वेदांत....आदि-शंकराचार्य -भाग-६
भारतीय दर्शन के विरुद्ध जो आक्षेप लगाया जाता हैं कि वह ‘धर्म’ अधिक हैं, ‘दर्शन’ कम हैं| इसका कारण यह हैं कि भारतीय दर्शन बौध्दिक विकास की वस्तु न होकर मोक्ष को अपना साध्य मानता हैं| मोक्ष को केवल अंध-विश्वास के आधार पर ही स्वीकार नहीं किया गया हैं वरन बुद्धि और तर्क के आधार पर उसके तर्क विज्ञान की भी प्रतिष्ठा की गई हैं| चार्वाकों को छोडकर प्राय: सभी भारतीय दार्शनिक सम्प्रदाय मोक्ष को अपने चिन्तन का विषय मानते हैं| अद्वेत वेदांत का मोक्ष सिध्दांत सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं| प्रश्न यह हैं कि मोक्ष क्या हैं? कुछ दार्शनिक दुखों की आत्यन्तिक निवृति को ही मोक्ष कहते हैं, जो ग्यान के प्राप्त हो जाने पर सुलभ होती हैं| पर दुखो की आत्यन्तिक निवृति तो एक निषेधात्मक लक्ष्य हैं जो जीवन का उच्चतम पुरुषार्थ नहीं माना जा सकता| जीवन का उच्चतम पुरुषार्थ आत्मा के सच्चिदानंद स्वरूप की प्राप्ति हैं जो अध्यास [भ्रम] के परिहार से प्राप्त होती हैं|
ब्रह्मज्ञान का स्वरूप.
आदि शंकराचार्य जी के अनुसार ब्रह्मज्ञान अथवा आत्मज्ञान ही मोक्ष हैं| जिन वाह्य वस्तुओ के साथ आत्मा ने अपना तादाम्य-सम्बन्ध स्थापित कर लिया हैं, उनके निराकरण से ही आत्मा अपने स्वरूप को प्राप्त कर लेता हैं| शंकराचार्य जी के ब्रह्मज्ञान की यह विशेषता हैं कि इसमें एक ओर उनकी ग्यान मीमांसा और तत्व मीमांसा का एकीकरण हो जाता हैं वहीं दूसरी ओर तत्व मीमांसा और मूल्य मीमांसा का एकीकरण स्थापित हो जाता हैं| जब ज्ञाता-ग्यान-ज्ञेय की त्रिपुटी समाप्त हो जाती हैं तो आत्मा अपने सच्चिदानंद स्वरूप को प्राप्त कर लेता हैं|
हम पहले ही कह चुके हैं कि आत्मा एक ज्ञाता हैं जो कभी भी विषय नहीं बन सकता| आत्मा विषयी हैं, अत: उसके विषय बनने का कोई प्रश्न ही नहीं हैं| विषयी के रूप में आत्मा का ग्यान होना ही आत्मज्ञान हैं| इस आत्म ग्यान की हमे कैसे प्राप्ति होती हैं? क्या हमें जिस प्रकार वाह्य एवं आंतरिक विषयों की जानकारी प्राप्त होती हैं , उसी प्रकार आत्मज्ञान की भी प्राप्ति होती हैं? शंकराचार्य जी का कहना हैं नहीं? हमें वाह्य और आंतरिक विषयों का ग्यान, वृत्तियों के माध्यम से होता हैं, पर आत्मज्ञान वृत्तियो के माध्यम से प्राप्त नहीं होता| ब्रह्मज्ञान के समय अंत:करण अपनी मूल अविधा में विलीन हो जाता हैं| जब अंत:करण ही नहीं हैं तो वृत्ति होने का कोई प्रश्न उत्पन्न नहीं होता| आत्मा स्वयं प्रकाश्य हैं, उसके वृत्ति ज्ञान के द्वारा प्रकाशित होने का प्रश्न नहीं हैं|
अब यहाँ सबसे महत्वपूर्ण बात यह हैं कि आत्मा स्वयं प्रकाश्य एवं जगतसिध्य हैं तो आत्मज्ञान प्राप्त करने का क्या तात्पर्य हैं? इस प्रश्न के उत्तर में शंकराचार्य जी कहते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी आत्मा का कुछ न कुछ ज्ञान अबश्य होता हैं पर अविधा के कारण जीवात्मा ने जो वाह्य वस्तुओ के साथ अपना तादात्म्य-सम्बन्ध स्थापित कर लिया हैं, उसके कारण उसे अपने स्वरूप के विषय में भ्रम उत्पन्न हो गया हैं| कुछ लोग शरीर के साथ आत्मा का तादात्म्य सम्बन्ध स्थापित करते हैं, कुछ लोग इन्द्रियो के साथ, कुछ लोग मन के साथ अथवा मन के विज्ञानों के साथ आत्मा का तादात्म्य सम्बन्ध स्थापित करते हैं| वास्तव में आत्मा इन सबका साक्षी