शुद्ध अन्न से शुद्ध बुद्धि.


शुद्ध अन्न से शुद्ध बुद्धि.

श्री गुरु गोविन्दसिंह जी महाराज के पास खूब अशर्फियाँ थीं, खजाना था फिर भी वह यवनों से युद्ध होते समय अपने लड़ाकू शिष्यों को मुट्ठी भर चने देते थे। एक दिन उनमें से एक ने श्री गुरु गोविन्दसिंह जी की माताजी से जाकर कहा कि माता जी-हमें यवनों से लड़ना पड़ता है और गुरु गोविन्दसिंहजी के पास अशर्फियाँ है, खजाने हैं फिर भी वह हमें एक मुट्ठी चने ही देते हैं और लड़वाते हैं। माताजी ने श्री गुरुगोविन्दसिंह जी को अपनी गोद में बैठा कर कहा कि- पुत्र यह तेरे शिष्य तेरे पुत्र के समान हैं फिर भी तू इन्हें एक मुट्ठी चने ही देता है, ऐसा क्यों करता हैं?

श्री गुरु गोविन्दसिंह जी ने माताजी को उत्तर दिया-माता क्या तू मुझे अपने पुत्र को कभी विष दे सकती है?

माता जी ने कहा - नहीं।

गुरुगोविन्दसिंह जी ने कहा-माता मेरे यहाँ पर जो अशर्फियाँ हैं, खजाने हैं, वह इतने पवित्र नहीं हैं।
 उसके खाने से इनमें वह शक्ति नहीं रहेगी। जो मुट्ठी भर चने खाने से इनमें शक्ति है, वह फिर न रहेगी और फिर यह लड़ भी नहीं सकेंगे।

बीस उँगलियों की कमाई का, धर्म उपार्जित, भरपूर बदला चुकाकर ईमानदारी से प्राप्त किया हुआ अन्न ही मनुष्य में, सद्बुद्धि उत्पन्न कर सकता है। जो लोग अनीति युक्त अन्न ग्रहण करते हैं, उनकी बुद्धि असुरता की ओर ही प्रवृत्त होती है। चित्रकूट में हमने एक महात्मा को खेती करते देखा, एक महात्मा दरजी का काम करते थे। परिश्रम और ईमानदारी के साथ कमाये हुए अन्न से ही शुद्ध बुद्धि हो सकती है और तभी भगवद् भजन, कर्त्तव्य पालन, लोक सेवा आदि सात्विक कार्य हो सकते हैं।


(अखण्ड ज्योति, नवम्बर १९४४)

नागरिकता संशोधन अधिनियम, 2019


नागरिकता संशोधन अधिनियम, 2019

नागरिकता संशोधन कानून (Citizenship Amendment Act) के नाम पर भारत में पिछले कई दिनों से प्रदर्शन हो रहे हैं. लेकिन इन सबके बीच ये भी समझना चाहिए कि वास्‍तव नया कानून क्‍या है? क्‍या अफवाहें फैलाई जा रही हैं? इसके बारे में धारणा क्‍या है?

CAA नागरिकता संशोधन कानून है और NRC का मतलब है-एक ऐसा राष्ट्रीय रजिस्टर, जिसमें देश के सभी नागरिकों का ब्‍यौरा होगा. 

इसको सवाल-जवाब के सहारे सिलसिलेवार तरीके से समझा जा सकता है:

पहला सवाल- क्या इससे भारत का कोई मौजूदा नागरिक प्रभावित होगा?

जवाब- बिल्कुल नहीं. CAA किसी वर्तमान भारतीय नागरिक के मूलभूत अधिकारों को नुकसान नहीं पहुंचाता है. इसमें सभी धर्मों के नागरिक शामिल हैं. मुस्लिम भी.

दूसरा सवाल- ये कानून किन पर लागू होता है.

जवाब- ये कानून सिर्फ उन हिंदू, सिख, जैन, बौद्ध और पारसियों पर लागू होता है जो 31 दिसंबर 2014 से पहले पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से भारत आए थे और जिनके पलायन की वजह धर्म के आधार पर होने वाला शोषण था. लेकिन ये कानून भारत में आए दूसरे विदेशियों पर लागू नहीं होता. बाहर से आए मुसलमानों पर भी नहीं.

तीसरा सवाल- इस कानून से तीन पड़ोसी देशों से आए हिंदू, सिख, जैन, बौद्ध और पारसियों को क्या फायदा होगा.

जवाब- पासपोर्ट और वीज़ा जैसे दस्तावेज़ ना होने के बावजूद...उन्हें भारत की नागरिकता दी जाएगी.

चौथा सवाल- क्या पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से आए मुसलमान कभी भारत के नागरिक नहीं बन सकते?

जवाब- भारत के नागरिकता कानून की धारा 6 के नियमों का पालन करके कोई भी भारत की नागरिकता के लिए आवेदन कर सकता है. मौजूदा कानूनों के आधार पर पिछले कुछ वर्षों में कई विदेशी मुसलमानों को भारत की नागरिकता दी गई है. भविष्य में भी ये व्यवस्था कायम रहेगी. यानी अगर कोई मुसलमान किसी भी देश से भारत आता है और भारत का नागरिक बनना चाहता है तो उसे सिर्फ कुछ नियम कायदों का पालन करना होगा और सभी दस्तावेज़ सही पाए जाने पर उसे भारत की नागरिकता मिल जाएगी.

पांचवां सवाल- क्या नए नागरिकता कानून के लागू हो जाने के बाद अवैध रूप से भारत आए मुसलमानों को वापस भेज दिया जाएगा.

जवाब- नहीं. क्योंकि इस नए कानून में अवैध प्रवासियों को वापस भेजने का प्रावधान नहीं है. इन लोगों को वापस भेजने की प्रक्रिया पहले से मौजूद कानूनों के तहत पूरी की जाएगी.

और सबसे बड़ी बात ये है कि सिर्फ पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से भारत आए हिंदुओं को ही नए कानून के तहत नागरिकता दी जाएगी. अगर किसी और देश का हिंदू भारत आकर नागरिकता मांगता है तो उसे इस नए कानून से कोई फायदा नहीं होगा.

भ्रम और अफवाह.

एक अफवाह ये भी फैलाई जा रही है कि इस नए कानून के तहत भारतीय मुसलमानों से उनकी नागरिकता छीन ली जाएगी. लेकिन ये सरासर झूठ है क्योंकि CAA किसी भारतीय नागरिक पर लागू नहीं होता है.

कुछ लोग ये भ्रम भी फैला रहे हैं कि नागरिकता कानून के बाद पूरे देश में NRC लागू कर दिया जाएगा. मुसलमानों को छोड़कर सभी शरणार्थियों को भारत का नागरिक बना दिया जाएगा और मुसलमानों को डिटेंशन कैंपों में भेज दिया जाएगा. लेकिन ये भी कोरा झूठ है, क्योंकि नागरिकता कानून का NRC से कुछ लेना देना नहीं है. NRC से जुड़े कानूनी प्रावधान 2004 से ही नागरिकता कानून 1955 का हिस्सा हैं और CAA की वजह से इनमें कोई बदलाव नहीं हुआ है.

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: त्रयोदश अध्यायः श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: त्रयोदश अध्यायः श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद


ध्रुववंश का वर्णन, राजा अंग का चरित्र.

श्रीसूत जी कहते हैं- शौनक जी! श्रीमैत्रेय मुनि के मुख से ध्रुव जी के विष्णुपद पर आरूढ़ होने का वृत्तान्त सुनकर विदुर जी के हृदय में भगवान् विष्णु की भक्ति का उद्रेक हो आया और उन्होंने फिर मैत्रेय जी से प्रश्न करना आरम्भ किया।

विदुर जी ने पूछा- भगवत्परायण मुने! ये प्रचेता कौन थे? किसके पुत्र थे? किसके वंश में प्रसिद्ध थे और इन्होंने कहाँ यज्ञ किया था? भगवान् के दर्शन से कृतार्थ नारद जी परम भागवत हैं- ऐसा मैं मानता हूँ। उन्होंने पांचरात्र का निर्माण करके श्रीहरि की पूजा पद्धतिरूप क्रियायोग का उपदेश किया है। जिस समय प्रचेतागण स्वधर्म का आचरण करते हुए भगवान् यज्ञेश्वर की आराधना कर रहे थे, उसी समय भक्तप्रवर नारद जी ने ध्रुव का गुणगान किया था। ब्रह्मन्! उस स्थान पर उन्होंने भगवान् की जिन-जिन लीला-कथाओं का वर्णन किया था, वे सब पूर्णरूप से मुझे सुनाइये; मुझे उनके सुनने की बड़ी इच्छा है।

श्रीमैत्रेय जी ने कहा- विदुर जी! महाराज ध्रुव के वन चले जाने पर उनके पुत्र उत्कल ने अपने पिता के सार्वभौम वैभव और राज्यसिंहासन को अस्वीकार कर दिया। वह जन्म से ही शान्तचित्त, आसक्तिशून्य और समदर्शी था; तथा सम्पूर्ण लोकों को अपनी आत्मा में और अपनी आत्मा को सपूर्ण लोकों में स्थित देखता था। उसके अन्तःकरण का वासनारूप मल अखण्ड योगाग्नि से भस्म हो गया था। इसलिये वह अपनी आत्मा को विशुद्ध बोधरस के साथ अभिन्न, आनन्दमय और सर्वत्र व्याप्त देखता था। सब प्रकार के भेद से रहित प्रशान्त ब्रह्म को ही वह अपना स्वरूप समझता था; तथा अपनी आत्मा से भिन्न कुछ भी नहीं देखता था। वह अज्ञानियों को रास्ते आदि साधारण स्थानों में बिना लपट की आग के समान मूर्ख, अंधा, बहिरा, पागल अथवा गूँगा-सा प्रतीत होता था- वास्तव में ऐसा था नहीं। इसलिये कुल के बड़े-बूढ़े तथा मन्त्रियों ने उसे मूर्ख और पागल समझकर उसके छोटे भाई भ्रमिपुत्र वत्सर को राजा बनाया।

वत्सर की प्रेयसी भार्या स्वर्वीथि के गर्भ से पुष्पार्ण, तिग्मकेतु, इष, ऊर्ज, वसु और जय नाम के छः पुत्र हुए। पुष्पार्ण के प्रभा और दोषा नाम की दो स्त्रियाँ थीं; उनमें से प्रभा के प्रातः, मध्यन्दिन और सायं- ये तीन पुत्र हुए। दोषा के प्रदोष, निशीथ और वयुष्ट- ये तीन पुत्र हुए। वयुष्ट ने अपनी भार्या पुष्करिणी से सर्वतेजा नाम का पुत्र उत्पन्न किया। उसकी पत्नी आकूति से चक्षुः नामक पुत्र हुआ। चाक्षुष मन्वन्तर में वही मनु हुआ। चक्षु मनु की स्त्री नड्वला से पुरु, कुत्स, त्रित, द्युम्न, सत्यवान्, ऋत, व्रत, अग्निष्टोम, अतिरात्र, प्रद्युम्न, शिबि और उल्मुक- ये बारह सत्त्वगुणी बालक उत्पन्न हुए। इसमें उल्मुक ने अपनी पत्नी पुष्करिणी से अंग, सुमना, ख्याति, क्रतु, अंगिरा और गय- ये छः उत्तम पुत्र उत्पन्न किये। अंग की पत्नी सुनीथा ने क्रूरकर्मा वेन को जन्म दिया, जिसकी दुष्टता से उद्विग्न होकर राजर्षि अंग नगर छोड़कर चले गये थे।

प्यारे विदुर जी! मुनियों के वाक्य वज्र के समान अमोघ होते हैं; उन्होंने कुपित होकर वेन को शाप दिया और जब वह मर गया, तब कोई राजा न रहने के कारण लोक में लुटेरों के द्वारा प्रजा को बहुत कष्ट होने लगा। यह देखकर उन्होंने वेन की दाहिन भुजा का मन्थन किया, जिससे भगवान् विष्णु के अंशावतार आदि सम्राट् महाराज पृथु प्रकट हुए।

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: द्वादश अध्यायः श्लोक 30-52 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: द्वादश अध्यायः श्लोक 30-52 का हिन्दी अनुवाद

