वेदांत....आदि-शंकराचार्य -भाग-८



वेदांत....आदि-शंकराचार्य -भाग-८ 

२. भक्ति.

अद्वेत वेदांत में केवल ग्यान ही मोक्ष में आसन्न हेतु हैं, पर कुछ वेदांती भक्ति को भी मोक्ष का हेतु मानते हैं| उदाहरण के लिए वेदांत परिभाषा में कहा गया “सगुणोपासना” चित्तैकाग्रता के द्वारा निर्विशेष ब्रह्म के साक्षात्कार में हेतु हैं|” इस प्रकार सगुणोपासना, ब्रह्म साक्षात्कार में द्वार हेतु हैं| ध्यान योग्य बात यह हैं कि भक्ति ग्यान का हेतु भले ही हो, पर वह मोक्ष का हेतु नहीं हैं क्योकि तर्कशास्त्र के अनुसार आसन्न हेतु को ही वास्तविक हेतु माना गया हैं| यह सभी जानते हैं कि भक्ति मोक्ष का आसन्न हेतु नहीं हैं|

दूसरी बात यह हैं कि सगुणोपासना से केवल क्रम-मुक्ति प्राप्त होती हैं, सद्योमुक्ति नहीं| सद्योमुक्ति ग्यान से ही मिलेगी| ग्यान द्वारा ब्रह्मैक्य प्राप्ति के बाद भक्ति असंभव हैं| पर यदि कोई स्वीकार करें कि ग्यान, ब्रह्म-भाव हैं और ब्रह्मभाव, ब्रह्म की सत्ता का भजन हैं, तो इस भक्ति और ग्यान में कोई अंतर नहीं हैं| ऐसी स्तिथि में हम भक्ति को मोक्ष का साक्षात् हेतु माने या ग्यान को माने, कोई अंतर नहीं आता| आचार्य मधुसूदन सरस्वती ने भक्ति और ग्यान का अच्छा समन्वय प्रस्तुत किया हैं| उन्होंने पराज्ञान को पराभक्ति माना हैं| पर यह सभी जानते हैं कि भक्ति का लक्ष्य, ग्यान हैं| भक्ति, वहीं संभव हैं जहाँ भक्त और भगवान् के बीच द्वेत [सम्बन्ध] हो जाता हैं| ग्यान प्राप्ति के बाद जीब और ब्रह्म के बीच एक्य स्थापित हो जाता हैं| ऐसी स्तिथि में वहाँ किसी भी प्रकार बीच की भक्ति – चाहे वह पराभक्ति ही क्यों न हो, के लिए कोई अवकाश नहीं हैं|

३.कर्म.

अद्वेत वेदांत यदि ग्यान को महत्व देता हैं तो मोमंसा कर्म को| मीमांसा के अनुसार कर्म द्वारा लोक में अभ्युदय की प्राप्ति होती हैं तथा मरने के बाद स्वर्ग की प्राप्ति होती हैं| पर अद्वेत वेदांत के अनुसार मनुष्य का अन्तिम लक्ष्य न अभ्युदय हैं, न स्वर्ग हैं, वरन नि:श्रेयस की प्राप्ति हैं जो कर्म द्वारा प्राप्त नहीं की जा सकती| कर्म और ग्यान में इतना आत्यन्तिक विरोध हैं कि कर्म द्वारा ग्यान का फल कभी भी प्राप्त नहीं किया जा सकता| कर्म का फल अभ्युदय हैं पर, ग्यान का फल नि:श्रेयस हैं| कर्म पुरुष व्यापार तंत्र हैं तथा ग्यान भूतवस्तु विषयक हैं| कर्म विक्ल्पज हैं, पर ग्यान स्वप्रकाश हैं| कर्म का फल उत्पाद्य, संस्कारी, आप्य तथा विकारी हैं और ग्यान का फल नित्य हैं| इन सब भेदों के कारण न तो कर्म द्वारा ग्यान का फल प्राप्त हो सकता हैं और न दोनों का सह- समुच्चय ही हो सकता हैं|

उपरोक्त विवेचन का तात्पर्य यह नहीं हैं कि जीवन में कर्म का कोई महत्व नहीं हैं| जब तक अविद्या द्वारा ग्रस्त और ग्यान के अधिकारी नहीं हो जाते, तब तक हम कर्म का सर्वथा त्याग नहीं कर सकते| कर्मयोगी को चित्त जी शुद्धी के लिए, भक्ति योगी, को ईश्वर के लिए तथा ग्यान योगी को लोक संग्रह के लिए कर्म करना ही पड़ता हैं| कर्म, मोक्ष का आसन्न कारण तो नहीं पर ग्यान की उत्पत्ति के लिए द्वार-कारण अवश्य हैं|

कर्म तीन प्रकार के हैं; नित्य, नैमित्तिक और काम्य| नित्य कर्म वे हैं जो प्रत्येक व्यक्ति के लिए नित्य कर्तव्य हैं| इन्हें न करने से प्रत्यवाय-दोष या विघ्न उत्पन्न होते हैं| शंकराचार्यजी के अनुसार जो, नित्य कर्म करता हैं, उसका अंत:करन संस्कृत तथा विशुद्ध होता हैं फिर वह ग्यान का अधिकारी बन जाता हैं क्योकि नित्य कर्म करने से ग्यान के सभी प्रतिबंधक दूर हो जाते हैं| गीता में भी कहा गया हैं कि यज्ञ, दान और तप ज्ञानियों को भी पवित्र करने वाले हैं और मनुष्य को इसका कभी परित्याग नहीं करना चाहिये| नैमित्तिक कर्म वे हैं जो विशेष अवसरों पर किए जाते हैं|
पद्माचार्य जी ने विज्ञान दीपिका में लिखा हैं कि योग, ध्यान, सत्संग, जप तथा ग्यान से कर्म का नाश होता हैं, उसका नाश स्वयं कर्म से भी होता हैं| इस दृष्टी से तीन प्रकार के कर्म होते हैं: संचित, प्रारब्ध और क्रियमाण|

