारम्बार नमस्कार है । सम्पूर्ण वेदों एवं शास्त्रों के परम तात्पर्य , मोक्षरूप एवं श्रेष्ठ पुरुषों की परम गति भगवान को नमस्कार है ॥१५॥ ॥
गुणारणिच्छन्न चिदूष्मपाय
तत्क्षोभविस्फूर्जित मान्साय ।
नैष्कर्म्यभावेन विवर्जितागम-
स्वयंप्रकाशाय नमस्करोमि ॥१६॥
अर्थ ... जो त्रिगुणरूप काष्ठों में छिपे हुए ज्ञानरूप अग्नि हैं, उक्त गुणों में हलचल होने पर जिनके मन में सृष्टि रचने की बाह्य वृत्ति जागृत हो उठती है तथा आत्म तत्त्व की भावना के द्वारा विधि निषेध रूप शास्त्र से ऊपर उठे हुए ज्ञानी महात्माओं में जो स्वयं प्रकाशित हो रहे हैं उन प्रभु को मैं नमस्कार करता हूँ ॥१।६॥

मादृक्प्रपन्नपशुपाशविमोक्षणाय
मुक्ताय भूरिकरुणाय नमोsलयाय ।
स्वांशेन सर्वतनुभृन्मनसि प्रतीत-
प्रत्यग्दृशे भगवते बृहते नमस्ते ॥१७॥
अर्थ ... मुझ जैसे शरणागत पशुतुल्य (अविद्याग्रस्त) जीवों की अविद्यारूप फाँसी को सदा के लिये पूर्णरूप से काट देने वाले अत्याधिक दयालू एवं दया करने में कभी आलस्य ना करने वाले नित्यमुक्त प्रभु को नमस्कार है । अपने अंश से संपूर्ण जीवों के मन में अन्तर्यामी रूप से प्रकट रहने वाले सर्व नियन्ता अनन्त परमात्मा आप को नमस्कार है ॥१७॥

आत्मात्मजाप्तगृहवित्तजनेषु सक्तै-
र्दुष्प्रापणाय गुणसंगविवर्जिताय ।
मुक्तात्मभिः स्वहृदये परिभाविताय
ज्ञानात्मने भगवते नम ईश्वराय ॥१८॥
अर्थ ... शरीर, पुत्र, मित्र, घर, संपंत्ती एवं कुटुंबियों में आसक्त लोगों के द्वारा कठिनता से प्राप्त होने वाले तथा मुक्त पुरुषों के द्वारा अपने हृदय में निरन्तर चिन्तित ज्ञानस्वरूप , सर्वसमर्थ भगवान को नमस्कार है ॥१८॥

यं धर्मकामार्थविमुक्तिकामा
भजन्त इष्टां गतिमाप्नुवन्ति ।
किं त्वाशिषो रात्यपि देहमव्ययं
करोतु मेदभ्रदयो विमोक्षणम ॥१९॥
अर्थ ... जिन्हे धर्म, अभिलाषित भोग, धन तथा मोक्ष की कामना से भजने वाले लोग अपनी मनचाही गति पा लेते हैं अपितु जो उन्हे अन्य प्रकार के अयाचित भोग एवं अविनाशी पार्षद शरीर भी देते हैं वे अतिशय दयालु प्रभु मुझे इस विपत्ती से सदा के लिये उबार लें ॥१९॥
एकान्तिनो यस्य न कंचनार्थ
वांछन्ति ये वै भगवत्प्रपन्नाः ।
अत्यद्भुतं तच्चरितं सुमंगलं
गायन्त आनन्न्द समुद्रमग्नाः ॥२०॥
अर्थ ... जिनके अनन्य भक्त -जो वस्तुतः एकमात्र उन भगवान के ही शरण है-धर्म , अर्थ आदि किसी भी पदार्थ को नही चाह्ते, अपितु उन्ही के परम मंगलमय एवं अत्यन्त विलक्षण चरित्रों का गान करते हुए आनन्द के समुद्र में गोते लगाते रहते हैं ॥२०॥

तमक्षरं ब्रह्म परं परेश-
मव्यक्तमाध्यात्मिकयोगगम्यम ।
अतीन्द्रियं सूक्षममिवातिदूर-
मनन्तमाद्यं परिपूर्णमीडे ॥२१॥
अर्थ ... उन अविनाशी, सर्वव्यापक, सर्वश्रेष्ठ, ब्रह्मादि के भी नियामक, अभक्तों के लिये प्रकट होने पर भी भक्तियोग द्वारा प्राप्त करने योग्य, अत्यन्त निकट होने पर भी माया के आवरण के कारण अत्यन्त दूर प्रतीत होने वाले , इन्द्रियों के द्वारा अगम्य तथा अत्यन्त दुर्विज्ञेय, अन्तरहित किंतु सबके आदिकारण एवं सब ओर से परिपूर्ण उन भगवान की मैं स्तुति करता हूँ ॥२१॥

यस्य ब्रह्मादयो देवा वेदा लोकाश्चराचराः ।
नामरूपविभेदेन फल्ग्व्या च कलया कृताः ॥२२॥
अर्थ ... ब्रह्मादि समस्त देवता, चारों वेद तथा संपूर्ण चराचर जीव नाम और आकृति भेद से जिनके अत्यन्त क्षुद्र अंश के द्वारा रचे गये हैं ॥२२॥


यथार्चिषोग्नेः सवितुर्गभस्तयो
निर्यान्ति संयान्त्यसकृत स्वरोचिषः ।
तथा यतोयं गुणसंप्रवाहो
बुद्धिर्मनः खानि शरीरसर्गाः ॥२३॥
अर्थ ... जिस प्रकार प्रज्ज्वलित अग्नि से लपटें तथा सूर्य से किरणें बार बार निकलती है और पुनः अपने कारण मे लीन हो जाती है उसी प्रकार बुद्धि, मन, इन्द्रियाँ और नाना योनियों के शरीरयह गुणमय प्रपंच जिन स्वयंप्रकाश परमात्मा से प्रकट होता है और पुनः उन्ही में लीन हो जात है ॥२३॥