हैं| प्रत्यक्ष-अनुमान श्रुति इत्यादि प्रमाणों का उद्देश्य यह सिद्ध करना हैं कि आत्मा विषय वस्तुओ से सर्वथा पृथक हैं| अपने वास्तविक स्वरूप का ग्यान न रहने के कारण ही जीवात्मा बही वस्तुओ के साथ तादात्म्य संबंद स्थापित करती हैं| यह सब अध्यास=[भ्रम] के कारण होता हैं| इस अविधा जनित अध्यास के विनास हेतु ही श्रुतियो के श्रवण की व्यवस्था की जाती हैं| शंकराचार्य जी के अनुसार मोक्ष का अर्थ किसी अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति नहीं हैं क्योकि आत्मा प्रत्येक व्यक्ति को सदा प्राप्त हैं, वरन अनात्म बुद्धि की निवृत्ति हैं| शास्त्रों का प्रमाणत्व, अध्यारोपण की निवृत्ति हैं किसी अज्ञात वस्तु का ज्ञान प्राप्त करना नहीं हैं| श्रुति भी कहती हैं, अविधाजन्य अध्यारोपण की निवृत्ति ही वेदांत का प्रयोजन हैं, आत्मा को विषय रूप में जानना नहीं| वास्तव में आत्मा विषयी हैं, इसके लिए किसी वाह्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं हैं|
यहाँ ध्यान में रखने की बात यह हैं कि विशुद्ध चेतन्य या ब्रह्मज्ञान के पूर्व भी एक ग्यान होता हैं जिसे आत्म-ग्यान की संज्ञा दी जा सकती हैं जो वृत्तियो के माध्यम से उत्पन्न होती हैं| यह वृत्ति ब्रह्म को, सभी सीमित उपाधियो से भिन्न प्रदर्शित करती हैं पर यह आत्मज्ञान, ब्रह्मज्ञान नहीं हैं क्योकि यह वृत्ति से उत्पन्न होता हैं| इस आत्मज्ञान में वृत्ति, आत्मा को केवल विषयी या साक्षी के रूप में प्रदर्शित करती हैं| उसी साक्षी-ग्यान को प्राप्त करना ही श्रुतियो का उद्देश्य होता हैं| जिस प्रकार इंधन को जलाने के बाद अग्नि स्वत: शांत हो जाती हैं, उसी प्रकार सभी उपाधियो को नष्ट करने के बाद स्वत: शांत हो जाती हैं और इस प्रकार हमें ब्रह्मज्ञान प्राप्त हो जाता हैं| ब्रह्मज्ञान प्राप्त होने पर प्रमात-प्रमेय त्रिपुटी का विलय हो जाता हैं| यहीं ब्रह्मज्ञान हैं| यहीं मोक्ष हैं| शंकराचार्य जी इसे अवगति की अवस्था कहते हैं| ब्रह्म-जिज्ञासा की परिणति, अवगति में होती हैं|
यहाँ एक सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात की ओर संकेत करना आवश्यक हैं और वह यह हैं कि शंकराचार्य जी के अनुसार जगत की सारी प्रक्रियाए जीव को अवगति की अवस्था को प्राप्त करने में सचेष्ट हैं| जगत की उत्त्पति ही इसलिए हुई हैं कि वह हमारे प्रत्यक्ष या चेतना का विषय बन सकें| यदि जगत, नाम रूप में व्यापक न हुआ तो ब्रह्म के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान हमें कभी भी प्राप्त नहीं हो सकता था| इससे स्पष्ट हैं कि जीव की आत्माभिव्यक्ति के लिए जगत अनिवार्य साधन हैं| जगत की क्षण भंगुरता व अनित्यता ही जीव को शाश्वत ब्रह्म को प्राप्त करने के लिए प्रेरित करती हैं|
जहाँ तक मोक्ष के स्वरूप की बात हैं, इसका वर्णन करते हुये शंकराचार्यजी कहते हैं कि पारमार्थिक, कूटस्थ, नित्य, आकाश के समान व्यापक विकारों से रहित, आप्तकाम, निर्भय, स्वयं ज्योति-स्वभाव, जहाँ पाप-पुण्य की पहुच नहीं हैं, ऐसे अशरीरी स्वभाव को मोक्ष कहते हैं| अशरीरी स्वभाव को ही मोक्ष क्यों कहा जाय, इस प्रश्न का उत्तर देते हुये , वे आगे कहते हैं कि सशरीरत्व, मिथ्या ज्ञान निमित्त और मिथ्या के निराकरण के बाद सशरीरत्व नही रहता| इस कारण, जीवन काल में भी विद्वानों का सशरीरत्व सिध्द हैं|
जीवन्मुक्ति एवं विदेह मुक्ति.