इतने में ही ध्रुव जी ने देखा कि काल मूर्तिमान् होकर उनके सामने खड़ा है। तब वे मृत्यु के सिर पर पैर रखकर उस समय अद्भुत विमान पर चढ़ गये। उस समय आकाश में दुन्दुभि, मृदंग और ढोल आदि बाजे बजने लगे, श्रेष्ठ गन्धर्व गान करने लगे और फूलों की वर्षा होने लगी। विमान पर बैठकर ध्रुव जी ज्यों-ही भगवान् के धाम को जाने के लिये तैयार हुए, त्यों-ही उन्हें माता सुनीति का स्मरण हो आया। वे सोचने लगे, ‘क्या मैं बेचारी माता को छोड़कर अकेला ही दुर्लभ वैकुण्ठधाम को जाऊँगा? नन्द और सुनन्द ने ध्रुव के हृदय की बात जानकर उन्हें दिखलाया कि देवी सुनीति आगे-आगे दूसरे विमान पर जा रही हैं। उन्होंने क्रमशः सूर्य आदि सभी ग्रह देखे। मार्ग में जहाँ-तहाँ विमानों पर बैठे हुए देवता उनकी प्रशंसा करते हुए फूलों की वर्षा करते जाते थे। उस दिव्य विमान पर बैठकर ध्रुव जी त्रिलोकी को पारकर सप्तर्षिमण्डल से भी ऊपर भगवान् विष्णु के नित्यधाम में पहुँचे। इस प्रकार उन्होंने अविचल गति प्राप्त की। यह दिव्य धाम अपने ही प्रकाश से प्रकाशित है, इसी के प्रकाश से तीनों लोक प्रकाशित हैं। इसमें जीवों पर निर्दयता करने वाले पुरुष नहीं जा सकते। यहाँ तो उन्हीं की पहुँच होती है, जो दिन-रात प्राणियों के कल्याण के लिये शुभ कर्म ही करते रहते हैं। जो शान्त, समदर्शी, शुद्ध और सब प्राणियों को प्रसन्न रखने वाले हैं तथा भगवद्भक्तों को ही अपना एकमात्र सच्चा सुहृद मानते हैं- ऐसे लोग सुगमता से ही इस भगवद्धाम को पाप्त कर लेते हैं।

इस प्रकार उत्तानपाद के पुत्र भगवत्परायण श्रीध्रुव जी तीनों लोकों के ऊपर उसकी निर्मल चूड़ामणि के समान विराजमान हुए। कुरुनन्दन! जिस प्रकार दायँ चलाने के समय खम्भे के चारों ओर बैल घूमते हैं, उसी प्रकार यह गम्भीर वेग वाला ज्योतिश्चक्र उस अविनाशी लोक के आश्रय ही निरन्तर घूमता रहता है। उसकी महिमा देखकर देवर्षि नारद ने प्रचेताओं की यज्ञशाला में वीणा बजाकर ये तीन श्लोक गाये थे।

नारद जी ने कहा- इसमें सन्देह नहीं, पतिपरायणा सुनीति के पुत्र ध्रुव ने तपस्या द्वारा अद्भुत शक्ति संचित करके जो गति पायी है, उसे भागवतधर्मों की आलोचना करके वेदवाणी मुनिगण भी नहीं पा सकते; फिर राजाओं की तो बात ही क्या है। अहो! वे पाँच वर्ष की अवस्थाओं में ही सौतेली माता के वाग्बाणों से मर्माहत होकर दुःखी हृदय से वन में चले गये और मेरे उपदेश के अनुसार आचरण करके ही उन अजेय प्रभु को जीत लिया, जो केवल अपने भक्तों के गुणों से ही वश में होते हैं। ध्रुव जी ने तो पाँच-छः वर्ष की अवस्था में कुछ दिनों की तपस्या से ही भगवान् को प्रसन्न करके उनका परमपद प्राप्त कर लिया; किन्तु उनके अधिकृत किये हुए इस पद को भूमण्डल में कोई दूसरा क्षत्रिय क्या वर्षो तक तपस्या करके भी पा सकता है?

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- विदुर जी! तुमने मुझसे उदारकीर्ति ध्रुव जी के चरित्र के विषय में पूछा था, सो मैंने तुम्हें वह पूरा-का-पूरा सुना दिया। साधुजन इस चरित्र की बड़ी प्रशंसा करते हैं। यह धन, यश और आयु की वृद्धि करने वाला, परम पवित्र और अत्यत्न मंगलमय है। इससे स्वर्ग और अविनाशी पद भी प्राप्त हो सकता है। यह देवत्व की प्राप्ति कराने वाला, बड़ा ही प्रशंसनीय और समत पापों का नाश करने वाला है। भगवद्भक्त ध्रुव के इस पवित्र चरित्र को जो श्रद्धापूर्वक बार-बार सुनते हैं, उन्हें भगवान् की भक्ति प्राप्त होती है, जिससे उनके सभी दुःखों का नाश हो जाता है। इसे श्रवण करने वाले को शीलादि गुणों की प्राप्ति होती है, जो महत्त्व चाहते हैं, उन्हें महत्त्व की प्राप्ति कराने वाला स्थान मिलता है, जो तेज चाहते हैं, उन्हें तेज प्राप्त होता है और मनस्वियों का मान बढ़ता है। पवित्रकीर्ति ध्रुव जी के इस महान् चरित्र का प्रातः और सायंकाल ब्रह्माणादि द्विजातियों के समान में एकाग्रचित्त से कीर्तन करना चाहिये। भगवान् के परम पवित्र चरणों की शरण में रहने वाला जो पुरुष इसे निष्कामभाव से पूर्णिमा, अमावस्या, द्वादशी, श्रवण नक्षत्र, तिथिक्षय, व्यतीपात, संक्रान्ति अथवा रविवार के दिन श्रद्धालु पुरुषों को सुनाता है, वह स्वयं अपने आत्मा में ही सन्तुष्ट रहने लगता है और सिद्ध हो जाता है। यह साक्षात् भगवद्विषयक अमृतमय ज्ञान है; जो लोग भगवन्मार्ग के मर्म से अनभिज्ञ हैं- उन्हें जो कोई इसे प्रदान करता है, उस दीनवत्सल कृपालु पुरुष पर देवता अनुग्रह करते हैं। ध्रुव जी के कर्म सर्वत्र प्रसिद्ध और परम पवित्र हैं; वे अपनी बाल्यावस्था में ही माता के घर और खिलौनों का मोह छोड़कर श्रीविष्णु भगवान् की शरण में चले गये थे। कुरुनन्दन! उनका यह पवित्र चरित्र मैंने तुम्हें सुना दिया।

साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: द्वादश अध्यायः श्लोक 17-19 का हिन्दी अनुवाद


 (लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: द्वादश अध्यायः श्लोक 17-19 का हिन्दी अनुवाद

वहाँ उन्होंने पवित्र जल में स्नान कर इन्द्रियों को विशुद्ध (शान्त) किया। फिर स्थिर आसन से बैठकर प्राणायाम द्वारा वायु को वश में किया। तदनन्तर मन के द्वारा इन्द्रियों को बाह्य विषयों से हटाकर मन को भगवान् के स्थूल विराट्स्वरूप में स्थिर कर दिया। उसी विराट्रूप का चिन्तन करते-करते अन्त में ध्याता और ध्येय के भेद से शून्य निर्विकल्प समाधि में लीन हो गये और उस अवस्था में विराट्रूप का भी परित्याग कर दिया। इस प्रकार भगवान् श्रीहरि के प्रति निरन्तर भक्तिभाव का प्रवाह चलते रहने से उनके नेत्रों में बार-बार आनन्दाश्रुओं की बाढ़-सी आ जाती थी। इससे उनका हृदय द्रवीभूत हो गया और शरीर में रोमांच हो आया। फिर देहाभिमान गलित हो जाने से उन्हें ‘मैं ध्रुव हूँ’ इसकी स्मृति भी न रही। इसी समय ध्रुव जी ने आकाश से एक बड़ा ही सुन्दर विमान उतरते देखा। वह अपने प्रकाश से दसों-दिशाओं को आलोकित कर रहा था; मानो पूर्णिमा का चन्द्र ही उदय हुआ हो। उसमें दो श्रेष्ठ पार्षद गदाओं का सहारा लिये खड़े थे। उनके चार भुजाएँ थीं, सुन्दर श्याम शरीर था, किशोर अवस्था थी और अरुण कमल के समान नेत्र थे। वे सुन्दर वस्त्र, किरीट, हार, भुजबन्ध और अति मनोहर कुण्डल धारण किये हुए थे। उन्हें पुण्यश्लोक श्रीहरि के सेवक जान ध्रुव जी हड़बड़ाहट में पूजा आदि का क्रम भूलकर सहसा खड़े हो गये और ये भगवान् के पार्षदों में प्रधान हैं-ऐसा समझकर उन्होंने श्रीमधुसूदन के नामों का कीर्तन करते हुए उन्हें हाथ जोड़कर प्रणाम किया।

ध्रुव जी का मन भगवान् के चरणकमलों में तल्लीन हो गया और वे हाथ जोडकर बड़ी नम्रता से सिर नीचा किये खड़े रह गये। तब श्रीहरि के प्रिय पार्षद सुनन्द और नन्द ने उनके पास जाकर मुसकराते हुए कहा।

सुनन्द और नन्द कहने लगे- राजन्! आपका कल्याण हो, आप सावधान होकर हमारी बात सुनिये। आपने पाँच वर्ष की अवस्था में ही तपस्या करके सर्वेश्वर भगवान् को प्रसन्न कर लिया था। हम उन्हीं निखिल जगन्नियन्ता सारंगपाणि भगवान् विष्णु के सेवक हैं और आपको भगवान् के धाम में ले जाने के लिये यहाँ आये हैं। आपने अपनी भक्ति के प्रभाव से विष्णुलोक का अधिकार प्राप्त किया है, जो औरों के लिये बड़ा दुर्लभ है। परमज्ञानी सप्तर्षि भी वहाँ तक नहीं पहुँच सके, वे नीचे से केवल उसे देखते रहते हैं। सूर्य और चन्द्रमा आदि ग्रह, नक्षत्र एवं तारागण भी उसकी प्रदक्षिणा किया करते हैं। चलिये, आप उसी विष्णुधाम में निवास कीजिये। प्रियवर! आज तक आपके पूर्वज तथा और कोई भी उस पद पर कभी नहीं पहुँच सके। भगवान् विष्णु का वह परमधाम सारे संसार में वन्दनीय है, आप वहाँ चलकर विराजमान हों। आयुष्मन्! यह श्रेष्ठ विमान पुण्यश्लोक शिखामणि श्रीहरि ने आपके लिये ही भेजा है, आप इस पर चढ़ने योग्य हैं।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- भगवान् के प्रमुख पार्षदों के ये अमृतमय वचन सुनकर परम भागवत ध्रुव जी ने स्नान किया, फिर सन्ध्या-वन्दनादि नित्य-कर्म से निवृत्त हो मांगलिक अलंकारादि धारण किये। बदरिकाश्रम में रहने वाले मुनियों को प्रणाम करके उनका आशीर्वाद लिया। इसके बाद उस श्रेष्ठ विमान की पूजा और प्रदक्षिणा की और पार्षदों को प्रणाम कर सुवर्ण के समान कान्तिमान् दिव्यरूप धारण कर उस पर चढ़ने को तैयार हुए।


साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: द्वादश अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: द्वादश अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद

ध्रुव जी को कुबेर का वरदान और विष्णुलोक की प्राप्ति.