स वै न देवासुरमर्त्यतिर्यंग
न स्त्री न षण्डो न पुमान न जन्तुः ।
नायं गुणः कर्म न सन्न चासन
निषेधशेषो जयतादशेषः ॥२४॥

अर्थ ... वे भगवान न तो देवता हैं न असुर, न मनुष्य हैं न तिर्यक (मनुष्य से नीची पशु, पक्षी आदि किसी) योनि के प्राणी है। न वे स्त्री हैं न पुरुष और नपुंसक ही हैं। न वे ऐसे कोई जीव हैं, जिनका इन तीनों ही श्रेणियों में समावेश हो सके । न वे गुण हैं न कर्म, न कार्य हैं न तो कारण ही। सबका निषेध हो जाने पर जो कुछ बच रहता है, वही उनका स्वरूप है और वे ही सब कुछ है। ऐसे भगवान मेरे उद्धार के लिये आविर्भूत हों॥२४॥
जिजीविषे नाहमिहामुया कि-
मन्तर्बहिश्चावृतयेभयोन्या ।
इच्छामि कालेन न यस्य विप्लव-
स्तस्यात्मलोकावरणस्य मोक्षम ॥२५॥
अर्थ ... मैं इस ग्राह के चंगुल से छूट कर जीवित नही रहना चाहता; क्यों बाहर सब ओर से अज्ञान से ढके हुए इस हाथी के शरीर से मुझे क्या लेना है । मैं तो आत्मा के प्रकाश को ढक देने वाले उस अज्ञान की निवृत्ति चाहता हूँ, जिसका कालक्रम से अपने आप नाश नही होता , अपितु भगवान की दया से अथवा ज्ञान के उदय से होता है॥२५॥

सोsहं विश्वसृजं विश्वमविश्वं विश्ववेदसम ।
विश्वात्मानमजं ब्रह्म प्रणतोस्मि परं पदम ॥२६॥
अर्थ ... इस प्रकार मोक्ष का अभिलाषी मैं विश्व के रचियता, स्वयं विश्व के रूप में प्रकट तथा विश्व से सर्वथा परे, विश्व को खिलौना बनाकर खेलने वाले, विश्व में आत्मरूप से व्याप्त , अजन्मा, सर्वव्यापक एवं प्राप्त्य वस्तुओं में सर्वश्रेष्ठ श्री भगवान को केवल प्रणाम ही करता हूं, उनकी शरण में हूँ ॥२६॥

योगरन्धित कर्माणो हृदि योगविभाविते ।
योगिनो यं प्रपश्यन्ति योगेशं तं नतोsस्म्यहम ॥२७॥
अर्थ ... जिन्होने भगवद्भक्ति रूप योग के द्वारा कर्मों को जला डाला है, वे योगी लोग उसी योग के द्वारा शुद्ध किये हुए अपने हृदय में जिन्हे प्रकट हुआ देखते हैं उन योगेश्वर भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ ॥२७॥

नमो नमस्तुभ्यमसह्यवेग-
शक्तित्रयायाखिलधीगुणाय ।
प्रपन्नपालाय दुरन्तशक्तये
कदिन्द्रियाणामनवाप्यवर्त्मने ॥२८॥
अर्थ ... जिनकी त्रिगुणात्मक (सत्त्व-रज-तमरूप ) शक्तियों का रागरूप वेग असह्य है, जो सम्पूर्ण इन्द्रियों के विषयरूप में प्रतीत हो रहे हैं, तथापि जिनकी इन्द्रियाँ विषयों में ही रची पची रहती हैं-ऐसे लोगों को जिनका मार्ग भी मिलना असंभव है, उन शरणागतरक्षक एवं अपारशक्तिशाली आपको बार बार नमस्कार है ॥२८॥

नायं वेद स्वमात्मानं यच्छ्क्त्याहंधिया हतम ।
तं दुरत्ययमाहात्म्यं भगवन्तमितोsस्म्यहम ॥२९॥
अर्थ ... जिनकी अविद्या नामक शक्ति के कार्यरूप अहंकार से ढंके हुए अपने स्वरूप को यह जीव जान नही पाता, उन अपार महिमा वाले भगवान की मैं शरण आया हूँ ॥२९॥


श्री शुकदेव उवाच  श्री शुकदेवजी ने कहा -

एवं गजेन्द्रमुपवर्णितनिर्विशेषं
ब्रह्मादयो विविधलिंगभिदाभिमानाः ।
नैते यदोपससृपुर्निखिलात्मकत्वात
तत्राखिलामर्मयो हरिराविरासीत ॥३०॥
अर्थ ... जिसने पूर्वोक्त प्रकार से भगवान के भेदरहित निराकार स्वरूप का वर्णन किया था , उस गजराज के समीप जब ब्रह्मा आदि कोई भी देवता नही आये, जो भिन्न भिन्न प्रकार के विशिष्ट विग्रहों को ही अपना स्वरूप मानते हैं, तब सक्षात श्री हरि- जो सबके आत्मा होने के कारण सर्वदेवस्वरूप हैं-वहाँ प्रकट हो गये ॥३०॥

