भंगास्वन.


भंगास्वन.  

भंगास्वन का उल्लेख पौराणिक महाकाव्य 'महाभारत' में हुआ है, जिसके अनुसार यह एक राजा का नाम था, जिसने पुत्र की कामना से 'अग्निष्टुत यज्ञ' किया था; किंतु भंगास्वन ने यज्ञ में देवराज इन्द्र को आमंत्रित नहीं किया, जिस कारण इन्द्र के विरोध के फलस्वरूप वह स्त्री हो गया।

इन्द्र का क्रोध


भंगास्वन पुत्रहीन होने के कारण पुत्र-प्राप्ति के लिय अग्निष्‍टुत नामक यज्ञ का आयोजन किया था। उसमें इन्द्र का आवाहन न होने के कारण इन्द्र उससे द्वेष रखने लगे। यह यज्ञ मनुष्‍यों के प्रायश्चित अथवा पुत्र की कामना होने पर किया जाता है। देवराज इन्द्र को जब उस यज्ञ की बात मालूम हुई, तब वे मन को वश में रखने वाले राजर्षि भंगास्‍वन का दोष ढूंढने लगे। बहुत ढूंढने पर भी, वे उस महामना नरेश का कोई दोष न ढूंढ पाये।

भंगास्वन को स्त्रीत्व की प्राप्ति.


कुछ काल के अनन्‍तर राजा भंगास्‍वन शिकार खेलने के लिये वन में गये। "यही बदला लेने का अवसर है", ऐसा सोच करके इन्द्र ने राजा को मोह में डाल दिया। इन्द्र द्वारा मोहित एवं भ्रांत हुए राजर्षि भंगास्‍वन घोड़े के साथ अकेले इधर-उधर भटकने लगे। उन्हें दिशाओं का भी ज्ञान नहीं रहा। भूख-प्यास से पीड़ित, परिश्रम और तृष्‍णा से विकल हो इधर-उधर घूमते रहे। घूमते-घूमते उन्होंने उत्तम जल से भरा हुआ, एक सुंदर सरोवर देखा। उन्होंने घोड़े को सरोवर में स्नान कराकर पानी पिलाया। जब घोड़ा पानी पी चुका, तब उसे एक वृक्ष में बांधकर, वे स्वयं भी जल से उतरे। उसमें स्नान करते ही, राजा को स्त्री शरीर प्राप्त हो गया। अपने को स्त्री रूप में देखकर राजा को बड़ी लज्जा हुई। उनके अंत:करण में चिंता व्याप्त हो गयी। उनकी इन्द्रियां और चेतना व्याकुल हो उठीं।

वे स्त्री रूप में इस प्रकार सोचने लगे- "अब मैं कैसे घोड़े पर चढूंगी? मेरे अग्निष्‍टुत यज्ञ के अनुष्ठान से मुझे सौ महाबलवान औरस पुत्र प्राप्त हुए हैं। उन सबसे क्या कहूंगी? अपनी स्त्रियों, नगर और जनपद के लोगों में कैसे जाऊँगी? धर्म के तत्वों को देखने और जानने वाले ऋषियों ने मृदुता, कुशलता और व्याकुलता – ये स्त्री के गुण बताये हैं। परिश्रम करने में कठोरता और बल-पराक्रम– ये पुरुष के गुण हैं। मेरा पौरूष नष्ट हो गया और किसी अज्ञात कारण से मुझ में स्त्रीत्व प्रकट हो गया। अब स्त्री-भाव आ जाने से अश्व पर कैसे चढ़ सकूंगी?" किसी तरह प्रयत्न करके, स्त्री-रूप-धारी, नरेश घोड़े पर चढ़कर. अपने नगर में आये। राजा के पुत्र, स्त्रियां, सेवक तथा नगर और जनपद के लोग, "यह क्या हुआ?" ऐसी जिज्ञासा करते हुए आश्‍चर्य में पड़ गये। तब स्त्री-रूपधारी, वक्ताओ में श्रेष्ट राजर्षि भंगास्‍वन बोले– "मैं अपनी सेना के साथ शिकार खेलने के लिए निकला था, परंतु दैव प्रेरणा से भ्रान्‍तचित होकर एक भयानक वन में जा घुसा। उस घोर वन में प्यास से पीड़ित एवं अचेत-सा होकर मैंने एक सरोवर देखा, जो पक्षियों से घिरा हुआ और मनोहर शोभा से संपन्न था। उस सरोवर में उतरकर स्नान करते ही दैव ने मुझे स्त्री बना दिया।" अपनी स्त्रियों ओर मंत्रियों के नाम-गोत्र बताकर उन स्त्री-रूपधारी श्रेष्ट-नरेश ने अपने पुत्रों से कहा– "पुत्रों! तुम लोग आपस में प्रेमपूर्वक रहकर राज्य-काज चलाओं। अब मैं वन को चला जाउंगा।"

इन्द्र द्वारा भंगास्वन पुत्रों में फूट

अपने सौ पुत्रों से ऐसा कहकर राजा वन को चले गये। अब वह स्त्री किसी आश्रम में जाकर एक तापस के आश्रय में रहने लगी। उस तपस्वी से आश्रम में उसके सौ पुत्र हुए। तब वह अपने इन पुत्रों को लेकर राज्यवाले पुत्रों के पास गयी और उनसे इस प्रकार बोली– "पुत्रों! मैंने स्त्री रूप से इन पुत्रों को जन्म दिया है, तुम सब लोग एकत्र होकर साथ-साथ भ्रातृभाव से इस राज्‍य का उपभोग करो।" तब वे सब भाई एक साथ होकर उस राज्‍य का उपभोग करने लगे। उन सबको भ्रातृभाव से एक साथ रहकर उस उत्‍तम राज्‍य का उपभोग करते देख क्रोध में भरे हुए देवराज इन्द्र ने सोचा कि- "मैंने तो इस राजर्षि का उपकार ही कर दिया, अपकार तो कुछ किया ही नहीं।" तब देवराज इन्द्र ने ब्राह्मण का रूप धारण करके उस नगर में जाकर राजकुमारों में फूट डाल दी। वे बोले– "राजकुमारो! जो एक पिता के पुत्र हैं, ऐसे भाइयों में भी प्राय: उत्‍तम भ्रातृप्रेम नहीं रहता। देवता और असुर दोनों ही कश्यप के पुत्र हैं तथापि राज्‍य के लिये परस्‍पर विवाद करते रहते हैं। तुम लोग तो भंगास्‍वन के पुत्र हो और दूसरे सौ भाई एक तापस के लड़के हैं। फिर तुममें प्रेम कैसे रह सकता है? तुम लोगों का जो पैतृक राज्‍य है, उसे तापस के लड़के आकर भोग रहे हैं।" इस प्रकार इन्द्र के द्वारा फूट डालने पर वे आपस में लड़ पड़े और युद्ध में एक-दूसरे को मार गिराया।

अपने पुत्रों के मारे जाने का समाचार सुनकर तापसी को बड़ा दु:ख हुआ। वह फूट-फूटकर रोने लगी। 


उस समय ब्राह्मण का वेश धारण करके इन्द्र उसके पास आये और पूछने लगे– "सुमुखि! तुम किसी दु:ख से संतप्त होकर रो रही हो?" 

उस ब्राह्मण को देखकर वह स्त्री करूण स्वर में बोली- "ब्राहमण! मेरे दो सौ पुत्र काल के द्वारा मारे गये। विप्रवर! मैं पहले राजा था। तब मेरे सौ पुत्र हुए थे। द्विज श्रेष्‍ठ! वे सभी मेरे अनुरूप थे। एक दिन मैं शिकार खेलने के लिये गहन वन में गया और वहां अकारण भ्रमित-सा होकर इधर-उधर भटकने लगा। ‘ब्राह्माण-शिरोमणे! वहां एक सरोवर में स्नान करते ही मैं पुरुष से स्त्री हो गया और पुत्रों को राज्‍य पर बिठाकर वन में चला आया। स्त्री रूप में आने पर महामना तपस्वी ने इस आश्रम में मुझसे सौ पुत्र उत्पन्न किये।ब्राह्मण देव! मैं उन सब पुत्रों को नगर में ले गयी और उन्हें भी राज्‍य पर प्रतिष्ठित कराया। विप्रवर! काल की प्रेरणा से उन सब पुत्रों में वैर उत्पन्न हो गया और वे आपस में ही लड़-भिड़कर नष्ट हो गये। इस प्रकार दैव की मारी हुई, मैं शोक में डूब रही हूं।"

भंगास्वन को इन्द्र का वरदान

इन्द्र ने उसे दु:खी देख कठोर वाणी में कहा- "भद्रे! जब पहले तुम राजा थीं, तब तुमने भी मुझे दु:सह दु:ख दिया था। तुमने यज्ञ का अनुष्‍ठान किया, परन्तु यज्ञ में मुझे भाग नहीं दिया। मेरा आवाहन न करने पर भी तुमने वह यज्ञ पूरा कर लिया। खोटी बुद्धि वाली स्त्री! मैं वही इन्द्र हूं और तुमसे मैंने ही अपने वैर का बदला लिया है।" 


 इन्द्र को देखकर स्त्री रूपधारी राजर्षि उनके चरणों में सिर रखकर बोले- "सुरश्रेष्ट! आप प्रसन्न हों। मैंने पुत्र की इच्छा से वह यज्ञ किया था। देवेश्‍वर! उसके लिये आप मुझे क्षमा करें।"

उनके  इस प्रकार प्रणाम करने पर इन्द्र संतुष्‍ट हो गये और वर देने के लिये उद्यत होकर बोले- "राजन! तुम्हारे कौन-से पुत्र जीवित हो जायें? तुमने स्त्री होकर जिन्हें उत्पन्न किया था-वे अथवा पुरुषावस्‍था में जो तुमसे उत्पन्न हुए थे-वे?" 

तब तापसी ने इन्द्र से हाथ जोड़कर कहा- "देवेन्‍द्र! स्त्री-रूप हो जाने पर मुझसे जो पुत्र उत्पन्न हुए हैं, वे ही जीवित हो जायं।" 

 तब इन्द्र ने विस्मित होकर उस स्त्री से पूछा- "तुमने पुरुष रूप से जिन्‍हें उत्पन्न किया था, वे पुत्र तुम्हारे द्वेष के पात्र क्‍यों हो गये? तथा स्त्री रूप होकर तुमने जिनको जन्‍म दिया है, उन पर तुम्हारा अधिक स्नेह क्‍यों है? मैं इसका कारण सुनना चाहता हूं? 
 
स्त्री ने कहा- "हे इन्द्र! स्त्री का अपने पुत्रों पर अधिक स्नेह होता है, वैसा स्नेह पुरुष का नहीं होता है। अत: हे इन्द्र! स्त्री रूप में आने पर मुझसे जिनका जन्‍म हुआ है, वे ही जीवित हो जायं।" 


तापसी के यों कहने पर इन्द्र बड़े प्रसन्न हुए और इस प्रकार बोले- "सत्यवादिनि! तुम्हारे सभी पुत्र जीवित हो जायें। उतम व्रत का पालन करने वाले राजेन्‍द्र! तुम मुझसे अपनी इच्छा के अनुसार दूसरा वर भी मांग लो। बोलो, फिर से पुरुष होना चाहते हो या स्त्री ही रहने की इच्छा है? जो चाहो वह मुझसे मांग लो।"
 
स्त्री ने कहा- "हे इन्द्र! मैं स्त्रीत्व ही वरण करती हूं। अब मैं पुरुष होना नहीं चाहती।" 

 
उसके ऐसा कहने पर देवराज ने उस स्त्री से पूछा- "प्रभो! तुमने पुरुषत्व का त्याग करके स्त्री बने रहने की इच्छा क्यों होती है?"