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- विदुर जी! ध्रुव का क्रोध शान्त हो गया है और वे यक्षों के वध से निवृत्त हो गये हैं, यह जानकर भगवान् कुबेर वहाँ आये। उस समय यक्ष, चारण और किन्नर लोग उनकी स्तुति कर रहे थे। उन्हें देखते ही ध्रुव जी हाथ जोड़कर खड़े हो गये।

तब कुबेर ने कहा। श्रीकुबेर जी बोले- शुद्धहृदय क्षत्रियकुमार! तुमने अपने दादा के उपदेश से ऐसा दुस्त्यज वैर त्याग कर दिया; इससे मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ। वास्तव में न तुमने यक्षों को मारा है और न यक्षों ने तुम्हारे भाई को। समस्त जीवों की उत्पत्ति और विनाश का कारण तो एकमात्र काल ही है। यह मैं-तू आदि मिथ्या बुद्धि तो जीव को अज्ञानवश स्वप्न के समान शरीरादि को ही आत्मा मानने से उत्पन्न होती है। इसी से मनुष्य को बन्धन एवं दुःखादि विपरीत अवस्थाओं की प्राप्ति होती है। ध्रुव! अब तुम जाओ, भगवान् तुम्हारा मंगल करें। तुम संसारपास से मुक्त होने के लिये सब जीवों में समदृष्टि रखकर सर्वभूतात्मा भगवान् श्रीहरि का भजन करो। वे संसारपाश का छेदन करने वाले हैं तथा संसार की उत्पत्ति आदि के लिये अपनी त्रिगुणात्मिक मायाशक्ति से युक्त होकर भी वास्तव में उससे रहित हैं। उनके चरणकमल ही सबके लिये भजन करने योग्य हैं।

प्रियवर! हमने सुना है, तुम सर्वदा भगवान् कमलनाभ के चरणकमलों के समीप रहने वाले हो; इसलिये तुम अवश्य ही वर पाने योग्य हो। ध्रुव! तुम्हें जिस वर की इच्छा हो, मुझसे निःसंकोच एवं निःशंक होकर माँग लो।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- विदुर जी! यक्षराज कुबेर ने जब इस प्रकार वर माँगने के लिये आग्रह किया, तब महाभागवत महामति ध्रुव जी ने उनसे यही माँगा कि मुझे श्रीहरि की अखण्ड स्मृति बनी रहे, जिससे मनुष्य सहज ही दुस्तर संसार सागर को पार कर जाता है। इडविडा के पुत्र कुबेर जी ने बड़े प्रसन्न मन से उन्हें भगवत्स्मृति प्रदान की। फिर उनके देखते-ही-देखते वे अन्तर्धान हो गये।

इसके पश्चात् ध्रुव जी भी अपनी राजधानी को लौट आये। वहाँ रहते हुए उन्होंने बड़ी-बड़ी दक्षिणा वाले यज्ञों से भगवान् यज्ञपुरुष की आराधना की; भगवान् ही द्रव्य, क्रिया और देवता-सम्बन्धी समस्त कर्म और उसके फल हैं तथा वे ही कर्मफल के दाता भी हैं। सर्वोपाधिशून्य सर्वात्मा श्रीअच्युत में प्रबल वेगयुक्त भक्तिभाव रखते हुए ध्रुव जी अपने में और समस्त प्राणियों में सर्वव्यापक श्रीहरि को ही विराजमान देखने लगे। ध्रुव जी बड़े ही शील सम्पन्न, ब्राह्मणभक्त, दीनवत्सल और धर्ममर्यादा के रक्षक थे; उनकी प्रजा उन्हें साक्षात् पिता के समान मानती थी। इस प्रकार तरह-तरह के ऐश्वर्य भोग से पुण्य का और भोगों के त्यागपूर्वक यज्ञादि कर्मों के अनुष्ठान से पाप का क्षय करते हुए उन्होंने छत्तीस हजार वर्ष तक पृथ्वी का शासन किया।

जितेन्द्रिय महात्मा ध्रुव ने इसी तरह अर्थ, धर्म और काम के सम्पादन में बहुत-से वर्ष बिताकर अपने पुत्र उत्कल को राजसिंहासन सौंप दिया। इस सम्पूर्ण दृश्य-प्रपंच को अविद्यारचित स्वप्न और गन्धर्वनगर के समान माया से अपने में ही कल्पित मानकर और यह समझकर कि शरीर, स्त्री, पुत्र, मित्र, सेना, भरापूरा खजाना, जनाने महल, सुरम्य विहार भूमि और समुद्रपर्यन्त भूमण्डल का राज्य- ये सभी काल के गाल में पड़े हुए हैं, वे बदरिकाश्रम को चले गये।

साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: एकादश अध्यायः श्लोक 16-35 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: एकादश अध्यायः श्लोक 16-35 का हिन्दी अनुवाद

ध्रुव! इस प्रकार भगवान् की माया से सत्त्वादि गुणों में न्यूनाधिक भाव होने से ही जैसे भूतों द्वारा शरीरों की रचना होती है, वैसे ही उनकी स्थिति और प्रलय भी होते हैं। पुरुषश्रेष्ठ! निर्गुण परमात्मा तो इनमें केवल निमित्तमात्र है; उसके आश्रय से यह कार्यकरणात्मक जगत् उसी प्रकार भ्रमता रहता है, जैसे चुम्बक के आश्रय से लोहा। काल-शक्ति के द्वारा क्रमशः सत्त्वादि गुणों में क्षोभ होने से लीलामय भगवान् की शक्ति भी सृष्टि आदि के रूप में विभक्त हो जाती है; अतः भगवान् अकर्ता होकर भी जगत् की रचना करते हैं और संहार करने वाले न होकर भी इसका संहार करते हैं। सचमुच उन अनन्त प्रभु की लीला सर्वथा अचिन्तनीय है। ध्रुव! वे कालस्वरूप अव्यय परमात्मा ही स्वयं अन्तरहित होकर भी जगत् का अन्त करने वाले हैं तथा अनादि होकर भी सबके आदिकर्ता हैं। वे ही एक जीव से दूसरे जीव को उत्पन्न कर संसार की सृष्टि करते हैं तथा मृत्यु के द्वारा मारने वाले को भी मरवाकर उसका संहार करते हैं। वे काल भगवान् सम्पूर्ण सृष्टि में समान रूप से अनुप्रविष्ट हैं। उनका न तो कोई मित्र पक्ष है और न शत्रु पक्ष। जैसे वायु के चलने पर धूल उसके साथ-साथ उड़ती है, उसी प्रकार समस्त जीव अपने-अपने कर्मों के अधीन होकर काल की गति का अनुसरण करते हैं-अपने-अपने कर्मानुसार सुख-दुःखादि फल भोगते हैं।

सर्वसमर्थ श्रीहरि कर्मबन्धन में बँधे हुए जीव की आयु की वृद्धि और क्षय का विधान करते हैं, परन्तु वे स्वयं इन दोनों से रहित और अपने स्वरूप में स्थित हैं। राजन्! इन परमात्मा को ही मीमांसक लोग कर्म, चार्वाक, स्वभाव, वैशेषिक मतावलम्बी काल, ज्योतिषी दैव और कामशास्त्री काम कहते हैं। वे किसी भी इन्द्रिय या प्रमाण के विषय नहीं हैं। महदादि अनेक शक्तियाँ भी उन्हीं से प्रकट हुईं हैं। वे क्या करना चाहते हैं, इस बात को भी संसार में कोई नहीं जानता; फिर अपने मूल कारण उन प्रभु को तो जान ही कौन सकता है।

बेटा! ये कुबेर के अनुचर तुम्हारे भाई को मारने वाले नहीं हैं, क्योंकि मनुष्य के जन्म-मरण का वास्तविक कारण तो ईश्वर है। एकमात्र वही संसार को रचता, पालता और नष्ट करता है, किन्तु अहंकारशून्य होने के कारण इसके गुण और कर्मों से वह सदा निर्लेप रहता है। वे सम्पूर्ण प्राणियों के अन्तरात्मा, नियन्ता और रक्षा करने वाले प्रभु ही अपनी मायाशक्ति से युक्त होकर समस्त जीवों का सृजन, पालन और संहार करते हैं। जिस प्रकार नाक में नकेल पड़े हुए बैल अपने मालिक का बोझा ढोते रहते हैं, उसी प्रकार जगत् की रचना करने वाले ब्रह्मादि भी नामरूप डोरी से बँधे हुए उन्हीं की आज्ञा का पालन करते हैं। वे अभक्तों के लिये मृत्युरूप और भक्तों के लिये अमृतरूप हैं तथा संसार के एकमात्र आश्रय हैं।

तात! तुम सब प्रकार उन्हीं परमात्मा की शरण लो। तुम पाँच वर्ष की ही अवस्था में अपनी सौतेली माता के वाग्बाणों से मर्माहत होकर माँ की गोद छोड़कर वन को चले गये थे। वहाँ तपस्या द्वारा जिन हृषीकेश भगवान् की आराधना करके तुमने त्रिलोकी से ऊपर ध्रुवपद प्राप्त किया है और जो तुम्हारे वैरभावहीन सरल हृदय में वात्सल्यवश विशेष रूप से विराजमान हुए थे, उन निर्गुण अद्वितीय अविनाशी और नित्यमुक्त परमात्मा को अध्यात्म दृष्टि से अपने अन्तःकरण में ढूँढो। उनमें यह भेदभावमय प्रपंच न होने पर भी प्रतीत हो रहा है। ऐसा करने से सर्वशक्तिसम्पन्न परमानन्दस्वरूप सर्वान्तर्यामी भगवान् अनन्त में तुम्हारी सुदृढ़ भक्ति होगी और उसके प्रभाव से तुम मैं-मेरेपन के रूप में दृढ़ हुई अविद्या की गाँठ को काट डालोगे।

राजन्! जिस प्रकार ओषधि से रोग शान्त किया जाता है-उसी प्रकार मैंने तुम्हें जो कुछ उपदेश दिया है, उस पर विचार करके अपने क्रोध को शान्त करो। क्रोध कल्याण मार्ग का बड़ा ही विरोधी है। भगवान् तुम्हारा मंगल करें। क्रोध के वशीभूत हुए पुरुष से सभी लोगों को बड़ा भय होता है; इसलिये जो बुद्धिमान् पुरुष ऐसा चाहता है कि मुझसे किसी भी प्राणी को भय न हो और मुझे भी किसी से भय न हो, उसे क्रोध के वश में कभी न होना चाहिये। तुमने जो यह समझकर कि ये मेरे भाई के मारने वाले हैं, इतने यक्षों का संहार किया है, इससे तुम्हारे द्वारा भगवान् शंकर के सखा कुबेर जी का बड़ा अपराध हुआ है। इसलिये बेटा! जब तक कि महापुरुषों का तेज हमारे कुल को आक्रान्त नहीं कर लेता; इसके पहले ही विनम्र भाषण और विनय के द्वारा शीघ्र उन्हें प्रसन्न कर लो। इस प्रकार स्वयाम्भुव मनु ने अपने पौत्र ध्रुव को शिक्षा दी। तब ध्रुव जी ने उन्हें प्रणाम किया। इसके पश्चात् वे महर्षियों के सहित अपने लोक को चले गये। 


साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: एकादश अध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: एकादश अध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद

स्वायम्भुव-मनु का ध्रुव जी को युद्ध बंद करने के लिये समझाना.

