श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: द्वादश अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: द्वादश अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद

ध्रुव जी को कुबेर का वरदान और विष्णुलोक की प्राप्ति.

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- विदुर जी! ध्रुव का क्रोध शान्त हो गया है और वे यक्षों के वध से निवृत्त हो गये हैं, यह जानकर भगवान् कुबेर वहाँ आये। उस समय यक्ष, चारण और किन्नर लोग उनकी स्तुति कर रहे थे। उन्हें देखते ही ध्रुव जी हाथ जोड़कर खड़े हो गये।

तब कुबेर ने कहा। श्रीकुबेर जी बोले- शुद्धहृदय क्षत्रियकुमार! तुमने अपने दादा के उपदेश से ऐसा दुस्त्यज वैर त्याग कर दिया; इससे मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ। वास्तव में न तुमने यक्षों को मारा है और न यक्षों ने तुम्हारे भाई को। समस्त जीवों की उत्पत्ति और विनाश का कारण तो एकमात्र काल ही है। यह मैं-तू आदि मिथ्या बुद्धि तो जीव को अज्ञानवश स्वप्न के समान शरीरादि को ही आत्मा मानने से उत्पन्न होती है। इसी से मनुष्य को बन्धन एवं दुःखादि विपरीत अवस्थाओं की प्राप्ति होती है। ध्रुव! अब तुम जाओ, भगवान् तुम्हारा मंगल करें। तुम संसारपास से मुक्त होने के लिये सब जीवों में समदृष्टि रखकर सर्वभूतात्मा भगवान् श्रीहरि का भजन करो। वे संसारपाश का छेदन करने वाले हैं तथा संसार की उत्पत्ति आदि के लिये अपनी त्रिगुणात्मिक मायाशक्ति से युक्त होकर भी वास्तव में उससे रहित हैं। उनके चरणकमल ही सबके लिये भजन करने योग्य हैं।

प्रियवर! हमने सुना है, तुम सर्वदा भगवान् कमलनाभ के चरणकमलों के समीप रहने वाले हो; इसलिये तुम अवश्य ही वर पाने योग्य हो। ध्रुव! तुम्हें जिस वर की इच्छा हो, मुझसे निःसंकोच एवं निःशंक होकर माँग लो।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- विदुर जी! यक्षराज कुबेर ने जब इस प्रकार वर माँगने के लिये आग्रह किया, तब महाभागवत महामति ध्रुव जी ने उनसे यही माँगा कि मुझे श्रीहरि की अखण्ड स्मृति बनी रहे, जिससे मनुष्य सहज ही दुस्तर संसार सागर को पार कर जाता है। इडविडा के पुत्र कुबेर जी ने बड़े प्रसन्न मन से उन्हें भगवत्स्मृति प्रदान की। फिर उनके देखते-ही-देखते वे अन्तर्धान हो गये।

इसके पश्चात् ध्रुव जी भी अपनी राजधानी को लौट आये। वहाँ रहते हुए उन्होंने बड़ी-बड़ी दक्षिणा वाले यज्ञों से भगवान् यज्ञपुरुष की आराधना की; भगवान् ही द्रव्य, क्रिया और देवता-सम्बन्धी समस्त कर्म और उसके फल हैं तथा वे ही कर्मफल के दाता भी हैं। सर्वोपाधिशून्य सर्वात्मा श्रीअच्युत में प्रबल वेगयुक्त भक्तिभाव रखते हुए ध्रुव जी अपने में और समस्त प्राणियों में सर्वव्यापक श्रीहरि को ही विराजमान देखने लगे। ध्रुव जी बड़े ही शील सम्पन्न, ब्राह्मणभक्त, दीनवत्सल और धर्ममर्यादा के रक्षक थे; उनकी प्रजा उन्हें साक्षात् पिता के समान मानती थी। इस प्रकार तरह-तरह के ऐश्वर्य भोग से पुण्य का और भोगों के त्यागपूर्वक यज्ञादि कर्मों के अनुष्ठान से पाप का क्षय करते हुए उन्होंने छत्तीस हजार वर्ष तक पृथ्वी का शासन किया।

जितेन्द्रिय महात्मा ध्रुव ने इसी तरह अर्थ, धर्म और काम के सम्पादन में बहुत-से वर्ष बिताकर अपने पुत्र उत्कल को राजसिंहासन सौंप दिया। इस सम्पूर्ण दृश्य-प्रपंच को अविद्यारचित स्वप्न और गन्धर्वनगर के समान माया से अपने में ही कल्पित मानकर और यह समझकर कि शरीर, स्त्री, पुत्र, मित्र, सेना, भरापूरा खजाना, जनाने महल, सुरम्य विहार भूमि और समुद्रपर्यन्त भूमण्डल का राज्य- ये सभी काल के गाल में पड़े हुए हैं, वे बदरिकाश्रम को चले गये।

साभार krishnakosh.org

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