इन्द्र के यों पूछने पर उन स्त्री रूपधारी नृपश्रेष्‍ठ ने इस प्रकार उत्तर दिया- "देवेन्द्र! स्त्री का पुरुष के साथ संयोग होने पर स्त्री को ही पुरुष की अपेक्षा अधिक विषयसुख प्राप्त होता है, इसी कारण से मैं स्त्रीत्व का ही वरण करती हूं। देवश्रेष्‍ठ! सुरेश्‍वर! मैं सच कहती हूं, स्त्री रूप में मैंने अधिक रति-सुख का अनुभव किया है, अत: स्त्री रूप से ही संतुष्ट हूं।


आप अब पधारिये।"

श्रुतायुध.



श्रुतायुध.

श्रुतायुध महाभारत द्रोणपर्व के अनुसार एक राजा थे। उन्हें वरुण और पर्णाशा का पुत्र कहा गया है। इनके पास एक ऐसी गदा थी, जो युद्धकर्त्ता पर फेंकने से उसका नाश अवश्य करती थी, किंतु युद्ध न करने वाले पर चलाने से उसका उल्टा ही फल होता था और वह गदा चलाने वाले के ही प्राण हर लेती थी। श्रुतायुध को यह गदा उनके पिता वरुण ने दी थी। 

जन्म तथा दिव्य गदा की प्राप्ति

वीर राजा श्रुतायुध वरुण के पुत्र थे। शीतसलिला महानदी पर्णाशा उनकी माता थीं। पर्णाशा अपने पुत्र के लिये वरुण से बोली- "प्रभो। मेरा यह पुत्र संसार में शत्रुओं के लिये अवध्‍य हो।" तब वरुण ने प्रसन्‍न होकर कहा- "मैं इसके लिये हितकारक वर के रूप में यह दिव्‍य अस्‍त्र प्रदान करता हूँ, जिसके द्वारा तुम्‍हारा यह पुत्र अवध्‍य होगा। सरिताओं में श्रेष्‍ठ पर्णाशे! मनुष्‍य किसी प्रकार भी अमर नहीं हो सकता। जिन लोगों ने यहां जन्‍म लिया है, उनकी मृत्‍यु अवश्‍यम्‍भावी है। तुम्‍हारा यह पुत्र इस अस्‍त्र के प्रभाव से रणक्षैत्र में शत्रुओं के लिये सदा ही दुर्धर्ष होगा। अत: तुम्‍हारी मानसिक चिन्‍ता निवृत हो जानी चाहिये।" ऐसा कहकर वरुण देव ने श्रुतायुध को मन्‍त्रोंपूर्वक वह गदा प्रदान की, जिसे पाकर वे सम्‍पूर्ण जगत में दुर्जय वीर माने जाते थे। गदा देकर भगवान वरुण ने उनसे पुन: कहा- "वत्‍स! जो युद्ध न कर रहा हो, उस पर इस गदा का प्रहार न करना; अन्‍यथा यह तुम्‍हारे ऊपर ही आकर गिरेगी। शत्तिशाली पुत्र! यह गदा प्रतिकूल आचरण करने वाले प्रयोक्ता पुरुष को भी मार सकती है।" 


अर्जुन से सामाना

महाभारत युद्ध में शत्रुसूदन अर्जुन बड़ी उतावली के साथ शत्रु-सेनाओं को पीड़ा दे रहे थे। जब कृतवर्मा उनके समक्ष आये, तब सम्बंधों का विचार करके अर्जुन ने उनका वध नहीं किया। अर्जुन को इस प्रकार आगे बढ़ते देख शूरवीर राजा श्रुतायुध अत्‍यन्‍त कुपित हो उठे और अपना विशाल धनुष हिलाते हुए उन पर टूट पड़े। उन्‍होंने अर्जुन को तीन और श्रीकृष्ण को सत्‍तर बाण मारे। फिर अत्‍यन्‍त तीखे क्षुरप्र से अर्जुन की ध्‍व्‍जा पर प्रहार किया। तब अर्जुन ने अत्‍यन्‍त कुपित होकर अंकुशों से महान् गजराज को पीड़ित करने की भांति झुकी हुई गांठ वाले नब्‍बे बाणों से राजा श्रुतायुध को चोट पहुंचायी। उस समय राजा श्रुतायुध पाण्‍डुकुमार अर्जुन के उस पराक्रम को न सह सके। अत: उन्‍होंने अर्जुन को सतहत्‍तर बाण मारे। तब अर्जुन ने उनका धनुष काटकर उनके तरकस के भी टुकड़े-टुकड़े कर दिये। फिर कुपित हो झुकी हुई गांठ वाले सात बाणों द्वारा उनकी छाती पर प्रहार किया। फिर तो राजा श्रुतायुध ने क्रोध से अचेत होकर दूसरा धनुष हाथ में लिया और इन्‍द्रकुमार अर्जुन की भुजाओं तथा वक्ष:स्‍थल में नौ बाण मारे। यह देख शत्रुदमन अर्जुन ने मुस्‍कराते हुए ही श्रुतायुध को कई हज़ार बाण मारकर पीड़ित कर दिया। साथ ही उन महारथी एवं महाबली वीर ने उनके घोडों और सारथि को भी शीघ्रतापूर्वक मार डाला और सत्‍तर नाराचों से श्रुतायुध को भी घायल कर दिया। 


मृत्यु


जैसा कि पिता वरुण ने श्रुतायुध से कहा था कि इस गदा का प्रयोग जो युद्ध न कर रहा हो उस पर मत करना, उन्होंने पिता वरुण के इस आदेश का पालन नहीं किया और उस वीरघातिनी गदा के द्वारा भगवान श्रीकृष्ण को चोट पहुंचायी। पराक्रमी श्रीकृष्‍ण ने अपने हष्‍ट–पुष्‍ट कंधे पर उस गदा का आघात सह लिया। परंतु जैसे वायु विन्‍ध्‍यपर्वत को नहीं हिला सकती है, उसी प्रकार वह गदा श्रीकृष्‍ण को कम्पित न कर सकी। जैसे दोषयुक्त आभिचारिक क्रिया से उत्‍पन्‍न हुई कृत्‍या उसका प्रयोग करने वाले यजमान का ही नाश कर देती है, उसी प्रकार उस गदा ने लौटकर वहां खड़े हुए अमर्षशील वीर श्रुतायुध को मार डाला। वीर श्रुतायुध का वध करके वह गदा धरती पर जा गिरी। लौटी हुई उस गदा को और उसके द्वारा मारे गये वीर श्रुतायुध को देखकर कौरव सेना में महान् हाहाकार मच गया। शत्रुदमन श्रुतायुध को अपने ही अस्‍त्र से मारा गया देख यह बात ध्‍यान में आयी कि श्रुतायुध ने युद्ध न करने वाले श्रीकृष्‍ण पर गदा चलायी थी। इसीलिये उस गदा ने उन्‍हीं का वध किया। वरुण देव ने जैसा कहा था, युद्ध भूमि में श्रुतायुध की उसी प्रकार मृत्‍यु हुई। वे सम्‍पूर्ण धनुर्धरों के देखते-देखते प्राणशून्‍य होकर पृथ्‍वी पर गिर पड़े। गिरते समय पर्णाशा के प्रिय श्रुतायुध आंधी के उखाड़े हुए अनेक शाखाओं वाले वृक्ष के समान प्रतीत हो रहे थे।

आहुति. (प्रेमचंद)



आहुति.
(प्रेमचंद)

आनन्द ने गद्देदार कुर्सी पर बैठकर सिगार जलाते हुए कहा-आज विशम्भर ने कैसी हिमाकत की! इम्तहान क़रीब है और आप आज वालण्टियर बन बैठे। कहीं पकड़ गये, तो इम्तहान से हाथ धोएँगे। मेरा तो खयाल है कि वजीफ़ा भी बन्द हो जाएगा।

सामने दूसरे बेंच पर रूपमणि बैठी एक अखबार पढ़ रही थी। उसकी आँखें अखबार की तरफ थीं; पर कान आनन्द की तरफ लगे हुए थे। बोली-यह तो बुरा हुआ। तुमने समझाया नहीं? आनन्द ने मुँह बनाकर कहा-जब कोई अपने को दूसरा गाँधी समझने लगे, तो उसे समझाना मुश्किल हो जाता है। वह उलटे मुझे समझाने लगता है।

रूपमणि ने अखबार को समेटकर बालों को सँभालते हुए कहा-तुमने मुझे भी नहीं बताया, शायद मैं उसे रोक सकती।

आनन्द ने कुछ चिढक़र कहा-तो अभी क्या हुआ, अभी तो शायद काँग्रेस आफिस ही में हो। जाकर रोक लो।

आनन्द और विशम्भर दोनों ही यूनिवर्सिटी के विद्यार्थी थे। आनन्द के हिस्से में लक्ष्मी भी पड़ी थी, सरस्वती भी; विशम्भर फूटी तकदीर लेकर आया था। प्रोफेसरों ने दया करके एक छोटा-सा वजीफा दे दिया था। बस, यही उसकी जीविका थी। रूपमणि भी साल भर पहले उन्हीं के समकक्ष थी; पर इस साल उसने कालेज छोड़ दिया था। स्वास्थ्य कुछ बिगड़ गया था। दोनों युवक कभी-कभी उससे मिलने आते रहते थे। आनन्द आता था। उसका हृदय लेने के लिए, विशम्भर आता था यों ही। जी पढ़ने में न लगता या घबड़ाता, तो उसके पास आ बैठता था। शायद उससे अपनी विपत्ति-कथा कहकर उसका चित्त कुछ शान्त हो जाता था। आनन्द के सामने कुछ बोलने की उसकी हिम्मत न पड़ती थी। आनन्द के पास उसके लिए सहानुभूति का एक शब्द भी न था। वह उसे फटकारता था; ज़लील करता था और बेवकूफ बनाता था। विशम्भर में उससे बहस करने की सामथ्र्य न थी। सूर्य के सामने दीपक की हस्ती ही क्या? आनन्द का उस पर मानसिक आधिपत्य था। जीवन में पहली बार उसने उस आधिपत्य को अस्वीकार किया था। और उसी की शिकायत लेकर आनन्द रूपमणि के पास आया था। महीनों विशम्भर ने आनन्द के तर्क पर अपने भीतर के आग्रह को ढाला; पर तर्क से परास्त होकर भी उसका हृदय विद्रोह करता रहा। बेशक उसका यह साल ख़राब हो जाएगा। सम्भव है, छात्र-जीवन ही का अन्त हो जाए, फिर इस 14-15 वर्षों की मेहनत पर पानी फिर जाएगा न खुदा ही मिलेगा, न सनम का विसाल ही नसीब होगा। आग में कूदने से क्या फ़ायदा। यूनिवर्सिटी में रहकर भी तो बहुत कुछ देश का काम किया जा सकता है। आनन्द महीने में कुछ-न-कुछ चन्दा जमा करा देता है, दूसरे छात्रों से स्वदेशी की प्रतिज्ञा करा ही लेता है। विशम्भर को भी आनन्द ने यही सलाह दी। इस तर्क ने उसकी बुद्धि को तो जीत लिया, पर उसके मन को न जीत सका। आज जब आनन्द कालेज गया तो विशम्भर ने स्वराज्य-भवन की राह ली। आनन्द कालेज से लौटा तो उसे अपनी मेज पर विशम्भर का पत्र मिला। लिखा था-

प्रिय आनन्द,
मैं जानता हूँ कि मैं जो कुछ करने जा रहा हूँ वह मेरे लिए हितकर नहीं है; पर न जाने कौन-सी शक्ति मुझे खींचे लिये जा रही है। मैं जाना नहीं चाहता, पर जाता हूँ, उसी तरह जैसे आदमी मरना नहीं चाहता, पर मरता है; रोना नहीं चाहता, पर रोता है। जब सभी लोग, जिन पर हमारी भक्ति है, ओखली में अपना सिर डाल चुके थे, तो मेरे लिए भी अब कोई दूसरा मार्ग नहीं है। मैं अब और अपनी आत्मा को धोखा नहीं दे सकता। यह इज्जत का सवाल है, और इज्जत किसी तरह का समझौता (compromise) नहीं कर सकती।
तुम्हारा-‘विशम्भर’

ख़त पढक़र आनन्द के जी में आया, कि विशम्भर को समझाकर लौटा लाये; पर उसकी हिमाक़त पर गुस्सा आया और उसी तैश में वह रूपमणि के पास जा पहुँचा। अगर रूपमणि उसकी खुशामद करके कहती-जाकर उसे लौटा लाओ, तो शायद वह चला जाता, पर उसका यह कहना कि मैं उसे रोक लेती, उसके लिए असह्य था। उसके जवाब में रोष था, रुखाई थी और शायद कुछ हसद भी था।

रूपमणि ने गर्व से उसकी ओर देखा और बोली-अच्छी बात है, मैं जाती हूँ।

एक क्षण के बाद उसने डरते-डरते पूछा-तुम क्यों नहीं चलते?