तं तद्वदार्त्तमुपलभ्य जगन्निवासः
स्तोत्रं निशम्य दिविजैः सह संस्तुवद्भि : ।
छन्दोमयेन गरुडेन समुह्यमान -
श्चक्रायुधोsभ्यगमदाशु यतो गजेन्द्रः ॥३१॥
अर्थ ... उपर्युक्त गजराज को उस प्रकार दुःखी देख कर तथा उसके द्वारा पढी हुई स्तुति को सुन कर सुदर्शनचक्रधारी जगदाधार भगवान इच्छानुरूप वेग वाले गरुड जी की पीठ पर सवार होकर स्तवन करते हुए देवताओं के साथ तत्काल उस स्थान अपर पहुँच गये जहाँ वह हाथी था 
सोsन्तस्सरस्युरुबलेन गृहीत आर्त्तो
दृष्ट्वा गरुत्मति हरि ख उपात्तचक्रम ।
उत्क्षिप्य साम्बुजकरं गिरमाह कृच्छा -
न्नारायण्खिलगुरो भगवान नम्स्ते ॥३२॥
अर्थ ... सरोवर के भीतर महाबली ग्राह के द्वारा पकडे जाकर दुःखी हुए उस हाथी ने आकाश में गरुड की पीठ पर सवार चक्र उठाये हुए भगवान श्री हरि को देखकर अपनी सूँड को -जिसमें उसने (पूजा के लिये) कमल का एक फूल ले रक्खा था-ऊपर उठाया और बडी ही कठिनाई से “सर्वपूज्य भगवान नारायण आपको प्रणाम है” यह वाक्य कहा ॥३२॥
तं वीक्ष्य पीडितमजः सहसावतीर्य
सग्राहमाशु सरसः कृपयोज्जहार ।
ग्राहाद विपाटितमुखादरिणा गजेन्द्रं
सम्पश्यतां हरिरमूमुचदुस्त्रियाणाम ॥३३॥
अर्थ ... उसे पीडित देख कर अजन्मा श्री हरि एकाएक गरुड को छोडकर नीचे झील पर उतर आये । वे दया से प्रेरित हो ग्राहसहित उस गजराज को तत्काल झील से बाहर निकाल लाये और देवताओं के देखते देखते चक्र से मुँह चीर कर उसके चंगुल से हाथी को उबार लिया ॥३३॥

श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः एकादश अध्यायः श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
प्रथम स्कन्धः एकादश अध्यायः श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद


द्वारका में श्रीकृष्ण का राजोचित स्वागत.

सूतजी कहते हैं- श्रीकृष्ण ने अपने समृद्ध आनर्त देश में पहुँचकर, वहाँ के लोगों की विरह-वेदना बहुत कुछ शान्त करते हुए अपना श्रेष्ठ पांचजन्य नामक शंख बजाया। भगवान के होंठों की लाली से लाल हुआ वह श्वेतवर्ण का शंख बजते समय उनके करकमलों में ऐसा शोभायमान हुआ, जैसे लाल रंग के कमलों पर बैठकर कोई राजहंस उच्चस्वर से मधुर गान कर रहा हो। भगवान के शंख की वह ध्वनि संसार के भय को भयभीत करने वाली है। उसे सुनकर सारी प्रजा अपने स्वामी श्रीकृष्ण के दर्शन की लालसा से नगर के बाहर निकल आयी। भगवान श्रीकृष्ण आत्माराम हैं, वे अपने आत्मलाभ से ही सदा-सर्वदा पूर्णकाम हैं, फिर भी जैसे लोग बड़े आदर से भगवान सूर्य को भी दीपदान करते हैं, वैसे ही अनेक प्रकार की भेंटों से प्रजा ने श्रीकृष्ण का स्वागत किया। सबके मुख कमल प्रेम से खिल उठे। वे हर्षगद्गद वाणी से सबके सुहृद और संरक्षक भगवान श्रीकृष्ण की ठीक वैसी स्तुति करने लगे, जैसे बालक अपने पिता से अपनी तोतली बोली में बातें करता हैं।

‘स्वामिन्! हम आपके उन चरणकमलों को सदा-सर्वदा प्रणाम करते हैं, जो इस संसार में परम कल्याण चाहने वालों के लिये सर्वोत्तम आश्रय हैं, जिनकी शरण ले लेने पर परम समर्थ काल भी एक बाल तक बाँका नहीं कर सकता। विश्वभावन! आप ही हमारे माता, सुहृद, स्वामी और पिता हैं; आप ही हमारे सद्गुरु और परम आराध्यदेव हैं। आपके चरणों की सेवा से हम कृतार्थ हो रहे हैं। आप ही हमारा कल्याण करें। अहा! हम आपको पाकर सनाथ हो गये; क्योंकि आपके सर्वसौन्दर्य सार अनुपम रूप का हम दर्शन करते रहते हैं। कितन सुन्दर मुख है। प्रेमपूर्ण मुस्कान से स्निग्ध चितवन! यह दर्शन तो देवताओं के लिये भी दुर्लभ है।

कमलनयन श्रीकृष्ण! जब आप अपने बन्धु-बान्धवों से मिलने के लिये हस्तिनापुर अथवा मथुरा (ब्रजमण्डल) चले जाते हैं, तब आपके बिना हमारा एक-एक क्षण कोटि-कोटि वर्षों के समान लम्बा हो जाता है। आपके बिना हमारी दशा वैसी हो जाती है, जैसे सूर्य के बिना आँखों की। भक्तवत्सल भगवान श्रीकृष्ण प्रजा के मुख से ऐसे वचन सुनते हुए और अपनी कृपामयी दृष्टि से उन पर अनुग्रह की वृष्टि करते हुए द्वारका में प्रविष्ट हुए।

जैसे नाग अपनी नगरी भोगवती (पातालपुरी) की रक्षा करते हैं, वैसे ही भगवान की वह द्वारकापुरी भी मधु, भोज, दशार्ह, अर्ह, कुकुर, अन्धक और वृष्णिवंशी यादवों से, जिनके पराक्रम की तुलना और किसी से भी नहीं की जा सकती, सुरक्षित थी। वह पुरी समस्त ऋतुओं के सम्पूर्ण वैभव से सम्पन्न एवं पवित्र वृक्षों एवं लताओं के कुंजों से युक्त थीं। स्थान-स्थान पर फलों से पूर्ण उद्यान, पुष्पवाटिकाएँ एवं क्रीड़ावन थे। बीच-बीच में कमलयुक्त सरोवर नगर की शोभा बढ़ा रहे थे। नगर के फाटकों, महल के दरवाजों और सड़कों पर भगवान के स्वागतार्थ बंदनवारें लगायी गयी थीं। चारों ओर चित्र-विचित्र ध्वजा-पताकाएँ फहरा रही थीं, जिनसे उन स्थानों पर घाम का कोई प्रभाव नहीं पड़ता था। उसके राजमार्ग, अन्यान्य सड़कें, बाजार और चौक झाड़-बुहारकर सुगन्धित जल से सींच दिये गये थे और भगवान के स्वागत के लिये बरसाये हुए फल-फूल, अक्षत-अंकुर चारों ओर बिखरे हुए थे।