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- विदुर जी! ऋषियों का ऐसा कथन सुनकर महाराज ध्रुव ने आचमन कर श्रीनारायण के बनाये हुए नारायणास्त्र को अपने धनुष पर चढ़ाया। उस बाण के चढ़ाते ही यक्षों द्वारा रची हुई नाना प्रकार की माया उसी क्षण नष्ट हो गयी, जिस प्रकार ज्ञान का उदय होने पर अविद्यादि क्लेश नष्ट हो जाते हैं।

ऋषिवर नारायण के द्वारा आविष्कृत उस अस्त्र को धनुष पर चढ़ाते ही उससे राजहंस के-से पक्ष और सोने के फल वाले बड़े तीखे बाण निकले और जिस प्रकार मयूर कारव करते वन में घुस जाते हैं, उसी प्रकार भयानक सांय-सांय शब्द करते हुए वे शत्रु की सेना में घुस गये। उन तीखी धार वाले बाणों ने शत्रुओं को बेचैन कर दिया। तब उस रणांगण में अनेकों यक्षों ने अत्यन्त कुपित होकार अपने अस्त्र-शस्त्र सँभाले और जिस प्रकार गरुड़ के छेड़ने से बड़े-बड़े सर्प फन उठाकर उनकी ओर दौड़ते हैं, उसी प्रकार वे इधर-उधर से ध्रुव जी पर टूट पड़े। उन्हें सामने आते देख ध्रुव जी ने अपने बाणों द्वारा उनकी भुजाएँ, जाँघें, कंधे, और उदर आदि अंग-प्रत्यंगों को छिन्न-भिन्न कर उन्हें उस सर्वश्रेष्ठ लोक (सत्यलोक) में भेज दिया, जिसमें उर्ध्वरेता मुनिगण सूर्यमण्डल का भेदन करके जाते हैं। अब उनके पितामह स्वयाम्भुव मनु ने देखा कि विचित्र रथ पर चढ़े हुए ध्रुव अनेकों निरपराध यक्षों को मार रहे हैं, तो उन्हें उन पर बहुत दया आयी। वे बहुत-से ऋषियों को साथ लेकर वहाँ आये और अपने पौत्र ध्रुव को समझाने लगे।

मनु जी ने कहा- बेटा! बस, बस! अधिक क्रोध करना ठीक नहीं। यह पापी नरक का द्वार है। इसी के वशीभूत होकर तुमने इन निरपराध यक्षों का वध किया है। तात! तुम तो निर्दोष यक्षों के संहार पर उतर रहे हो, यह हमारे कुल के योग्य कर्म नहीं है; साधु पुरुष इसकी बड़ी निन्दा करते हैं। बेटा! तुम्हारा अपने भाई पर अनुराग था, यह तो ठीक है; परन्तु देखो, उसके वध से सन्तप्त होकर तुमने एक यक्ष के अपराध करने पर प्रसंगवश कितनों की हत्या कर डाली। इस जड़ शरीर को ही आत्मा मानकर इसके लिये पशुओं की भाँति प्राणियों की हिंसा करना यह भगवत्सेवी साधुजनों का मार्ग नहीं है। प्रभु की आराधना करना बड़ा कठिन है, परन्तु तुमने तो लड़कपन में ही सम्पूर्ण भूतों के आश्रय-स्थान श्रीहरि की सर्वभूतात्मा भाव से आराधना करके उनका परमपद प्राप्त कर लिया है। तुम्हें तो प्रभु भी अपना प्रिय भक्त समझते हैं तथा भक्तजन भी तुम्हारा आदर करते हैं। तुम साधुजनों के पथप्रदर्शक हो; फिर भी तुमने ऐसा निन्दनीय कर्म कैसे किया?

सर्वात्मा श्रीहरि तो अपने से बड़े पुरुषों के प्रति सहनशीलता, छोटों के प्रति दया, बराबर वालों के साथ मित्रता और समस्त जीवों के साथ समता का बर्ताव करने से ही प्रसन्न होते हैं और प्रभु के प्रसन्न हो जाने पर पुरुष प्राकृत गुण एवं उनके कार्यरूप लिंगशरीर से छूटकर परमानन्दस्वरूप ब्रह्मपद प्राप्त कर लेता है।

बेटा ध्रुव! देहादि के रूप में परिणत हुए पंचभूतों से स्त्री-पुरुष का आविर्भाव होता है और फिर उनके पारम्परिक समागम से दूसरे स्त्री-पुरुष उत्पन्न होते हैं।

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: दशम अध्यायः श्लोक 17-30 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: दशम अध्यायः श्लोक 17-30 का हिन्दी अनुवाद

उनके धनुष से छूटे हुए तीखे तीर यक्ष-राक्षसों के कवचों को भेदकर इस प्रकार उनके शरीरों में घुस गये, जैसे इन्द्र के छोड़े हुए वज्र पर्वतों में प्रवेश कर गये थे।

विदुर जी! महाराज ध्रुव के बाणों से कटे हुए यक्षों के सुन्दर कुण्डलमण्डित मस्तकों से, सुनहरी तालवृक्ष के समान जाँघों से, वलयविभूषित बाहुओं से, हार, भुजबन्ध, मुकुट और बहुमूल्य पगड़ियों से पटी हुई वह वीरों के मन को लुभाने वाली समरभूमि बड़ी शोभा पा रही थी। जो यक्ष किसी प्रकार जीवित बचे, वे क्षत्रियप्रवर ध्रुव जी के बाणों से प्रायः अंग-अंग छिन्न-भिन्न हो जाने के कारण युद्धक्रीड़ा में सिंह से परास्त हुए गजराज के समान मैदान छोड़कर भाग गये।

नरश्रेष्ठ ध्रुव जी ने देखा कि उस विस्तृत रणभूमि में अब एक भी शत्रु अस्त्र-शस्त्र लिये उनके सामने नहीं है, तो उनकी इच्छा अलकापुरी देखने की हुई; किन्तु वे पुरी के भीतर नहीं गये। ‘ये मायावी क्या करना चाहते हैं, इस बात का मनुष्य को पता नहीं लग सकता’। सारथि से इस प्रकार कहकर वे उस विचित्र रथ में बैठे रहे तथा शत्रु के नवीन आक्रमण की आशंका से सावधान हो गये। इतने में ही उन्हें समुद्र की गर्जना के समान आँधी का भीषण शब्द सुनायी दिया तथा दिशाओं में उठती हुई धूल भी दिखायी दी। एक क्षण में ही सारा आकाश मेघमाला से घिर गया। सब ओर भयंकर गड़गड़ाहट के साथ बिजली चमकने लगी।

निष्पाप विदुर जी! उन बादलों से खून, कफ, पीब, विष्ठा, मूत्र एवं चर्बी की वर्षा होने लगी और ध्रुव जी के आगे आकाश से बहुत-से धड़ गिरने लगे। फिर आकाश में एक पर्वत दिखायी दिया और सभी दिशाओं में पत्थरों की वर्षा के साथ गदा, परिघ, तलवार और मूसल गिरने लगे। उन्होंने देखा कि बहुत-से सर्प वज्र की तरह फुफकार मारते रोषपूर्ण नेत्रों से आग की चिनगारियाँ उगलते आ रहे हैं; झुंड-के-झुंड मतवाले हाथी, सिंह और बाघ भी दौड़े चले आ रहे हैं। प्रलयकाल के समान भयंकर समुद्र अपनी उत्ताल तरंगों से पृथ्वी को सब ओर से डूबाता हुआ बड़ी भीषण गर्जना के साथ उनकी ओर बढ़ रहा है। क्रूरस्वभाव असुरों ने अपनी आसुरी माया से ऐसे ही बहुत-से कौतुक दिखलाये, जिनसे कायरों के मन काँप सकते थे।

ध्रुव जी पर असुरों ने अपनी दुस्तर माया फैलायी है, यह सुनकर वहाँ कुछ मुनियों ने आकर उनके लिये मंगल कामना की।

मुनियों ने कहा- उत्तानपादनन्दन ध्रुव! शरणागत-भयभंजन सारंगपाणि भगवान् नारायण तुम्हारे शत्रुओं का संहार करे। भगवान् का तो नाम ही ऐसा है, जिसके सुनने और कीर्तन करने मात्र से मनुष्य दुस्तर मृत्यु के मुख से अनायास ही बच जाता है।


साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: दशम अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: दशम अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद

उत्तम का मारा जाना, ध्रुव का यक्षों के साथ युद्ध.

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- विदुर जी! ध्रुव ने प्रजापति शिशुमार की पुत्री भ्रमि के साथ विवाह किया, उससे उनके कल्प और वत्सर नाम के दो पुत्र हुए। महाबली ध्रुव की दूसरी स्त्री वायुपुत्री इला थी। उससे उनके उत्कल नाम के पुत्र और एक कन्यारत्न का जन्म हुआ। उत्तम का अभी विवाह नहीं हुआ था कि एक दिन शिकार खेलते समय उसे हिमालय पर्वत पर एक बलवान् यक्ष ने मार डाला। उसके साथ उसकी माता भी परलोक सिधार गयी। ध्रुव ने जब भाई के मारे जाने का समाचार सुना तो वे क्रोध, शोक और उद्वेग से भरकर एक विजयप्रद रथ पर सवार हो यक्षों के देश में जा पहुँचे। उन्होंने उत्तर दिशा में जाकर हिमालय की घाटी में यक्षों से भरी हुई अलकापुरी देखी, उसमें अनेकों भूत-प्रेत-पिशाचादि रुद्रानुचर रहते थे। विदुर जी! वहाँ पहुँचकर महाबाहु ध्रुव ने अपना शंख बजाया तथा सम्पूर्ण आकाश और दिशाओं को गुँजा दिया। उस शंखध्वनि से यक्ष-पत्नियाँ बहुत ही डर गयीं, उनकी आँखें भय से कातर हो उठीं।

वीरवर विदुर जी! महाबलवान् यक्षवीरों को वह शंखनाद सहन न हुआ। इसलिये वे तरह-तरह के अस्त्र-शस्त्र लेकर नगर के बाहर निकल आये और ध्रुव पर टूट पड़े। महारथी ध्रुव प्रचण्ड धनुर्धर थे। उन्होंने एक ही साथ उनमें से प्रत्येक को तीन-तीन बाण मारे। उन सभी ने जब अपने-अपने मस्तकों में तीन-तीन बाण लगे देखे, तब उन्हें यह विश्वास हो गया कि हमारी हार अवश्य होगी। वे ध्रुव जी के इस अद्भुत पराक्रम की प्रशंसा करने लगे। फिर जैसे सर्प किसी के पैरों का आघात नहीं सहते, उसी प्रकार ध्रुव के इस पराक्रम को न सहकर उन्होंने भी उनके बाणों के जवाब में एक ही साथ उनसे दूने- छः-छः बाण छोड़े।

यक्षों की संख्या तेरह अच्युत (1,30,000) थी। उन्होंने ध्रुव जी का बदला लेने के लिये अत्यन्त कुपित होकर रथ और सारथी के सहित उन पर परिघ, खड्ग, प्रास, त्रिशूल, फरसा, शक्ति, ऋष्टि, भुशुण्डी तथा चित्र-विचित्र पंखदार बाणों की वर्षा की। इस भीषण शस्त्रवर्षा से ध्रुव जी बिलकुल ढक गये। तब लोगों को उनका दीखना वैसे ही बंद हो गया, जैसे भारी वर्षा से पर्वत का। उस समय जो सिद्धगण आकाश में स्थित होकर यह दृश्य देख रहे थे, वे सब हाय-हाय करके कहने लगे- ‘आज यक्ष सेनारूप समुद्र में डूबकर यह मानव-सूर्य अस्त हो गया’। यक्ष लोग अपनी विजय की घोषणा करते हुए युद्ध क्षेत्र में सिंह की तरह गरजने लगे। इसी बीच में ध्रुव जी का रथ एकाएक वैसे ही प्रकट हो गया, जैसे कुहरे में से सूर्य भगवान् निकल आते हैं। ध्रुव जी ने अपने दिव्य धनुष की टंकार करके शत्रुओं के दिल दहला दिये और फिर प्रचण्ड बाणों की वर्षा करके उनके अस्त्र-शस्त्रों को इस प्रकार छिन्न-भिन्न कर दिया, जैसे आँधी बादलों को तितर-बितर कर देती है।


साभार krishnakosh.org

ख़ोज परमात्मा की.


ख़ोज परमात्मा की.

सुना है कि कोलरेडो में जब सबसे पहली दफा सोने की खदानें मिलीं, तो सारा अमेरिका दौड़ पड़ा कोलरेडो की तरफ। खबरें आईं कि जरा सा खेत खरीद लो और सोना मिल जाए। लोगों ने जमीनें खरीद डालीं।

एक करोड़पति ने अपनी सारी संपत्ति लगाकर एक पूरी पहाड़ी ही खरीद ली।

बड़े यंत्र लगाए। छोटे—छोटे लोग छोटे—छोटे खेतों में सोना खोद रहे थे, तो पहाड़ी खरीदी थी, बड़े यंत्र लाया था, बड़ी खुदाई की, बड़ी खुदाई की। लेकिन सोने का कोई पता न चला।

फिर घबड़ाहट फैलनी शुरू हो गई। सारा दांव पर लगा दिया था। फिर वह बहुत घबड़ा गया। फिर उसने घर के लोगों से कहा कि यह तो हम मर गए, सारी संपत्ति दांव पर लगा दी है और सोने की कोई खबर नहीं है!