फिर वही ग़लती। अगर रूपमणि उसकी खुशामद करके कहती तो आनन्द ज़रूर उसके साथ चला जाता, पर उसके प्रश्न में पहले ही यह भाव छिपा था, कि आनन्द जाना नहीं चाहता। अभिमानी आनन्द इस तरह नहीं जा सकता। उसने उदासीन भाव से कहा-मेरा जाना व्यर्थ है। तुम्हारी बातों का ज़्यादा असर होगा। मेरी मेज पर यह ख़त छोड़ गया था। जब वह आत्मा और कर्तव्य और आदर्श की बड़ी-बड़ी बातें सोच रहा है और अपने को भी कोई ऊँचे दरजे का आदमी समझ रहा है, तो मेरा उस पर कोई असर न होगा।

उसने जेब से पत्र निकालकर रूपमणि के सामने रख दिया। इन शब्दों में जो संकेत और व्यंग्य था, उसने एक क्षण तक रूपमणि को उसकी तरफ देखने न दिया। आनन्द के इस निर्दय प्रहार ने उसे आहत-सा कर दिया था; पर एक ही क्षण में विद्रोह की एक चिनगारी-सी उसके अन्दर जा घुसी। उसने स्वच्छन्द भाव से पत्र को लेकर पढ़ा। पढ़ा सिर्फ आनन्द के प्रहार का जवाब देने के लिए; पर पढ़ते-पढ़ते उसका चेहरा तेज से कठोर हो गया, गरदन तन गयी, आँखों में उत्सर्ग की लाली आ गयी।

उसने मेज पर पत्र रखकर कहा-नहीं, अब मेरा जाना भी व्यर्थ है।

आनन्द ने अपनी विजय पर फूलकर कहा-मैंने तो तुमसे पहले ही कह दिया, इस वक्त उसके सिर पर भूत सवार है, उस पर किसी के समझाने का असर न होगा। जब साल भर जेल में चक्की पीस लेंगे और वहाँ तपेदिक लेकर निकलेंगे, या पुलिस के डण्डों से सिर और हाथ-पाँव तुड़वा लेंगे, तो बुद्धि ठिकाने आवेगी। अभी तो जयजयकार और तालियों के स्वप्न देख रहे होंगे।

रूपमणि सामने आकाश की ओर देख रही थी। नीले आकाश में एक छायाचित्र-सा नजर आ रहा था-दुर्बल, सूखा हुआ नग्न शरीर, घुटनों तक धोती, चिकना सिर, पोपला मुँह, तप, त्याग और सत्य की सजीव मूर्ति।

आनन्द ने फिर कहा-अगर मुझे मालूम हो, कि मेरे रक्त से देश का उद्धार हो जाएगा, तो मैं आज उसे देने को तैयार हूँ; लेकिन मेरे जैसे सौ-पचास आदमी निकल ही आएँ, तो क्या होगा? प्राण देने के सिवा और तो कोई प्रत्यक्ष फल नहीं दीखता।

रूपमणि अब भी वही छायाचित्र देख रही थी। वही छाया मुस्करा रही थी, सरल मनोहर मुस्कान, जिसने विश्व को जीत लिया है।

आनन्द फिर बोला-जिन महाशयों को परीक्षा का भूत सताया करता है, उन्हें देश का उद्धार करने की सूझती है। पूछिए, आप अपना उद्धार तो कर ही नहीं सकते, देश का क्या उद्धार कीजिएगा? इधर फेल होने से उधर के डण्डे फिर भी हलके हैं।

रूपमणि की आँखें आकाश की ओर थीं। छायाचित्र कठोर हो गया था।

आनन्द ने जैसे चौंककर कहा-हाँ, आज बड़ी मजेदार फ़िल्म है। चलती हो? पहले शो में लौट आएँ।

रूपमणि ने जैसे आकाश से नीचे उतरकर कहा-नहीं, मेरा जी नहीं चाहता।

आनन्द ने धीरे से उसका हाथ पकडक़र कहा-तबीयत तो अच्छी है? रूपमणि ने हाथ छुड़ाने की चेष्टा न की। बोली-हाँ, तबीयत में हुआ क्या है?

‘तो चलती क्यों नहीं?’

‘आज जी नहीं चाहता।’

‘तो फिर मैं भी न जाऊँगा।’

‘बहुत ही उत्तम, टिकट के रुपये काँग्रेस को दे दो।’

‘यह तो टेढ़ी शर्त है; लेकिन मंजूर!’

‘कल रसीद मुझे दिखा देना।’

‘तुम्हें मुझ पर इतना विश्वास नहीं?’

आनन्द होस्टल चला। जरा देर बाद रूपमणि स्वराज्य-भवन की ओर चली।
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रूपमणि स्वराज्य-भवन पहुँची, तो स्वयंसेवकों का एक दल विलायती कपड़े के गोदामों को पिकेट करने जा रहा था। विशम्भर दल में न था।

दूसरा दल शराब की दूकानों पर जाने को तैयार खड़ा था। विशम्भर इसमें भी न था।

रूपमणि ने मन्त्री के पास आकर कहा-आप बता सकते हैं, विशम्भर नाथ कहाँ हैं?

मन्त्री ने पूछा-वही, जो आज भरती हुए हैं?

‘जी हाँ, वही।’

‘बड़ा दिलेर आदमी है। देहातों को तैयार करने का काम लिया है। स्टेशन पहुँच गया होगा। सात बजे की गाड़ी से जा रहा है।’

‘तो अभी स्टेशन पर होंगे।’

मन्त्री ने घड़ी पर नजर डालकर जवाब दिया-हाँ, अभी तो शायद स्टेशन पर मिल जाएँ।

रूपमणि ने बाहर निकलकर साइकिल तेज की। स्टेशन पर पहुँची, तो देखा, विशम्भर प्लेटफार्म पर खड़ा है।

रूपमणि को देखते ही लपककर उसके पास आया और बोला-तुम यहाँ कैसे आयी। आज आनन्द से तुम्हारी मुलाकात हुई थी?

रूपमणि ने उसे सिर से पाँव तक देखकर कहा-यह तुमने क्या सूरत बना रखी है? क्या पाँव में जूता पहनना भी देशद्रोह है?

विशम्भर ने डरते-डरते पूछा-आनन्द बाबू ने तुमसे कुछ कहा नहीं?

रूपमणि ने स्वर को कठोर बनाकर कहा-जी हाँ, कहा। तुम्हें यह क्या सूझी? दो साल से कम के लिए न जाओगे!

विशम्भर का मुँह गिर गया। बोला-जब यह जानती हो, तो क्या तुम्हारे पास मेरी हिम्मत बाँधने के लिए दो शब्द नहीं हैं?

रूपमणि का हृदय मसोस उठा; मगर बाहरी उपेक्षा को न त्याग सकी। बोली-तुम मुझे दुश्मन समझते हो, या दोस्त।

विशम्भर ने आँखों में आँसू भरकर कहा-तुम ऐसा प्रश्न क्यों करती हो रूपमणि? इसका जवाब मेरे मुँह से न सुनकर भी क्या तुम नहीं समझ सकतीं?

रूपमणि-तो मैं कहती हूँ, तुम मत जाओ।

विशम्भर-यह दोस्त की सलाह नहीं है रूपमणि! मुझे विश्वास है, तुम हृदय से यह नहीं कह रही हो। मेरे प्राणों का क्या मूल्य है, जरा यह सोचो। एम०ए० होकर भी सौ रुपये की नौकरी। बहुत बढ़ा तो तीन-चार सौ तक जाऊँगा। इसके बदले यहाँ क्या मिलेगा, जानती हो? सम्पूर्ण देश का स्वराज्य। इतने महान् हेतु के लिए मर जाना भी उस ज़िन्दगी से कहीं बढक़र है। अब जाओ, गाड़ी आ रही है। आनन्द बाबू से कहना, मुझसे नाराज़ न हों।

रूपमणि ने आज तक इस मन्दबुद्धि युवक पर दया की थी। इस समय उसकी श्रद्धा का पात्र बन गया। त्याग में हृदय को खींचने की जो शक्ति है, उसने रूपमणि को इतने वेग से खींचा कि परिस्थितियों का अन्तर मिट-सा गया। विशम्भर में जितने दोष थे, वे सभी अलंकार बन-बनकर चमक उठे। उसके हृदय की विशालता में वह किसी पक्षी की भाँति उड़-उडक़र आश्रय खोजने लगी।

रूपमणि ने उसकी ओर आतुर नेत्रों से देखकर कहा-मुझे भी अपने साथ लेते चलो।

विशम्भर पर जैसे घड़ों का नशा चढ़ गया।

‘तुमको? आनन्द बाबू मुझे ज़िन्दा न छोड़ेंगे!’

‘मैं आनन्द के हाथों बिकी नहीं हूँ!’

‘आनन्द तो तुम्हारे हाथों बिके हुए हैं?’

रूपमणि ने विद्रोह भरी आँखों से उसकी ओर देखा, पर कुछ बोली नहीं। परिस्थितियाँ उसे इस समय बाधाओं-सी मालूम हो रही थीं। वह भी विशम्भर की भाँति स्वछन्द क्यों न हुई? सम्पन्न माँ-बाप की अकेली लडक़ी, भोग-विलास में पली हुई, इस समय अपने को कैदी समझ रही थी। उसकी आत्मा उन बन्धनों को तोड़ डालने के लिए ज़ोर लगाने लगी।

गाड़ी आ गयी। मुसाफिर चढऩे-उतरने लगे। रूपमणि ने सजल नेत्रों से कहा-तुम मुझे नहीं ले चलोगे?

विशम्भर ने दृढ़ता से कहा-नहीं।

‘क्यों?’

‘मैं इसका जवाब नहीं देना चाहता!’

‘क्या तुम समझते हो, मैं इतनी विलासासक्त हूँ कि मैं देहात में रह नहीं सकती?’

