(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
प्रथम स्कन्धः एकोनविंश
अध्यायः श्लोक 24-35
का हिन्दी अनुवाद
सोलह वर्ष की अवस्था थी। चरण, हाथ, जंघा, भुजाएँ, कंधे, कपोल और अन्य सब अंग अत्यन्त सुकुमार थे। नेत्र बड़े-बड़े और मनोहर थे। नासिका कुछ ऊँची थी। कान बराबर थे। सुन्दर भौंहें थीं, इनसे मुख बड़ा ही शोभायमान हो रहा था। गला तो मानो सुन्दर शंख ही था। हँसली ढकी हुई, छाती चौड़ी और उभरी हुई, नाभि भँवर के समान गहरी तथा उदर बड़ा ही सुन्दर, त्रिवली से युक्त था। लंबी-लंबी भुजाएँ थीं, मुख पर घुँघराले बाल बिखरे हुए थे। इस दिगम्बर वेष में वे श्रेष्ठ देवता के समान तेजस्वी जान पड़ते थे। श्याम रंग था। चित्त को चुराने वाली भरी जवानी थी। वे शरीर की छटा और मधुर मुस्कान से स्त्रियों को सदा ही मनोहर जान पड़ते थे। यद्यपि उन्होंने अपने तेज को छिपा रखा था, फिर भी उनके लक्षण जानने वाले मुनियों ने उन्हें पहचान लिया और वे सब-के-सब अपने-अपने आसन छोड़कर उनके सम्मान के लिये उठ खड़े हुए।
राजा परीक्षित ने अतिथि रूप से पधारे हुए श्रीशुकदेव जी को सिर झुकाकर प्रणाम किया और उनकी पूजा की। उनके स्वरूप को न जानने वाले बच्चे और स्त्रियाँ उनकी यह महिमा देखकर वहाँ से लौट गये; सबके द्वारा सम्मानित होकर श्रीशुकदेव जी श्रेष्ठ आसन पर विराजमान हुए। ग्रह, नक्षत्र और तारों से घिरे हुए चन्द्रमा के समान ब्रह्मार्षि, देवर्षि और राजर्षियों के समूह से आवृत श्रीशुकदेव जी अत्यन्त शोभायमान हुए। वास्तव में वे महात्माओं के भी आदरणीय थे। जब प्रखर बुद्धि श्रीशुकदेव जी शान्त भाव से बैठ गये, तब भगवान के परम भक्त परीक्षित ने उनके समीप आकर और चरणों पर सिर रखकर प्रणाम किया। फिर खड़े होकर हाथ जोड़कर नमस्कार किया। उसके पश्चात् बड़ी मधुर वाणी से उनसे यह पूछा।
परीक्षित ने कहा- ब्रह्मस्वरूप भगवन्! आज हम बड़भागी हुए; क्योंकि अपराधी क्षत्रिय होने पर भी हमें संत-समागम का अधिकारी समझा गया। आज कृपापूर्वक अतिथिरूप से पधार कर आपने हमें तीर्थ के तुल्य पवित्र बना दिया। आप-जैसे महात्माओं के स्मरण मात्र से ही गृहस्थों के घर तत्काल पवित्र हो जाते हैं; फिर दर्शन, स्पर्श, पाद प्रक्षालन और आसन-दानादि का सुअवसर मिलने पर तो कहना ही क्या है। महायोगिन्! जैसे भगवान विष्णु के सामने दैत्य लोग नहीं ठहरते, वैसे ही आपकी सन्निधि से बड़े-बड़े पाप भी तुरंत नष्ट हो जाते हैं। अवश्य ही पाण्डवों के सुहृद् भगवान श्रीकृष्ण मुझ पर अत्यन्त प्रसन्न हैं; उन्होंने अपने फुफेरे भाइयों की प्रसन्नता के लिये उन्हीं के कुल में उत्पन्न हुए मेरे साथ भी अपनेपन का व्यवहार किया है।
क्रमश:
साभार krishnakosh.org