क्रमश:

साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः दशम अध्यायः श्लोक 29-36 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
प्रथम स्कन्धः दशम अध्यायः श्लोक 29-36 का हिन्दी अनुवाद

ये स्वयंवर में शिशुपाल आदि मतवाले राजाओं का मान मर्दन करके जिनको अपने बाहुबल से हर लाये थे तथा जिनके पुत्र प्रद्युम्न, साम्ब, आम्ब आदि हैं, वे रुक्मिणी आदि आठों पटरानियाँ और भौमासुर को मारकर लायी हुई जो इनकी हजारों अन्य पत्नियाँ हैं, वे वास्तव में धन्य हैं। क्योंकि इन सभी ने स्वतन्त्रता और पवित्रता से रहित स्त्री जीवन को पवित्र और उज्ज्वल बना दिया है। इनकी महिमा का वर्णन कोई क्या करे। इनके स्वामी साक्षात् कमलनयन भगवान श्रीकृष्ण हैं, जो नाना प्रकार की प्रिय चेष्टाओं तथा पारिजातादि प्रिय वस्तुओं की भेंट से इनके हृदय में प्रेम एवं आनन्द की अभिवृद्धि करते हुए कभी एक क्षण के लिये भी इन्हें छोड़कर दूसरी जगह नहीं जाते। हस्तिनापुर की स्त्रियाँ इस प्रकार बातचीत कर ही रही थीं कि भगवान श्रीकृष्ण मन्द मुस्कान और प्रेमपूर्ण चितवन से उनका अभिनन्दन करते हुए वहाँ से विदा हो गये।

अजातशत्रु युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण की रक्षा के लिये हाथी, घोड़े, रथ और पैदल सेना उनके साथ कर दी; उन्हें स्नेहवश यह शंका हो आयी थी कि कहीं रास्ते में शत्रु इन पर आक्रमण न कर दें। सुदृढ़ प्रेम के कारण कुरुवंशी पाण्डव भगवान के साथ बहुत दूर तक चले गये। वे लोग उस समय भावी विरह से व्याकुल हो रहे थे। भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें बहुत आग्रह करके विदा किया और सात्यकि, उद्धव आदि प्रेमी मित्रों के साथ द्वारका की यात्रा की। शौनक जी!

वे कुरुजांगल, पांचाल, शूरसेन, यमुना के तटवर्ती प्रदेश ब्रह्मावर्त, कुरुक्षेत्र, मत्स्य, सारस्वत और मरुधन्व देश को पार करके सौवीर और आभीर देश के पश्चिम आनर्त देश में आये। उस समय अधिक चलने के कारण भगवान के रथ के घोड़े कुछ थक-से गये थे। मार्ग में स्थान-स्थान पर लोग उपहारादि के द्वारा भगवान का सम्मान करते, सायंकाल होने पर वे रथ पर से भूमि पर उतर आते और जलाशय पर जाकर सन्ध्या-वन्दन करते। यह उनकी नित्यचर्चा थी।

क्रमश:

साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः दशम अध्यायः श्लोक 17-28 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
प्रथम स्कन्धः दशम अध्यायः श्लोक 17-28 का हिन्दी अनुवाद

उस समय भगवान के प्रिय सखा घुँघराले बालों वाले अर्जुन ने अपने प्रियतम श्रीकृष्ण का वह श्वेत छत्र, जिसमें मोतियों की झालर लटक रही थी और जिसका डंडा रत्नों का बना हुआ था, अपने हाथ में ले लिया। उद्धव और सात्यकि बड़े विचित्र चँवर डुलाने लगे। मार्ग में भगवान श्रीकृष्ण पर चारों ओर से पुष्पों की वर्षा हो रही थी। बड़ी ही मधुर झाँकी थी। जहाँ-तहाँ ब्राह्मणों के दिये हुए सत्य आशीर्वाद सुनायी पड़ रहे थे। वे सगुण भगवान के तो अनुरूप ही थे; क्योंकि उनमें सब कुछ है, परन्तु निर्गुण के अनुरूप नहीं थे, क्योंकि उनमें कोई प्राकृत गुण नहीं है। हस्तिनापुर की कुलीन रमणियाँ, जिनका चित्त भगवान श्रीकृष्ण में रम गया था, आपस में ऐसी बातें कर रहीं थीं, जो सबके काल और मन को आकृष्ट कर रहीं थीं।

वे आपस में कह रही थीं- ‘सखियों! ये वे ही सनातन परम पुरुष हैं, जो प्रलय के समय भी अपने अद्वितीय निर्विशेष स्वरूप में स्थित रहते हैं। उस समय सृष्टि के मूल ये तीनों गुण भी नहीं रहते। जगदात्मा ईश्वर में जीव भी लीन हो जाते हैं और महत्तत्त्वादि समस्त शक्तियाँ अपने कारण अव्यक्त में सो जाती हैं। उन्होंने ही फिर अपने नाम-रूपरहित स्वरूप में नामरूप के निर्माण की इच्छा की तथा अपनी काल-शक्ति से प्रेरित प्रकृति का, जो कि उनके अंशभूत जीवों को मोहित कर लेती है और सृष्टि की रचना में प्रवृत्त रहती है, अनुसरण किया और व्यवहार के लिये वेदादि शास्त्रों की रचना की। इस जगत् में जिसके स्वरूप का साक्षात्कार जितेन्द्रिय योगी अपने प्राणों को वश में करके भक्ति से प्रफुल्ल्ति निर्मल हृदय में किया करते हैं, ये श्रीकृष्ण वही साक्षात् परब्रह्म हैं। वास्तव में इन्हीं की भक्ति से अन्तःकरण की पूर्ण शुद्धि हो सकती है, योगादि के द्वारा नहीं।