फिर उसने इश्तहार निकाला कि मैं पूरी पहाड़ी बेचना चाहता हूं मय यंत्रों के, खुदाई का सारा सामान साथ है।

घर के लोगों ने कहा, कौन खरीदेगा? सबमें खबर हो गई है कि वह पहाड़ बिलकुल खाली है, और उसमें लाखों रुपए खराब हो गए हैं, अब कौन पागल होगा?

लेकिन उस आदमी ने कहा कि कोई न कोई हो भी सकता है।

एक खरीददार मिल गया। बेचनेवाले को बेचते वक्त भी मन में हुआ कि उससे कह दें कि पागलपन मत करो; क्योंकि मैं मर गया हूं। लेकिन हिम्मत भी न जुटा पाया कहने की, क्योंकि अगर वह चूक जाए, न खरीदे, तो फिर क्या होगा? बेच दिया।

बेचने के बाद कहा कि आप भी अजीब पागल मालूम होते हैं; हम बरबाद होकर बेच रहे हैं! पर उस आदमी ने कहा, जिंदगी का कोई भरोसा नहीं; जहां तक तुमने खोदा है वहां तक सोना न हो, लेकिन आगे हो सकता है। और जहां तुमने नहीं खोदा है, वहां नहीं होगा, यह तो तुम भी नहीं कह सकते। उसने कहा, यह तो मैं भी नहीं कह सकता।

और आश्चर्य—कभी—कभी ऐसे आश्चर्य घटते हैं— पहले दिन ही, सिर्फ एक फीट की गहराई पर सोने की खदान शुरू हो गई। वह आदमी जिसने पहले खरीदी थी पहाड़ी, छाती पीटकर पहले भी रोता रहा और फिर बाद में तो और भी ज्यादा छाती पीटकर रोया, क्योंकि पूरे पहाड़ पर सोना ही सोना था। वह उस आदमी से मिलने भी गया। और उसने कहा, देखो भाग्य!

उस आदमी ने कहा, "भाग्य नहीं, तुमने दांव पूरा न लगाया, तुम पूरा खोदने के पहले ही लौट गए। एक फीट और खोद लेते!"

हमारी जिंदगी में ऐसा रोज होता है। न मालूम कितने लोग हैं जो खोजते हैं परमात्मा को, लेकिन पूरा नहीं खोजते, अधूरा खोजते हैं; ऊपर—ऊपर खोजते हैं और लौटे जाते हैं। कई बार तो इंच भर पहले से लौट जाते हैं, बस इंच भर का फासला रह जाता है और वे वापस लौटने लगते हैं। और कई बार तो साफ दिखाई पड़ता है कि यह आदमी वापस लौट चला, यह तो अब करीब पहुंचा था, अभी बात घट जाती; यह तो वापस लौट पड़ा।

परम मित्र कौन है?


परम मित्र कौन है?


एक व्यक्ति था, उसके तीन मित्र थे। एक मित्र ऐसा था जो सदैव साथ देता था। एक पल, एक क्षण भी बिछुड़ता नहीं था।

दूसरा मित्र ऐसा था जो सुबह शाम मिलता।

और तीसरा मित्र ऐसा था जो बहुत दिनों में जब तब मिलता।

एक दिन कुछ ऐसा हुआ की उस व्यक्ति को अदालत में जाना था और किसी कार्यवश साथ में किसी को गवाह बनाकर साथ ले जाना था। अब वह व्यक्ति अपने सब से पहले अपने उस मित्र के पास गया जो सदैव उसका साथ देता था और बोला :- "मित्र क्या तुम मेरे साथ अदालत में गवाह बनकर चल सकते हो?

वह मित्र बोला :- माफ़ करो दोस्त, मुझे तो आज फुर्सत ही नहीं। उस व्यक्ति ने सोचा कि यह मित्र मेरा हमेशा साथ देता था। आज मुसीबत के समय पर इसने मुझे इंकार कर दिया।

अब दूसरे मित्र की मुझे क्या आशा है। फिर भी हिम्मत रखकर दूसरे मित्र के पास गया जो सुबह शाम मिलता था, और अपनी समस्या सुनाई।

दूसरे मित्र ने कहा कि :- मेरी एक शर्त है कि मैं सिर्फ अदालत के दरवाजे तक जाऊँगा, अन्दर तक नहीं।

वह बोला कि :- बाहर के लिये तो मै ही बहुत हूँ मुझे तो अन्दर के लिये गवाह चाहिए। फिर वह थक हारकर अपने तीसरे मित्र के पास गया जो बहुत दिनों में मिलता था, और अपनी समस्या सुनाई।

तीसरा मित्र उसकी समस्या सुनकर तुरन्त उसके साथ चल दिया।

अब आप सोच रहे होंगे कि...
वो तीन मित्र कौन है...?

तो चलिये हम आपको बताते है इस कथा का सार।

जैसे हमने तीन मित्रों की बात सुनी वैसे हर व्यक्ति के तीन मित्र होते हैं। सब से पहला मित्र है हमारा अपना 'शरीर' हम जहा भी जायेंगे, शरीर रुपी पहला मित्र हमारे साथ चलता है। एक पल, एक क्षण भी हमसे दूर नहीं होता।

दूसरा मित्र है शरीर के 'सम्बन्धी' जैसे :- माता - पिता, भाई - बहन, मामा -चाचा इत्यादि जिनके साथ रहते हैं, जो सुबह - दोपहर शाम मिलते है।

और तीसरा मित्र है :- हमारे 'कर्म' जो सदा ही साथ जाते है।

अब आप सोचिये कि आत्मा जब शरीर छोड़कर धर्मराज की अदालत में जाती है, उस समय शरीर रूपी पहला मित्र एक कदम भी आगे चलकर साथ नहीं देता। जैसे कि उस पहले मित्र ने साथ नहीं दिया।

दूसरा मित्र - सम्बन्धी श्मशान घाट तक यानी अदालत के दरवाजे तक "राम नाम सत्य है" कहते हुए जाते हैं तथा वहाँ से फिर वापिस लौट जाते है।

और तीसरा मित्र आपके कर्म हैं।
कर्म जो सदा ही साथ जाते है चाहे अच्छे हो या बुरे।

अब अगर हमारे कर्म सदा हमारे साथ चलते है तो हमको अपने कर्म पर ध्यान देना होगा अगर हम अच्छे कर्म करेंगे तो किसी भी अदालत में जाने की जरुरत नहीं होगी।

और धर्मराज भी हमारे लिए स्वर्ग का दरवाजा खोल देगा।

रामचरित मानस की पंक्तियां हैं कि...
"काहु नहीं सुख-दुःख कर दाता।
निजकृत कर्म भोगि सब भ्राता।।"

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 50-67 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 50-67 का हिन्दी अनुवाद

वीरवर विदुर जी! वीरमाता सुनीति के स्तन उसके नेत्रों से झरते हुए मंगलमय आनन्दाश्रुओं से भीग गये और उनसे बार-बार दूध बहने लगा। उस समय पुरवासी लोग उनकी प्रशंसा करते हुए कहने लगे, ‘महारानी! आपका लाल बहुत दिनों से खोया हुआ था; सौभाग्यवश अब वह लौट आया, यह हम सबका दुःख दूर करने वाला है। बहुत दिनों तक भूमण्डल की रक्षा करेगा। आपने अवश्य ही शरणागत भयभंजन श्रीहरि की उपासना की है। उनका निरन्तर ध्यान करने वाले धीरपुरुष परमदुर्जय मृत्यु को भी जीत लेते हैं’।

विदुर जी! इस प्रकार जब सभी लोग ध्रुव के प्रति अपना लाड़-प्यार प्रकट कर रहे थे, उसी समय उन्हें भाई उत्तम के सहित हथिनी पर चढ़ाकर महाराज उत्तानपाद ने बड़े हर्ष के साथ राजधानी में प्रवेश किया। उस समय सभी लोग उनके भाग्य की बड़ाई कर रहे थे। नगर में जहाँ-तहाँ मगर के आकार के सुन्दर दरवाजे बनाये गये थे तथा फल-फूलों के गुच्छों के सहित केले के खम्भे और सुपारी के पौधे सजाये गये थे। द्वार-द्वार पर दीपक के सहित जल के कलश रखे हुए थे-जो आम के पत्तों, वस्त्रों, पुष्पमालाओं तथा मोती की लकड़ियों से सुसज्जित थे। जिन अनेकों परकोटों, फाटकों और महलों से नगरी सुशोभित थी, उन सबको सुवर्ण की सामग्रियों से सजाया गया था तथा उनके कँगूरे विमानों के शिखरों के समान चमक रहे थे। नगर के चौक, गलियों, अटारियों और सडकों को झाड़-बुहारकर उन पर चन्दन का छिड़काव किया गया था और जहाँ-तहाँ खील, चावल, पुष्प, फल, जौ एवं अन्य मांगलिक उपहार-सामग्रियाँ सजी रखी थीं।

ध्रुव जी राजमार्ग से जा रहे थे। उस समय जहाँ-तहाँ नगर की शीलवती सुन्दरियाँ उन्हें देखने को एकत्र हो रही थीं। उन्होंने वात्सल्यभाव से अनेकों शुभाशीर्वाद देते हुए उन पर सफेद सरसों, अक्षत, दही, जल, दूर्वा, पुष्प और फलों की वर्षा की। इस प्रकार उनके मनोहर गीत सुनते हुए ध्रुव जी ने अपने पिता के महल में प्रवेश किया।

वह श्रेष्ठ भवन महामूल्य मणियों की लड़ियों से सुसज्जित था। उसमें अपने पिताजी के लाड़-प्यार सुख भोगते हुए वे उसी प्रकार आनन्दपूर्वक रहने लगे, जैसे स्वर्ग में देवता लोग रहते हैं। वहाँ दूध के फेन के समान सफेद और कोमल शय्याएँ, हाथी-दाँत के पलंग, सुनहरी कामदार परदे, बहुमूल्य आसन और बहुत-सा सोने का सामान था। उसकी स्फटिक और महामरकतमणि (पन्ने) की दीवारों में रत्नों की बनी हुई स्त्रीमूर्तियों पर रखे हुए मणिमय दीपक जगमगा रहे थे। उस महल के चारों ओर अनेक जाति के दिव्य वृक्षों से सुशोभित उद्यान थे, जिसमें नर और मादा पक्षियों का कलरव तथा मतवाले भौंरों का गुंजार होता रहता था। उन बगीचों में वैदूर्यमणि (पुखराज) की सीढ़ियों से सुशोभित बावलियाँ थीं-जिनमें लाल, नीले और सफेद रंग के कमल खिले रहते थे तथा हंस, कारण्डव, चकवा एवं सारस आदि पक्षी क्रीड़ा करते रहते थे। राजर्षि उत्तानपाद ने अपने पुत्र के अति अद्भुत प्रभाव की बात देवर्षि नारद से पहले ही सुन रखी थी; अब उसे प्रत्यक्ष वैसा ही देखकर उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। फिर यह देखकर कि अब ध्रुव तरुण अवस्था को प्राप्त हो गये हैं, अमात्यवर्ग उन्हें आदर की दृष्टि से देखते हैं तथा प्रजा का भी उन पर अनुराग है, उन्होंने उन्हें निखिल भूमण्डल के राज्य पर अभिषिक्त कर दिया और आप वृद्धावस्था आयी जानकर आत्मस्वरूप का चिन्तन करते हुए संसार से विरक्त होकर वन को चल दिये।



साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 35-49 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 35-49 का हिन्दी अनुवाद

मैं बड़ा ही पुण्यहीन हूँ। जिस प्रकार कोई कँगला किसी चक्रवर्ती सम्राट् को प्रसन्न करके उससे तुषसहित चावलों की कनी माँगे, उसी प्रकार मैंने भी आत्मानन्द प्रदान करने वाले श्रीहरि से मुर्खतावश व्यर्थ का अभिमान बढ़ाने वाले उच्चपदादि ही माँगे हैं।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- तात! तुम्हारी तरह जो लोग श्रीमुकुन्दपादारविन्द-मकरन्द के ही मधुकर हैं-जो निरन्तर प्रभु की चरण-रज का ही सेवन करते हैं और जिनका मन अपने-आप आयी हुई सभी परिस्थितियों में सन्तुष्ट रहता है, वे भगवान् से उनकी सेवा के सिवा अपने लिये और कोई भी पदार्थ नहीं माँगते।