विशम्भर लज्जित हो गया। यह भी एक बड़ा कारण था, पर उसने इनकार किया-नहीं, यह बात नहीं।

‘फिर क्या बात है? क्या यह भय है, पिताजी मुझे त्याग देंगे?’

‘अगर यह भय हो तो क्या वह विचार करने योग्य नहीं?’

‘मैं उनकी तृण बराबर परवा नहीं करती।’

विशम्भर ने देखा, रूपमणि के चाँद-से मुख पर गर्वमय संकल्प का आभास था। वह उस संकल्प के सामने जैसे काँप उठा। बोला-मेरी यह याचना स्वीकर करो, रूपमणि, मैं तुमसे विनती करता हूँ।

रूपमणि सोचती रही।

विशम्भर ने फिर कहा-मेरी खातिर तुम्हें यह विचार छोडऩा पड़ेगा।

रूपमणि ने सिर झुकाकर कहा-अगर तुम्हारा यह आदेश है, तो मैं मानूँगी विशम्भर! तुम दिल से समझते हो, मैं क्षणिक आवेश में आकर इस समय अपने भविष्य को गारत करने जा रही हूँ। मैं तुम्हें दिखा दूँगी, यह मेरा क्षणिक आवेश नहीं है, दृढ़ संकल्प है। जाओ; मगर मेरी इतनी बात मानना कि क़ानून के पंजे में उसी वक्त आना, जब आत्माभिमान या सिद्धान्त पर चोट लगती हो। मैं ईश्वर से तुम्हारे लिए प्रार्थना करती रहूँगी।

गाड़ी ने सीटी दी। विशम्भर अन्दर जा बैठा। गाड़ी चली, रूपमणि मानो विश्व की सम्पत्ति अंचल में लिये खड़ी रही।
3
रूपमणि के पास विशम्भर का एक पुराना रद्दी-सा फोटो आल्मारी के एक कोने में पड़ा हुआ था। आज स्टेशन से आकर उसने उसे निकाला और उसे एक मखमली फ्रेम में लगाकर मेज पर रख दिया। आनन्द का फोटो वहाँ से हटा दिया गया।

विशम्भर ने छुट्टियों में उसे दो-चार पत्र लिखे थे। रूपमणि ने उन्हें पढक़र एक किनारे डाल दिये थे। आज उसने उन पत्रों को निकाला और उन्हें दोबारा पढ़ा। उन पत्रों में आज कितना रस था। वह बड़ी हिफाजत से राइटिंग-बाक्स में बन्दकर दिये गये।

दूसरे दिन समाचारपत्र आया तो रूपमणि उस पर टूट पड़ी। विशम्भर का नाम देखकर वह गर्व से फूल उठी।

दिन में एक बार स्वराज्य-भवन जाना उनका नियम हो गया। ज़लसों में भी बराबर शरीक होती, विलास की चीज़ें एक-एक करके सब फेंक दी गयीं। रेशमी साडिय़ों की जगह गाढ़े की साडिय़ाँ आयीं। चरखा भी आया। वह घण्टों बैठी सूत काता करती। उसका सूत दिन-दिन बारीक होता जाता था। इसी सूत से वह विशम्भर के कुरते बनवाएगी।

इन दिनों परीक्षा की तैयारियाँ थीं। आनन्द को सिर उठाने की फुरसत न मिलती। दो-एक बार वह रूपमणि के पास आया; पर ज़्यादा देर बैठा नहीं शायद रूपमणि की शिथिलता ने उसे ज़्यादा बैठने ही न दिया।

एक महीना बीत गया।

एक दिन शाम आनन्द आया। रूपमणि स्वराज्य-भवन जाने को तैयार थी। आनन्द ने भवें सिकोडक़र कहा-तुमसे तो अब बातें भी मुश्किल हैं।

रूपमणि ने कुर्सी पर बैठकर कहा-तुम्हें भी तो किताबों से छुट्टी नहीं मिलती। आज की कुछ ताजी खबर नहीं मिली। स्वराज्य-भवन में रोज-रोज का हाल मालूम हो जाता है।

आनन्द ने दार्शनिक उदासीनता से कहा-विशम्भर ने तो सुना, देहातों में खूब शोरगुल मचा रखा है। जो काम उसके लायक़ था, वह मिल गया। यहाँ उसकी जबान बन्द रहती थी। वहाँ देहातियों में खूब गरजता होगा; मगर आदमी दिलेर है।

रूपमणि ने उसकी ओर ऐसी आँखों से देखा; जो कह रही थीं; तुम्हारे लिए यह चर्चा अनधिकार चेष्टा है, और बोली-आदमी में अगर यह गुण है तो फिर उसके सारे अवगुण मिट जाते हैं। तुम्हें काँग्रेस बुलेटिन पढ़ने की क्यों फुरसत मिलती होगी। विशम्भर ने देहातों में ऐसी जागृति फैला दी है कि विलायती का एक सूत भी नहीं बिकने पाता और न नशे की दूकानों पर कोई जाता है। और मजा यह है कि पिकेटिंग करने की ज़रूरत नहीं पड़ती। अब तो पंचायतें खोल रहे हैं।

आनन्द ने उपेक्षा भाव से कहा-तो समझ लो, अब उनके चलने के दिन भी आ गये हैं।

रूपमणि ने जोश से कहा-इतना करके जाना बहुुत सस्ता नहीं है। कल तो किसानों का एक बहुत बड़ा जलसा होने वाला था। पूरे परगने के लोग जमा हुए होंगे। सुना है, आजकल देहातों से कोई मुकदमा ही नहीं आता। वकीलों की नानी मरी जा रही है।

आनन्द ने कड़वेपन से कहा-यही तो स्वराज्य का मजा है कि जमींदार, वकील और व्यापारी सब मरें। बस, केवल मज़दूर और किसान रह जाएँ।

रूपमणि ने समझ लिया, आज आनन्द तुलकर आया है। उसने भी जैसे आस्तीन चढ़ाते हुए कहा-तो तुम क्या चाहते हो कि ज़मींदार और वकील और व्यापारी गरीबों को चूस-चूसकर मोटे होते जाएँ और जिन सामाजिक व्यवस्थाओं में ऐसा महान् अन्याय हो रहा है, उनके ख़िलाफ़ जबान तक न खोली जाए? तुम तो समाजशास्त्र के पण्डित हो। क्या किसी अर्थ में यह व्यवस्था आदर्श कही जा सकती है? सभ्यता के तीन मुख्य सिद्धान्तों का ऐसी दशा में किसी न्यूनतम मात्रा में भी व्यवहार हो सकता है?

आनन्द ने गर्म होकर कहा-शिक्षा और सम्पत्ति का प्रभुत्व हमेशा रहा है और हमेशा रहेगा। हाँ, उसका रूप भले ही बदल जाए।

रूपमणि ने आवेश से कहा-अगर स्वराज्य आने पर भी सम्पत्ति का यही प्रभुत्व रहे और पढ़ा-लिखा समाज यों ही स्वार्थान्ध बना रहे, तो मैं कहूँगी, ऐसे स्वराज्य का न आना ही अच्छा। अंग्रेजी महाजनों की धनलोलुपता और शिक्षितों का स्वहित ही आज हमें पीसे डाल रहा है। जिन बुराइयों को दूर करने के लिए आज हम प्राणों को हथेली पर लिये हुए हैं, उन्हीं बुराइयों को क्या प्रजा इसलिए सिर चढ़ाएगी कि वे विदेशी नहीं, स्वदेशी हैं? कम-से-कम मेरे लिए तो स्वराज्य का यह अर्थ नहीं है कि जॉन की जगह गोविन्द बैठ जाएँ। मैं समाज की ऐसी व्यवस्था देखना चाहती हूँ, जहाँ कम-से-कम विषमता को आश्रय न मिल सके।

आनन्द-यह तुम्हारी निज की कल्पना होगी।

रूपमणि-तुमने अभी इस आन्दोलन का साहित्य पढ़ा ही नहीं।

आनन्द-न पढ़ा है, न पढऩा चाहता हूँ।

रूपमणि-इससे राष्ट्र की कोई बड़ी हानि न होगी।

आनन्द-तुम तो जैसे वह रही ही नहीं। बिलकुल काया-पलट हो गयी।

सहसा डाकिए ने काँग्रेस बुलेटिन लाकर मेज पर रख दिया। रूपमणि ने अधीर होकर उसे खोला। पहले शीर्षक पर नजर पड़ते ही उसकी आँखों में जैसे नशा छा गया। अज्ञात रूप से गर्दन तन गयी और चेहरा एक अलौकिक तेज से दमक उठा।

उसने आवेश में खड़ी होकर कहा-विशम्भर पकड़ लिए गये और दो साल की सज़ा हो गयी।

आनन्द ने विरक्त मन से पूछा-किस मुआमले में सज़ा हुई?

रूपमणि ने विशम्भर के फोटो को अभिमान की आँखों से देखकर कहा-रानीगंज में किसानों की विराट् सभा थी। वहीं पकड़ा है।

आनन्द-मैंने तो पहले ही कहा था, दो साल के लिए जाएँगे। ज़िन्दगी ख़राब कर डाली।

रूपमणि ने फटकार बतायी-क्या डिग्री ले लेने से ही आदमी का जीवन सफल हो जाता है? सारा ज्ञान, सारा अनुभव पुस्तकों ही में भरा हुआ है। मैं समझती हूँ, संसार और मानवी चरित्र का जितना अनुभव विशम्भर को दो सालों में हो जाएगा, उतना दर्शन और क़ानून की पोथियों से तुम्हें दो सौ वर्षों में भी न होगा। अगर शिक्षा का उद्देश्य चरित्रबल मानो, तो राष्ट्र-संग्राम में मनोबल के जितने साधन हैं, पेट के संग्राम में कभी हो ही नहीं सकते। तुम यह कह सकते हो कि हमारे लिए पेट की चिन्ता ही बहुत है, हमसे और कुछ हो ही नहीं सकता, हममें न उतना साहस है, न बल है, न धैर्य है, न संगठन, तो मैं मान जाऊँगी; लेकिन जातिहित के लिए प्राण देने वालों को बेवकूफ बनाना मुझसे नहीं सहा जा सकता। विशम्भर के इशारे पर आज लाखों आदमी सीना खोलकर खड़े हो जाएँगे। तुममें है जनता के सामने खड़े होने का हौसला? जिन लोगों ने तुम्हें पैरों के नीचे कुचल रखा है, जो तुम्हें कुत्तों से भी नीचे समझते हैं, उन्हीं की ग़ुलामी करने के लिए तुम डिग्रियों पर जान दे रहे हो। तुम इसे अपने लिए गौरव की बात समझो, मैं नहीं समझती।

आनन्द तिलमिला उठा। बोला-तुम तो पक्की क्रान्तिकारिणी हो गयीं इस वक्त।

रूपमणि ने उसी आवेश में कहा-अगर सच्ची-खरी बातों में तुम्हें क्रान्ति की गन्ध मिले, तो मेरा दोष नहीं।

‘आज विशम्भर को बधाई देने के लिए जलसा ज़रूर होगा। क्या तुम उसमें जाओगी?’

रूपमणि ने उग्रभाव से कहा-ज़रूर जाऊँगी, बोलूँगी भी, और कल रानीगंज भी चली जाऊँगी। विशम्भर ने जो दीपक जलाया है, वह मेरे जीते-जी बुझने न पाएगा।

आनन्द ने डूबते हुए आदमी की तरह तिनके का सहारा लिया-अपनी अम्माँ और दादा से पूछ लिया है?

