(लगातार-सम्पूर्ण
श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: अष्टम
अध्यायः श्लोक 1-15
का हिन्दी अनुवाद
ध्रुव
का वन-गमन
निष्पाप विदुर जी! इस प्रकार मैंने संक्षेप से तुम्हें प्रलय का कारणरूप यह अधर्म का वंश सुनाया। यह अधर्म का त्याग कराकर पुण्य-सम्पादन में हेतु बनता है; अतएव इसका वर्णन तीन बार सुनकर मनुष्य अपने मन की मलिनता दूर कर देता है। कुरुनन्दन! अब मैं श्रीहरि के अंश (ब्रह्माजी) के अंश से उत्पन्न हुए पवित्रकीर्ति महाराज स्वायम्भुव मनु के पुत्रों के वंश का वर्णन करता हूँ।
महारानी शतरूपा और उनके पति स्वयाम्भुव मनु से प्रियव्रत और उत्तानपाद- ये पुत्र हुए। भगवान् वासुदेव की कला से उत्पन्न होने के कारण ये दोनों संसार की रक्षा में तत्पर रहते थे। उत्तानपाद के सुनीति और सुरुचि नाम की दो पत्नियाँ थीं। उनमें सुरुचि राजा को अधिक प्रिय थी; सुनीति, जिसका पुत्र ध्रुव था, उन्हें वैसी प्रिय नहीं थी।
एक दिन राजा उत्तानपाद सुरुचि के पुत्र उत्तम को गोद में बिठाकर प्यार कर रहे थे। उसी समय ध्रुव ने भी गोद में बैठना चाहा, परन्तु राजा ने उसका स्वागत नहीं किया। उस समय घमण्ड से भरी हुई सुरुचि ने अपनी सौत के पुत्र को महराज की गोद में आने का यत्न करते देख उनके सामने ही उससे डाह भरे शब्दों में कहा। ‘बच्चे! तू राजसिंहासन पर बैठने का अधिकारी नहीं है। तू भी राजा का ही बेटा है, इससे क्या हुआ; तुझको मैंने तो अपनी कोख में नहीं धारण किया। तू अभी नादान है, तुझे पता नहीं है कि तूने किसी दूसरी स्त्री के गर्भ से जन्म लिया है; तभी तो ऐसे दुर्लभ विषय की इच्छा कर रहा है। यदि तुझे राजसिंहासन की इच्छा है तो तपस्या करके परम पुरुष श्रीनारायण की आराधना कर और उनकी कृपा से मेरे गर्भ में आकर जन्म ले’।
श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- विदुर जी! जिस प्रकार डंडे की चोट खाकर साँप फुँफकार मारने लगता है, उसी प्रकार अपनी सौतेली माँ के कठोर वचनों से घायक होकर ध्रुव क्रोध के मारे लंबी-लंबी साँस लेने लगा। उसके पिता चुपचाप यह सब देखते रहे, मुँह से एक शब्द भी नहीं बोले। तब पिता को छोड़कर ध्रुव रोता हुआ अपनी माता के पास आया। उसके दोनों होंठ फड़क रहे थे और वह सिसक-सिसककर रो रहा था। सुनीति ने बेटे को गोद में उठा लिया और जब महल के दूसरे लोगों से अपनी सौत सुरुचि की कही हुई बातें सुनी, तब उसे भी बड़ा दुःख हुआ।
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