संचित कर्म= वे कर्म हैं जो पूर्व जन्म में किए गये हैं और जिनका फल मिलना अभी प्रारंभ नहीं हुआ हैं| प्रारब्ध कर्ण- वे कर्म हैं जिनका फल वर्तमान जीवन हैं| क्रियमाण कर्म- वे कर्म हैं जो इस जीवन में किए जाते हैं| ग्यान, संचित कर्म और क्रियमाण कर्म को तो नष्ट कर देता हैं पर प्रारब्ध कर्म को वह भी नष्ट नहीं कर पाता| प्रारब्ध कर्म को मनुष्य भोग कर ही नष्ट कर सकता हैं|

जब ग्यान द्वारा मनुष्य के संचित एवं क्रियमाण कर्म नष्ट जाते हैं, पर प्रारब्ध कर्म शेष रहते हैं, वह जीवन्मुक्त कहलाता हैं| फल-भोग के बाद जब उसके प्रारब्ध कर्म भी नष्ट हो जाते हैं, तब वह मनुष्य विदेह मुक्त कहा जाता हैं| जीवन-मुक्त यद्दपि कर्म करता हैं पर कामना विहीन होने के कारण उसे कर्म की संज्ञा नहीं दी जा सकती| वास्तव में अद्वेत वेदांत के अनुसार ग्यान और कर्म का सह-समुच्चय असंभव हैं| हाँ, चित्तशुद्धी के द्वारा ग्यान से सम्बंधित होने के कारण कर्म का ग्यान से क्रम-समुच्चय संगत हैं| प्रथम कर्म, तत्पश्चात भक्ति और अंत में ग्यान आता हैं| यही अद्वेत वेदांत का कर्म-भक्ति-ग्यान का क्रम-समुच्चय हैं| इति..

अभेद और भेद उपासना.

अभेद उपासना [निराकार] और भेद उपासना [साकार] के अंतर को समझ लेना अत्यंत आवश्यक हैं| इसको समझ लेने के पश्चात उपासक को स्वयं ग्यान हो जाता हैं कि वह कौन सी साधना की सामर्थ्य रखता हैं| स्थिति स्पष्ट हो जाने से भ्रम और चंचलता समाप्त हो जाती हैं तथा लक्ष्य की ओर दृढ़ता से बढ़ा जा सकता हैं| वैसे तो सभी नदियाँ अंत में समुद्र में हीं मिलती हैं अर्थात किसी भी मार्ग से चला जाय ‘लक्ष्य’ एक ही होता हैं परन्तु मार्ग का अनुसरण ही, वह पहली सीढ़ी हैं जिसकी जानकारी आगे के भटकाव और बुद्धिभ्रम को रोकती हैं|

अभेद उपासना=ग्यान मार्गीय.

अभेद उपासना का प्रमुख सिद्धांत हैं-“ब्रह्मसत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापर:|” अर्थात ब्रह्म ही एकमात्र सत्य हैं, जगत मिथ्या हैं तथा जीव और ब्रह्म में अभेद सम्बन्ध हैं| इसके साधक उक्त कथित सूत्र के समर्थक होते हैं और उनकी उपासना के स्वरूप का वर्णन निम्नानुसार होता हैं:-

१. इस चराचर जगत में जो कुछ प्रतीत होता हैं, सब ब्रह्म ही हैं| कोई भी वस्तु ब्रह्म से भिन्न नहीं हैं|

२. वह निर्गुण, निराकार, निर्विकार ब्रह्म इस क्षण-भंगुर, नाशवान, जड दृश्यवर्ग माया से सर्वथा अतीत हैं,

३. जड-चेतन, स्थावर,जंगम-सम्पूर्ण चराचर जगत एक ब्रह्म हैं और वह ब्रह्म “मैं” हूँ| इसलिए सब मेरा ही स्वरूप हैं, और

४. जो नाशवान क्षण भंगुर मायामय दृश्यवर्ग से अतीत निराकार, निर्विकार, नित्य, विज्ञानानन्दघन, निर्विशेष परब्रह्म परमात्मा हैं, वह मेरी ही आत्मा हैं अर्थात मेरा ही स्वरूप हैं,

ऐसा मानकर उपासना की जाती हैं और ध्यानादि मात्र “आत्मा” में ही केन्द्रित कर उसके साक्षात्कार का लक्ष्य रहता हैं| इसे निराकार उपासना भी कहते हैं| ब्रह्मविद्या का स्वरूप भी यहीं हैं| उपनिषदों के आधार पर सर्ग के आदि में एक सच्चिदानंदघन ब्रह्म ही थे| उन्होंने विचार किया कि “ मैं प्रकट होऊं और अनेक नाम-रूप धारण करके बहुत हो जाऊं|” इस प्रकार वह ब्रह्म एक ही, बहुत रूपों में हो गयें| इसलिए यह जो कुछ भी जड-चेतन, स्थावर-जंगम जगत हैं, वह परमात्मा का ही स्वरूप हैं| इसी आधार को लेकर “अभेद” उपासना पद्धति का प्रचलन हुआ हैं| ज्ञानियों द्वारा जो परमधाम प्राप्त किया जाता हैं, वहीं कर्मयोगियों द्वारा भी प्राप्त किया जाता हैं| यह उपासना ग्यान मार्ग से सम्बंधित हैं| इसको बानरी-बृत्ति भी कहते हैं|

क्रमश.....

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