सखी! वास्तव में ये वही हैं, जिनकी सुन्दर लीलाओं का गायन वेदों में और दूसरे गोपनीय शास्त्रों में व्यासादि रहस्यवादी ऋषियों ने किया है-जो एक अद्वितीय ईश्वर हैं और अपनी लीला से जगत् की सृष्टि, पालन तथा संहार करते हैं, परन्तु उनमें आसक्त नहीं होते। जब तामसी बुद्धि वाले राजा अधर्म से अपना पेट पालने लगते हैं, तब ये ही सत्त्वगुण को स्वीकार कर ऐश्वर्य, सत्य, ऋत, दया और यश प्रकट करते और संसार के कल्याण के लिये युग-युग में अनेकों अवतार धारण करते हैं। अहो! यह यदुवंश परम प्रशंसनीय है; क्योंकि लक्ष्मीपति पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण ने जन्म ग्रहण करके इस वंश को सम्मानित किया है। वह पवित्र मधुवन (ब्रजमण्डल) भी अत्यन्त धन्य है जिसे इन्होंने अपने शैशव एवं किशोरावस्था में घूम-फिरकर सुशोभित किया है। बड़े हर्ष की बात है कि द्वारका ने स्वर्ग के यश का तिरस्कार करके पृथ्वी के पवित्र यश को बढ़ाया है। क्यों न हो, वहाँ की प्रजा अपने स्वामी भगवान श्रीकृष्ण को जो बड़े प्रेम से मन्द-मन्द मुसकराते हुए उन्हें कृपा दृष्टि से देखते हैं, निरन्तर निहारती रहती हैं।

सखी! जिनका इन्होंने पाणिग्रहण किया है, उन स्त्रियों ने अवश्य ही व्रत, स्नान, हवन आदि के द्वारा इन परमात्मा की आराधना की होगी; क्योंकि वे बार-बार इनकी उस अधर-सुधा का पान करती हैं, जिसके स्मरणमात्र से ही ब्रज बालाएँ आनन्द से मुर्च्छित हो जाया करती थीं।


क्रमश:


साभार krishnakosh.org

“नन्द कौ पूत लगौ है”

नन्द कौ पूत लगौ है


एक गोपी ब्याह कर बरसाने आयी। अपने घर-परिवार के संस्कार और परंपरा बताते हुए उसकी सास यह कहना न भूली कि वह अकेली कहीं न जाये क्योकि यहाँ नन्दगाँव के नन्दजी का बेटा घूमता रहता है और छोटी सी उम्र में ही उसे "इन्द्रजाल" का ऐसा ज्ञान है कि जो उसे देख ले, सुध-बुध खो बैठे, सो तू विशेष सावधानी रखना।

गोपी बोली - " मैया ! मैं उसे पहिचानूंगी कैसे"? सास ने कहा कि सिर पर मोर मुकुट पहिनता है, घुंघराली अलकावलियाँ हैं, कानों में कुन्डल हैं, रक्त-चंदन का तिलक और मुख पर चंदन का ही श्रंगार, उसकी मैया करती है। बड़े-बड़े सम्मोहित करने वाले नेत्रों में काजल की शोभा अनुपम है, माथे के बायीं ओर बुरी नजर से बचने के लिये डिठौना लगा होता है, काँधे तक फ़ैली उसकी केशराशि पवन का साथ पाकर जब फ़हराती है, तो वह अपने सुन्दर कोमल हाथों से उसे ठीक करता हैं। गले में एक स्वर्ण-हार और एक मोतियों का हार है, परन्तु उसे गहवर-वन के पुष्प सर्वाधिक प्रिय हैं, सो उसके मित्रगण या यहाँ की गोपियाँ नित्य ही उसके लिये एक पुष्प-हार का सृजन करती है और वह उसे धारण कराती हैं; उस पुष्प-हार में बड़े ही सुगंधित दिव्य फ़ूलों का समावेश है, जो उस छलिये के आने की पूर्व-सूचना देने में सक्षम है। अनावृत वक्ष पर वह पटुका डाले रहता है। भुज-दंडों पर भी चंदन से बनी सुन्दर कलाकृतियाँ शोभायमान रहती हैं। हाथों में मोटे-मोटे चाँदी के कड़ूले और कमर पर पीतांबर के साथ स्वर्ण करधनी शोभा पाती है। हाथ में बंसी लिये बड़ी ही अलमस्त चाल से चलता है, कभी किसी गोपी को छेड़े तो कभी लता-पताओं से बातें भी करता है। पक्षी भी उसे मुग्ध से देखते हैं और मोर तो टकटकी लगाकर इस अनुपम "सांवरे सौंन्दर्य" का रसपान करते हैं। इससे अधिक मेरी भी स्मृति नहीं क्योकि जो उसे देख ले, उसे फ़िर उसकी वेश-भूषा की भी स्मृति रह पाये, यह संभव ही नहीं। देखने वाले को तो केवल उसका मुख और उसके नेत्र ही स्मृति में रहते हैं और उन नेत्रों में ही मानो समस्त अस्तित्व डूबा जाता है। तुझे स्वस्थ, सानन्द रहना है, तो सावधान रहियो। तू सावधान रहेगी तब भी आशंका तो बनी ही रहेगी क्योंकि बरसाने में कुछ हो और वह न जाने, यह भी तो संभव नहीं। वह स्वयं कहाँ मानने वाला है; न जाने उसे "बरसाने" वालों से ऐसी छेड़-छाड़ में क्या आनन्द आता है।

सास न चेताती तो संभवत: नयी ब्याहता गोपी के मन में इतनी तीव्रता से उस "सांवरे" को देखने की इच्छा भी न जगती। सास नहीं जानती कि उसने अपनी पुत्र-वधू को "सांवरे" से बचाने के स्थान पर "सांवरे" के साथ ही फ़ँसा दिया है। अब तो एक ही उत्सुकता, लगन कि कब उसे देखूँ। कोई भी पास-पड़ोस का कार्य हो तो वधू कहे कि आप बैठें, मैं करती हूँ। यही आशा कि कब "घर" से निकलूँ और कब "वह" मिलें। कब "साध" पूरी होवे।

लक्ष्य के अतिरिक्त जब अन्य कुछ भी स्मृति में न रह जाये तो दैव और प्रकृति सभी आपके साथ हो जाते हैं। सारी परिस्थितियाँ आपके अनुकूल होने लगतीं हैं; अनायास ही "अघटन" घटने लगता है। तो भला कैसे न घटता? एक दिन "सांकरी खोर" से गुजर रही थी,गोपी। सांकरी खोर, पर्वत-श्रंखला के मध्य ऐसा स्थान है, जहाँ से एक ही व्यक्ति एक बार में गुजर सकता है। सर पर दही की मटकी, मुख पर घूँघट का आवरण और झीने आवरण के भीतर से चमकते दो चंचल नेत्र। चंचल नेत्र? अतिशय सौंन्दर्य को देखने की अभिलाषा में नेत्र "चंचल" हो गये हैं, उन्हें तो अब वही देखना है, जिसके बारे में सुना है कि उसे "नहीं" देखना। नेत्र अब सब समय उसी को खोज रहे हैं, कई बार तो इनकी चंचलता पर "लाज" आ जाती है। गोपी सांकरी खोर के मध्य ही पहुँची थी कि सम्मोहित करने वाला वेणु-नाद उसके कानों में पड़ने लगा और कानों में ही नहीं वरन कर्ण-पूटों के माध्यम से ह्रदय में प्रवेश करने लगा। वह रुकी और चलायमान नेत्रों ने अपना कार्य आरंभ किया कि कहाँ खोजें और क्षणार्ध में ही "सांकरी खोर" के दूसरे छोर पर, जहाँ से गोपी को जाना था, उसकी छवि प्रकट होने लगी। सामने से पड़ते सूर्य के प्रकाश के कारण वह स्पष्ट तो नहीं देख पा रही परन्तु अपनी सास की चेतावनी मस्तिष्क में कौंध गयी। ह्रदय में संग्राम छिड़ गया। आत्मा-ह्रदय-नेत्र कह रहे हैं कि देखना है और बुद्धि कह रही है कि नहीं, सास ने मना किया है। यहाँ तो संग्राम छिड़ा है, उधर वह "जादूगर" क्रमश: पास आता जा रहा है। 

हाय रे ! कहाँ भागूँ? वहीं से जाना है और वहीं से "वह" आ रहा है। "वह" जब भी पकड़ता है, तो "सांकरी खोर" में ही पकड़ता है, जब आप "अकेले" हों, उसे तब ही "पकड़ने" में आनन्द आता है। क्यों? क्योंकि यह संबध स्थापित ही तब होगा जब "कोई दूसरा" न हो। उस नादान को नहीं मालूम कि "जहाँ जाना" है, वह "वहीं" तो है; वही तो लक्ष्य है, तुम जानो या न जानो, मानो या न मानो। हाय! कैसा सौंन्दर्य! कैसे नेत्र! कैसा दिव्य मुखमंडल! वह "सांवरा" चुंबक की तरह अपनी ओर बलात ही खींच रहा है, चित्त अब वश में नहीं, सारी इन्द्रियों ने मानो विद्रोह कर दिया है। सब इस देह को छोड़कर उसमें समा जाना चाहती हैं। हे प्रभु! सास उचित ही कहतीं थीं। सत्य कहूँ तो कह ही न सकीं; इनके "आकर्षण" की क्षमता का वर्णन कहाँ संभव है। हे! जगदीश अब तुम ही मुझे बचाओ! आज अच्छी फ़ँसी! 

कन्हैया अब बहुत पास आ गये। जब कोई उपाय न रहा तो गोपी ने मुँह घुमाकर पर्वत-श्रंखला की ओर कर लिया। जब वह स्वयं ही सब कुछ देने को उतारु हों, तो कोई बाधा भला रह सकती है। गोपी छुपने की, न देखने की, बचने की निरर्थक चेष्टा कर रही है और वह मुस्करा रहे हैं। अब वे एकदम पास आकर खड़े हैं। गोपी घूँघट में से देख रही है कि वह इधर-उधर घूमकर उसका मुखड़ा देखना चाहते हैं और बात करना चाहते हैं। देह जड़ हो गयी है; सामने जो आवरण में से दिख रहा है, वह लौकिक नहीं है। ज्ञान स्वत: ही प्रकट हो रहा हैं, प्रेम का स्त्रोत जो न जाने कहाँ दबा पड़ा था, आज फ़ूट पड़ा है। गोपी की आत्मा उस रस में स्नान कर रही है, पवित्र हो रही है, परम चेतन से जो मिलना है। सौन्दर्य दैहिक न होकर अलौकिक हो गया है। आत्मा में परमात्मा से मिलन की अभीप्सा जाग उठी है।

"चौं री सखी! तू तो बरसाने में कछु नयी सी लग रही है। तोकूँ पहलै कबहुँ नाँय देखो!" यह कहते हुए नन्द-नन्दन ने गोपी के कर का स्पर्श कर दिया। अचकचा गयी गोपी और उसने सिर पर रखी "मटकी" झट से हाथों से फ़ेंक दी, "मटकी" फ़ूट गयी [देह संबध नष्ट हो गया], दही बिखर गया, जिसे बड़े परिश्रम से "जमाया" था, अब वह किसी कार्य का नहीं रह गया था। दोनों हाथों से उसने अपने मुख को ढक लिया। वह कनखियों से देख रही है कि नन्द-नन्दन मुस्करा रहे हैं। इतनी क्षमता भी नहीं बची कि भाग पाये, उन्होंने रास्ता ही तो रोक लिया है, अब अन्य कोई मार्ग बचा ही नहीं है कि उनसे बिना मिले, बिना दृष्टि मिलाये, बिना अनुमति माँगे कहीं जाया जा सके। देर हो रही है और यह मानते नहीं, कुछ देर मौन खड़ी रहती हूँ, जब न बोलूँगी तो अपने-आप चले जावेंगे।