‘पूछ लूँगी!’

और वह तुम्हें अनुमति भी दे देंगे?’

सिद्धान्त के विषय में अपनी आत्मा का आदेश सर्वोपरि होता है।’

‘अच्छा, यह नयी बात मालूम हुई।’

यह कहता हुआ आनन्द उठ खड़ा हुआ और बिना हाथ मिलाये कमरे के बाहर निकल गया। उसके पैर इस तरह लडख़ड़ा रहे थे, कि अब गिरा, अब गिरा।

दो बहनें. (प्रेमचंद)



दो बहनें.
(प्रेमचंद)

दोनों बहनें दो साल के बाद एक तीसरे नातेदार के घर मिलीं और खूब रो-धोकर खुश हुईं तो बड़ी बहन रूपकुमारी ने देखा कि छोटी बहन रामदुलारी सिर से पाँव तक गहनों से लदी हुई है, कुछ उसका रंग खुल गया है, स्वभाव में कुछ गरिमा आ गयी है और बातचीत करने में ज़्यादा चतुर हो गयी है। कीमती बनारसी साड़ी और बेलदार उन्नावी मखमल के जम्पर ने उसके रूप को और भी चमका दिया-वही रामदुलारी, लडक़पन में सिर के बाल खोले, फूहड़-सी इधर-उधर खेला करती थी। अन्तिम बार रूपकुमारी ने उसे उसके विवाह में देखा था, दो साल पहले। तब भी उसकी शक्ल-सूरत में कुछ ज़्यादा अन्तर न हुआ था। लम्बी तो हो गयी थी, मगर थी उतनी ही दुबली, उतनी ही फूहड़, उतनी ही मन्दबुद्धि। जरा-जरा सी बात पर रूठने वाली, मगर आज तो कुछ हालत ही और थी, जैसे कली खिल गयी हो और यह रूप इसने छिपा कहाँ रखा था? नहीं, आँखों को धोखा हो रहा है। यह रूप नहीं केवल आँखों को लुभाने की शक्ति है, रेशम और मखमल और सोने के बल पर वह रूपरेखा थोड़े ही बदल जाएगी। फिर भी आँखों में समाई जाती है। पच्चासों स्त्रियाँ जमा हैं, मगर यह आकर्षण, यह जादू और किसी में नहीं।

कहीं आईना मिलता तो वह जरा अपनी सूरत भी देखती। घर से चलते समय उसने आईना देखा था। अपने रूप को चमकाने के लिए जितना सान चढ़ा सकती थी, उससे कुछ अधिक ही चढ़ाया था। लेकिन अब वह सूरत जैसे स्मृति से मिट गयी है, उसकी धुँधली-सी परछाहीं भर हृदय-पट पर है। उसे फिर से देखने के लिए वह बेकरार हो रही है। वह अब तुलनात्मक दृष्टि से देखेगी, रामदुलारी में यह आकर्षण कहाँ से आया, इस रहस्य का पता लगाएगी। यों उसके पास मेकअप की सामग्रियों के साथ छोटा-सा आईना भी है, लेकिन भीड़-भाड़ में वह आईना देखने या बनाव-सिंगार की आदी नहीं है। ये औरतें दिल में न जाने क्या समझें। मगर यहाँ कोई आईना तो होगा ही। ड्राइंग-रूम में ज़रूर ही होगा। वह उठकर ड्रांइग-रूम में गयी और क़द्देआदम शीशे में अपनी सूरत देखी। वहाँ इस वक्त और कोई न था। मर्द बाहर सहन में थे, औरतें गाने-बजाने में लगी हुई थीं। उसने आलोचनात्मक दृष्टि से एक-एक अंग को, अंगों के एक-एक विन्यास को देखा। उसका अंग-विन्यास, उसकी मुखछवि निष्कलंक है। मगर वह ताजगी, वह मादकता, वह माधुर्य नहीं है। हाँ, नहीं है। वह अपने को धोखे में नहीं डाल सकती। कारण क्या है? यही कि रामदुलारी आज खिली है, उसे खिले जमाना हो गया। लेकिन इस ख्याल से उसका चित्त शान्त नहीं होता। वह रामदुलारी से हेठी बनकर नहीं रह सकती। ये पुरुष भी कितने गावदी होते हैं। किसी में भी सच्चे सौन्दर्य की परख नहीं। इन्हें तो जवानी और चंचलता और हाव-भाव चाहिए। आँखें रखकर भी अन्धे बनते हैं। भला इन बातों का आपसे क्या सम्बन्ध! ये तो उम्र के तमाशे हैं। असली रूप तो वह है, जो समय की परवाह न करे। उसके कपड़ों में रामदुलारी को खड़ा कर दो, फिर देखो, यह सारा जादू कहाँ उड़ जाता है। चुड़ैल-सी नजर आये। मगर इन अन्धों को कौन समझाये। मगर रामदुलारी के घरवाले तो इतने सम्पन्न न थे। विवाह में जो जोड़े और गहने आये थे, वे तो बहुत ही निराशाजनक थे। खुशहाली का दूसरा कोई सामान भी न था। इसके ससुर एक रियासत के मुख्तारआम थे, और दूल्हा कालेज में पढ़ता था। इस दो साल में कहाँ से यह हुन बरस गया। कौन जाने, गहने कहीं से माँग लायी हो। कपड़े भी माँगे हो सकते हैं। कुछ औरतों को अपनी हैसियत बढ़ाकर दिखाने की लत होती है। तो वह स्वाँग रामदुलारी को मुबारक रहे। मैं जैसी हूँ, वैसी अच्छी हूँ। प्रदर्शन का यह रोग कितना बढ़ता जाता है। घर में रोटियों का ठिकाना नहीं है, मर्द 25-30 रुपये पर क़लम घिस रहा है; लेकिन देवीजी घर से निकलेंगी तो इस तरह बन-ठनकर, मानों कहीं की राजकुमारी हैं। बिसातियों के और दरजियों के तकाजे सहेंगी, बजाज के सामने हाथ जोड़ेंगी, शौहर की घुड़कियाँ खाएँगी, रोएँगी, रूठेंगी, मगर प्रदर्शन के उन्माद को नहीं रोकतीं। घरवाले भी सोचते होंगे, कितनी छिछोरी तबियत है इसकी! मगर यहाँ तो देवीजी ने बेहयाई पर कमर बाँध ली है। कोई कितना ही हँसे, बेहया की बला दूर। उन्हें तो बस यही धुन सवार है कि जिधर से निकल जाएँ, उधर लोग हृदय पर हाथ रखकर रह जाएँ। रामदुलारी ने ज़रूर किसी से गहने और जेवर माँग लिये बेशर्म जो है!

उसके चेहरे पर आत्म-सम्मान की लाली दौड़ गयी। न सही उसके पास जेवर और कपड़े। उसे किसी के सामने लज्जित तो नहीं होना पड़ता! किसी से मुँह तो नहीं चुराना पड़ता। एक-एक लाख के तो उसके दो लड़के हैं। भगवान् उन्हें चिरायु करे, वह इसी में खुश है। खुद अच्छा पहन लेने और अच्छा खा लेने से जीवन का उद्देश्य नहीं पूरा हो जाता। उसके घरवाले गरीब हैं, पर उनकी इज्जत तो है, किसी का गला तो नहीं दबाते, किसी का शाप तो नहीं लेते!

इस तरह अपने मन को ढाढ़स देकर वह फिर बरामदे में आयी, तो रामदुलारी ने जैसे उसे दया की आँखों से देखकर कहा-जीजाजी की कुछ तरक़्क़ी-वरक्की हुई कि नहीं बहन! या अभी तक वही 75 रुपये पर कलम घिस रहे हैं?

रूपकुमारी की देह में आग-सी लग गयी। ओफ्फोह रे दिमाग़! मानों इसका पति लाट ही तो है। अकडक़र बोली-तरक़्क़ी क्यों नहीं हुई। अब सौ के ग्रेड में हैं। आजकल यह भी गनीमत है, नहीं अच्छे-अच्छे एम०ए० पासों को देखती हूँ कि कोई टके को नहीं पूछता। तेरा शौहर तो अब बी०ए० में होगा?

रामदुलारी ने नाक सिकोडक़र कहा-उन्होंने तो पढऩा छोड़ दिया बहन, पढक़र औकात ख़राब करना था और क्या। एक कम्पनी के एजेण्ट हो गये हैं। अब ढाई सौ रुपये माहवार पाते हैं। कमीशन ऊपर से। पाँच रुपये रोज सफर-खर्च के भी मिलते हैं। यह समझ लो कि पाँच सौ का औसत पड़ जाता है। डेढ़ सौ माहवार तो उनका निज खर्च है बहन! ऊँचे ओहदे के लिए अच्छी हैसियत भी तो चाहिए। साढ़े तीन सौ बेदाग़ घर दे देते हैं। उसमें से सौ रुपये मुझे मिलते हैं, ढाई सौ में घर का खर्च खुशफैली से चल जाता है। एम०ए० पास करके क्या करते!

रूपकुमारी इस कथन को शेखचिल्ली की दास्तान से ज़्यादा महत्व नहीं देना चाहती, मगर रामदुलारी के लहजे में इतनी विश्वासोत्पादकता है कि वह अपनी निम्न चेतना में उससे प्रभावित हो रही है और उसके मुख पर पराजय की खिन्नता साफ़ झलक रही है। मगर यदि उसे बिलकुल पागल नहीं हो जाना है तो इस ज्वाला को हृदय से निकाल देना पड़ेगा। जिरह करके अपने मन को विश्वास दिलाना पड़ेगा कि इसके काव्य में एक चौथाई से ज़्यादा सत्य नहीं है। एक चौथाई तक वह सह सकती है। इससे ज़्यादा उससे न सहा जाएगा। इसके साथ ही उसके दिल में धडक़न भी है कि कहीं यह कथा सत्य निकली तो वह रामदुलारी को कैसे मुँह दिखाएगी। उसे भय है कि कहीं उसकी आँखों से आँसू न निकल पड़ें। कहाँ पछत्तर और कहाँ पाँच सौ! इतनी बड़ी रकम आत्मा की हत्या करके भी क्यों न मिले, फिर भी रूपकुमारी के लिए असह्य है। आत्मा का मूल्य अधिक से अधिक सौ रुपये हो सकता है। पाँच सौ किसी हालत में भी नहीं।

उसने परिहास के भाव से पूछा-जब एजेण्टी में इतना वेतन और भत्ता मिलता है तो ये सारे कालेज बन्द क्यों नहीं हो जाते? हजारों लड़के क्यों अपनी ज़िन्दगी ख़राब करते हैं?