इधर जब राजा उत्तानपाद ने सुना कि उनका पुत्र ध्रुव घर लौट रहा है, तो उन्हें इस बात पर वैसे ही विश्वास नहीं हुआ जैसे कोई किसी के यमलोक से लौटने की बात पर विश्वास न करे। उन्होंने यह सोचा कि ‘मुझ अभागे का ऐसा भाग्य कहाँ’। परन्तु फिर उन्हें देवर्षि नारद की बात याद आ गयी। इससे उनका इस बात में विश्वास हुआ। वे आनन्द के वेग से अधीर हो उठे। उन्होंने अत्यन्त प्रसन्न होकर यह समाचार लाने वाले को एक बहुमूल्य हार दिया। राजा उत्तानपाद ने पुत्र का मुख देखने के लिये उत्सुक होकर बहुत-से ब्राह्मण, कुल के बड़े-बूढ़े, मन्त्री और बन्धुजनों को साथ लिया तथा एक बढ़िया घोड़ों वाले सुवर्णजटित रथ पर सवार होकर वे झटपट नगर के बाहर आये। उनके आगे-आगे वेदध्वनि होती जाती थी तथा शंख, दुन्दुभि एवं वंशी आदि अनेकों मांगलिक बाजे बजते जाते थे। उनकी दोनों रानियाँ- सुनीति और सुरुचि भी सुवर्णमय आभूषणों से विभूषित हो राजकुमार उत्तम के साथ पालकियों पर चढ़कर चल रही थीं।

ध्रुव जी उपवन के पास आ पहुँचे, उन्हें देखते ही महाराज उत्तानपाद तुरंत रथ से उतर पड़े। पुत्र को देखने के लिये वे बहुत दिनों से उत्कण्ठित हो रहे थे। उन्होंने झटपट आगे बढ़कर प्रेमातुर हो, लंबी-लंबी साँसें लेते हुए, ध्रुव को भुजाओं में भर लिया। अब ये पहले के ध्रुव नहीं थे, प्रभु के परमपुनीत पादपद्मों का स्पर्श होने से इनके समस्त पाप-बन्धन कट गये थे। राजा उत्तानपाद की एक बहुत बड़ी कामना पूर्ण हो गयी। उन्होंने बार-बार पुत्र का सिर सूँघा और आनन्द तथा प्रेम के कारण निकलने वाले ठंडे-ठंडे आँसुओं से उन्हें नहला दिया। तदनन्तर सज्जनों में अग्रगण्य ध्रुव जी ने पिता के चरणों में प्रणाम किया और उनसे आशीर्वाद पाकर, कुशल-प्रश्नादि से सम्मानित हो दोनों माताओं को प्रणाम किया।

छोटी माता सुरुचि ने अपने चरणों पर झुके हुए बालक ध्रुव को उठाकर हृदय से लगा लिया और अश्रुगद्गद वाणी से ‘चिरंजीवी रहो’ ऐसा आशीर्वाद दिया। जिस प्रकार जल स्वयं ही नीचे की ओर बहने लगता है-उसी प्रकार मैत्री आदि गुणों के कारण जिस पर श्रीभगवान् प्रसन्न हो जाते हैं, उसके आगे सभी जीव झुक जाते हैं। इधर उत्तम और ध्रुव दोनों ही प्रेम से विह्वल होकर मिले। एक-दूसरे के अंगों का स्पर्श पाकर उन दोनों के ही शरीर में रोमांच हो आया तथा नेत्रों से बार-बार आसुओं की धारा बहने लगी। ध्रुव की माता सुनीति अपने प्राणों से भी प्यारे पुत्र को गले लगाकर सारा सन्ताप भूल गयी। उसके सुकुमार अंगों के स्पर्श से उसे बड़ा ही आनन्द प्राप्त हुआ।


साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 22-34 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 22-34 का हिन्दी अनुवाद


यहाँ भी जब तेरे पिता तुझे राजसिंहासन देकर वन को चले जायेंगे; तब तू छत्तीस हजार वर्ष तक धर्मपूर्वक पृथ्वी का पालन करेगा। तेरी इन्द्रियों की शक्ति ज्यों-की-त्यों बनी रहेगी। आगे चलकर किसी समय तेरा भाई उत्तम शिकार खेलता हुआ मारा जायेगा, तब उसकी माता सुरुचि पुत्र-प्रेम में पागल होकर उसे वन में खोजती हुई दावानल में प्रवेश कर जायेगी। यज्ञ मेरी प्रिय मूर्ति है, तू अनेकों बड़ी-बड़ी दक्षिणाओं वाले यज्ञों के द्वारा मेरा यजन करेगा तथा यहाँ उत्तम-उत्तम भोग भोगकर अन्त में मेरा ही स्मरण करेगा। इससे तू अन्त में सम्पूर्ण लोकों के वन्दनीय और सप्तर्षियों से भी ऊपर मेरे निजधाम को जायेगा, वहाँ पहुँच जाने पर फिर संसार में लौटकर नहीं आना होता है।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- बालक ध्रुव से इस प्रकार पूजित हो और उसे अपना पद प्रदान कर भगवान् श्रीगरुड़ध्वज उसके देखते-देखते अपने लोक को चले गये। प्रभु की चरण सेवा से संकल्पित वस्तु प्राप्त हो जाने के कारण यद्यपि ध्रुव जी का संकल्प तो निवृत्त हो गया, किन्तु उनका चित्त विशेष प्रसन्न नहीं हुआ। फिर वे अपने नगर लौट गये।

विदुर जी ने पूछा- ब्रह्मन्! मायापति श्रीहरि का परमपद तो अत्यत्न दुर्लभ है और मिलता भी उनके चरणकमलों की उपासना से ही है। ध्रुव जी भी सारासार का पूर्ण विवेक रखते थे; फिर एक ही जन्म में उस परमपद को पा लेने पर भी उन्होंने अपने को अकृतार्थ क्यों समझा?

श्रीमैत्रेय जी ने कहा- ध्रुव जी का हृदय अपनी सौतेली माता के वाग्बाणों से बिंध गया था तथा वर माँगने के समय भी उन्हें उनका स्मरण बना हुआ था; इसी से उन्होंने मुक्तिदाता श्रीहरि से मुक्ति नहीं माँगी। अब जब भगवद्दर्शन से वह मनोमालिन्य दूर हो गया तो उन्हें अपनी इस भूल के लिये पश्चाताप हुआ। ध्रुव जी मन-ही-मन कहने लगे- अहो! सनकादि उर्ध्वरेता (नैष्ठिक ब्रह्मचारी) सिद्ध भी जिन्हें समाधि द्वारा अनेकों जन्मों में प्राप्त कर पाते हैं, उन भगवच्चरणों की छाया को मैंने छः महीने में ही पा लिया, किन्तु चित्त में दूसरी वासना रहने के कारण मैं फिर उनसे दूर हो गया। अहो! मुझ मन्दभाग्य की मुर्खता तो देखो, मैंने संसार-पाश को काटने वाले प्रभु के पादपद्मों में पहुँचकर भी उनसे नाशवान् वस्तु की ही याचना की!

देवताओं को स्वर्गभोग के पश्चात् फिर नीचे गिरना होता है, इसलिये वे मेरी भगवत्प्राप्तिरूप उच्च स्थिति को सहन नहीं कर सके; अतः उन्होंने ही मेरी बुद्धि को नष्ट कर दिया। तभी तो मुझ दुष्ट ने नारदजी की यथार्थ बात भी स्वीकार नहीं की। यद्यपि संसार में आत्मा के सिवा दूसरा कोई भी नहीं है; तथापि सोया हुआ मनुष्य जैसे स्वप्न में अपने ही कल्पना किये हुए व्याघ्रादि से डरता है, उसी प्रकार मैंने भी भगवान् की माया से मोहित होकर भाई को ही शत्रु मान लिया और व्यर्थ ही द्वेषरूप हार्दिक रोग से जलने लगा। जिन्हें प्रसन्न करना अत्यन्त कठिन है; उन्हीं विश्वात्मा श्रीहरि को तपस्या द्वारा प्रसन्न करके मैंने जो कुछ माँगा है, वह सब व्यर्थ है; ठीक उसी तरह, जैसे गतायुपुरुष के लिये चिकित्सा व्यर्थ होती है। ओह! मैं बड़ा भाग्यहीन हूँ, संसार-बन्धन का नाश करने वाले प्रभु से मैंने संसार ही माँगा।

साभार krishnakosh.org

अपना अपना भाग्‍य.


ना ना भाग्‍य.

एक राजा के तीन पुत्रियाँ थीं और तीनों बडी ही समझदार थी। वे तीनो राजमहल मे बडे आराम से रहती थी। एक दिन राजा अपनी तीनों पुत्रियों सहित भोजन कर रहे थे, कि अचानक राजा ने बातों ही बातों मे अपनी तीनों पुत्रियो से कहा- एक बात बताओ, तुम तीनो अपने भाग्‍य से खाते-पीते हो या मेरे भाग्‍य से?"

दो बडी पुत्रियो ने कहा कि- "पिताजी हम आपके भाग्‍य से खाते हैं। यदि आप हमारे पिता महाराज न होते, तो हमें इतनी सुख-सुविधा व विभिन्‍न प्रकार के व्‍यंजन खाने को नसीब नहीं होते। ये सब आपके द्वारा अर्जित किया गया वैभव है, जिसे हम भोग रहे हैं।"

पुत्रियों के मुँह से यह सुन कर राजा को अपने आप पर बडा गर्व और खु:शी हो रही थी लेकिन राजा की सबसे छोटी पुत्री ने इसी प्रश्‍न के उत्‍तर में कहा कि- "पिताजी मैं आपके भाग्‍य से नहीं बल्कि अपने स्‍वयं के भाग्‍य से यह सब वैभव भोग रही हुँ।" छोटी पुत्री के मुँख से ये बात सुन राजा के अहंकार को बडी ठेस लगी। उसे गुस्‍सा भी आया और शोक भी हुआ क्‍योंकि उसे अपनी सबसे छोटी पुत्री से इस प्रकार के जवाब की आशा नहीं थी।

समय बीतता गया, लेकिन राजा अपनी सबसे छोटी पुत्री की वह बात भुला नहीं पाया और समय आने पर राजा ने अपनी दोनो बडी पुत्रियो की विवाह दो राजकुमारो से करवा दिया परन्‍तु सबसे छोटी पुत्री का विवाह क्रोध के कारण एक गरीब लक्‍कडहारे से कर दिया और विदाई देते समय उसे वह बात याद दिलाते हुए कहा कि- "यदि तुम अपने भाग्‍य से राज वैभव का सुख भोग रही थी, तो तुम्‍हें उस गरीब लकड़हारे के घर भी वही राज वैभव का सुख प्राप्‍त होगा, अन्‍यथा तुम्‍हें भी ये मानना पडे़गा कि तुम्‍हे आज तक जो राजवैभव का सुख मिला, वह तुम्‍हारे नहीं बल्कि मेरे भाग्‍य से मिला।"

चूंकि, लक्‍कडहारा बहुत ही गरीब था, इसलिए निश्चित ही राजकुमारी को राजवैभव वाला सुख तो प्राप्‍त नहीं हो रहा था। लक्‍कड़हारा दिन भर लकडी काटता और उन्‍हें बेच कर मुश्किल से ही अपना गुजारा कर पाता था। सो, राजकुमारी के दिन बडे ही कष्‍ट दायी बीत रहे थे लेकिन वह निश्चित थी, क्‍योंकि राजकुमारी यही सोचती कि यदि उसे मिलने वाले राजवैभव का सुख उसे उसके भाग्‍य से मिला था, तो निश्चित ही उसे वह सुख गरीब लक्‍कड़हारे के यहाँ भी मिलेगा।