मोक्ष, इस जीवन में भी मिल सकता हैं और इस जीवन के बाद भी मिल सकता हैं| प्रथम को जीवन्मुक्ति कहते हैं तथा द्वितीय को विदेह मुक्ति कहते हैं|
जीवन मुक्ति का तात्पर्य यह हैं कि जिस क्षण जीव को ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति हो जाती हैं , उसी क्षण वह मुक्त हो जाता हैं| जीवन मुक्ति में देह का अस्तित्व बना रहता हैं| यहाँ शंका की जा सकती हैं कि जब सशरीरत्व, मिथ्या ग्यान निमित्तक हैं तो मोक्ष प्राप्ति के बाद वह कैसे बना रह सकता हैं? अत: यदि सशरीरत्व हैं, तो इसका अर्थ यह हैं कि मुक्ति नहीं हैं| इसका तात्पर्य यह हैं की जीवन मुक्ति असभव हैं| इस समस्या का समाधान वेदांती, अविधा-लेश के सिधान्त से करते हैं| अविधा-लेश का अर्थ यह हैं कि ग्यान से अविधा-रुपी, आवरण के नष्ट होने पर भी प्रारब्ध कर्म से जो अग्यान का विक्षेपांश हैं, वह बना रहता हैं और उसी के कारण जीवन शेष रहता हैं| अन्य लोग कहते हैं कि जिस प्रकार हींग के डिब्बे को धोने के बाद भी उसकी गंध रह जाती हैं, उसी प्रकार अग्यान की वासना का रह जाना ही, अविधा-लेश हैं| मुक्त जीव अपने संचित और क्रियमाण कर्मों को तो ध्वस्त कर लेता हैं, पर जब तक उसके प्रारब्ध कर्म शेष रहते हैं तब तक उसकी देह बनी रहती हैं| प्रारब्ध कर्म के समाप्त होते ही उसकी देह नष्ट हो जाती हैं, इसी को विदेहमुक्ति कहते हैं|
जीवन मुक्ति के विषय में यह तर्क दिया जा सकता हैं कि यदि ग्यान से मोक्ष प्राप्ति होती हैं तो ग्यान प्राप्त होते ही मोक्ष की प्राप्ति हो जाना चाहिये| कालान्तर में फल केवल विधि [कर्म] कर्म का होता हैं| रज्जू का ग्यान होते ही सर्प का भ्रम दूर हो जाता हैं| उसी प्रकार यदि जीवकाल में उत्पन्न ग्यान, अविधा निवृत्ति नहीं कर सकता तो वह कालान्तर में भी नहीं कर सकता| जीवन काल में ही अविधा-निवृत्ति होती हैं क्योकि जीवन के बाद ग्यानोत्पत्ति के साधन न रहने से ग्यानोत्पत्ति नहीं हो सकती| इस प्रकार यदि मुक्ति हैं, तो वह जीवन मुक्ति ही हैं और जीवन मुक्ति नहीं हैं, वह सोपाधिक भ्रम हैं, जैसे दर्पण में मुख का प्रतिबिम्ब| सोपाधिक भ्रम के दूर हो जाने पर भी उसका कुछ प्रभाव बना रहता हैं जिससे उसके सत्य की कुछ प्रतीति होती हैं| यही बात जीवन मुक्त के देह की भी हैं| वह जानता हैं कि उसका देह मिथ्या हैं, किन्तु वह मिथ्यात्व सोपाधिक हैं| अत: निवृति हो जाने पर भी उसकी प्रतीति बनी रहती हैं|
जहाँ तक विदेह मुक्ति की बात हैं, वह इस देह के नष्ट हो जाने के बाद मिलती हैं| जिनको इस जगत में ब्रह्मज्ञान नहीं हुआ, वे ब्रह्मलोक में ब्रह्म का सामीप्य लाभ करके प्रलय पर्यन्त रहते हैं| यदि उन्हें ब्रह्मग्यान हो गया तो वे वहीं मुक्ति लाभ कर लेते हैं| यहीं विदेह मुक्ति हैं| यदि उनको वहाँ ब्रह्मग्यान न हुआ तो वे पुन: श्रृष्टि के प्रारम्भ होने पर प्रगट होते हैं और जन्म मरण के चक्र में पड़े रहते हैं| अत: विदेह मुक्ति का वास्तविक स्वरूप क्या हैं? वहाँ ब्रह्मलोक में वास करना अथवा ब्रह्म लोक में जाकर ब्रह्म ग्यान प्राप्त करना हैं| प्राय: विदेह मुक्ति का अर्थ ब्रह्मलोक में निवास करने से ही होता हैं| पर वेदांत के अनुसार वास्तविक विदेहमुक्ति, वह हैं जो ब्रह्म लोक में जाकर ब्रह्म ग्यान द्वारा मुक्ति प्राप्त की जाती जाती हैं|
क्रमश:..
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