रामदुलारी बहन के खिसियानेपन का आनन्द उठाती हुई बोली-बहन, तुम यहाँ भूल कर रही हो। एम०ए० तो सभी पास हो सकते हैं, मगर एजेण्टी बिरले ही किसी को आती है। यह तो ईश्वर की देन है। कोई ज़िन्दगी-भर पढ़ता रहे, मगर यह ज़रूरी नहीं कि वह वह अच्छा एजेण्ट भी हो जाए। रुपये पैदा करना दूसरी बात है। आलिम-फ़ाज़िल हो जाना दूसरी बात। अपने माल की श्रेष्ठता का विश्वास पैदा कर देना, यह दिल में जमा देना कि इससे सस्ता और टिकाऊ माल बाज़ार में मिल ही नहीं सकता, आसान काम नहीं हैं एक-से-एक घाघों से उनका साबका पड़ता है। बड़े-बड़े राजाओं और रईसों का मत फेरना पड़ता है, तब जाके कहीं माल बिकता है। मामूली आदमी तो राजाओं और नवाबों के सामने ही न जा सके। पहुँच ही न हो। और किसी तरह पहुँच भी जाय तो जबान न खुले। पहले-पहले तो इन्हें भी झिझक हुई थी, मगर अब तो इस सागर के मगर हैं। अगले साल तरक़्क़ी होने वाली है।

रूपकुमारी की धमनियों में रक्त की गति जैसे बन्द हुई जा रही है। निर्दयी आकाश गिर क्यों नहीं पड़ता! पाषाण-हृदया धरती फट क्यों नहीं जाती! यह कहाँ का न्याय है कि रूपकुमारी जो रूपवती है, तमीज़दार है, सुघड़ है, पति पर जान देती है, बच्चों को प्राणों से ज़्यादा चाहती है, थोड़े में गृहस्थी को इतने अच्छे ढंग से चलाती है, उसकी तो यह दुर्गति, और यह घमण्डिन, बदतमीज, विलासिनी, चंचल, मुँहफट छोकरी, जो अभी तक सिर खोले घूमा करती थी, रानी बन जाए? मगर उसे अब भी कुछ आशा बाकी थी। शायद आगे चलकर उसके चित्त की शान्ति का कोई मार्ग निकल आये।

उसी परिहास के स्वर में बोली-तब तो शायद एक हज़ार मिलने लगें?

‘एक हज़ार तो नहीं, पर छ: सौ में सन्देह नहीं?’

‘कोई आँखों का अन्धा मालिक फँस गया होगा?’

व्यापारी आँखों के अन्धे नहीं होते दीदी! उनकी आँखें हमारी-तुम्हारी आँखों से कहीं तेज होती हैं। जब तुम उन्हें छ: हज़ार कमाकर दो, तब कहीं छ: सौ मिलें। जो सारी दुनिया को चराये उसे कौन बेवकूफ बनाएगा।’

परिहास से काम न चलते देखकर रूपकुमारी ने अपमान का अस्त्र निकाला-मैं तो इसे बहुत अच्छा पेशा नहीं समझती। सारे दिन झूठ के तूमार बाँधो। यह तो ठग-विद्या है!

रामदुलारी ज़ोर से हँसी। बहन पर उसने पूरी विजय पायी थी।

‘इस तरह तो जितने वकील-बैरिस्टर हैं; सभी ठग-विद्या करते हैं। अपने मुवक्किल के फायदे के लिए उन्हें क्या नहीं करना पड़ता? झूठी शहादतें तक बनानी पड़ती हैं। मगर उन्हीं वकीलों और बैरिस्टरों को हम अपना लीडर कहते हैं, उन्हें अपनी कौमी सभाओं का प्रधान बनाते हैं, उनकी गाडिय़ाँ खींचते हैं, उन पर फूलों और अशर्फियों की वर्षा करते हैं, उनके नाम से सडक़ें, प्रतिमाएँ और संस्थाएँ बनाते हैं। आजकल दुनिया पैसा देखती है। आजकल ही क्यों? हमेशा से धन की यही महिमा रही है। पैसे कैसे आएँ, यह कोई नहीं देखता। जो पैसे वाला है, उसी की पूजा होती है। जो अभागे हैं, अयोग्य हैं, या भीरु हैं, वे आत्मा और सदाचार की दुहाई देकर अपने आँसू पोंछते हैं। नहीं, आत्मा और सदाचार को कौन पूछता है।’

रूपकुमारी खामोश हो गयी। अब उसे यह सत्य उसकी सारी वेदनाओं के साथ स्वीकार करना पड़ेगा कि रामदुलारी सबसे ज़्यादा भाग्यवान है। इससे अब त्राण नहीं। परिहास या अनादर से वह अपनी तंगदिली का प्रमाण देने के सिवा और क्या पाएगी। उसे किसी बहाने से रामदुलारी के घर जाकर असलियत की छान-बीन करनी पड़ेगी। अगर रामदुलारी वास्तव में लक्ष्मी का वरदान पा गयी है तो रूपकुमारी अपनी किस्मत ठोंककर बैठ रहेगी। समझ लेगी कि दुनिया में कहीं न्याय नहीं है, कहीं ईमानदारी की पूछ नहीं है।

मगर क्या सचमुच उसे इस विचार से सन्तोष होगा? यहाँ कौन ईमानदार है? वही, जिसे बेईमानी करने का अवसर नहीं है और न इतनी बुद्धि या मनोबल है कि वह अवसर पैदा कर ले। उसके पति 75 रुपये पाते हैं; पर क्या दस-बीस रुपये और ऊपर से मिल जाएँ तो वह खुश होकर ले न लेंगे? उनकी ईमानदारी और सत्यवादिता उसी समय तक है, जब तक अवसर नहीं मिलता। जिस दिन मौक़ा मिला, सारी सत्यवादिता धरी रह जाएगी। और क्या रूपकुमारी में इतना नैतिक बल है कि वह अपने पति को हराम का माल हज़म करने से रोक दे? रोकना तो दूर की बात है, वह प्रसन्न होगी, शायद पतिदेव की पीठ ठोकेगी। अभी उनके दफ़्तर से आने के समय वह मन मारे बैठी रहती है। तब वह द्वार पर खड़ी होकर उनकी बाट जोहेगी, और ज्योंही वह घर में आएँगे, उनकी जेबों की तलाशी लेगी।

आँगन में गाना-बजाना हो रहा था। रामदुलारी उमंग के साथ गा रही थी, और रूपकुमारी वहीं बरामदे में उदास बैठी हुई थी। न जाने क्यों उसके सिर में दर्द होने लगा था। कोई गाये, कोई नाचे, उससे प्रयोजन नहीं। वह तो अभागिन है। रोने के लिए पैदा की गयी है।

नौ बजे रात को मेहमान रुख़्सत होने लगे। रूपकुमारी भी उठी। एक्का मॅँगवाने जा रही थी कि रामदुलारी ने कहा-एक्का मँगवाकर क्या करोगी बहन, मुझे लेने के लिए कार आती होगी; चलो दो-चार दिन मेरे यहाँ रहो, फिर चली जाना। मैं जीजाजी को कहला भेजूँगी तुम्हारा इन्तजार न करें।

रूपकुमारी का यह अन्तिम अस्त्र भी बेकार हो गया। रामदुलारी के घर जाकर हालचाल की टोल लेने की इच्छा गायब हो गयी। वह अब अपने घर जाएगी और मुँह ढाँपकर पड़ी रहेगी। इन फटेहालों में क्यों किसी के घर जाए। बोली-नहीं, अभी तो मुझे फुरसत नहीं है, बच्चे घबरा रहे होंगे। फिर कभी आऊँगी।

‘क्या रात-भर भी न ठहरोगी?’

‘नहीं।’

‘अच्छा बताओ, कब आओगी? मैं सवारी भेज दूँगी।’

‘मैं खुद कहला भेजूँगी।’

‘तुम्हें याद न रहेगी। साल-भर हो गया, भूलकर भी याद न किया। मैं इसी इन्तजार में थी कि दीदी बुलावें तो चलूँ। एक ही शहर में रहते हैं, फिर भी इतनी दूर कि साल भर गुजर जाए और मुलाकात तक न हो।’

रूपकुमारी इसके सिवा और क्या कहे कि घर के कामों से छुट्टी नहीं मिलती। कई बार उसने इरादा किया कि दुलारी को बुलाये, मगर अवसर ही न मिला।

सहसा रामदुलारी के पति मि. गुरुसेवक ने आकर बड़ी साली को सलाम किया। बिलकुल अँगरेजी सज-धज, मुँह में चुरुट, कलाई पर सोने की घड़ी, आँखों पर सुनहरी ऐनक, जैसे कोई सिविलियन हो। चेहरे से जेहानत और शराफत बरस रही थी। वह इतना रूपवान् और सजीला है, रूपकुमारी को अनुमान न था। कपड़े जैसे उसकी देह पर खिल रहे थे।

आशीर्वाद देकर बोली-आज यहाँ न आती तो मुझसे मुलाकात क्यों होती!

गुरुसेवक हँसकर बोला-यह उलटी शिकायत! क्यों न हो। कभी आपने बुलाया और मैं न गया?

‘मैं नहीं जानती थी कि तुम अपने को मेहमान समझते हो। वह भी तो तुम्हारा ही घर है।’

रामदुलारी देख रही थी कि मन में उससे ईष्र्या रखते हुए भी वह कितनी वाणी-मधुर, कितनी स्निग्ध, कितनी अनुग्रह-प्रार्थिनी होती जा रही है।

गुरुसेवक ने उदार मन से कहा-हाँ, अब मान गया भाभी साहब, बेशक मेरी ग़लती है। इस दृष्टि से मैंने विचार नहीं किया था। मगर आज तो मेरे घर रहिए।

‘नहीं आज बिलकुल अवकाश नहीं है। फिर कभी आऊँगी। लड़के घबरा रहे होंगे।’

रामदुलारी बोली-मैं कितना कहके हार गयी, मानती ही नहीं।

दोनों बहनें कार की पिछली सीट पर बैठीं। गुरुसेवक ड्राइव करता हुआ चला। जरा देर में उसका मकान आ गया। रामदुलारी ने फिर बहन से उतरने के लिए आग्रह किया, पर वह न मानी। लड़के घबरा रहे होंगे। आखिर रामदुलारी उससे गले मिलकर अन्दर चली गयी। गुरुसेवक ने कार बढ़ायी। रूपकुमारी ने उड़ती हुई निगाह से रामदुलारी का मकान देखा और वह ठोस सत्य एक शलाका की भाँति उसके कलेजे में चुभ गया।

कुछ दूर जाकर गुरुसेवक बोला-भाभी, मैंने तो अपने लिए अच्छा रास्ता निकाल लिया। अगर दो-चार साल इसी तरह काम करता रहा तो आदमी बन जाऊँगा।

रूपकुमारी ने सहानुभूति के साथ कहा-रामदुलारी ने मुझसे बताया था। भगवान् करे, जहाँ रहो, खुश रहो। मगर जरा हाथ-पैर सँभाल के रहना।

‘मैं मालिक की आँख बचाकर एक पैसा भी लेना पाप समझता हूँ, भाभी। दौलत का मजा तो तभी है कि ईमान सलामत रहे। ईमान खोकर पैसे मिले तो क्या! मैं ऐसी दौलत को त्याज्य समझता हूँ, और आँख किसकी बचाऊँ। सब सियाह-सुफेद तो मेरे हाथ में है। मालिक तो रहा नहीं, केवल उसकी बेवा है। उसने सब कुछ मेरे हाथ में छोड़ रखा है। मैंने उसका कारोबार सँभाल न लिया होता तो सब कुछ चौपट हो जाता। मेरे सामने तो मालिक सिर्फ तीन महीने ज़िन्दा रहे। मगर आदमी को परखना खूब जानते थे। मुझे 100 रुपये पर रखा और एक महीने में 200 रुपये कर दिया। आप लोगों की दुआ से पहले ही महीने में मैंने बारह हज़ार का काम किया।’

‘क्या काम करना पड़ता है?’ रूपकुमारी ने बिना किसी उद्देश्य के पूछा।

‘वही मशीनों की एजेण्टी’ तरह-तरह की मशीनें मँगाना और बेचना।-ठण्डा जवाब था।

रूपकुमारी का मनहूस घर आ गया। द्वार पर एक लालटेन टिमटिमा रही थी। उसके पति उमानाथ द्वार पर टहल रहे थे। मगर रूपकुमारी ने गुरुसेवक से उतरने के लिए आग्रह नहीं किया। एक बार शिष्टाचार के नाते कहा ज़रूर पर ज़ोर नहीं दिया, और उमानाथ तो गुरुसेवक से मुखातिब भी न हुए।