कुछ देर मौन पसरा रहा। प्रतीत होता है कि वह किशोर जा चुका है, अच्छा, अब नेत्र खोलूँ। अचानक ही खिलखिलाकर हँसने का शब्द हुआ और गोपी ने चौंककर, मुड़कर, नेत्र खोल सामने देखा। अब जो देखा तो नेत्रों का होना सफ़ल हो गया! नेत्र उस रस को पी रहे हैं और आत्मा तृप्त हो रही है! देह तो जड़ हो ही चुकी है। बूँद, सागर को पीना चाहती है, सागर बूँद को अपना रहा है! रास! नृत्य! गोपी बेसुध हो रही है; नहीं जानती, वह कहाँ है? है, भी कि नहीं! है कौन?

सुध आयी तो देखा कि घर में शय्या पर है और चारों ओर से उसके परिवारीजन और गोपियाँ घेरे हुए हैं। उसके सिर पर पानी के छींटे डाल रहे हैं। कोई बोली कि-"अम्मा! तुमने नयी-नवेली बहू अकेली चौं भेजी, मोय तो लगे कि जाये, भूत लग गयो है।"
इतने में ही उसने सुना कि सास कह रही है कि - "मोय पतो है, जाये भूत-वूत कछु नाँय लगे, जाकूँ तो नन्द कौ पूत लगौ है।" उसने फ़िर आँखें बंद कर ली, जिसने उसे देख लिया, वह फ़िर अब क्या देखे और क्यों?

कन्या पूजन.


न्या पू.

सनातन धर्मग्रन्थों में कन्या-पूजन को नवरात्र-व्रत का अनिवार्य अंग बताया गया है। छोटी बालिकाओं में देवी दुर्गा का रूप देखने के कारण श्रद्धालु उनकी पूजा-अर्चना करते हैं।

दो वर्ष की कन्या को “कुमारी” कहा जाता है। ऐसी मान्यता है कि इसके पूजन से दुख और दरिद्रता समाप्त हो जाती है।

तीन वर्ष की कन्या “त्रिमूर्ति” मानी जाती है। त्रिमूर्ति के पूजन से धन-धान्य का आगमन और संपूर्ण परिवार का कल्याण होता है।

चार वर्ष की कन्या “कल्याणी” के नाम से संबोधित की जाती है। कल्याणी की पूजा से सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती है।

पांच वर्ष की कन्या “रोहिणी” कही जाती है। रोहिणी के पूजन से व्यक्ति रोग-मुक्त होता है।

छ:वर्ष की कन्या “कालिका” की अर्चना से विद्या, विजय, राजयोग की प्राप्ति होती है।

सात वर्ष की कन्या “चण्डिका” के पूजन से ऐश्वर्य मिलता है।

आठ वर्ष की कन्या “शाम्भवी” की पूजा से वाद-विवाद में विजय तथा लोकप्रियता प्राप्त होती है।

नौ वर्ष की कन्या "दुर्गा" की अर्चना से शत्रु का संहार होता है तथा असाध्य कार्य सिद्ध होते हैं।

दस वर्ष की कन्या “सुभद्रा” कही जाती है। सुभद्रा के पूजन से मनोरथ पूर्ण होता है तथा लोक-परलोक में सब सुख प्राप्त होते हैं।

श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः दशम अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
प्रथम स्कन्धः दशम अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद

श्रीकृष्ण का द्वारका-गमन.

शौनक जी ने पूछा- धार्मिकशिरोमणि महाराज युधिष्ठिर ने अपनी पैतृक सम्पत्ति हड़प जाने के इच्छुक आततायियों का नाश करके अपने भाइयों के साथ किस प्रकार से राज्य-शासन किया और कौन-कौन-से काम किये, क्योंकि भोगों में तो उनकी प्रवृत्ति थी ही नहीं।

सूत जी कहते हैं- सम्पूर्ण सृष्टि को उज्जीवित करने वाले भगवान श्रीहरि परस्पर की कलहाग्नि से दग्ध कुरु वंश को पुनः अंकुरित कर और युधिष्ठिर को उनके राज्यसिंहासन पर बैठाकर बहुत प्रसन्न हुए। भीष्म पितामह और भगवान श्रीकृष्ण के उपदेशों के श्रवण से उनके अन्तःकरण में विज्ञान का उदय हुआ और भ्रान्ति मिट गयी। भगवान के आश्रय में रहकर वे समुद्रपर्यन्त सारी पृथ्वी का इन्द्र के समान शासन करने लगे। भीमसेन आदि उनके भाई पूर्ण रूप से उनकी आज्ञाओं का पालन करते थे। युधिष्ठिर के राज्य में आवश्यकतानुसार यथेष्ट वर्षा होती थी, पृथ्वी में समस्त अभीष्ट वस्तुएँ पैदा होती थीं, बड़े-बड़े थनों वाली बहुत-सी गौएँ प्रसन्न रहकर गोशालाओं को दूध से सींचती रहती थीं। नदियाँ, समुद्र, पर्वत, वनस्पति, लताएँ और ओषधियाँ प्रत्येक ऋतु में यथेष्ट रूप से अपनी-अपनी वस्तुएँ राजा को देती थीं।

अजातशत्रु महाराज युधिष्ठिर के राज्य में किसी प्राणी को कभी भी आधि-व्याधि अथवा दैविक, भौतिक और आत्मिक क्लेश नहीं होते थे। अपने बन्धुओं का शोक मिटाने के लिये और अपनी बहिन सुभद्रा की प्रसन्नता के लिये भगवान श्रीकृष्ण कई महीनों तक हस्तिनापुर में ही रहे। फिर जब उन्होंने राजा युधिष्ठिर से द्वारका जाने की अनुमति माँगी, तब राजा ने उन्हें अपने हृदय से लगाकर स्वीकृति दे दी।