एक दिन राजा ने अपनी सबसे छोटी पुत्री का हाल जानना चाहा तो उसने अपने कुछ सेवको को उसके घर भेजा और सेवको से कहलवाया कि राजकुमारी को किसी भी प्रकार की सहायता चाहिए तो वह अपने पिता को याद कर सकती है क्‍योंकि यदि उसका भाग्‍य अच्‍छा होता, तो वह भी किसी राजकुमार की पत्नि होती।

लेकिन राजकुमारी ने किसी भी प्रकार की सहायता लेने से मना कर दिया, जिससे महाराज को और भी ईर्ष्‍या हुई अपनी पुत्री से। क्राेध के कारण महाराज ने उस जंगल को ही निलाम करने का फैसला कर लिया जिस पर उस लक्‍कड़हारे का जीवन चल रहा था।

एक दिन लक्‍कडहारा बहुत ही चिंता मे अपने घर आया और अपना सिर पकड़ कर झोपडी के एक कोने मे बैठ गया। राजकुमारी ने अपने पति को चिंता में देखा तो चिंता का कारण पूछा और लक्‍कड़हारे ने अपनी चिंता बताते हुए कहा कि- "जिस जंगल में मैं लकडी काटता हुँ, वह कल निलाम हो रहा है और जंगल को खरीदने वाले को एक माह में सारा धन राजकोष में जमा करना होगा, पर जंगल के निलाम हो जाने के बाद मेरे पास कोई काम नही रहेगा, जिससे हम अपना गुजारा कर सके।"

चूंकि, राजकुमारी बहुत समझदार थी, सो उसने एक तरकीब लगाई और लक्‍कडहारे से कहा कि- "जब जंगल की बोली लगे, तब तुम एक काम करना, तुम हर बोली मे केवल एक रूपया बोली बढ़ा देना।"

दूसरे दिन लक्‍कड़हारा जंगल गया और नीलामी की बोली शुरू हुई और राजकुमारी के समझाए अनुसार जब भी बोली लगती, तो लक्‍कड़हारा हर बोली पर एक रूपया बढा कर बोली लगा देता। परिणामस्‍वरूप अन्‍त में लक्‍कड़हारे की बोली पर वह जंगल बिक गया लेकिन अब लक्‍कड़हारे को और भी ज्‍यादा चिंता हुई क्‍योंकि वह जंगल पांच लाख में लक्‍कड़हारे के नाम पर छूटा था जबकि लक्‍कड़हारे के पास रात्रि के भोजन की व्‍यवस्‍था हो सके, इतना पैसा भी नही था।

आखिर घोर चिंता में घिरा हुआ वह अपने घर पहुँचा और सारी बात अपनी पत्नि से कही। राजकुमारी ने कहा- "चिंता न करें आप, आप जिस जंगल में लकड़ी काटने जाते है वहाँ मैं भी आई थी एक दिन, जब आप भोजन करने के लिए घर नही आये थे और मैं आपके लिए भोजन लेकर आई थी। तब मैंने वहाँ देखा कि जिन लकडियों को आप काट रहे थे, वह तो चन्‍दन की थी। आप एक काम करें। आप उन लकड़ीयों को दूसरे राज्‍य के महाराज को बेंच दें। चुंकि एक माह में जंगल का सारा धन चुकाना है सो हम दोनों मेहनत करके उस जंगल की लकडि़या काटेंगे और साथ में नये पौधे भी लगाते जायेंगे और सारी लकड़ीया राजा-महाराजाओ को बेंच दिया करेंगे।"

लक्‍कड़हारे ने अपनी पत्नि से पूंछा कि "क्‍या महाराज को नही मालुम होगा कि उनके राज्‍य के जंगल में चन्‍दन का पेड़ भी है।"

राजकुमारी ने कहा- "मालुम है, परन्‍तु वह जंगल किस और है, यह नही मालुम है।"

लक्‍कड़हारे को अपनी पत्नि की बात समझ में आ गई और दोनो ने कड़ी मेहनत से चन्‍दन की लकड़ीयों को काटा और दूर-दराज के राजाओं को बेंच कर जंगल की सारी रकम एक माह में चुका दी और नये पौधों की खेप भी रूपवा दी ताकि उनका काम आगे भी चलता रहे।

धीरे-धीरे लक्‍कड़हारा और राजकुमारी धनवान हो गए। लक्‍कड़हारा और राजकुमारी ने अपना महल बनवाने की सोच एक-दूसरे से विचार-विमर्श करके काम शुरू करवाया। लक्‍कड़हारा दिन भर अपने काम को देखता और राजकुमारी अपने महल के कार्य का ध्‍यान रखती। एक दिन राजकुमारी अपने महल की छत पर खडी होकर मजदूरो का काम देख रही थी कि अचानक उसे अपने महाराज पिता और अपना पूरा राज परिवार मजदूरो के बीच मजदूरी करता हुआ नजर आता है।

राजकुमारी अपने परिवारवालों को देख सेवको को तुरन्‍त आदेश देती है कि वह उन मजदूरो को छत पर ले आये। सेवक राजकुमारी की बात मान कर वैसा ही करते हैं। महाराज अपने परिवार सहित महल की छत पर आ जाते हैं और अपनी पुत्री को महल में देख आर्श्‍चय से पूछते हैं कि तुम महल में कैसे?

राजकुमारी अपने पिता से कहती है कि- "महाराज… आपने जिस जंगल को निलाम करवाया, वह हमने ही खरीदा था क्‍योंकि वह जंगल चन्‍दन के पेड़ों का था।"

और फिर राजकुमारी ने सारी बातें राजा को कह सुनाई। अन्‍त में राजा ने स्‍वीकार किया कि उसकी पुत्री सही थी।

सम्हल के जाइये शिर्डी. शिर्डी में गायब हो रहें दर्शनार्थी.-अधिकतर महिलाये.


सम्हल के जाइये शिर्डी.
शिर्डी में गायब हो रहें दर्शनार्थी.
अधिकतर महिलाये.

साईं बाबा के लिए मशहूर महाराष्ट्र के शिरडी शहर में एक अजीबोगरीब वाक्या सामने आ रही है। पिछले साल भर में साईं नगरी से 88 लोगों के लापता की खबरें हैं। साईं भक्तों के अचानक गायब होने की ये घटनाएं कितनी गंभीर हैं, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इस मामले का संज्ञान बॉम्बे हाई कोर्ट की औरंगाबाद बेंच ने लिया है। अदालत ने पुलिस से साईं बाबा के दर्शन के लिए आने वाले भक्तों की इस तरह से अचानक हो रही गुमशुदगी की जांच करने को कहा है। जस्टिस टीवी नालावाडे और एसएम गवान्हे की डिविजन बेंच ने मनोज कुमार नाम के शख्स की ओर दायर 2018 की एक क्रिमिनिल पिटिशन पर सुनवाई करते हुए ये ऑब्जर्वेशन दिया है। अदालत ने कहा है "शिरडी से एक साल में 88 से ज्यादा लोगों के गायब होने की सूचनाएं हैं। ज्यादातर मामलों में ये लोग मंदिर (साईं बाबा) में दर्शन करने के लिए शिरडी आए थे। "

इस मामले की गंभीरता जाहिर करते हुए अदालत ने ये भी कहा है कि कुछ मामलों में गायब होने वाले लोगों का पता चल भी गया है, लेकिन ज्यादातर मामलों में जिनमें अधिकतर महिलाएं ही हैं, उनका कुछ भी पता नहीं चल पाया है। कोर्ट ने कहा है कि, "जब एक गरीब व्यक्ति गायब होता है तो रिश्तेदार लाचार हो जाते हैं। ज्यादातर लोग पुलिस के पास नहीं जाते और बहुत कम लोग ही इस कोर्ट तक पहुंच पाते हैं।" अदालत ने ये भी कहा है कि "इसलिए इस बात की आशंका है कि रिपोर्ट में दर्ज 88 से ज्यादा लोग गायब हो सकते हैं।"

बॉम्बे हाई कोर्ट ने आशंका जताई है कि साईं नगरी से भक्तों के गायब होने के पीछे मानव तस्करी या ऑर्गेन रैकेट का मामला भी हो सकता है। बॉम्बे हाई कोर्ट के मुताबिक, " इन (मानव तस्करी या ऑर्गेन रैकेट) आशंकाओं की वजह से यह अदालत अहमदनगर के एसपी से उम्मीद करती है कि जांच के लिए एक स्पेशल यूनिट गठित करेंगे और उम्मीद की जाती है कि ट्रैफिकिंग या मानव अंगों के प्रत्यारोपण में शामिल लोगों का पता लगाकर उनके खिलाफ कार्रवाई करेंगे।"

महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले में स्थित शिरडी नगरी में साईं बाबा के दर्शन के लिए हर समुदाय के लोग पहुंचते हैं। शिरडी साईं बाबा मंदिर देश के सबसे धनी मंदिरों में भी शामिल है और हर साल देश और विदेश के लाखों श्रद्धालु यहां दर्शन के लिए पहुंचते हैं। यहां आने वाले वीआईपी श्रद्धालुओं की तादाद भी बहुत बड़ी है और पूरे साल भर साईं नगरी आने वाले भक्तों की कभी कमी नहीं होती।



source: oneindia.com



श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 11-21 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 11-21 का हिन्दी अनुवाद

अनन्त परमात्मन्! मुझे तो आप उन विशुद्धहृदय महात्मा भक्तों का संग दीजिये, जिनका आपमें अविच्छिन्न भक्तिभाव है; उनके संग से मैं आपके गुणों और लीलाओं की कथा-सुधा को पी-पीकर उन्मत्त हो जाऊँगा और सहज ही इस अनेक प्रकार के दुःखों से पूर्ण भयंकर संसार सागर के उस पार पहुँच जाऊँगा। कमलनाभ प्रभो! जिनका चित्त आपके चरणकमल की सुगन्ध से लुभाया हुआ है, उन महानुभावों का जो लोग संग करते हैं- वे अपने इस अत्यन्त प्रिय शरीर और इसके सम्बन्धी पुत्र, मित्र, गृह और स्त्री आदि की सुधि भी नहीं करते। अजन्मा परमेश्वर! मैं तो पशु, वृक्ष, पर्वत, पक्षी, सरीसृप (सर्पादि रेंगने वाले जन्तु), देवता, दैत्य और मनुष्य आदि से परिपूर्ण तथा महदादि अनेकों कारणों से सम्पादित आपके इस सदसदात्मक स्थूल विश्वरूप को ही जनता हूँ; इससे परे जो आपका परमस्वरूप है, जिसमें वाणी की गति नहीं है, उसका मुझे पता नहीं है। भगवन्! कल्प का अन्त होने पर योगनिद्रा में स्थित जो परमपुरुष इस सम्पूर्ण विश्व को अपने उदर में लीन करके शेषजी के साथ उन्हीं की गोद में शयन करते हैं तथा जिनके नाभि-समुद्र से प्रकट हुए सर्वलोकमय सुवर्णवर्ण कमल से परम तेजोमय ब्रह्माजी उत्पन्न हुए, वे भगवान् आप ही है, मैं आपको प्रणाम करता हूँ।

प्रभो! आप अपनी अखण्ड चिन्मयी दृष्टि से बुद्धि की सभी अवस्थाओं के साक्षी हैं तथा नित्यमुक्त शुद्धसत्त्वमय, सर्वज्ञ, परमात्मस्वरूप, निर्विकार, आदिपुरुष, षडैश्वर्य-सम्पन्न एवं तीनों गुणों के अधीश्वर हैं। आप जीव से सर्वथा भिन्न हैं तथा संसार की स्थति के लिये यज्ञाधिष्ठाता विष्णुरूप से विराजमान हैं। आपसे ही विद्या-अविद्या आदि विरुद्ध गतियों वाली अनेकों शक्तियाँ धारावाहिक रूप से निरन्तर प्रकट होती रहती हैं। आप जगत् के कारण, अखण्ड, अनादि, अनन्त, आनन्दमय निर्विकार ब्रह्मस्वरूप हैं। मैं आपकी शरण हूँ। भगवन्!

