महाविद्या-भाग-7
महाविद्या धूमावती अकेली स्व: नियंत्रक हैं, इनके स्वामी रूप में कोई नहीं हैं। भगवान शिव की विधवा हैं। दस महाविद्याओं की श्रेणी में देवी धूमावती सातवें स्थान पर अवस्थित हैं। उग्र स्वभाव वाली अन्य देवियों के सामान ही उग्र तथा भयंकर हैं। देवी का सम्बन्ध ब्रह्माण्ड के महाप्रलय के पश्चात उस स्थिति से हैं, जहां वे अकेली होती हैं अर्थात समस्त स्थूल जगत के विनाश के कारण शून्य स्थिति रूप में अकेली विराजमान रहती हैं। महाप्रलय के पश्चात मात्र देवी की शक्ति ही चारों ओर विद्यमान रहती हैं; देवी का स्वरूप धुएं के समान हैं। तीव्र क्षुधा हेतु इन्होंने अपने पति भगवान शिव का ही भक्षण किया था, जिसके पश्चात शिवजी धुएं के रूप में देवी के शरीर से बाहर निकले थे; देवी धुएं के रूप में हैं।
देवी दरिद्रों के गृह में दरिद्रता के रूप में विद्यमान रहती हैं तथा अलक्ष्मी नाम से विख्यात हैं। अलक्ष्मी जो कि देवी लक्ष्मी की बहन हैं, परन्तु गुण तथा स्वभाव से पूर्णतः विपरीत हैं। देवी धूमावती की उपस्थिति, सूर्य अस्त पश्चात रहती हैं अर्थात अंधकारमय स्थानों की स्वामिनी हैं। देवी का सम्बन्ध स्थाई अस्वस्थता से भी हैं फिर वह शारीरिक हो या मानसिक। देवी के अन्य नामों में निऋति भी हैं, जिनका सम्बन्ध मृत्यु, क्रोध, दुर्भाग्य, सड़न, अपूर्ण अभिलाषाओं जैसे नकारात्मक विचारों तथा तथ्यों से हैं। देवी कुपित होने पर समस्त अभिलषित मनोकामनाओं, सुख, धन तथा समृद्धि का नाश कर देती हैं, देवी कलह प्रिया हैं, अपवित्र स्थानों में वास करती हैं। रोग, दुर्भाग्य, कलह, निर्धनता, दुःख के रूप में देवी विद्यमान हैं।
देवी धूमावती का स्वरूप अत्यंत ही कुरूप हैं, भद्दे एवं विकट दन्त पंक्ति हैं, एक वृद्ध महिला के समान देवी दिखाई देती हैं। विधवा होने के कारण देवी श्वेत वस्त्र धारण करती हैं, श्वेत वर्ण ही इन्हें प्रिय हैं, तीन नेत्रों से युक्त भद्दी छवि युक्त हैं, देवी धूमावती। देवी रुद्राक्ष की माला आभूषण रूप में धारण करती हैं, इनके हाथों में एक सूप हैं; माना जाता हैं देवी जिस पर कुपित होती हैं उसके समस्त सुख इत्यादि अपने सूप पर ही ले जाती हैं। इन्होंने ही अपने शरीर से उग्र-चंडिका को प्रकट किया हैं। असुरों के कच्चे मांस का सेवन करके भी इनकी क्षुधा का निवारण नहीं हो पाया हैं। ये अतृप्त हैं।
संसार बंधन से विरक्त होने की शक्ति देवी ही प्रदान करती हैं, जो साधक के योग की उच्च अवस्था तथा मोक्ष प्राप्त करने हेतु सहायक होती हैं।
देवी धूमावती धुएं के स्वरूप में विद्यमान है तथा पार्वती के भयंकर और उग्र स्वभाव का प्रतिनिधित्व करती हैं। ज्येष्ठ माह में शुक्ल पक्ष की अष्टमी 'धूमावती जयंती' होती है, इसी तिथि में देवी का प्रादुर्भाव हुआ था।