भगवान उनको प्रणाम करके रथ पर सवार हुए। कुछ लोगों (समान उम्र वालों) ने उनका आलिंगन किया और कुछ (छोटी उम्र वालों) ने प्रणाम। उस समय सुभद्रा, द्रौपदी, कुन्ती, उत्तरा, गान्धारी, धृतराष्ट्र, युयुत्सु, कृपाचार्य, नकुल, सहदेव, भीमसेन, धौम्य और सत्यवती आदि सब मुर्च्छित-से हो गये। वे शारंगपाणि श्रीकृष्ण का विरह नहीं सह सके। भगवद्भक्त सत्पुरुषों के संग से जिसका दुःसंग छूट गया है, वह विचारशील पुरुष भगवान के मधुर-मनोहर सुयश को एक बार भी सुन लेने पर फिर उसे छोड़ने की कल्पना भी नहीं करता। उन्हीं भगवान के दर्शन तथा स्पर्श से, उनके साथ आलाप करने से तथा साथ-ही-साथ सोने, उठने-बैठने और भोजन करने से जिनका सम्पूर्ण हृदय उन्हें समर्पित हो चुका था, वे पाण्डव भला, उनका विरह कैसे सह सकते थे। उनका चित्त द्रवित हो रहा था, वे सब निर्निमेष नेत्रों से भगवान को देखते हुए स्नेह बन्धन से बँधकर जहाँ-तहाँ दौड़ रहे थे।

भगवान श्रीकृष्ण के घर से चलते समय उनके बन्धुओं की स्त्रियों के नेत्र उत्कण्ठावश उमड़ते हुए आँसुओं से भर आये; परंतु इस भय से कि कहीं यात्रा के समय अशकुन न हो जाये, उन्होंने बड़ी कठिनाई से उन्हें रोक लिया। भगवान के प्रस्थान के समय मृदंग, शंख, भेरी, वीणा, ढोल, नरसिंगे, धुन्धुरी, नगारे, घंटे और दुन्दुभियाँ आदि बाजे बजने लगे। भगवान के दर्शन की लालसा से कुरु वंश की स्त्रियाँ अटारियों पर चढ़ गयीं और प्रेम, लज्जा एवं मुस्कान से युक्त चितवन से भगवान को देखती हुई उन पर पुष्पों की वर्षा करने लगीं।

क्रमश:



साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः नवम अध्यायः श्लोक 40-49 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
प्रथम स्कन्धः नवम अध्यायः श्लोक 40-49 का हिन्दी अनुवाद

जिनकी लटकीली सुन्दर चाल, हाव-भाव युक्त चेष्टाएँ, मधुर मुस्कान और प्रेमभरी चितवन से अत्यन्त सम्मानित गोपियाँ रासलीला में उनके अन्तर्धान हो जाने पर प्रेमोन्माद से मतवाली होकर जिनकी लीलाओं का अनुकरण करके तन्मय हो गयी थीं, उन्हीं भगवान श्रीकृष्ण में मेरा परम प्रेम हो।

जिस समय युधिष्ठिर का राजसूय यज्ञ हो रहा था, मुनीयों और बड़े-बड़े राजाओं से भरी हुई सभा में सबसे पहले सबकी ओर से इन्हीं सबके दर्शनीय भगवान श्रीकृष्ण की मेरी आँखों के सामने पूजा हुई थी; वे ही सबके आत्मा प्रभु आज इस मृत्यु के समय मेरे सामने खड़े हैं। जैसे एक ही सूर्य अनेक आँखों से अनेक रूपों में दीखते हैं, वैसे ही अजन्मा भगवान श्रीकृष्ण अपने ही द्वारा रहित अनेक शरीरधारियों के हृदय में अनेक रूप-से जान पड़ते हैं; वास्तव में तो वे एक और सबके हृदय में विराजमान हैं ही। उन्हीं इन भगवान श्रीकृष्ण को मैं भेद-भ्रम से रहित होकर प्राप्त हो गया हूँ।

सूत जी कहते हैं- इस प्रकार भीष्म पितामह ने मन, वाणी और दृष्टि की वृत्तियों से आत्मस्वरूप भगवान श्रीकृष्ण में अपने-आपको लीन कर दिया। उनके प्राण वहीं पर विलीन हो गये और वे शान्त हो गये। उन्हें अनन्त ब्रह्म में लीन जानकर सब लोग वैसे ही चुप गये, जैसे दिन बीत जाने पर पक्षियों का कलरव शान्त हो जाता है। उस समय देवता और मनुष्य नगारे बजाने लगे। साधुस्वभाव के राजा उनकी प्रशंसा करने लगे और आकाश से पुष्पों की वर्षा होने लगी। शौनक जी! युधिष्ठिर ने उनके मृत शरीर की अन्त्येष्टि क्रिया करायी और कुछ समय के लिये शोकमग्न हो गये। उस समय मुनियों ने बड़े आनन्द से भगवान श्रीकृष्ण की उनके रहस्यमय नाम ले-लेकर स्तुति की। इसके पश्चात् अपने हृदयों को श्रीकृष्णमय बनाकर वे अपने-अपने आश्रमों को लौट गये। तदनन्तर भगवान श्रीकृष्ण के साथ युधिष्ठिर हस्तिनापुर चले आये और उन्होंने वहाँ अपने चाचा धृतराष्ट्र और तपस्विनी गान्धारी को ढांढश बँधाया। फिर धृतराष्ट्र की आज्ञा और भगवान श्रीकृष्ण की अनुमति से समर्थ राजा युधिष्ठिर अपने वंश परम्परागत साम्राज्य का धर्मपूर्वक शासन करने लगे।

क्रमश:


साभार krishnakosh.org