आप परमानन्द मूर्ति हैं- जो लोग ऐसा समझकर निष्कामभाव से आपका निरन्तर भजन करते रहते हैं, उनके लिये राज्यादि भोगों की अपेक्षा आपके चरणकमलों की प्राप्ति ही भजन का सच्चा फल है। स्वामिन्! यद्यपि बात ऐसी ही है, तो भी गौ जैसे अपने तुरंत के जन्में हुए बछड़े को दूध पिलाती और व्याघ्रादि से बचाती रहती है, उसी प्रकार आप भी भक्तों पर कृपा करने के लिये निरन्तर विकल रहने के कारण हम-जैसे सकाम जीवों की भी कामना पूर्ण करते उनकी संसार-भय से रक्षा करते रहते हैं।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- विदुर जी! जब शुभ संकल्प वाले मतिमान् ध्रुव जी ने इस प्रकार स्तुति की, तब भक्तवत्सल भगवान् उनकी प्रशंसा करते हुए कहने लगे।

श्रीभगवान् ने कहा- उत्तम व्रत का पालन करने वाले राजकुमार! मैं तेरे हृदय का संकल्प जानता हूँ। यद्यपि उस पद का प्राप्त होना बहुत कठिन है, तो भी मैं तुझे वह देता हूँ। तेरा कल्याण हो। भद्र! जिस तेजोमय अविनाशी लोक को आज तक किसी ने प्राप्त नहीं किया, जिसके चारों ओर ग्रह, नक्षत्र और तारागण ज्योतिश्चक्र उसी प्रकार चक्कर काटता रहता है जिस प्रकार मेढी के चारों ओर दँवरी के बैल घूमते रहते हैं। अवान्तर कल्पपर्यन्त रहने वाले अन्य लोकों का नाश हो जाने पर भी जो स्थिर रहता है तथा तारागण के सहित धर्म, अग्नि, कश्यप और शुक्र आदि नक्षत्र एवं सप्तर्षिगण जिसकी प्रदक्षिणा किया करते हैं, वह ध्रुवलोक मैं तुझे देता हूँ।



साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 1-10 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 1-10 का हिन्दी अनुवाद

ध्रुव का वर पाकर घर लौटना.

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- विदुर जी! भगवान् के इस प्रकार आश्वासन देने से देवताओं का भय जाता रहा और वे उन्हें प्रणाम करके स्वर्गलोक को चले गये। तदनन्तर विराट्स्वरूप भगवान् गरुड़ पर चढ़कर अपने भक्त को देखने के लिये मधुवन में आये। उस समय ध्रुव जी तीव्र योगाभ्यास से एकाग्र हुई बुद्धि के द्वारा भगवान् की बिजली के समान देदीप्यमान जिस मूर्ति का अपने हृदयकमल में ध्यान कर रहे थे, वह सहसा विलीन हो गयी। इससे घबराकर उन्होंने ज्यों ही नेत्र खोले कि भगवान् के उसी रूप को बाहर अपने सामने खड़ा देखा। प्रभु का दर्शन पाकर बालक ध्रुव को बड़ा कुतूहल हुआ, वे प्रेम में अधीर हो गये। उन्होंने पृथ्वी पर दण्ड के समान लोटकर उन्हें प्रणाम किया। फिर वे इस प्रकार प्रेमभरी दृष्टि से उनकी ओर देखने लगे मानो नेत्रों से उन्हें पी जायेंगे, मुख से चूम लेंगे और भुजाओं में कस लेंगे। वे हाथ जोड़े प्रभु के सामने खड़े थे और उनकी स्तुति करना चाहते थे, परन्तु किस प्रकार करें यह नहीं जानते थे। सर्वान्तर्यामी हरि उनके मन की बात जान गये; उन्होंने कृपापूर्वक अपने वेदमय शंख को उनके गाल से छुआ दिया। ध्रुव जी भविष्य में अविचल पद प्राप्त करने वाले थे। इस समय शंख का स्पर्श होते ही उन्हें वेदमयी दिव्य वाणी प्राप्त हो गयी और जीव तथा ब्रह्म के स्वरूप का भी निश्चय हो गया। वे अत्यन्त भक्तिभाव से धैर्यपूर्वक विश्वविख्यात कीर्तिमान् श्रीहरि की स्तुति करने लगे।

ध्रुव जी ने कहा- प्रभो! आप सर्वशक्तिसम्पन्न हैं; आप ही मेरी अन्तःकरण में प्रवेशकर अपने तेज से मेरी इस सोयी हुई वाणी को सजीव करते हैं तथा हाथ, पैर, कान और त्वचा आदि अन्यान्य इन्द्रियों एवं प्राणों को भी चेतनता देते हैं। मैं आप अन्तर्यामी भगवान् को प्रणाम करता हूँ।

भगवन्! आप एक ही हैं, परन्तु अपनी अनन्त गुणमयी मायाशक्ति से इस महदादि सम्पूर्ण प्रपंच को रचकर अन्तर्यामीरूप से उसमें प्रवेश कर जाते हैं और फिर इसके इन्द्रियादि असत् गुणों में उनके अधिष्ठातृ-देवताओं के रूप में स्थित होकर अनेक रूप भासते हैं- ठीक वैसे ही जैसे तरह-तरह की लकड़ियों में प्रकट हुई आग अपनी उपाधियों के अनुसार भिन्न-भिन्न रूपों में भासती है।

नाथ! सृष्टि के आरम्भ में ब्रह्माजी ने भी आपकी शरण लेकर आपके दिये हुए ज्ञान के प्रभाव से ही इस जगत् को सोकर उठे हुए पुरुष के समान देखा था। दीनबन्धो! उन्हीं आपके चरणतल का मुक्त पुरुष भी आश्रय लेते हैं, कोई भी कृतज्ञ पुरुष उन्हें कैसे भूल सकता है? प्रभो! इन शवतुल्य शरीरों के द्वारा भोगे जाने वाला, इन्द्रिय और विषयों के संसर्ग से उत्पन्न सुख तो मनुष्यों को नरक में भी मिल सकता है। जो लोग इस विषयसुख के लिये लालायित रहते हैं और जो जन्म-मरण के बन्धन से छुड़ा देने वाले कल्पतरुस्वरूप आपकी उपासना भगवत-प्राप्ति के सिवा किसी अन्य उद्देश्य से करते हैं, उनकी बुद्धि अवश्य ही आपकी माया के द्वारा ठगी गयी है। नाथ! आपके चरणकमलों का ध्यान करने से और आपके भक्तों के पवित्र चरित्र सुनने से प्राणियों को जो आनन्द प्राप्त होता है, वह निजानन्दस्वरूप ब्रह्म में भी नहीं मिल सकता। फिर जिन्हें काल की तलवार काटे डालती है, उन स्वर्गीय विमानों से गिरने वाले पुरुषों को तो वह सुख मिल ही कैसे सकता है।

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: अष्टम अध्यायः श्लोक 74-82 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: अष्टम अध्यायः श्लोक 74-82 का हिन्दी अनुवाद


तीसरा महीना नौ-नौ दिन पर केवल जल पीकर समाधियोग के द्वारा श्रीहरि की आराधना करते हुए बिताया। चौथे महींने में उन्होंने श्वास को जीतकर बारह-बारह दिन के बाद केवल वायु पीकर ध्यानयोग द्वारा भगवान् आराधना की। पाँचवाँ मास लगने पर राजकुमार ध्रुव श्वास को जीतकर परब्रह्म का चिन्तन करते हुए एक पैर से खंभे के समान निश्चल भाव से खड़े हो गये। उस समय उन्होंने शब्दादि विषय और इन्द्रियों के नियामक अपने मन को सब ओर से खींच लिया तथा हृदयस्थित हरि के स्वरूप का चिन्तन करते हुए चित्त को किसी दूसरी ओर न जाने दिया। जिस समय उन्होंने महदादि सम्पूर्ण तत्त्वों के आधार तथा प्रकृति और पुरुष के भी अधीश्वर परब्रह्म की धारणा की, उस समय (उनके तेज को न सह सकने के कारण) तीनों लोक काँप उठे।

जब राजकुमार ध्रुव एक पैर से खड़े हुए, तब उनके अँगूठे से दबकर आधी पृथ्वी इस प्रकार झुक गयी, जैसे किसी गजराज के चढ़ जाने पर नाव झुक गयी, जैसे किसी गजराज के चढ़ जाने पर पद-पद पर दायीं-बायीं ओर डगमगाने लगती है। ध्रुव जी अपने इन्द्रियद्वार तथा प्राणों को रोककर अनन्य बुद्धि से विश्वात्मा श्रीहरि का ध्यान करने लगे। इस प्रकार उनकी समष्टि प्राण से अभिन्नता हो जाने के कारण सभी जीवों का श्वास-प्रश्वास रुक गया। इससे समस्त लोक और लोकपालों को बड़ी पीड़ा हुई और वे सब घबराकर श्रीहरि की शरण में गये।

देवताओं ने कहा- भगवन्! समस्त स्थावर-जंगम जीवों के शरीरों का प्राण एक साथ ही रुक गया है, ऐसा तो हमने पहले कभी अनुभव नहीं किया। आप शरणागतों की रक्षा करने वाले हैं, अपनी शरण में आये हुए हम लोगों को इस दुःख से छुड़ाइये। श्रीभगवान् ने कहा- दवताओं! तुम डरो मत। उत्तानपाद के पुत्र ध्रुव ने अपने चित्त को मुझ विश्वात्मा में लीन कर दिया है, इस समय मेरे साथ उसकी अभेद धारणा सिद्ध हो गयी है, इसी से उसके प्राणनिरोध से तुम सबका प्राण भी रुक गया है। अब तुम अपने-अपने लोकों को जाओ, मैं उस बालक को इस दुष्कर तप से निवृत्त कर दूँगा।


साभार krishnakosh.org

तेरा विश्वास शक्ति बने, याचना नहीं.

तेरा विश्वास शक्ति बने, याचना नहीं.
(रवींद्रनाथ टैगोर)

हे प्रभो! मेरी केवल एक ही कामना है कि मैं संकटों से डर कर भागूं नहीं, उनका सामना करूं। इसलिए मेरी यह प्रार्थना नहीं है कि संकट के समय तुम मेरी रक्षा करो बल्कि मैं तो इतना ही चाहता हूँ कि तुम उनसे जूझने का बल दो। मैं यह भी नहीं चाहता कि जब दुःख सन्ताप से मेरा चित्त व्यथित हो जाय तब तुम मुझे सान्त्वना दो। मैं अपनी अञ्जलि के भाव सुमन तुम्हारे चरणों में अर्पित करते हुए इतना ही माँगता हूँ कि तुम मुझे अपने दुःखों पर विजय प्राप्त करने की शक्ति दो।

जब किसी कष्टप्रद और संकट की घड़ी में मुझे कहीं से कोई सहायता न मिले तो मैं हिम्मत न हारूं। किसी और स्रोत से सहायता की याचना न करूँ, न उन घड़ियों में मेरा मनोबल क्षीण होने पाये। हे प्रभो! मुझे ऐसी दृढ़ता और शक्ति देना जिससे कि मैं कठिन से कठिन घड़ियों में भी−संकटों और समस्याओं के सामने भी दृढ़ रह सकूँ और तुम्हें हर घड़ी अपने साथ देखते हुए उन्हें हँसी खेल समझ कर अपने चित्त को हल्का रखूँ। मैं बस यही चाहता हूँ।

चाहे जैसी ही प्रतिकूलताएँ हों, व्यवहार में मुझे कितनी ही हानि क्यों न उठानी पड़े इसकी मुझे जरा भी परवाह नहीं है। लेकिन प्रभु मुझे इतना कमजोर मत होने देना कि मैं आसन्न संकटों को देखकर हिम्मत हार बैठूँ और यह रोने बैठ जाऊँ कि अब क्या करूँ मेरा सर्वस्व छिन गया।

प्रभु तुम्हारा और केवल तुम्हारा विश्वास ग्रहण कर लोगों ने अकिंचन अवस्था में रहते हुए भी इतिहास की श्रेष्ठ उपलब्धियाँ प्राप्त की हैं। मैं इतना ही चाहता हूँ कि तुम्हारा विश्वास मेरे लिए शक्ति बने याचना नहीं, सम्बल बने−क्षीणता नहीं। बस इतनी ही कृपा करना।