रूपकुमारी को वह घर अब क़ब्रिस्तान-सा लग रहा था, जैसे फूटा हुआ भाग्य हो। न कहीं फर्श, न फरनीचर, न गमले। दो-चार टूटी-टाटी तिपाइयाँ, एक लँगड़ी मेज, चार-पाँच पुरानी-पुरानी खाटें, यही उस घर की बिसात थी। आज सुबह तक रूपकुमारी इसी घर में खुश थी। लेकिन अब यह घर उसे काटे खा रहा है। लड़के अम्माँ-अम्माँ करके दौड़े, मगर उसने दोनों को झिडक़ दिया। उसके सिर में दर्द है, वह किसी से न बोलेगी, कोई उसे न छेड़े। अभी घर में खाना नहीं पका। पकाता कौन? लडक़ों ने तो दूध पी लिया है, किन्तु उमानाथ ने कुछ नहीं खाया। इसी इन्तजार में थे कि रूपकुमारी आये तो पकाये। पर रूपकुमारी के सिर में दर्द है। मजबूर होकर बाज़ार से पूरियाँ लानी पड़ेंगी।

रूपकुमारी ने तिरस्कार के स्वर में कहा-तुम अब तक मेरा इन्तजार क्यों करते रहे? मैंने तो खाना पकाने की नौकरी नहीं लिखायी है, और जो रात को वहीं रह जाती? आखिर तुम कोई महराजिन क्यों नहीं रख लेते? क्या ज़िन्दगी भर मुझी को पीसते रहोगे?

उमानाथ ने उसकी तरफ आहत विस्मय की आँखों से देखा। उसके बिगडऩे का कोई कारण उनकी समझ में न आया। रूपकुमारी से उन्होंने हमेशा निरापद सहयोग पाया है, निरापद ही नहीं, सहानुभूतिपूर्ण भी। उन्होंने कई बार उससे महराजिन रख लेने का प्रस्ताव खुद किया था, पर उसने बराबर यही जवाब दिया कि आखिर में बैठे-बैठे क्या करूँगी? चार-पाँच रुपये का खर्च बढ़ाने से क्या फ़ायदा? यह पैसे तो बच्चों के मक्खन में खर्च होते हैं।

और आज वह इतनी निर्ममता से उलाहना दे रही है, जैसे गुस्से में भरी हो।

अपनी सफाई देते हुए बोले-महराजिन रखने के लिए तो मैंने खुद तुमसे कई बार कहा।

‘तो लाकर रख क्यों न दिया? मैं उसे निकाल देती तो कहते!’

‘हाँ यह ग़लती हुई।’

‘तुमने कभी सच्चे दिल से नहीं कहा, रूपकुमारी ने और भी प्रचण्ड होकर कहा-तुमने केवल मेरा मन लेने के लिए कहा। मैं ऐसी भोली नहीं हूँ कि तुम्हारे मन का रहस्य न समझूँ। तुम्हारे दिल में कभी मेरे आराम का विचार आया ही नहीं। तुम तो खुश थे कि अच्छी लौंडी मिल गयी है। एक रोटी खाती है और चुपचाप पड़ी रहती है। महज खाने और कपड़े पर। यह भी जब घर की ज़रूरतों से बचे। पचहत्तर रुपल्लियाँ लाकर मेरे हाथ पर रख देते हो और सारी दुनिया का खर्च। मेरा दिल ही जानता है, मुझे कितनी कतर-व्योंत करनी पड़ती है। क्या पहनूँ और क्या ओढ़ूँ! तुम्हारे साथ ज़िन्दगी ख़राब हो गयी! संसार में ऐसे मर्द भी हैं, जो स्त्री के लिए आसमान के तारे तोड़ लाते हैं। गुरुसेवक ही को देखो, दूर क्यों जाओ। तुमसे कम पढ़ा है, उम्र में तुमसे कहीं कम है, मगर पाँच सौ का महीना लाता है, और रामदुलारी रानी बनी बैठी रहती है। तुम्हारे लिए यही 75 रुपये बहुत हैं। राँड़ माँड़ में ही मगन! तुम नाहक मर्द हुए, तुम्हें तो औरत होना चाहिए था। औरतों के दिल में कैसे-कैसे अरमान होते हैं। मगर मैं तो तुम्हारे लिए घर की मुर्गी का बासी साग हूँ। तुम्हें तो कोई तकलीफ होती नहीं। तुम्हें तो कपड़े भी अच्छे चाहिए, खाना भी अच्छा चाहिए, क्योंकि पुरुष हो, बाहर से कमाकर लाते हो। मैं चाहे जैसे रहूँ तुम्हारी बला से।’

वाग्बाणों का यह सिलसिला कई मिनट तक जारी रहा, और उमानाथ चुपचाप सुनते रहे। अपनी जान में उन्होंने रूपकुमारी को शिकायत का कभी मौक़ा नहीं दिया। उनका वेतन कम है, यह सत्य है, पर यह उनके बस की बात तो नहीं। वह दिल लगाकर अपना काम करते हैं, अफसरों को खुश रखने की सदैव चेष्टा करते हैं इसी साल बड़े बाबू के छोटे सुपुत्र को छ: महीने तक बिना नागा पढ़ाया, इसीलिए तो कि वह प्रसन्न रहें। अब वह और क्या करें। रूपकुमारी की खफ़गी का रहस्य वह समझ गये। अगर गुरुसेवक वास्तव में पाँच सौ रुपये लाता है तो बेशक वह भाग्य का बली है। लेकिन दूसरों की ऊँची पेशानी देखकर अपना माथा तो नहीं फोड़ा जाता। किसी संयोग से उसे यह अवसर मिल गया। मगर हर एक को तो ऐसे अवसर नहीं मिलते। वह इसका पता लगाएँगे कि सचमुच उसे पाँच सौ ही मिलते हैं, या महज डींग है। और मान लिया कि पाँच सौ मिलते हैं, तो क्या इससे रूपकुमारी को यह हक है कि वह उनको ताने दे, और उन्हें जली-कटी सुनाये। अगर इसी तरह वह भी रूपकुमारी से ज़्यादा रूपवती और सुशीला रमणी को देखकर रूपकुमारी को कोसना शुरू करें तो कैसा हो! रूपकुमारी सुन्दरी है, मृदुभाषिणी है, त्यागमयी है लेकिन उससे बढक़र सुन्दरी, मृदुभाषिणी त्यागमयी देवियों से दुनिया ख़ाली नहीं है। तो क्या इस कारण वह रूपकुमारी का अनादर करें?

एक समय था, जब उनकी नजरों में रूपकुमारी से ज़्यादा रूपवती रमणी संसार में न थी; लेकिन वह उन्माद कब का शान्त हो गया। भावुकता के संसार से वास्तविक जीवन में आये उन्हें एक युग बीत गया। अब तो विवाहित जीवन का उन्हें काफ़ी अनुभव हो गया है। एक को दूसरे के गुण-दोष मालूम हो गये हैं। अब तो सन्तोष ही में उनका जीवन सुखी रह सकता है। मगर रूपकुमारी समझदार होकर भी इतनी मोटी-सी बात नहीं समझती!

फिर भी उन्हें रूपकुमारी से सहानुभूति ही हुई। वह उदार प्रकृति के आदमी थे और कल्पनाशील भी। उसकी कटु बातों का कुछ जवाब न दिया। शर्बत की तरह पी गये। अपनी बहन के ठाठ देखकर एक क्षण के लिए रूपकुमारी के मन में ऐसे निराशाजनक, अन्यायपूर्ण, दु:खद भावों का उठना बिलकुल स्वाभाविक है। रूपकुमारी कोई सन्न्यासिनी नहीं, विरागिनी नहीं कि हर एक दशा में अविचलित रहे।

इस तरह अपने मन को समझाकर उमानाथ ने गुरुसेवक के विषय में तहकीकात करने का संकल्प किया।
2
एक सप्ताह तक रूपकुमारी मानसिक अशान्ति की दशा में रही। बात-बात पर झुंझलाती, लडक़ों को डाँटती; पति को कोसती, अपने नसीबों को रोती। घर का काम तो करना ही पड़ता था, लेकिन अब इस काम में उसे आनन्द न आता था। बेगार-सी टालती थी। घर की जिन पुरानी-धुरानी चीजों से उसका आत्मीय सम्बन्ध-सा हो गया था, जिनकी सफाई और सजावट में वह व्यस्त रहा करती थी, उनकी तरफ अब आँख उठाकर भी न देखती। घर में एक ही खिदमतगार था। उसने जब देखा, बहूजी घर की तरफ से खुद ही लापरवाह हैं तो उसे क्या गरज थी कि सफाई करता। जो चीज़ जहाँ पड़ी थी, वहीं पड़ी रहती। कौन उठाकर ठिकाने से रखे। बच्चे माँ से बोलते डरते थे, और उमानाथ तो उसके साये से भागते थे। जो कुछ सामने थाली में आ जाता उसे पेट में डाल लेते और दफ़्तर चले जाते। दफ़्तर से लौटकर दोनों बच्चों को साथ ले लेते और कहीं घूमने निकल जाते। रूपकुमारी से कुछ कहना बारूद में दियासलाई लगाना था। हाँ, उनकी यह तहक़ीकात जारी थी।

एक दिन उमानाथ दफ़्तर से लौटे तो उनके साथ गुरुसेवक भी थे। रूपकुमारी ने आज कई दिनों के बाद परिस्थिति से सहयोग कर लिया था और इस वक्त झाडऩ लिए कुरसियाँ और तिपाइयाँ साफ़ कर रही थी, कि गुरुसेवक ने अन्दर पहुँचकर सलाम किया। रूपकुमारी दिल में कट गयी। उमानाथ पर ऐसा क्रोध आया कि उसका मुँह नोच ले। इन्हें लाकर यहाँ क्यों खड़ा कर दिया? न कहना, न सुनना, बस बुला लाये। उसे इस दशा में देखकर गुरुसेवक दिल में क्या कहता होगा। मगर इन्हें अक्ल आयी ही कब थी। वह अपना परदा ढाँकती फिरती है और आप उसे खोलते फिरते हैं। जरा भी लज्जा नहीं। जैसे बेहयाई का बाना पहन लिया है। बरबस उसका अपमान करते हैं। न जाने उसने उनका क्या बिगाड़ा है?

आशीर्वाद देकर कुशल-समाचार पूछा और कुरसी रख दी। गुरुसेवक ने बैठते हुए कहा-आज भाई साहब ने मेरी दावत की है, मैं उनकी दावत पर तो न आता; लेकिन जब उन्होंने कहा, तुम्हारी भाभी का कड़ा तकाजा है, तब मुझे समय निकालना पड़ा था।

रूपकुमारी ने बात बनायी। घर का कलह छिपाना पड़ा-तुमसे उस दिन कुछ बातचीत न हो पायी। जी लगा हुआ था।

गुरुसेवक ने कमरे के चारों तरफ नजर दौड़ाकर कहा-इस पिंजड़े में तो आप लोगों को बड़ी तकलीफ होती होगी?

रूपकुमारी को ज्ञात हुआ, यह युवक कितना सुरुचिहीन, कितना अरसिक है। दूसरों के मनोभावों का आदर करना जैसे जानता ही नहीं। इसे इतनी-सी बात भी नहीं मालूम कि दुनिया में सभी भाग्यशाली नहीं होते। लाखों में एक ही कहीं भाग्यवान् निकलता है। और उसे भाग्यवान् ही क्यों कहा जाए? जहाँ बहुतों को दाना न मयस्सर हो, वहाँ थोड़े से आदमियों के भोग-विलास में कौन-सा सौभाग्य! जहाँ बहुत-से आदमी भूखों मर रहे हों, वहाँ दो-चार आदमी मोहनभोग उड़ायें तो यह उनकी बेहयाई और हृदयहीनता है, सौभाग्य कभी नहीं।

कुछ चिढक़र बोली-पिंजड़े में कठघरे में रहने से अच्छा है। पिंजड़े में निरीह पक्षी रहते हैं, कठघरा तो घातक जन्तुओं का ही निवास स्थान है।

गुरुसेवक शायद यह संकेत न समझ सका, बोला-मेरा तो इस घर में दम घुट जाए। मैं आपके लिए अपने घर के पास ही एक मकान ठीक करा दूँगा। खूब लम्बा-चौड़ा। आपसे कुछ किराया न लिया जाएगा। मकान हमारी मालकिन का है। मैं भी उसी के एक मकान में रहता हूँ। सैकड़ों मकान हैं उनके पास, सैकड़ों। सब मेरे अख्तियार में है। जिसे जो मकान चाहूँ, दे दूँ। मेरे अख्तियार में है। किराया लूँ या न लूँ। मैं आपके लिए सबसे अच्छा मकान ठीक करूँगा। मैं आपका बहुत अदब करता हूँ।

रूपकुमारी समझ गयी, महाशय इस वक्त नशे में हैं। अभी यों बहक रहे हैं। अब उसने गौर से देखा तो उनकी आँखें सिकुड़ गयी थीं, गाल कुछ फूल गये थे। जबान भी लडख़ड़ाने लगी थी। एक जवान, ख़ूबसूरत शरीफ़ चेहरा कुछ ऐसा शेखीबाज और निर्लज्ज हो गया कि उसे देखकर घृणा होती थी।

उसने एक क्षण बाद फिर बहकना शुरू किया-मैं आपका बहुत अदब करता हूँ, जी हाँ! आप मेरी बड़ी भाभी हैं। आपके लिए मेरी जान हाजिर है। आपके लिए एक मकान नहीं, सौ मकान तैयार हैं। मैं मिसेज लोहिया का मुख्तार हूँ। सब कुछ मेरे हाथ में है। सब कुछ, मैं जो कुछ कहता हूँ, वह आँखें बन्द करके मंजूर कर लेती हैं। मुझे अपना बेटा समझती हैं। मैं उसकी सारी जायदाद का मालिक हूँ। (मि० लोहिया ने मुझे 20 रुपये पर रखा, 20 रुपये पर। वह बड़ा मालदार था। मगर किसी को नहीं मालूम; उसकी दौलत कहाँ से आती थी किसी को नहीं मालूम। मेरे सिवा कोई नहीं जानता। वह खुफियाफरोश था। किसी से कहना नहीं। वह चोरी से कोकीन बेचता था। लाखों की आमदनी थी उसकी। अब वही व्यापार मैं करता हूँ। हर शहर में हमारे खुफिया एजेण्ट हैं। मि० लोहिया ने मुझे इस फन में उस्ताद बना दिया। जी हाँ! मजाल नहीं कि मुझे कोई गिरफ्तार कर ले, बड़े-बड़े अफसरों से मेरा याराना है। उनके मुँह में नोटों के पुलिन्दे ठूँस-ठूँसकर उनकी आवाज़ बन्द कर देता हूँ। कोई चूँ नहीं कर सकता। दिन-दहाड़े बेचता हूँ। हिसाब में लिखता हूँ, एक हज़ार रिश्वत दी। देता हूँ, पाँच सौ। बाकी यारों का है। बेदरेग़ रुपये आते हैं और बेदरेग़ खर्च करता हूँ। बुढिय़ा को तो राम नाम से मतलब है। सत्तर चूहे खाके अब हज करने चली है। कोई मेरा हाथ पकडऩे वाला नहीं, कोई बोलने वाला नहीं, (जेब से नोटों का एक बण्डल निकालकर) यह आपके चरणों की भेंट है। मुझे दुआ दीजिए कि इसी शान से ज़िन्दगी कट जाय जो आत्मा और सदाचार के उपासक हैं उन्हें कुबेर लातें मारता है। लक्ष्मी उनको पकड़ती है, जो उसके लिए अपना दीन और ईमान सब कुछ छोडऩे को तैयार हैं। मुझे बुरा न कहिए। मैं कौन मालदार हूँ? जितने धनी हैं, वे सब-के-सब लुटेरे हैं, पक्के लुटेरे, डाकू। कल मेरे पास रुपये हो जाएँ और मैं एक धर्मशाला बनवा दूँ। फिर देखिए मेरी कितनी वाह-वाह होती है। कौन पूछता है, मुझे दौलत कहाँ से मिली। जिस महात्मा को कहिए, बुलाकर उससे प्रशंसा करवा लूँ। मि० लोहिया को महात्माओं ने धर्म भूषण की उपाधि दी थी, इन स्वार्थी, पेट के बन्दरों ने। उस बुड्ढे को जिससे बड़ा कुकर्मी संसार में न होगा। यहाँ तो लूट है। एक वकील आध घण्टा बहस करके पाँच सौ मार लेता है, एक डाक्टर जरा-सा नश्तर लगाकर एक हज़ार सीधा कर लेता है, एक जुआरी स्पेकुलेशन में एक-एक दिन में लाखों का वारा-न्यारा करता है। अगर उनकी आमदनी जायज है तो मेरी आमदनी भी जायज है। जी हाँ, जायज है, मेरी निगाह में बड़े-से-बड़े मालदार की भी कोई इज्जत नहीं। मैं जानता हूँ, वह कितना बड़ा हथकण्डेबाज है। यहाँ जो आदमी आँखों में धूल झोंक सके, वही सफल है! गरीबों को लूटकर मालदार हो जाना समाज की पुरानी परिपाटी है। मैं भी वही करता हूँ, जो दूसरे करते हैं। जीवन का उद्देश्य है ऐसा करना। खूब लूटूँगा, खूब ऐश करूँगा और बुढ़ापे में खूब खैरात करूँगा। और एक दिन लीडर बन जाऊँगा। कहिए गिना दूँ। यहाँ कितने लोग जुआ खेल-खालकर करोड़पति हो गये, कितने औरतों का बाज़ार लगाकर करोड़पति हो गये ...।

सहसा उमानाथ ने आकर कहा-मि० गुरुसेवक, क्या कर रहे हो? चलो चाय पी लो। ठण्डी हो रही है।

गुरुसेवक ऐसा हड़बड़ा उठा, मानो अपने सचेत रहने का प्रमाण देना चाहता हो। मगर पाँव लडख़ड़ाये और ज़मीन पर गिर पड़ा। फिर सँभलकर उठा और झूमता-झूमता, ठोकरें खाता, बाहर चला गया। रूपकुमारी ने आज़ादी की साँस ली। यहाँ बैठे-बैठे उसे हौलदिल-सा हो रहा था। कमरे की हवा जैसे कुछ भारी हो गयी थी। जो प्रेरणाएँ कई दिन से अच्छे-अच्छे मनोहर रूप भरकर उसके मन में आ रही थीं, आज उसे उनका असली वीभत्स, घिनावना रूप नजर आया। जिस त्याग, सादगी और साधुता के वातावरण में अब तक उसकी ज़िन्दगी गुजरी थी, उसमें इस तरह के दाँव-पेंच, छल-कपट और पतित स्वार्थ का घुसना बिलकुल ऐसा ही था, जैसे किसी बाग़ में साँड़ों का एक झुण्ड घुस आये। इन दामों वह दुनिया की सारी दौलत और सारा ऐश ख़रीदने को भी तैयार न हो सकती थी। नहीं, अब रामदुलारी के भाग्य से अपने भाग्य का बदला न करेगी। वह अपने हाल में खुश है। रामदुलारी पर उसे दया आयी, जो भोग-विलास की धुन और अमीर कहलाने के मोह में अपनी आत्मा का सर्वनाश कर रही है। मगर वह बेचारी भी क्या करे? और गुरुसेवक का भी क्या दोष है। जिस समाज में दौलत पुजती है, जहाँ मनुष्य का मोल उसके बैंक-एकाउण्ट और टीम-टाम से आँका जाता है, जहाँ पग-पग पर प्रलोभनों का जाल बिछा हुआ है और समाज की कुव्यवस्था आदमी में ईष्र्या, द्वेष, अपहरण और नीचता के भावों को उकसाती और उभारती रहती है, गुरुसेवक और रामदुलारी उस जाल में फँस जाएँ, उस प्रवाह में बह जाएँ तो कोई अचरज नहीं।

उसी वक्त उमानाथ ने आकर कहा-गुरुसेवक यहाँ बैठा-बैठा क्या बहक रहा था? मैंने तो उसे विदा कर दिया। जी डरता था, कहीं पुलिस उसके पीछे न लगी हो, नहीं तो मैं भी गेहूँ के साथ घुन की तरह पिस जाऊँ।

रामकुमारी ने क्षमा-प्रार्थी नेत्रों से उन्हें देखकर जवाब दिया-वही अपनी खुफ़ियाफ़रोशी की डींग मार रहा था।

‘मुझे भी मिसेज लोहिया से मिलने को कह गया।’

‘जी नहीं, आप अपनी क्लर्की किये जाइए। इसी में हमारा कल्याण है।’

‘मगर क्लर्की में वह ऐश कहाँ? क्यों न साल-भर की छुट्टी लेकर जरा उस दुनिया की भी सैर करूँ!’

‘मुझे अब उस ऐश का मोह नहीं रहा।’

‘दिल से कहती हो?’

‘सच्चे दिल से।’

उमानाथ एक मिनट तक चुप रहने के बाद फिर बोले-मैं आकर तुमसे यह वृत्तान्त कहता तो तुम्हें विश्वास आता या नहीं, सच कहना?

‘कभी नहीं, मैं तो कल्पना ही नहीं कर सकती कि अपने स्वार्थ के लिए कोई आदमी दुनिया को विष खिला सकता है!’

‘मुझे सारा हाल पुलिस के सब इन्सपेक्टर से मालूम हो गया था। मैंने उसे खूब शराब पिला दी थी कि नशे में बहकेगा ज़रूर और सब कुछ उगल देगा।’

‘ललचता तो तुम्हारा जी भी था।’

‘हाँ ललचता तो था, और अब भी ललच रहा है। मगर ऐश करने के लिए जिस हुनर की ज़रूरत है, वह कहाँ से लाऊँगा?’

‘ईश्वर न करे, वह हुनर तुममें आये। मुझे तो उस बेचारे पर तरस आती है। मालूम नहीं खैरियत से घर पहुँच गया या नहीं!’

‘उसकी कार थी। कोई चिन्ता नहीं।’

रूपकुमारी एक क्षण ज़मीन की तरफ ताकती रही। फिर बोली-तुम मुझे दुलारी के घर पहुँचा दो। अभी शायद मैं उसकी कुछ मदद कर सकूँ। जिस बाग़ की वह सैर कर रही है उसके चारों ओर निशाचर घात लगाये बैठे हैं। शायद मैं उसे बचा सकूँ।

उमानाथ ने देखा, उसकी छवि कितनी दया-पुलकित हो उठी है।