देवी ने एक बार प्रण किया था! कि जो मुझे युद्ध में परास्त करेगा, वही मेरा पति-स्वामी होगा, मैं उसी से विवाह करूँगी परन्तु ऐसा नहीं हुआ कि इन्हें युद्ध में कोई परास्त कर सके, परिणामस्वरूप देवी अकेली हैं।
नारद पंचरात्र के अनुसार, देवी धूमावती ने ही उग्र चण्डिका, उग्र तारा जैसे उग्र तथा भयंकर प्रवृति वाली देवियों को अपने शरीर से प्रकट किया; उग्र स्वभाव, भयंकरता, क्रूरता इत्यादि देवी धूमावती ने ही इन देवियों को प्रदान की हैं। देवी की ध्वनि, हजारों गीदड़ों के एक साथ चिल्लाने जैसी हैं, जो महान भय-दायक हैं।
देवी धूमावती, भगवान शिव की विधवा के रूप में विद्यमान हैं; अपने पति भगवान शिव को निगल जाने के कारण देवी विधवा हैं। देवी का भौतिक स्वरूप क्रोध से उत्पन्न दुष्परिणाम तथा पश्चाताप को भी इंगित करता हैं।
देवी धूमावती की उत्पत्ति से सम्बंधित कथा।
देवी धूमावती के प्रादुर्भाव से सम्बंधित दो कथाएँ प्राप्त होती हैं। प्रथम प्रजापति दक्ष के यज्ञ से सम्बंधित हैं। सती के पिता प्रजापति दक्ष ने एक बार बृहस्पति श्रवा नाम के यज्ञ का आयोजन किया, जिसमें उन्होंने तीनों लोकों से समस्त प्राणियों को निमंत्रित किया। परन्तु दक्ष, भगवान शिव से घृणा तथा द्वेष करते थे, इस कारण उन्होंने शिव सहित उनसे सम्बंधित किसी को भी, अपने यज्ञ आयोजन में आमंत्रित नहीं किया। देवी सती को जब ज्ञात हुआ की तीनों लोकों से समस्त प्राणी, उनके पिता-जी के यज्ञ आयोजन में जा रहे है, उन्होंने अपने पति भगवान शिव से अपने पिता के घर जाने कि अनुमति मांगी। भगवान शिव दक्ष के व्यवहार से परिचित थे, उन्होंने सती को अपने पिता के घर जाने की अनुमति नहीं दी तथा नाना प्रकार से उन्हें समझने की चेष्टा की। परन्तु देवी सती नहीं मानी, अंततः भगवान शिव ने उन्हें अपने गणो के साथ जाने की अनुमति दे दी।
सती अपने पिता दक्ष से उनके यज्ञानुष्ठान स्थल में घोर अपमानित हुई। दक्ष ने अपनी पुत्री सती को स्वामी शिव सहित खूब उलटा सीधा कहा। परिणामस्वरूप, देवी अपने तथा स्वामी (शिव) के अपमान से तिरस्कृत हो, सम्पूर्ण यजमानों के सामने देखते ही देखते अपनी आहुति यज्ञ कुंड में दे दी; जिस कारण देवी की मृत्यु हो गई। यज्ञ स्थल में हाहाकार मच गया, सभी अत्यंत भयभीत हो गए। उस समय यज्ञ-कुंड से देवी सती, धुएं के रूप में बाहर निकली।
यज्ञ कुंड से निसर्ग धुएं को ही देवी धूमावती माना जाता हैं|
स्वतंत्र तंत्र के अनुसार, एक समय देवी पार्वती भगवान शिव के साथ, कैलाश में बैठी हुई थी।, तीव्र क्षुधा से ग्रस्त होने के कारण उन्होंने शिवजी से भोजन प्रदान करने का निवेदन किया। भगवान शिव ने प्रतीक्षा करने के लिया कहा। कुछ समय पश्चात उन्होंने पुनः भोजन हेतु निवेदन किया परन्तु शिवजी ने उन्हें कुछ क्षण और प्रतीक्षा करने को कहा। बार-बार भगवान शिव द्वारा इस प्रकार आश्वासन देने पर, देवी धैर्य खो, क्रोधित हो गई और अपने पति को ही उठाकर निगल लिया। देवी के शरीर से एक धूम्र राशि निकली, उस धूम्र राशि ने उन्हें पूरी तरह से ढक दिया। भगवान शिव, देवी के शरीर से बाहर आये तथा कहा! आपकी यह सुन्दर आकृति धुएं से ढक जाने के कारण धूमावती नाम से प्रसिद्ध होगी। अपने पति (भगवान शिव) को खा (निगल) लेने के परिणामस्वरूप देवी विधवा हैं।
देवी धूमावती से सम्बंधित अन्य तथ्य।
चूंकि देवी ने क्रोध वश अपने ही पति को खा लिया, देवी का सम्बन्ध दुर्भाग्य, अपवित्र, बेडौल, कुरूप जैसे नकारात्मक तथ्यों से हैं। देवी, श्मशान तथा अंधेरे स्थानों में निवास करने वाली है, समाज से बहिष्कृत है तथा अपवित्र स्थानों पर रहने वाली हैं। (देवी से सम्बंधित चित्र घर में नहीं रखना चाहिए)
भगवान शिव ही धुएं के रूप में देवी धूमावती में विद्यमान है तथा अपने पति (भगवान शिव) से कलह करने के कारण देवी कलह प्रिया भी हैं। प्रत्येक कलह में देवी शक्ति ही उत्पात मचाती हैं, क्लेश करती हैं।
देवी, चराचर जगत के अपवित्र प्रणाली के प्रतीक स्वरूपा है, चंचला, गलिताम्बरा, विरल-दंता, मुक्त केशी, शूर्प हस्ता, काक ध्वजिनी, रक्षा नेत्रा, कलह प्रिया इत्यादि देवी के अन्य प्रमुख नाम हैं। देवी का सम्बन्ध पूर्णतः अशुभता तथा नकारात्मक तत्वों से हैं, देवी की आराधना अशुभता तथा नकारात्मक विचारो के निवारण हेतु की जाती हैं।
देवी धूमावती की उपासना विपत्ति नाश, स्थिर रोग निवारण, युद्ध विजय, एवं घोर कर्म मारण, उच्चाटन इत्यादि में की जाती हैं। देवी के कोप से शोक, कलह, क्षुधा, तृष्णा मनुष्य के जीवन से कभी जाती ही नहीं हैं, स्थिर रहती हैं। देवी, प्रसन्न होने पर रोग तथा शोक दोनों विनाश कर देती है और कुपित होने पर समस्त भोग रहे कामनाओं का नाश कर देती हैं। आगम ग्रंथों के अनुसार, अभाव, संकट, कलह, रोग इत्यादि को दूर रखने हेतु देवी के आराधना की जाती हैं।
देवी धूमावती, लक्ष्मीजी के छोटी बहन अलक्ष्मी या ज्येष्ठा हैं, जो समुद्र मंथन से प्राप्त हुई थीं और जिसका विवाह दुसह ऋषि के साथ हुआ था| मनुष्यों के गृह में स्थिर दरिद्रता तथा दुर्भाग्य के रूप में देवी ज्येष्ठा ही वास करती हैं और अपवित्र तथा अन्धकार में वास करती हैं, अंततः नाश का कारण बनती हैं।
संक्षेप में देवी धूमावती से सम्बंधित मुख्य तथ्य।
मुख्य नाम : धूमावती।
अन्य नाम : चंचला, गलिताम्बरा, विरल-दंता, मुक्त केशी, शूर्प-हस्ता, काक ध्वजिनी, रक्षा नेत्रा, कलह प्रिया।
भैरव : विधवा, कोई भैरव नहीं।
भगवान के २४ अवतारों से सम्बद्ध : भगवान मत्स्य अवतार।
कुल : श्री कुल।
दिशा : आग्नेय कोण।
स्वभाव : सौम्य-उग्र।
कार्य : अपवित्र स्थानों में निवास कर, रोग, समस्त प्रकार से सुख को हरने, दरिद्रता, शत्रुों का विनाश करने वाली।
शारीरिक वर्ण : काला।
क्रमश:
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें