संकल्प-शक्ति कुँजी है- प्रगति-पुरुषार्थ की.


संकल्प-शक्ति कुँजी है-
प्रगति-पुरुषार्थ की.

14 अगस्त, 1964 का दिन था। अमेरिका के साहित्य जगत की एक उभरती प्रतिभा नारमन कजिन्स को अनायास ही एक ऐसी व्याधि ने अपने पाश में जकड़ लिया, जिसका कोई उपचार न उन दिनों चिकित्सक के पास था, न आज है। वह थी हड्डियों के बीच के कार्टिलेज की डिजेनरेटीव व्याधि जिसने उन्हें 24 घण्टों में बिस्तर पर लेटने को विवश कर दिया। एक सप्ताह में सभी जोड़ संधियां ऐसे जकड़ गए कि वे पीड़ा में कराहने लगे, निद्रा कोसों दूर भाग गई एवं जोड़ लगभग बँध से गए।

चिकित्सकों के समझाने के बावजूद कि इसका कोई उपचार नहीं है, वे पीड़ानाशक व मांसपेशियों के तनाव को कम करने वाली औषधियाँ लेते रहें, यदि कष्ट अधिक न हो तो मालिश करने दें। वे यह मानने को राजी नहीं हुए कि उनकी व्याधि असाध्य है। अब वे बिस्तर से उतर नहीं सकेंगे व जीवन भर जो अधिक लम्बा नहीं है ऐसी ही स्थिति रहेगी। उन्होंने अपने चिकित्सकों से दृढ़ मनोबल के साथ कहा कि - “मैं जल्दी हार मानने वाला नहीं हूँ। मैं जानता हूँ कि यह बीमारी एड्रीनल ग्रन्थि के रसस्राव क्षीण हो जाने से हुई है। यदि तनाव व शारीरिक दबाव ऐसा कर सकता है तो क्यों पुनः विधेयात्मक भाव तरंगों द्वारा एड्रीनल को प्रभावित कर इन्हीं हारमोन्स को उत्सर्जित करना संभव नहीं हो सकता?” उनके तर्क में दम तो था, पर ऐसा कभी कोई कर पाया हो, ऐसा कोई केस चिकित्सकों के पास नहीं था। उन्होंने कहा - यदि आपकी इच्छा शक्ति इतनी ही प्रबल है तो कोशिश कर देखें।

कजिन्स की मान्यता थी कि पॉजेटिव इमोशन्स, प्रसन्नता की - प्रफुल्लता की भावना, हल्का-फुल्का मस्ती भरा जीवन जीने की आकाँक्षा द्वारा पाँजिटीव विद्युत्धाराओं को शरीर में दौड़ा सकना संभव है। यदि भावनात्मक स्थिति को पलटा जा सकता है तो एड्रीनल ग्रन्थि की कार्य पद्धति को उलटना क्यों संभव नहीं है, जो कि तनाव, अवसाद के लिये उत्तरदायी मानसिक हारमोन्स का रसस्राव करती है। उन्होंने सोचा कि हँसी उन्मुक्त हँसी, खुले दिल से हँसी ही दूसरी श्रेष्ठ चिकित्सा है। कैण्डिउ कैमरा नामक एक हास्य धारावाहिक उन्होंने उसी दिन अपने टी॰व्ही॰ पर देखना आरंभ किया एवं हँसी में साथ देने के लिए अपने मस्त मित्रों को भी आमंत्रित किया। इस प्रयोग के बाद 10 मिनट की हँसी ने उन्हें दो घण्टे की पीड़ा मुक्त नींद में सुला दिया। अब वे अस्पताल से घर पहुँच गए जहाँ वे स्वतंत्रता से काँमिक मूवीज, टेलीविजन प्रोग्राम देख सकते थे तथा हास्य प्रधान, चुटकुलों की पुस्तकें पढ़-पढ़कर खुद ही हँसते रह सकते थे। इस प्रयोग के 9 दिन बाद उनके एक अँगूठे, घुटने से दर्द गायब हो गया व बिना दवा के वे 5 से 6 घण्टे सोने लगे। तीन सप्ताह बाद चिकित्सकों ने उन्हें प्यूर्टोरिको के समुद्री बीच पर व्यायाम करते पाया। उनके एक्सरे किये गए, पता चला कि ऊतक नये सिरे से बनने लगे हैं 4 माह बाद वे साइकिल चलाते हुए स्वस्थ स्थिति में कार्यालय आये। उनने बाद में अपने संस्करणों में लिखा कि “मेरी जिजीविषा”, जीने की अदम्य आकाँक्षा ने मुझे हँसने व विधेयात्मक चिन्तन के लिए प्रेरित किया व इसी ने असंभव को संभव कर दिखाया। इच्छा शक्ति से मैंने शरीर की रसायन प्रक्रिया को बदल डाला। वस्तुतः जीवन जीने का नाम है व जीने के लिये जरूरी है संकल्प शक्ति जो किसी भी अवरोध से जूझ सकती है।”

यह एक उदाहरण है एक ऐसे व्यक्ति का जिसने अपनी स्वयं की इच्छा शक्ति का सुनियोजन कर अपनी असाध्य व्याधि से मोर्चा लिया एवं एक कुशल सैनिक की भाँति जीतकर दिखाया। वस्तुतः - इच्छा शक्ति के साथ प्राणि समुदाय की प्रगति का इतिहास जुड़ा है। एक कोशीय अमीबा के रूप में पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति हुई मानी जाती है। एक से बहुत होने की परब्रह्म की आकाँक्षा को वह जीव अपने व्यवहार में उतारता गया। वह ने केवल अपने को खण्डित करते करते एक से बहुत हुआ वरन् उसने अपनी आकृति प्रकृति में भी बढ़ोतरी आरम्भ कर दी। अनेक जलचरों की सृष्टि इसी क्रम में हुई। इतने पर भी प्रगति क्रम रुका नहीं। वे जलचर ही क्रमशः थलचर और नभचर की स्थिति में विकसित परिवर्तित होते गये। वह क्रम मनुष्य की सर्वांग पूर्ण सत्ता तक जा पहुँचने तक चलता चला आया। इतने पर भी उस उपक्रम का अन्त नहीं हुआ। मनुष्य, वनस्पति ओर प्राणि जगत का भाग्य विधाता कहा जाता है। अब उसने प्रकृति का अधिष्ठाता बनने की बात भी ठानी है। वैज्ञानिक शोधों की प्रक्रिया इसी कारण तीव्र से तीव्र होती चली जा रही है। यह संकल्प शक्ति का चमत्कार है।

जिनकी मनोदशा चेतना क्षेत्र की ओर मुड़ी, उनने धर्म का, दर्शन का, अध्यात्म का, परलोक, का देवी देवताओं तक का सृजन कर डाला अतीन्द्रिय क्षमताओं से सम्पन्न होकर सिद्ध पुरुष बने और ऋषि सिद्धियों के रूप में अपनी विभूतियों का परिचय देने लगे। जन सामान्य के मार्ग दर्शन के लिए अपनी सूझ-बूझ को समग्र जताने लगे। आदिम मनुष्य और आज के विकसित व्यक्ति की तुलना की जाय तो जमीन आसमान जैसा अन्तर प्रतीत होगा। इस प्रगति के मूल में सदा से एक ही तत्व काम करता रहा है और वह है उत्कण्ठा से, जिज्ञासा से, भरा पूरा संकल्प बल उसके अभाव में प्राणि जगत की प्रगति का कोई आधार ही न बन सका होता। सभी नर वानरों की तरह किसी प्रकार शरीर रक्षा के साधन जुटाने भर तक सीमित होकर रह गये होते। अभी भी वन्य प्रदेशों में पाए जाने वाले कबीलों की स्थिति ऐसी ही है। उनके सामने कोई ऐसा उद्देश्य या कार्यक्रम नहीं होता जिसे अपना कर अपेक्षाकृत अच्छी स्थिति तक पहुँचा जा सके। यही कारा है कि वे आदिम युग के वन मनुष्य की तुलना में बहुत थोड़ी ही प्रगति कर सके हैं। उत्तरी ध्रुव पर बसे एस्किमो लोगों के रहन सहन को देखकर इस तथ्य को भली प्रकार समझा जा सकता है कि इच्छा शक्ति का अभाव कितनी कठिन परिस्थितियों में भी यथावत् बने रहने के लिए बाधित किये रहता है।

मनुष्य ने भाषा और लिपि के अभिनव आधार खड़े करके परस्पर विचार विनिमय का द्वार खोला। यह उपलब्धियाँ अनायास ही हस्तगत नहीं हो गईं। वरन् इसके लिए पीढ़ियों तक समझदार लोग भरपूर प्रयत्न करते रहे। यदि उस संबंध में उत्सुकता न उमड़ी होती तो मनुष्य भी अन्य वानर जातियों की तरह किसी प्रकार थोड़े संकेतों और शब्दों के सहारे पारस्परिक संबंधों को मात्र चला सका होता। आग का आविष्कार, पहियों का विज्ञान, वस्त्र निर्माण, आच्छादन, पशुपालन अपने युग की जिज्ञासाओं से उभरे पुरुषार्थ भरे कृत्य थे, जिनने आज की प्रगति का पथ प्रशस्त किया।

निषेध अनुपयुक्त, कल्पनाओं, जल्पनाओं और महत्वाकाँक्षाओं का ही किया गया है क्योंकि उन्हीं के कारण मनुष्य का बहुमूल्य समय, श्रम, कौशल बर्बाद होता रहता है। वे ही कुमार्ग पर भटकातीं और अनेक संकटों को खींचकर बुलाती हैं। श्रेष्ठ इच्छाएँ आकाँक्षाएँ तो न केवल आवश्यक हैं वरन् श्रेयस्कर भी हैं। वेदान्त दर्शन के प्रथम सूत्र में जिज्ञासा को सद्ज्ञान संचय का प्रथम और प्रमुख उपाय माना गया है। जिस प्रकार ज्ञान संचय में जिज्ञासा की प्रमुख भूमिका होती है उसी प्रकार इच्छा आकाँक्षाओं की अभीष्ट प्रसंगों की दिशा में बढ़ चलने का प्रमुख आधार माना गया है। संकल्प का भारतीय संस्कृति के कर्मकाण्डों में प्रथम और प्रमुख स्थान है। किसी भी धर्मकृत्य में सर्वप्रथम संकल्प पढ़ा जाता है। यदि यही संकल्प जीवन्त रूप में जीवन में उतर आए तो असंभव को संभव कर दिखाने वाला पुरुषार्थ परिणति रूप में दृष्टिगोचर होता है। आत्मक्षेत्र में लागू किया जाने पर यह न केवल गहरी घुसी दुष्प्रवृत्ति को निकाल बाहर करता है वरन् असाध्य मानी जाने वाली किसी व्याधि से भी मुक्त करने योग्य आत्मबल भी जुटा सकता है। परमाणु नाभिक की तरह अपने अंदर असीम सामर्थ्य संजोए हुए है संकल्प शक्ति आवश्यकता मात्र जगाने भर की है।

(अखंड ज्योति-1/1989)


गर्भपात महापाप.


गर्भपात महापाप.

ब्रह्महत्या से जो पाप लगता है उससे दुगना पाप गर्भपाप करने से लगता है। इस गर्भपातरूप महापाप का कोई प्रायश्चित भी नहीं है, इसमें तो उस स्त्री का त्याग कर देने का ही विधान है।
(पाराशर स्मृतिः 4.20)

यदि अन्न पर गर्भपात करने वाले की दृष्टि भी पड़ जाय तो वह अन्न अभक्ष्य हो जाता है।
(मनुस्मृतिः 4.208)

गर्भस्थ शिशु को अनेक जन्मों का ज्ञान होता है। इसलिए 'श्रीमद् भागवत' में उसको ऋषि (ज्ञानी) कहा गया है। अतः उसकी हत्या से बढ़कर और क्या पाप होगा!

संसार का कोई भी श्रेष्ठ धर्म गर्भपात को समर्थन नहीं देता है और न ही दे सकता है; क्योंकि यह कार्य मनुष्यता के विरूद्ध है। जीवमात्र को जीने का अधिकार है। उसको गर्भ में ही नष्ट करके उसके अधिकार को छीनना महापाप है।

गर्भ में बालक निर्बल और असहाय अवस्था में रहता है। वह अपने बचाव का कोई उपाय भी नहीं कर सकता तथा अपनी हत्या का प्रतिकार भी नहीं कर सकता। अपनी हत्या से बचने के लिए वह पुकार भी नहीं सकता, रो भी नहीं सकता। उसका कोई अपराध, कसूर भी नहीं है – ऐसी अवस्था में जन्म लेने से पहले ही उस निरपराध, निर्दोष, असहाय बच्चे की हत्या कर देना पाप की, कृतघ्नता की, दुष्टता की, नृशंसता की, क्रूरता की, अमानुषता की, अन्याय की आखिरी हद है।
(स्वामी रामसुखदासजी)

श्रेष्ठ पुरुषों ने ब्रह्महत्या आदि पापों का प्रायश्चित बताया है, पाखण्डी और परनिन्दक का भी उद्धार होता है, किंतु जो गर्भस्थ शिशु की हत्या करता है, उसके उद्धार का कोई उपाय नहीं है।
(नारद पुराणः पूर्वः 7.53)

संन्यासी की हत्या करने वाला तथा गर्भ की हत्या करने वाला भारत में 'महापापी' कहलाता है। वह मनुष्य कुंभीपाक नरक में गिरता है। फिर हजार जन्म गीध, सौ जन्म सूअर, सात जन्म कौआ और सात जन्म सर्प होता है। फिर 60 हजार वर्ष विष्ठा का कीड़ा होता है। फिर अनेक जन्मों में बैल होने के बाद कोढ़ी मनुष्य होता है।
(देवी भागवतः 9.34.24,27.28)




विविध रंगों का विविध प्रभाव.


विविध रंगों का विविध प्रभाव.

प्रत्येक रंग का अपना विशेष महत्त्व है, एवं रंगों में परिवर्तन के माध्यम से अनेक मनोविकार तथा शारीरिक रोगों का शमन संभव है। विविध रंगों का विविध प्रभाव निम्नानुसार है।

पीला रंगः  


पीले रंग में क्षमा, गंभीरता, स्थिरता, वैभवशीलता, आदर्श, पुण्य, परोपकार जैसे गुण विद्यमान हैं। इस रंग से उत्साह, संयम और सात्त्विकता बढ़ती है। यह रंग जागृति और कर्मठता का प्रतीक है। इसका प्रेम-भावनाओं से संबंध है। उपासना-अनुष्ठानों में यह बौद्धिक क्षमताओं को विकसित करने वाला, आरोग्यवर्धक तथा विद्यार्थियों के लिए विचारशक्ति, स्मरणशक्ति बढ़ाने में यह विशेष रूप से उपयोगी माना गया है। यह कृमिनाशक भी है।

जिन घरों में कलह होते हैं, वहाँ यदि घर की दीवाली पर पीला रंग पोत दिया जाय तो आशा की जाती है कि उपद्रव या मनोमालिन्य शांत हो जायेंगे। अपराधजन्य शिकायतों में, चंचलता, उद्विग्नता, तनाव, वासनात्मक आवेश में पीले रंग से लाभ होता है। गर्भिणी स्त्रियों को पीला रंग अधिक उपयोगी सिद्ध होता है।

नीला रंगः 


इस रंग से उदारता, व्यापकता, सूक्ष्मता, सौन्दर्य और अंतर्मुखी जीवन की प्रेरणा मिलती है। विद्यार्थियों के चरित्र-निर्माण में नीले रंग का विशेष प्रभाव देखा गया है।

हरा रंगः 


चंचलता, कामनाशीलता और विनोदप्रियता आदि गुणों से भरपूर है। हरे रंग में ताजगी, प्रसन्नता, आनंद, स्फूर्ति एवं शीतलता का प्रभाव है। प्रकृति की हरियाली देखने पर मन को बड़ी शांति, प्रसन्नता मिलने के साथ जीवन की थकावट दूर होती है। मानसिक शांति के लिए आमतौर से नीले या हरे रंग का प्रयोग किया जा सकता है।

श्वेत रंगः 


यह ज्ञान, मधुरता, गंभीरता, शांति, शीतलता, सौंदर्य, तृप्ति, शीघ्र प्रभाव और पवित्रता का बोधक है। सफेद रंग में सादगी सात्त्विकता, सरलता की क्षमता है। श्वेत वस्त्र दूसरों के मन में द्वेष, दुर्भाव नहीं लाते।

लाल रंगः 


आक्रमकता, हिंसा, उग्रता, उत्तेजना, क्रोध, कामविकार, संघर्ष, स्फूर्ति और बहिर्मुखी जीवन का प्रतीक है। लाल रंग के कपड़े पहनने वाले लोग गुस्सेबाज देखे जाते हैं। लाल बल्ब जलाना भी क्रोध को बढ़ाने वाला है। इसलिए लाल कपड़े और लाल बल्ब से अपने को बचाइये।

केसरिया रंगः 


वीरता और बलिदान का प्रतीक है। इसीलिए लाल व केसरिया दोनों रंग युद्ध में प्रयुक्त होते हैं।

गुलाबी रंगः


गुलाबी रंग में आशाएँ, उमंगे और सृजन की मनोभूमि बनाने की विशेषता है। गुलाबी प्रकाश से पौधे अच्छी तरह उगते हैं, पक्षियों की संख्या में वृद्धि होती है, ज्वर, छोटी चेचक, कैंसर जैसी बीमारियों पर भी आशातीत लाभ होता है।

गेरूआ रंगः 


यह रंग पवित्र, सात्त्विक जीवन के प्रति श्रद्धा, प्रेम भाव जगाता है। इसलिए धार्मिक दृष्टि से इस रंग का महत्त्व हिन्दू धर्म ने स्वीकारा है।

चाकलेटी रंगः 


इसमें एकता, ईमानदारी, सज्जनता के गुण हैं।

काला रंगः 


तमोगुणी रंग है। इससे निराशा, शोक, दुःख एवं बोझिल मनोवृत्ति का परिचय मिलता है।

नारंगी रंगः 


जीवन में आत्म-विश्वास तथा साहस की जानकारी देता है। नारंगी रंग मनीषा चिह्न है। साधु, संत, त्यागी, वैरागी लोकसेवी इसे सम्मानपूर्वक धारण करते हैं।

नारंगी रंग 
की बोतल में सूर्यकिरणों में रखा हुआ पानी खाँसी, बुखार, न्यूमोनिया, श्वासरोग, गैस बनना, हृदयरोग, अजीर्ण आदि रोगों में लाभदायक है। इससे रक्तकणों की कमी की पूर्ति होती है। इसका सेवन माँ के स्तनों में दूध की वृद्धि करता है।



समाज में नैतिक मूल्यों का पतन.


समाज में नैतिक मूल्यों का पतन.

 

देश के मीडिया और समाज में ढोंगी-पाखंडी संतो, बाबाओं विशेषकर राधे माँ के कथित धर्म विरोधी आचरण एवं अश्लीलता फैलाने वाले चित्रों पर चर्चा जोरों से जारी है। आखिर चर्चा हो भी क्यों न? नैतिकता एवं धार्मिक परंपरा का वाहक, रखवाला एवं प्रचार-प्रसार करने का दावा करने वालों के ही चरित्र एवं नैतिक आचरण पर जब सवालिया निशान लग पड़ें तो लोगों में चर्चा तो होगी ही और यह चर्चा इतनी शिद्त से होनी चाहिए ताकि तमाम लोग ऐसे भ्रष्ट आचरण वालों के चंगुल में आने से बचें। यह हमारा ही देश है, जहां हमारी धर्मभीरू जनता व्हाट्सएप्प, फेसबुक और एस.एम.एस. जैसे सोशल मीडिया पर चलने वाले धार्मिक संदेशों, चित्रों को तत्काल लोगों को भेजने में तनिक भी देर नहीं लगाती है। यह हमारे देश के ही नागरिक हैं, जो सर्वत्र गंदगी फैलाने और सार्वजनिक जगहों पर मल-मूत्र विसर्जन करने से भी गुरेज नहीं करते हैं, लेकिन इन्हीं स्थलों पर जब भगवान की मूर्ति या चित्र लगा दिया जाता है, तो यह लोग तत्काल दंडवत की मुद्रा में आ जाते हैं। लोगों के इसी आचरण, अंध विश्वास एवं धार्मिक आस्था का लाभ उठाने वालों की भी इस देश में कोई कमी नहीं है।

देश में इस समय 13 अखाड़े हैं, जिनमें जूना, निरंजनी एवं महानिर्वाणी अखाड़े धार्मिक दृष्टिकोण से महत्ववूर्ण हैं। आचार्य महामण्डलेश्वर के अतिरिक्त कितने ही लोगों को अतिरिक्त महामण्डलेश्वरों की पदवियां दी जा सकती हैं, लेकिन शर्त है कि वह व्यक्ति धार्मिक आचरण वाला वैरागी, सन्यासी हो और मोह-माया के बन्धनों से परे हो चुका हो। लेकिन अचरज तो तब और बढ़ जाता है, जब हिन्दू धर्म के अखाड़ों द्वारा कथित रूप से बिना किसी धार्मिक पृष्ठभूमि, शास्त्रों के ज्ञाता होने, उचित संस्कारों के ज्ञान एवं आचरण की पड़ताल किये बिना ही पता नहीं किन कारणों के चलते शराब व्यापरियों, झोलाछाप बाबाओं अथवा कथित राधे माँ जैसे मर्यादाविहीन आचरण करने वाले लोगों को महामण्डलेश्वर जैसी उच्च पदवियों अलंकरणों से नवाज दिया जाता है। ऐसे मौकापरस्त लोगों द्वारा अब तो निजि टी.वी. चैनलों पर रूपया फैंको, तमाशा करो की तर्ज पर मनमाफिक चलने वाले प्रसारणों से जनता को भ्रमित कर करोड़ों-अरबों रूपया कमाने का धंधा ठीक-ठाक चल निकला है।

आपको अधिकांश संत, महात्मा एवं तथाकथित महामण्डलेश्वर ऐसे भी मिलेंगे, जो गीता या संस्कृत की पाठ्य पुस्तक के सामान्य श्लोक का उच्चारण भी नहीं कर पाएंगे, अभिप्राय समझाना तो बड़ी दूर की बात होगी। लेकिन उनके नाम और उसके आगे लगी बड़ी-बड़ी उपाधियों की चकाचैंध में अच्छे खासे, पढ़-लिखे लोगों और नामचीन प्रसिद्ध हस्तियों और नेताओं का जमघट देखकर उनकी समझबूझ और शिक्षा-दीक्षा पर भी दया आती है। हम, हिन्दू धर्म समाज के सभी संतों, महात्माओं को एक ही तराजू पर नहीं तौल सकते हैं। एक से बढ़कर एक तपस्पी-त्यागी, वैरागी, उच्च चारित्रिक विशेषताओं से युक्त ज्ञानी-ध्यानी एवं सुसंस्कृत महात्मा-संतों की भी कोई कमी नहीं है, जो अपनी ज्ञानवाणी से समाज का उचित रीति-नीति से मार्गदर्शन कर रहे हैं। लेकिन यदि चन्द एक तथाकथित ढोंगी बाबाओं की दुकानदारी धड़ल्ले से चल रही है, तो इसके लिए कमाबेश दोषी भी हम और हमारे समाज के लोग हैं, जो भेड़ चाल का हिस्सा बनकर अपनी समझबूझ पर पर्दा डालकर, ऐसे लोगों के आयोजनों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं, और अपने दुखों के निवारण के नाम पर हजारों रूपयों लुटवाकर और ज्यादा दुःख के पात्र बन जाते हैं, ऊपर से जग-हंसाई न हो इस चक्कर में इन कथित ढोंगी, पाखंडी बाबाओं की सच्चाई दूसरे लोगों को भी बताने में परहेज करते हैं। जिस वजह से ऐसे लोगों का रूतबा समाज में जस का तस बना रहता है। आधुनिक जमाने की भागदौड़ में जल्दी से जल्दी अपनी रूकावटों, बाधाओं और समस्याओं से पार पाने के चक्कर में लोग अपना आर्थिक, शारीरिक और मानसिक शोषण भी करवा बैठते हैं। हमारे अखाड़ों के वरिष्ठ धर्माचार्यो, आचार्य और महामंडलेश्वरों को दिन-प्रतिदिन संत समाज में आ रही गिरावट और गिरती प्रतिष्ठा को बहाल करने हेतु अब स्वयं आगे आना चाहिए तथा नियमों एवं सख्त व्यवस्थाओं के आधार पर ही पदवियों का वितरण करना चाहिए। सभी जानते हैं कि नागा साधु बनने के लिए मापदंड एवं मानक कितने जटिल एवं दुरूह हैं। संत समाज को भी विलासितापूर्ण जीवनयापन एवं महंगी वस्तुओं और वाहनों की चकाचैंध में आने से बचने की जरूरत है, क्योंकि जो तपस्वी, वैरागी आध्यात्मिक एवं धार्मिक व्यक्ति स्वयं ही मोहमाया और धन लोलुपता की भावना से ग्रसित है, वह भला समाज को विशेषकर आम जनता को दया, धर्म, त्याग, मोहमाया, आसक्ति और वैराग्य से मुक्ति का क्या संदेश दे पाएगा?

हम आज भी शिक्षा-साक्षरता वाले प्रतिशत के आंकड़ों में अपने आपको उलझाकर बैठे हुए हैं, जिससे हम रोजगार-विकास सम्बन्धी जरूरतों को तो पूरा कर सकते हैं, लेकिन यदि हमें अपनी मानसिक, आध्यात्मिक संतुष्टि हेतु आगे बढ़ना है, तो हमारे लिए आदर्श ज्ञान की सरिता हमारे वेदों, पुराणों, उपनिषदों, गीता और अन्य धार्मिक ग्रंथों में पिछले 7-8 हजार वर्षों से संग्रहित-रचित शास्त्रों में ही बहती हुई मिल जाएगी। विज्ञान एवं शिक्षा के युग में भी यदि आज चन्द चालाक प्रवृति के लोग हमारी धार्मिक आस्थाओं का दोहन कर रहे हैं, खिलवाड़ कर रहे हैं, तो इसके लिए दोषी हमारी व्यवस्था नहीं है, बल्कि हमारी स्वयं की अज्ञानता है। उम्मीद की जानी चाहिए कि हमारे देश के प्रबुद्ध नागरिक धन कमाने के लिए धर्म के नाम पर ओछे हत्थकंड़े अपनाने वाले इन कथित ढोंगी, पाखंडी बाबाओं के चंगुल में फंसने से स्वयं को बचाएंगे तथा पढ़े लिखे विद्वान लोग विशेषकर शिक्षक समाज इन लुटेरों के षडयंत्रों के विरूद्ध आम जनता में जागरूकता फैलाने में अपना उल्लेखनीय योगदान देगा। निःसन्देह ऐसे लोगों के विरूद्ध प्रिंट एवं इलैक्ट्रानिक्स मीडिया का आगे आना बेहद सराहनीय है। सरकार को भी इस प्रकार के मर्यादाविहीन और धर्म विरोधी आचरण करने वाले लोगों के लिए आचार संहिता बनाकर सख्ती से पेश आना चाहिए और तत्काल आपराधिक मामलों में संलिप्त बाबा लोगों की सम्पत्तियों को जब्त कर लेना चाहिए। पूरे राष्ट्र के नागरिकों के लिए एक अच्छे चरित्र यानि ‘‘नेशनल करेक्टर फ्रेमवर्क’’ को तैयार किए जाने की तत्काल आवश्कता है, तभी हम विकासशील राष्ट्र से विकसित राष्ट्रों की कतार में खड़े हो पाएंगे।

श्राद्ध में पालने योग्य महत्वपूर्ण नियम,


श्राद्ध में पालने योग्य
महत्वपूर्ण नियम,


श्रद्धा और मंत्र के मेल से पितरों की तृप्ति के निमित्त जो विधि होती है, उसे 'श्राद्ध' कहते हैं।

हमारे जिन संबंधियों का देहावसान हो गया है, जिनको दूसरा शरीर नहीं मिला है, वे पितृलोक में अथवा इधर-उधर विचरण करते हैं, उनके लिए पिण्डदान किया जाता है।

बच्चों एवं संन्यासियों के लिए पिण्डदान नहीं किया जाता।

विचारशील पुरुष को चाहिए कि जिस दिन श्राद्ध करना हो, उससे एक दिन पूर्व ही संयमी, श्रेष्ठ ब्राह्मणों को निमंत्रण दे दे। परंतु श्राद्ध के दिन कोई अनिमंत्रित तपस्वी ब्राह्मण घर पर पधारें, तो उन्हें भी भोजन कराना चाहिए।

भोजन के लिए उपस्थित अन्न अत्यंत मधुर, भोजनकर्ता की इच्छा के अनुसार तथा अच्छी प्रकार सिद्ध किया हुआ होना चाहिए। पात्रों में भोजन रखकर श्राद्धकर्ता को अत्यंत सुंदर एवं मधुर वाणी से कहना चाहिए कि 'हे महानुभावो ! अब आप लोग अपनी इच्छा के अनुसार भोजन करें।'

श्रद्धायुक्त व्यक्तियों द्वारा नाम और गोत्र का उच्चारण करके दिया हुआ अन्न पितृगण को, वे जैसे आहार के योग्य होते हैं, वैसा ही होकर मिलता है।
(विष्णु पुराणः 3.16,16)

श्राद्ध भोजन ग्रहण करने वाले ब्राह्मणों को भोजन के पश्चात श्राद्ध-कर्ता को शुभाशीष देते हुये “हम संतुष्ट हुये, जिस मनोकामना से यह कृत्य हुआ, वह पूर्ण और सफल हो.” ऐसा कहना चाहिए.

श्राद्धकाल में शरीर, द्रव्य, स्त्री, भूमि, मन, मंत्र और ब्राह्मण-ये सात चीजें विशेष शुद्ध होनी चाहिए।

श्राद्ध में तीन बातों को ध्यान में रखना चाहिएः शुद्धि, अक्रोध और अत्वरा (जल्दबाजी नही करना)।

श्राद्ध में मंत्र का बड़ा महत्त्व है। श्राद्ध में आपके द्वारा दी गयी वस्तु कितनी भी मूल्यवान क्यों न हो, लेकिन आपके द्वारा यदि मंत्र का उच्चारण ठीक न हो तो काम अस्त-व्यस्त हो जाता है। मंत्रोच्चारण शुद्ध होना चाहिए और जिसके निमित्त श्राद्ध करते हों. उसके नाम का उच्चारण भी शुद्ध करना चाहिए।

जिनकी देहावसान-तिथि का पता नहीं है, उनका श्राद्ध अमावस्या के दिन करना चाहिए।

हिन्दुओं में जब पत्नी संसार से जाती है, तो पति को हाथ जोड़कर कहती हैः 'मुझसे कुछ अपराध हो गया हो तो क्षमा करना और मेरी सदगति के लिए आप प्रार्थना करना।' अगर पति जाता है तो हाथ जोड़ते हुए पत्नी से कहता हैः 'जाने-अनजाने में तेरे साथ मैंने कभी कठोर व्यवहार किया हो तो तू मुझे क्षमा कर देना और मेरी सदगति के लिए प्रार्थना करना।'

हम एक दूसरे की सदगति के लिए जीते जी भी सोचते हैं, मरते समय भी सोचते हैं और मरने के बाद भी सोचते हैं।

क्या ईश्वरीय सत्ता सर्वव्यापी नहीं है?


क्या ईश्वरीय सत्ता
सर्वव्यापी नहीं है?

ईश्वर सर्वव्यापी है-कई लोग ऐसा नहीं मानते और आक्षेप लगाते हैं कि उसकी व्यापकता की मान्यता मानी ही नहीं जा सकती। इन सब में जान स्टुअर्ट मिल अग्रणी हैं। उनका तर्क है कि मानवीकृत वस्तुओं में उन्हें बनाने वाला व्यक्ति व्यापक कहाँ होता है? इतने पर भी क्या वह वस्तु काम करना बन्द कर देती है अथवा अस्तित्व में ही नहीं रह पाती? महल बनाने वाले इंजीनियर प्रायः निर्माण के बाद फिर कहीं अन्यत्र इमारत बनाने के लिए चले जाते हैं, तो क्या वह मकान उनके जाते ही ढह जाता है? इंजन अपने निर्माण के बाद भी अपना अस्तित्व बनाये रखता है, जबकि वह निर्माता से कोसों दूर रहता है। पुस्तक अपने सृजेता से पृथक् रहकर भी क्या अपने प्रयोजन पूरे करती नहीं रहती है? उनका कहना है कि जब मानव निर्मित यंत्र-उपकरण निर्माण के उपरान्त कर्ता के बिना भी अपने उद्देश्य पूरे करते रह सकते हैं तो यह सर्वव्यापकता संबंधी नियम ईश्वर पर ही क्यों थोपा जाय जबकि उसे मनुष्य से असंख्य गुना ज्ञानवान-बलवान बताया जाता है। उनका मत है कि यदि ईश्वर है, तो उसे सर्वव्यापी होने की आवश्यकता नहीं है। इसी प्रकार के अभिमत अन्य मतावलम्बियों के हैं। कुछ ईश्वर को ऊपर कहीं आसमान में बताते हैं, तो कुछ इसकी तुलना सूर्य से करते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार सूर्य एक स्थान पर रहते हुए भी समस्त संसार को प्रकाशित कर रहा है, उसी प्रकार यह ईश्वर है। वह एक स्थान पर रहकर पूरी सृष्टि का संचालन करता है।

स्थूल दृष्टि से देखा जाय तो मिल और अन्यों के कथन सत्य जान पड़ते हैं कि संसार में मनुष्य द्वारा रचित सारी वस्तुएँ जब उसकी व्यापकता के बिना ही क्रिया करती रहती हैं, तो परमसत्ता की व्यापकता सृष्टि के कण-कण में क्यों आवश्यक है? ऐसा विचार करते समय हम तथ्य की गहराई में नहीं उतरते, अन्यथा इसका उत्तर स्वतः मिल जाता कि क्रिया में परमेश्वर की उपस्थिति के बिना कोई कार्य संभव ही नहीं हो सकता। जब हम किसी मानवी क्रिया का उद्धरण प्रस्तुत करते हैं तो शायद यह भूल जाते हैं कि हमने क्रिया के सिर्फ एक अंश पर विचार किया है और दूसरे की उपेक्षा कर दी अथवा हमारी बुद्धि की पहुँच उस गहराई तक हुई ही नहीं।

वस्तुतः ऐसी क्रिया में मनुष्य और ईश्वर दोनों की व्यापकता होती है। यदि कोई यंत्र का निर्माण किसी व्यक्ति के जिम्मे है और वह उसके निर्माण में जुटे ही नहीं, तो वह अस्तित्व में ही कैसे आ पायेगा? उसका अस्तित्व में आना ही यह सिद्ध करता है कि उस दौरान कोई मानवी सत्ता निश्चय ही उसमें व्यापक रही होगी। बाद का कार्य चूँकि उसके वश का नहीं होता, अतः उसका संचालन ईश्वरीय-सत्ता करती है।

इसे भली-भाँति समझने के लिए हमें सर्वप्रथम कार्य-कारण सिद्धान्त समझना होगा। सर्वविदित है कि किसी भी क्रिया का सम्पादन निमित्त कारण की उपस्थिति में ही संभव हो पाता है। हलवाई की दुकान में बेसन, चीनी, मैदा, घी, सब वस्तुएँ अलग-अलग रखी रहती हैं, पर हलवाई की इच्छा व क्रिया के बिना मिठाइयाँ नहीं बन पातीं। इसके लिए हलवाई को प्रयासपूर्वक उन्हें आपस में मिलाना पड़ता है, तब कहीं जाकर वे बन पाती हैं। यहाँ तक कि क्रिया हलवाई की थी और इस क्रिया का निमित्त कारण वह स्वयं था। इसमें बनाने वाले ने मिठाई को जो आकार दिया, उसके परमाणु उस आकार में चिपके क्यों रह गए? किस शक्ति ने उन्हें परस्पर बाँधे रखकर वह आकार बनाये रखने में सहयोग किया अथवा कोई मिठाई जल्दी एवं कोई विलम्ब से क्यों खराब हुई? इसका उत्तर हलवाई नहीं दे सकेगा, क्योंकि यह क्रियाएँ उसके अधीन नहीं होतीं। यह अभौतिक क्रियाएँ हैं और किसी भौतिक शक्ति के नियंत्रण में नहीं रहतीं। इसका नियन्ता कोई अदृश्य व्यापक सत्ता ही हो सकती है, जो हर वक्त हर जगह व्याप्य में व्याप्त होती है और समय, परिस्थिति व आवश्यकता के अनुरूप कार्य करती है।

इसी प्रकार मूर्तिकार यदि मूर्ति बनाता है तो यह उस पर निर्भर करता है कि वह उसे पत्थर की बनाये या मिट्टी, संगमरमर की, पर प्रश्न यह है कि मिट्टी के परमाणु पत्थर एवं संगमरमर की तुलना में जल्दी टूट कर बिखर क्यों जाते हैं? मूर्तिकार इसे भली प्रकार जानता है, अस्तु वह पत्थर अथवा संगमरमर की ही मूर्ति बनाना पसंद करता है, क्योंकि वह टिकाऊ होती है। यह मजबूती या कमजोरी विग्रह को संगतरास द्वारा नहीं मिलती। वह तो मात्र वस्तु को एक आकार प्रदान करता है। परमाणुओं के कमजोर अथवा मजबूत बन्धन के लिए वह कदापि जिम्मेदार नहीं है, कारण कि न तो वह परमाणुओं को मिलाता है, न उनके संयोग को स्थिर रखता है। मात्र वह उस स्थिति का लाभ उठता है। अतः यह कहना कि व्याप्य में अगोचर व्यापक सत्ता का सर्वथा अभाव है, उचित न होगा।

इसी प्रकार घड़ी-साज विभिन्न पुर्जों को इकट्ठा करके घड़ी बना देता है, पर उनका चलना उसकी मर्जी पर निर्भर नहीं करता। घड़ी के रूप में उनके चलने के लिए घड़ी साज उत्तरदायी नहीं है, न इसमें जो नियम काम करता है, उसे ही उसने बनाया है। वह नियम पहले से ही विद्यमान था और उसका संचालन भी एक अदृश्य शक्ति के अधीन था। यहाँ भी घड़ीसाज की व्यापकता कार्य में बनी रहती है। हाँ, इतना अवश्य है कि उसकी यह व्यापकता पुर्जों के अस्तित्व काल तक न रह कर सिर्फ निर्माणकाल तक रहती है, पर रहती अवश्य है।

यदि सचमुच ही ईश्वर सर्वत्र व्यापक नहीं है, तो यह सृष्टि हमें इस रूप में नहीं दिखाई पड़ती। फिर उसे इसके संचालन के लिए राजा की भाँति अनेकानेक मातहत सत्ताओं सामन्तों का आश्रय लेना पड़ता और इसके अलग-अलग विभाग पृथक्-पृथक् सत्ताओं की देखरेख में चलते। चूँकि राजा का अपनी प्रजा और नौकरों के मस्तिष्क पर नियंत्रण नहीं होता है, फलतः यदा-कदा वे स्वेच्छाचार बरतते और मनमानी करते भी देखे जाते हैं, जिसका समय-समय पर उन्हें उचित दण्ड मिलता है। चूँकि राजा अपने राज्य में सर्वत्र व्यापक नहीं होता, ऐसी अगणित बातें हो सकती हैं, जो राज्य प्रशासन के विरुद्ध हों और राजा की नियमावली का उल्लंघन करती हों। यदि ईश्वरीय सत्ता भी चलाती तो निश्चय ही ऐसी अव्यवस्था एवं अराजकता कभी-कभी उत्पन्न हो जाती, पर विश्व ब्रह्माण्ड की घटनाओं को देखने से उसमें किसी भी प्रकार की नियमविरुद्धता, असम्बद्धता अथवा अव्यवस्था कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं होती।

ईश्वर की निराकार सत्ता भी उसकी सर्वव्यापकता को सिद्ध करती है। ईश्वर को किसी ने देखा नहीं। जो निराकार है, वही सर्वव्यापी हो सकता है। हवा हमें दिखाई नहीं पड़ती,उसका अनुभव कर सकते हैं। इतने पर भी यह कहना कि कमरे के भीतर हमें वायु की अनुभूति नहीं हो रही है, अतः कमरे में हवा नहीं है और बाहर पेड़-पौधे हिलते-दीख रहे हैं, अतः यहीं केवल उसकी मौजूदगी है, किसी भी प्रकार सही न होगा। हमारा जीवित बना रहना, समस्त शारीरिक क्रियाओं का यथावत् चलते रहना ही उसके अस्तित्व प्रमाण के लिए काफी होगा।

इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि भगवद् सत्ता सर्वव्यापी है, जिसे मनुष्य यह कह कर गर्व करता है कि यह मेरी रचना है, प्रकारान्तर से उसमें भी उसकी उपस्थिति होती है। सच पूछा जाय तो उसकी विद्यमानता के बिना कोई कार्य सम्पादित हो ही नहीं सकता! जो मानवी कार्यों के साथ ईश्वर की तुलना कर उसका वास एक स्थान पर बताते हैं, वे व्यापकता संबंधी नियम पर विचार करने में भूल करते हैं। इसी कारण यह भ्रम पैदा हो जाता है। वस्तुतः मनुष्य भी अपने कार्य की पूर्ति हेतु कुछ समय के लिए अस्तित्व में आता है और शेष कार्य ईश्वर अपनी सर्वव्यापकता द्वारा सिद्ध करता है। ऋषियों ने भी इसी का समर्थन करते हुए “ईशावास्यपिदं सर्वं” का उद्घोष किया है।

(अखंड ज्योति-1/1989)


हृदयगुहा में होते हैं- परमात्मा के दर्शन.


हृदयगुहा में होते हैं-
परमात्मा के दर्शन.

मानवी कार्य संरचना का सबसे महत्वपूर्ण घटक हृदय है। भौतिक-विदों एवं अध्यात्मवेत्ताओं ने इसकी श्रेष्ठता को अपने-अपने ढंग से माना और उसे क्रमशः शरीर एवं आत्मा का, परमात्मा का, केन्द्र स्थल निरूपित किया है। शरीर शास्त्रियों के अनुसार भौतिक दृष्टि से हृदय सीने में बाईं ओर नाशपाती जैसे आकार की साढ़े तीन ग्राम की एक छोटी सी माँसल संरचना है जो अपने रचना प्रयोजन के अनुसार समस्त शरीर को धमनियों और छोटी नलिकाओं द्वारा रक्त फेंकती और अशुद्ध रक्त को खींचती रहती है। इसकी हर धड़कन उस स्थान पर हाथ रखकर आसानी से पहचानी जा सकती है। इसी पर रक्तचाप की न्यूनाधिकता का प्रभाव पड़ता है और क्रियाकलाप थोड़ी देर के लिए रुकते ही प्राणान्त हो जाता है।

अध्यात्म क्षेत्र का हृदय भौतिक हृदय से भिन्न है। तत्वदर्शियों ने इसे “गुफा” कहा है। शतपथ ब्रा॰ 11-2-6-5 का सूत्र “तस्त्दिदं गुहेव हृदयम्” अर्थात् यह हृदय ही गुफा है, इसी तथ्य की पुष्टि करता है। अन्धकार से प्रकाश की ओर, असत् से सत् की ओर, और मृत्यु से अमृत की ओर जाने का मार्ग अन्तर्मुखी होकर इस दिव्य गुफा में प्रवेश करने पर ही प्राप्त होता है। षटचक्रों में इसे अनाहत चक्र का क्षेत्र माना गया है। इसे भौतिक हृदय की सीध में तनिक पीछे हटकर अपनी स्वतंत्र सत्ता बनाये रहने वाला माना गया है। संक्षेप में यही अन्तराल या अन्तःकरण है - आदर्शवादी भाव संवेदनाओं का केन्द्र। रक्त संचार करने वाली ग्रंथि संरचना से यह सर्वथा भिन्न है। हिम्मत, साहस, बहादुरी, आत्मीयता, करुणा, उदारता, ममता आदि के संदर्भ में भी उसी आत्मिक हृदय का उल्लेख किया जाता है। इसी हृदय गुफा में एक ऐसी शक्ति काम करती है। जो सन्मार्ग पर चलने से प्रसन्न सन्तुष्ट हुई दिखाई पड़ती है और कुपंथ अपनाने पर खिन्नता, उद्विग्नता का अनुभव करती है। अन्तरात्मा की इसी परत में ईश्वरीय सत्ता को झाँकता हुआ देखा जा सकता है।

मनीषियों के अनुसार मस्तिष्क में मात्र कल्पना और सूझ बूझ उठती है, पर वह उपलब्ध ज्ञान और मन्थन से उत्पन्न हुए मन्थन द्वारा ही उत्पन्न होती है। दिव्य प्रेरणाएँ हृदय देश से ही उभरती हैं। ईश्वरीय सन्देश वहीं मिलते हैं और वहीं से अविज्ञात प्रकृति रहस्यों की जानकारियाँ हस्तगत होती हैं। जिन वैज्ञानिकों ने अद्भुत आविष्कार किये हैं, उनसे जब पूछा गया कि ऐसा अनोखा विचार आपको कैसे हस्तगत हुआ तो उनमें से प्रत्येक ने यही कहा कि यह भीतर से उभरा। भीतर शब्द से उनका तात्पर्य मस्तिष्क से नहीं वरन् अन्तराल में उभरने से है। यद्यपि दोनों परस्पर सम्बद्ध हैं। यही वह क्षेत्र है, जहाँ अतीन्द्रिय शक्तियों का भण्डार है। बुद्धि क्षेत्र से बाहर की कितनी ही बातें कभी-कभी ऐसी सूझ पड़ती हैं जो विलक्षण होती हैं, पर परीक्षा की कसौटी पर वे सही उतरती हैं। ऋद्धि-सिद्धियों का क्षेत्र यही माना गया है। जिस किसी का यह क्षेत्र लग पड़ता है या जो व्यक्ति हृदय गुफा में प्रवेश पा लेता है उसे अविज्ञान भी - भूत और भविष्य भी उसी प्रकार दृष्टिगोचर होता है मानो उसकी प्रत्यक्ष जानकारी उन्हें पहले से हो रही है।

मनोविज्ञानी - परामनोविज्ञानी जिसे सुपर-चेतन कहते हैं और जिसकी संगति अलौकिक आभासों के साथ जोड़ते हैं वह मस्तिष्क का नहीं वरन् अंतःकरण का हृदय का क्षेत्र है। मानसिक संरचना में चेतन और अचेतन के दो ही पक्ष हैं। मस्तिष्कीय संरचना का दो भागों में विभाजन हुआ है। अतः उसका कार्य क्षेत्र ज्ञानवान् सचेतन और स्वसंचालित अचेतन के साथ ही जुड़ता है जिस अविज्ञात कहा गया है, जिसे सुपर चेतन भी कहते हैं वह मनीषियों के अनुसार हृदय गुफा - हिरण्यमय कोश ही है।

उसे किन्हीं ग्रंथों में सूर्य चक्र भी कहा गया है। जिस प्रकार सूर्य का प्रकाश उदय होने पर अन्धकार तिरोहित हो जाता है और प्रत्येक वस्तु प्रत्यक्ष दीख पड़ती है उसी प्रकार इस कोश में प्रकाशित दिव्य ज्योति की छत्रछाया में व्यक्ति अपना स्वरूप, लक्ष्य और कर्तव्य भी देख सकता है। अभीष्ट वस्तु की उपलब्धि अपने भीतर अंतःकरण में ही होती है। तप करने से लेकर ईश्वर दर्शन करने तक प्रयोजन पूर्ण करने के लिए हृदय गुफा रूपी तीर्थ को, तपोवन को, ही एकमात्र उपयुक्त स्थान माना गया है। ब्रह्मोपनिषद्-4-5 के अनुसार हृदय में समस्त देवता निवास करते हैं। हृदय में ही प्राण और प्रकाश है। शंख संहिता का कथन है-हृदय देश में परम ज्योति प्रकाशवान है। जीवात्मा का आश्रय स्थल यही है। उसी हृदय देश में अँगूठे के अग्र भाग के बराबर आकार में जलती ज्योति के रूप में कठोपनिषद् का ऋषि उसका दर्शन करता है।

नाद्बिंदूपनिषद् के ऋषि इसी हृदय क्षेत्र में अंगुष्ठ मात्र उस परम ज्योति का ध्यान करने का निर्देश करते हैं। गीता 15-10 के अनुसार प्रयास करने पर योगी जन अपने हृदय क्षेत्र में स्थित आत्मतत्व को खोज निकालते हैं पर जिनका हृदय शुद्ध नहीं है, भावनाएँ दूषित हैं वे प्रयत्न करने पर भी इस आत्मा को नहीं जान पाते। अन्तःकरण की पवित्रता आत्मविद होने की अनिवार्य शर्त है।

हृदय क्षेत्र अन्तराल को दिव्य लोक भी कहते हैं। प्रख्यात ग्रीक दार्शनिक प्लेटो के अनुसार मनुष्य की आत्मा ईश्वर से सीधे प्रकट होकर इसी दिव्य लोक में प्रवेश करती और स्थूल शरीर से जुड़ती है। उनका कहना है कि जीवात्मा का धरती पर जब सर्वप्रथम अवतरण होता है तो वह दिव्य सूक्ष्म शरीर वायवीय शरीर रूप में अवतरित होकर स्थूल देह में प्रवेश करता है। यह सूक्ष्म शरीर आत्मा का पारलौकिक वाहन कहा जाता है। ईश्वर, जो चराचर जगत को केन्द्र है, उसी के आदेश से जीवात्मा मनुष्य के हृदय गुफा में प्रवेश करता और अपने पारलौकिक वाहन-अर्थात् सूक्ष्म शरीर के माध्यम से स्थूल काया से जुड़ता है, उसे नियंत्रित-संचालित करता है।

हृदयस्थ आत्मा को परमात्मा से मिलने की इच्छा करती है। मनुष्य आन्तरिक शान्ति के लिए उसे जहाँ-तहाँ जिस-तिस निर्जीव जड़ पदार्थों-साधनों में ढूंढ़ता भी रहता है, पर हस्तगत कुछ नहीं होता। व्यक्तियों का परिचय भी शरीर रूप में हो पाता है। वे कभी रुष्ट या पृथक् भी हो सकते हैं, होते रहते हैं। ऐसी दशा में अभीष्ट लक्ष्य की पूर्ति नहीं हो पाती और न जिनकी तलाश है, वह परमात्मा ही मिल पाता है।

सर्वव्यापी होते हुए भी ईश्वर को किसी ऐसे स्थान पर जब नहीं पाया जा सकता तो फिर उसका मिलन कहाँ संभव हो? इस समस्या को सुलझाते हुए तत्वदर्शियों ने कहा है ऐसा स्थान केवल अपना हृदय है जहाँ आत्मा का परमात्मा से साक्षात्कार होता है। यही दिव्य गुफा है, मन्दिर है जहाँ सूक्ष्म रूप में परम ज्योति के दर्शन होते हैं कठोपनिषद् में ऋषि ने उसे “अणोरणीयान् महतो महीयान्” कहा है और उसका निवास जीव की हृदयरूपी गुफा में बताया है। गीता (10-20, 13-17, 15-15, 19-61) में भगवान कहते हैं - “ईश्वर सब प्राणियों के हृदय देश में रहता है उसी का अनुग्रह प्राप्त करने से परम शान्ति का अनुभव होता है।” व्यास भाष्य में उल्लेख है, उस परमेश्वर को देवालयों, सरिताओं तीर्थों, वनों में, पर्वतों में कहीं भी ढूँढ़ते रहा जाय, पर जब वह मिलेगा तो हृदय गुफा ही उसका सुस्थिर स्थान दृष्टिगोचर होगा। जो वहाँ उसे ढूंढ़ता है, तृप्त होकर रहता है।

अन्याय शास्त्रकारों, आप्त पुरुषों ने भी इसी पुष्टि की है। योगवाशिष्ठ का कथन है - जो हृदय गुफा में निवास करने वाले भगवान को छोड़कर अन्यत्र ढूँढ़ता फिरता है वह हाथ की कौस्तुभमणि की उपेक्षा करके जहाँ-तहाँ काँच के टुकड़े बीनते फिरने वाले के समान है।

कस्तूरी होती मृग की अपनी नाभि में ही है पर उस सुगंध को वह जहाँ तहाँ ढूँढ़ता फिरता है। यही स्थिति मनुष्य की है। परमात्मा उसके अपने अन्तःकरण में बैठा है पर वह उसे बाह्य जगत में खोजता फिरता है। तत्ववेत्ता उस अविनाशी परमेश्वर को अपनी आत्म गुहा में ही पाता और कृतकृत्य होता है। मुण्डकोपनिषद् में कहा गया है-”इस सम्पूर्ण जगत को बनाने वाला और सब में समाया हुआ परमेश्वर ढूँढ़ने पर हृदय गुफा में ही विराजमान मिलता है। वह प्रकाश स्वरूप है, जो उसे देखता है, वह उसी में विलीन होकर रहता है। परन्तु जो लोग इस तथ्य को नहीं जानते उनकी गणना शास्त्रकार अन्धों में करते हैं।”

श्वेताश्वतर उपनिषद् में उल्लेख है-”जो सूक्ष्म से भी सूक्ष्म हृदय प्रदेश में प्रवेश करके विद्यमान महेश्वर को नहीं नहीं देख जाता, वह अन्धे के समान है।” ऐसे लोगों को न तो ईश्वर साक्षात्कार का सुयोग मिलता है और न चिरस्थाई सुख शान्ति ही उपलब्ध होती है। वे जहाँ तहाँ भटकते रहते हैं।

जाबाल्युपनिषद् का कथन है कि परमेश्वर को हृदय देश में ढूंढो। अन्यत्र मत भटको। वह प्रकाश रूप में आपके भीतर ही ज्वलंत है।

ज्ञान विज्ञान के उद्गम केन्द्र अन्तःकरण में स्थित परब्रह्म को जो हृदय में देखता और उनका सान्निध्य अपनाता है, वह तद्रूप हो जाता है, ऐसा तैत्तरीय उपनिषद् का कथन है। इसी की पुष्टि महापनिषद्, योगकुंडल्युपनिषद् आदि ग्रंथों में की गई है और कहा गया है कि अंगुष्ठ आकृति की प्रकाश ज्योति हृदय देश में सदा जलती रहती है। उसी के फैले हुए प्रकाश में ध्यान करने वाला साधक अपने अभीष्ट को प्राप्त कर लेता है।

उपरोक्त तथ्यों को ध्यान में रखते हुए ही हृदय क्षेत्र को अध्यात्म शास्त्रों में अत्यधिक महत्ता दी गई है और उसे निर्मल-पवित्र बनाये रखने पर जोर दिया गया है। महात्मा बुद्ध ने तो अंतःकरण की पवित्रता के लिए करुणा, मैत्री, मुदिता और उपेक्षा जैसे चार ब्रह्मविहार अपने शिष्यों के लिए अनिवार्य विधान बताये थे। महर्षि पतंजलि ने यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार आदि पाँच चरणों की व्यवस्था पहले बनायी जिससे साधक अपने अन्तराल को उसमें सन्निहित भाव-संवेदनाओं को पवित्र एवं उत्कृष्ट बना सके। इसके बिना आत्म साक्षात्कार अथवा ईश्वर दर्शन संभव नहीं।

ताओ धर्म के प्रणेता मनीषी लाओत्से कहते हैं, “मनुष्य अपने पथ को अविकारी बनाए, अशुद्धता से बाहर निकल आए तो फिर स्वतः ही आत्म-साक्षात्कार हो जाता है, जो वस्तुतः ईश्वर दर्शन ही है। वे कहते हैं कि ईश्वर असीम है, अनन्त है, रोम रोम में समाया हुआ है। हम मात्र उसकी अनुभूति अपने हृदय स्थल में कर सकते हैं, उसे कोई नाम नहीं दे सकते। इसीलिये वह सनातन होने के साथ साथ अविकारी भी है।”

अतीन्द्रिय क्षमताएँ प्रतिभा, कुशलता, विशिष्टता बाहर से नहीं उतरती भीतर से ही उभरती हैं। ये आत्मसाक्षात्कार की ही चमत्कारी फल श्रुतियाँ हैं। प्रसुप्त रूप में उन समस्त संभावनाओं के बीज इसी हृदय प्रदेश में प्रसुप्त स्तर पर पड़ हुए हैं। उसमें प्रवेश पाकर जो जिस मात्रा में उन्हें जगा लेते हैं वे उसी अनुपात में देवात्मा होने का गौरव प्राप्त करते हैं।

(अखंड ज्योति-1/1989)


तत्वों के उत्पत्ति की कहानी. (वैज्ञानिक आधार)


तत्वों के उत्पत्ति की कहानी.
(वैज्ञानिक आधार)
(डॉ. विजयकुमार उपाध्याय)

तत्व क्या है? कितने हैं? उनकी उत्पत्ति कैसे हुई? ये सब ऐसे प्रश्न हैं, जिनके संबंध में बहुत प्राचीन काल से ही दार्शनिक तथा विद्वान समय-समय पर विचार व्यक्त करते आए हैं। प्राचीन भारतीय मनीषियों ने तत्वों की संख्या पांच बताई थी। ये पांच तत्व थे; आकाश, वायु, अग्नि, जल तथा पृथ्वी। युरोपीय दार्शनिक अरस्तू के मतानुसार भी तत्वों की संख्या पाँच ही थी, जिनमें शामिल थे; पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि तथा ईथर।

आधुनिक वैज्ञानिकों के मतानुसार तत्व, वह शुद्ध पदार्थ है, जिसका रासायनिक या अन्य किसी विधि द्वारा दो या दो से अधिक प्रकार के पदार्थो में विभाजन नहीं किया जा सकता है। वैज्ञानिकों द्वारा अब तक सौ से अधिक तत्वों की खोज की जा चुकी है।

अब तक किए गए अध्ययनों से पता चला है कि ब्रह्माण्ड के समस्त परमाणुओं की संख्या का लगभग ९३ प्रतिशत तथा ब्रह्माण्ड के द्रव्य के सम्पूर्ण द्रव्यमान का लगभग ७६ प्रतिशत सिर्फ हाइड्रोजन है। हाइड्रोजन के बाद दूसरा प्रमुख तत्व है, हीलियम जो ब्रह्माण्ड में परमाणुओं की कुल संख्या का लगभग ६ प्रतिशत है तथा ब्रह्माण्ड के कुल द्रव्यमान का लगभग २२.५ प्रतिशत है।

हमारी पृथ्वी पर उपस्थित तत्वों में कई ऐसे है, जो प्रकृति में प्रचुर परिणाम में उपलब्ध हैं। ऐसे तत्वों में शामिल हैं; ऑक्सीजन, सिलिकॉन, कार्बन इत्यादि। कुछ तत्व ऐसे हैं, जो सामान्य परिमाण में पाए जाते हैं; जैसे लोहा, तांबा, चांदी इत्यादि। कुछ अन्य तत्वों की मात्रा पृथ्वी पर बहुत कम है। इनमें शामिल हैं; रेडियम, थोरियम, युरेनियम इत्यादि।

एफ.डब्ल्यू. क्लार्क नामक वैज्ञानिक द्वारा किए गए अध्ययनों से जानकारी मिली है कि पृथ्वी पर उपस्थित तत्वों का लगभग ९९ प्रतिशत भाग सिर्फ १२ तत्वों से निर्मित है। इन १२ प्रमुख तत्वों में शामिल है; ऑक्सीजन, सिलिकॉन, लोहा, एल्युमिनियम, कैल्शियम, सोडियम, पोटेशियम, मैग्नीशियम, हाइड्रोजन, टाइटेनियम, क्लोरीन तथा कार्बन। अन्य तत्वों की मिली-जुली मात्रा सिर्फ १.० प्रतिशत है। ये आंकड़े पृथ्वी की पर्पटी (क्रस्ट) से प्राप्त् अनेक प्रकार की चट्टानों के विश्लेषण से प्राप्त् हुए है।

अनेक वैज्ञानिकों ने क्लार्क द्वारा प्राप्त् आंकड़ों के आधार पर किसी भी प्रकार का निष्कर्ष निकालने में असहमति व्यक्त की है। इन वैज्ञानिकों ने आपत्ति उठाई है कि भूपर्पटी से प्राप्त् चट्टानों का रासायनिक संघटन एक समान नहीं है। साथ ही भूपर्पटी में अधिक गहराईयों पर मौजूद चट्टानों के नमूने प्राप्त् करना भी असंभव है। ऐसी परिस्थिति में क्लार्क द्वारा प्राप्त् आंकड़े पूरी पृथ्वी का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकते।

परन्तु इन वैज्ञानिकों द्वारा उठाई गई आपत्तियां उचित नहीं मालूम पड़ती। श्री क्लार्क ने इन संभावित आपत्तियों को ध्यान में रखकर ही विभिन्न गहराईयों से प्राप्त् चट्टानों के रासायनिक संघटन के संबंध में कुछ अनुमान लगाए थे। ये अनुमान सिर्फ कोरी कल्पनाओं पर ही आधारित नहीं थे, बल्कि पृथ्वी के भीतर भूकम्पीय तरंगों की गति के अध्ययन पर आधारित थे। इतना ही नहीं भू-सतह से अनेक भागों से प्राप्त् उल्का पत्थरों का भी विश्लेषण किया गया था। पृथ्वी की उत्पत्ति से संबंधित ग्रहाणु परिकल्पना के समर्थकों के मतानुसार उल्का पत्थरों का रासायनिक संघटन ग्रहाणुओं के रासायनिक संघटन के समतुल्य माना जा सकता है। अत: उल्का पत्थरों के रासायनिक विश्लेषण से पृथ्वी के रासायनिक संघटन के संबंध में उपयोगी संकेत प्राप्त् हो सकते है।

भूकंप जनित तरंगो की गति एवं उल्का पत्थरों के रासायनिक विश्लेषण से यह निष्कर्ष निकाला गया है कि पृथ्वी के सबसे भीतरी भाग क्रोड में लोहा, निकेल तथा अल्प मात्रा में सल्फाइड ट्रायोलाइट मौजूद हैं। क्रोड के बाहर पृथ्वी की दूसरी परत मैंटल के खनिज तथा रासायनिक संघटन के संबंध में भूवैज्ञानिक लोग अभी तक एकमत नहीं हैं। प्रसिद्ध अमरीकी भू-विज्ञानवेत्ता मैसन तथा वांशिगटन ने अनुमान लगाए हैं कि मैंटल में मुख्यत: पेरिडोटाइट नामक चट्टान उपस्थित है, जिसमें लोहा तथा मैग्नीशियम प्रमुख तत्व हैं। स्मिथ नामक एक अन्य भूविज्ञानवेत्ता का विचार है कि मैंटल में उस प्रकार के सिलिकेट मौजूद है, जिस प्रकार के सिलिकेट चट्टानी उल्काओं में पाए जाते हैं स्मिथ के मतानुसार पृथ्वी में उपस्थित १५ तत्वों की प्रचुरता सारणी १* में दिखाई गई है।

तत्वों की उत्पत्ति के संबंध में कई वैज्ञानिकों ने समय-समय पर विचार व्यक्ति किए हैं। शुरू-शुरू में कुछ वैज्ञानिकों ने साम्य सिद्धान्त (इक्विलिब्रियम थ्योरी) का प्रतिपादन किया हैं। इस सिद्धान्त के अनुसार जिन तत्वों को आज हम देखते हैं, वे काफी उच्च् तापमान पर निर्मित नाभिकीय कणों के हिमीकृत रूप हैं। परन्तु इस सिद्धान्त की सबसे बड़ी त्रुटि यह है कि इसके द्वारा ब्रह्माण्ड स्तर पर तत्वों की प्रचुरता की व्याख्या संतोषजनक ढंग से नहीं हो पाती। इसी कारण से यह सिद्धान्त अधिक लोकप्रिय नहीं है।

साम्य सिद्धान्त के विपरीत कुछ वैज्ञानिकों ने असाम्य सिद्धान्त (नॉन इक्विलिब्रियम थ्योरी) का प्रतिपादन किया है। इस सिद्धान्त का प्रतिपादन तथा समर्थन करने वालों में शामिल थे; जॉर्ज गैमोव तथा अल्फर आदि। इस सिद्धान्त के अनुसार प्रांरभ में ब्रह्माण्ड के सभी पदार्थ सिर्फ न्यूट्रॉन कणों से निर्मित थे। कुछ समय के बाद न्यूट्रॉन फैलने लगा, जिसके फलस्वरूप इसके दो खंड हो गए। इन दो खण्डो में एक था; प्रोटॉन तथा दूसरा था इलेक्ट्रॉन। धीरे-धीरे प्रोटॉन कणों ने न्यूट्रॉन कणों को अपने में समाहित करना शुरू किया। इस प्रकार धीरे-धीरे न्यूट्रॉन कणों के संश्लेषण तथा बीटा कणों के क्षरण से तत्वों का निर्माण होने लगा।

परन्तु कुछ ही समय बाद असाम्य सिद्धान्त में भी एक बहुत बड़ी त्रुटि नजर आने लगी। यह सिद्धान्त भी ब्रह्माण्ड स्तर पर तत्वों की प्रचुरता की व्याख्या करने में असमर्थ रहा। उदाहरणार्थ इस सिद्धान्त से यह स्पष्ट नहीं होता कि तत्वों में लोहे की इतनी अधिक प्रचुरता कैसे संभव हुई? इतना ही नहीं, इससे यह भी स्पष्ट नहीं होता कि ५ या ८ से अधिक परमाणु भार वाले तत्वों की उत्पत्ति कैसे हुई? क्योंकि हीलियम तथा बेरिलियम (परमाणु भार क्रमश: ५ तथा ८), जो न्यूट्रॉन पकड़ विधि से निर्मित होते हैं, बहुत कम आयु वाले हैं। देखा गया है कि निर्माण के कुछ ही समय बाद इन तत्वों का क्षरण हो जाता है तथा ये पुन: हीलियम-४ में बदल जाते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि इस विधि द्वारा अधिक हीलियम-४ के परमाणु भार वाले तत्वों तक का निर्माण संभव है।

सन् १९५७ में संसार के तीन प्रसिद्ध वैज्ञानिकों (बर्बीज, हॉयल तथा फाउलर) ने बताया कि सौर परिवार में पाए जाने वाले तत्वों का निर्माण सूर्य में होने वाली नाभिकीय क्रिया द्वारा हुआ हैं। इस विधि द्वारा उत्पन्न होने वाला सबसे पहला तत्व था हाइड्रोजन। अन्य तत्व हाइड्रोजन से ही उत्पन्न हुए। सूर्य की सतह पर नाभिकीय क्रिया द्वारा सतत विधि में तत्वों के निर्माण के निम्नलिखित पांच चरण थे:-

(१) प्रत्येक तारे में हाइड्रोजन लगातार न्यूट्रॉन ग्रहण कर हीलियम में परिवर्तित हो रही है। किन्तु इसके लिए जरूरी है कि तारे के केन्द्र का तापमान एक करोड़ डिग्री हो तथा उसका घनत्व लगभग १०० ग्राम प्रति घन सेंटीमेंटीर हो।

(२) जब तापमान १० करोड़ डिग्री तथा घनत्व का एक लाख ग्राम प्रति घन सेंटीमीटर के आसपास रहता है तो उपर्युक्त विधि द्वारा निर्मित हीलियम कार्बन के परमाणुओं में परिवर्तित हो जाती है। इस परिस्थिति में हीलियम के तीन परमाणु आपस में मिलकर कार्बन के एक परमाणु का निर्माण करते हैं। कार्बन के ये परमाणु हीलियम के अन्य परमाणुओं को ग्रहण कर ऑक्सीजन तथा मैगिनशयम के परमाणुओं का निर्माण करते हैं।

(३) जब तापमान एक अरब डिग्री तथा घनत्व एक करोड़ ग्राम प्रति घन सेंटीमीटर हो जाता है तो नाभिकीय क्रियाआें के कारण अल्फा कण उपयुक्त तत्वों से संयोग कर अपेक्षाकृत अधिक परमाणु भार वाले तत्वो (जैसे गंधक, सिलिकॉन, एल्युमिनियम तथा कैल्शियम इत्यादि) का निर्माण करते है। 

(४) जब तारे के केन्द्र का तापमान तीन अरब डिग्री हो जाता है तो नाभिकीय क्रियाएं और अधिक बढ़ जाती हैं । इस परिस्थिति में चरण १, २ व ३ में निर्मित नाभिकों, प्रोटॉनों तथा न्युट्रानों के बीच आपसी प्रतिक्रियाएं साम्यावस्था में पहुंच जाती है । ऐसी परिस्थिति में लोहे के परमाणु बनते हैं । 

(५) उपर्युक्त विधि से निर्मित हुए ये लौह परमाणु न्यूट्रॉन कणों को ग्रहण कर अपेक्षाकृत अधिक भारी तत्वों का निर्माण करते हैं । वैज्ञानिकों के अनुसार इस विधि से परमाणु भार २०९ (बिस्मथ) तक के तत्वों का निर्माण होता है । 

प्रयोगशाला में परमाणुआें पर किए गए प्रयोगों द्वारा उपर्युक्त परिकल्पना की पुष्टि होती है । प्रयोगों द्वारा यह प्रमाणित हो चुका है कि लगभग सभी नाभिक न्यूट्रॉनों का अधिग्रहण करते हैं तथा इसके कारण नए तत्वों का निर्माण संभव होता है । जो नाभिक न्यूट्रॉन कणों का अधिग्रहण शीघ्रता से करते हैं वे नाभिक निर्माण की प्रक्रियासमाप्त् होने पर अपेक्षाकृत कम होते हैं । इसकी वजह यह है कि उनमें से अधिकांश नाभिक न्यूट्रॉन अधिग्रहण प्रतिक्रियाद्वारा अन्य नाभिकों में परिवर्तित हो जाते हैं । इसके विपरीत जो नाभिक न्यूट्रॉन अधिग्रहण धीमी गति से करते हैं उनकी प्रचुरता अपेक्षाकृत अधिक पाई जाती है।
उपर्युक्त सिद्धान्त के विरूद्ध अनेक वैज्ञानिकों ने असहमति जताई है । उनके मतानुसार परमाणु भारों के क्रम मेंसंख्याएं ५ तथा ८ रिक्त हैं । अर्थात ५ तथा ८ परमाणु भार वाले तत्व स्थाई नहीं होते। 

प्रयोगशाला में हीलियम पर तीव्र ऊर्जा वाले न्यूट्रॉनों का प्रहार करके हीलियम-५ का निर्माण किया तो जा सकता है परन्तु वह अविलम्ब हीलियम-४ में परिवर्तित हो जाती है ।

*सारणी १ : पृथ्वी पर उपस्थित प्रमुख तत्वों की प्रचुरता
तत्व प्रचुरता(%)
लोहा ३४.८२

सोडियम ०.५६
ऑक्सीजन २९.२६

क्रोमियम ०.२६
सिलिकॉन १४.६७

मैंग्नीज ०.२२
मैग्नीशियम ११.२८

कोबाल्ट ०.१७
गंधक ३.२९

फॉस्फोरस ०.१५
निकेल २.४३

पोटेशियम ०.१४
कैल्शियम १.४०

टाइटेनियम ०.०७
एल्यूमिनियम १.२४

अन्त्येष्टि क्रिया-अंतिम संस्कार.


अन्त्येष्टि क्रिया-अंतिम संस्कार.


अंतिम संस्कार या अन्त्येष्टि क्रिया हिन्दुओं के प्रमुख संस्कारों में से एक है। संस्कार का तात्पर्य हिन्दुओं द्वारा जीवन के विभिन्न चरणों में किये जाने वाले धार्मिक कर्मकांड से है। यह हिंदू मान्यता के अनुसार सोलह संस्कारों में से एक संस्कार है।

अंतिम संस्कार हिन्दुओं के पृथवी पर बिताये गये जीवन का आखिरी संस्कार होता है, जिसे व्यक्ति की मृत्यु के पश्चात मृतक के परिजनों द्वारा संपन्न किया जाता है। आम तौर पर हिंदुओं को मरने के बाद अग्नि की चिता पर जलाया जाता है, जिसमें शव को लकड़ी के ढेर पर रखकर पहले मृतात्मा को मुखाग्नि दी जाती है और तत्पश्चात उसके शरीर को अग्नि को समर्पित किया जाता है।

शवदाह के बाद मृतक की अस्थियाँ जमा की जाती है और उसे किसी जलस्त्रोत में, आमतौर पर गंगा में प्रवाहित की जाती है। जिसके बाद लगभग तेरह दिनों तक श्राद्धकर्म किया जाता है। मृतात्मा की शांति के लिये दान दिये जाते हैं और ब्राम्हण समुदाय को भोजन कराया जाता है। बाद में लोग पिंडदान के लिये काशी या गया में जाकर पिंडदान की प्रक्रिया पूरी करते हैं।

शास्त्रों के अनुसार किये जाने वाले सोलह संस्कारों में से अंतिम संस्कार दाह संस्कार है। जब मृत शरीर उपलब्ध हो, जब मृत शरीर उपलब्ध न हो तो निम्न प्रकार से दाह संस्कार क्रिया करनी चाहिए- व्यक्ति की मृत्यु के बाद पुत्र या पौत्र को मरे हुए प्राणी को कंधा देना चाहिए। तथा उसका विधान से अग्निदाह करना चाहिए।

मृत्यु के पश्चात् सबसे पहले भूमि को गोबर से लीपना चाहिए। जल रेखा से मंडल बनाना चाहिए। इसके बाद तिल और कुश बिछाकर व्यक्ति को कुश पर सुला देना चाहिए तथा उसके मुख में स्वर्ण तथा पंचरत्न डालना चाहिए। ऐसा करने से व्यक्ति अपने सभी पापों से मुक्त हो जाता है। मंडल युक्त भूमि पर प्राण त्याग करने से व्यक्ति को अन्य योनि प्राप्त करने में सहजता रहती है, अन्यथा उसकी आत्मा वायुलोक में भटकती रहती है।

मृत्युकाल में मरनासन्न व्यक्ति के दोनों हाथों में कुश रखना चाहिए। इससे प्राणी विष्णुलोक को प्राप्त करता है। व्यक्ति की मृत्यु हो जाने पर, पुत्रादि तथा परिजनों को स्वयं स्नान करने के बाद शव को शुद्ध जल से स्नान कराकर नवीन वस्त्र पहनाकर, उसके बाद शरीर में चंदन आदि सुगंधित पदार्थों का लेप भी करना चाहिए। दाह संस्कार के अंतर्गत छः पिंड देने का विधान है।

पहला पिंड मृत्यु स्थान पर, दूसरा द्वार पर, तीसरा चैराहे पर, चैथा विश्रामस्थान, पांचवां चिता, और छठा संचयन के समय। इसके बाद शव को बंधु-बांधवों को श्मशान घाट ले जाना चाहिए और वहां शव को दक्षिणी दिशा की ओर सिर करके स्थापित करना चाहिए। दाहक्रिया के लिए पुत्रादि-परिजनों को तृण, काष्ठ, तिल और घी लेकर जाना चाहिए। श्मशान घर में दाह संस्कार के सभी कार्य दक्षिणामुखी होकर करना चाहिए।

दाह संस्कार करने से पूर्व स्वच्छ भूमि पर अग्नि स्थापित कर, शव को चिता में जलाने का उपक्रम करना चाहिए। जब शव के शरीर का आधा भाग चिता में जल जाए तो उस समय कर्ता तिलमिश्रित घी की आहुति चिता में जल रहे शव के ऊपर छोड़ना चाहिए। उसके बाद भाव विह्वल होकर उस आत्मीय जन के लिए रोना चाहिए। इस प्रकार करने से मृतक को अत्यधिक सुख प्राप्त होता है।

दाह क्रिया करने के बाद अस्थि-संचयन क्रिया की जानी चाहिए। इसके बाद किसी जलाशय पर जाकर सभी परिजनों को वस्त्रसहित स्नान करना चाहिए तथा दक्षिणामुखी होकर मृत प्राणी के लिए तिलयुक्त जलांजलि देनी चाहिए। शवदाह जलांजलि के बाद स्वजनों को अश्रुपात नहीं करना चाहिए।


शास्त्रों में ऐसा माना जाता है कि इस समय रोते हुए अपने बंधु बांधवों के द्वारा आंख और मुंह से गिराए हुए आंसू और कफ का मृतक को पान करना पड़ता है। घर के द्वार पर पहुंचने पर नीम की पत्तियों को दांत से काटकर आचमन करें तथा बाद में घर में प्रवेश करें। दाह संस्कार मुहूर्त जब मृत शरीर उपलब्ध होता है, तो दाह संस्कार के लिये मुहूर्त चयन की आवश्यकता नहीं होती है।

केवल जब किसी के मृत शरीर का दाह-संस्कार पंचक के नक्षत्र समय में करना हो तो मुहूर्त समय का प्रयोग किया जाता है। पंचक नक्षत्रों में धनिष्ठा के अंतिम दो चरण, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद व रेवती आते हैं। इन पांच नक्षत्रों में मृत्यु होने पर दाह-संस्कार से पूर्व पंचक शांति करानी होती है।

जब मृत शरीर उपलब्ध न हो जब किसी व्यक्ति की मृत्यु भूख से, हिंसक प्राणी के द्वारा, फांसी के फंदे, विष से, अग्नि से, आत्मघात से, गिरकर, रस्सी बंधन से, जल में रखने से, सर्प दंश से, बिजली से, लोहे से, शस्त्र से या विषैले कुत्ते के मुख स्पर्श से हुई हो तो इसे दुर्मरण कहा जाता है।

इन सभी स्थितियों में मृत्यु को सामान्य नहीं माना जाता और मृत्यु पश्चात् दाह संस्कार के लिए पुतला दाह संस्कार विधि का प्रयोग किया जाता है। यही विधि प्रवास में मृत्यु होने पर भी अपनाई जाती है। इस प्रकार की स्थिति तभी सामने आती है, जब सामान्यतः अप्राकृतिक मृत्यु होती है। जिसमें या तो शरीर किसी कारण वश नष्ट हो जाता है, अथवा प्राप्त ही नहीं होता है।

इन स्थितियों में कुशा (एक प्रकार की घास), पलाश और चावल के आटे का पुतला बनाकर उसका दाह संस्कार किया जाता है। पुतला दाह-संस्कार अर्थात पुतले के दाह-संस्कार के लिये मुहूर्त चयन की निम्नलिखित प्रक्रिया अपनायी जाती है:- जब मृत्यु की सूचना सूतक (अशुद्धता) के दौरान प्राप्त होती है, सूतक समय स्थान विशेष की रीति-रिवाज अनुसार सूतक, मृत्यु के दस से 16 दिन के अंदर समाप्त हो जाता है। यदि मृत्यु की सूचना इन दिनों के बीच ही प्राप्त हो जाती है तो पुतला-दाह पंचक के नक्षत्र समय को छोड़कर किसी भी समय किया जा सकता है।

जब मृत्यु की सूचना सूतक के पश्चात् अर्थात 16 दिनों से एक वर्ष के मध्य प्राप्त होती है, तो पुतला-दाह के मुहूर्त चयन के लिये निम्नलिखित बातों का विचार करना आवश्यक होता है। पुतला दाह-संस्कार नक्षत्र पुतले का दाह-संस्कार करने के लिये श्रवण, हस्त, अश्विनी और पुष्य नक्षत्र सबसे अच्छे माने जाते हैं। इसके बाद उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद, रोहिणी, अनुराधा, पूर्वाफाल्गुनी, पुनर्वसु, विशाखा, मृगशिरा, चित्रा और धनिष्ठा नक्षत्र पुतला दाह- संस्कार के लिये मध्यम श्रेणी के नक्षत्र होते हैं।

पुतला दाह - संस्कार कार्य करने के लिये रविवार, सोमवार व गुरुवार को लिया जा सकता है।

दाह संस्कार त्याज्य समय पुतला दाह - संस्कार कार्य के लिये भद्रा त्याज्य है। दाह-संस्कार करने वाले व्यक्ति का जन्म व प्रत्यारि तारा (जन्म नक्षत्र वाला तारा, 5वां, 10वां, 14वां, 19वां व 23वां तारा त्याज्य होता है, व दाह-संस्कार करने वाले व्यक्ति के जन्म चंद्रमा से गोचर के चंद्रमा की स्थिति 4, 8, 12 वें भावों में भी नहीं होनी चाहिए। शुक्रवार, मंगलवार, शनिवार नहीं लेना चाहिए।

तिथियों में 1, 6, 11, 13, 14 तिथियां, त्रिपुष्कर योग, अधिमास, गुरु व शुक्र का अस्त होना और शुक्ल पक्ष का भी परित्याग करना चाहिए। साथ ही सब क्रूर नक्षत्रों अर्थात पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वा आषाढ़ा, पूर्वा भाद्रपद, भरणी व मघा आदि नक्षत्रों के अतिरिक्त तीक्ष्ण नक्षत्र अर्थात (मूल, ज्येष्ठा, आद्र्रा व आश्लेषा और रेवती) को भी त्याग देना चाहिए।

जब मृत्यु की सूचना एक वर्ष के उपरांत प्राप्त हो, तो ऐसी स्थिति में पुतला दाह-संस्कार उत्तरायण में ही करना चाहिए और पुतला दाह के मुहूर्त चयन के लिए उन सभी बातों का विचार आवश्यक रूप से करना चाहिए जिन्हें ऊपर में बताया गया है।

हिंदू धर्म में मृत्यु को जीवन का अंत नहीं माना गया है। मृत्यु होने पर यह माना जाता है कि यह वह समय है, जब आत्मा इस शरीर को छोड़कर पुनः किसी नये रूप में शरीर धारण करती है, या मोक्ष प्राप्ति की यात्रा आरंभ करती है। किसी व्यक्ति की मृत्यु के बाद मृत शरीर का दाह-संस्कार करने के पीछे यही कारण है। मृत शरीर से निकल कर आत्मा को मोक्ष के मार्ग पर गति प्रदान की जाती है। शास्त्रों में यह माना जाता है कि जब तक मृत शरीर का अंतिम संस्कार नहीं किया जाता है, तब तक उसे मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती है।

सन्यास.


सन्यास.

सन्यास लेने या देने की चीज नहीं है। यह एक मानसिक भाव है, जिसके प्रति आकर्षण परमात्मा की कृपा से ही प्राप्त होता है। दीक्षा, आचरण के नियम, वेशभूषा, विधि आदि सम्प्रदाय या आश्रम विशेष या गुरु विशेष के होते है; पर संन्यास में इसकी कोई उपयोगिता नहीं है।


जब किसी भावनात्मक चोट से या स्वयं की विचार शक्ति से भौतिक जगत से मोह टूटता है, तो व्यक्ति स्वयं और स्वयं के जीवन का कारण तलाशने लगता है। सन्यास का प्रारंभ यहाँ से होता है। इसके लिए कोई नियम नहीं है। विधियाँ और नियम भौतिक साधनाओं के लिए होते है। सन्यास पूर्णतया भावनात्मक ज्ञानमार्ग है, जो विचार शक्ति, तर्क शक्ति, मनन शक्ति के द्वारा भौतिकता का बेध कर अंतिम सत्य तक पहुँचाता है।

श्री कृष्ण ने इसका एक सरल मार्ग बताया है। सब कुछ करो, पर उससे ‘राग’ मत रखो। स्वतंत्र होकर अपने और जगत के सत्य को जानने का प्रयत्न करो। गुरु का मार्ग निर्देशन और उपदेश सन्यास रुपी उपलब्धि का ईंधन होता है। पर यह सभी भाव प्रधान तर्क प्रधान होते है। विधि प्रधान नहीं।

इस संसार में कोई किसी के लिए प्रिय नहीं होता। सभी अपने ही लिए प्रिय होते है। यहाँ कुछ भी शाश्वत नहीं। न तो जीवन, न ही जीवन के सुख। हम नहीं जानते कि हम क्या है? कहाँ से आते है, कहाँ चले जाते है। इस सत्य को जानने के लिए प्रयत्नशील होना ही सन्यास धारण करना है। न तो कपिल को किसी ने दीक्षा दी थी, न ही शंकराचार्य को या आदिनाथ को। जो आचरण, नियम, व्रत के कठोर बन्धनों में बंधा है, वह सन्यासी कैसा? वह तो पाशबद्ध अज्ञानी है। स्मरण रखे। श्री कृष्ण से बड़ा सन्यासी कोई नहीं था और राजा जनक जैसे लोगों को भी महान सन्यासी कहा जाता है।

सफलताएँ टिकी हैं, प्रचण्ड मनोबल पर.


सफलताएँ टिकी हैं,
 प्रचण्ड मनोबल पर.

भिक्षु संघ के साथ विहार करते हुए भगवान बुद्ध शाल्यवन में एक वट वृक्ष के नीचे बैठ गये। धर्म चर्चा के प्रसंग में एक शिष्य ने उनसे पूछा - भगवन्! कई लोग दुर्बल और साधनहीन होते हुए भी बड़े-बड़े कार्य कर दिखाते हैं, जबकि अच्छी स्थिति वाली साधन सम्पन्न लोग भी उन कार्यों को करने में असफल रहते हैं। इसका क्या कारण हैं? क्या पूर्वजन्मों के पास अवरोध बन कर खड़े हो जाते हैं?

‘नहीं’ तथागत ने कहा, और एक कथा सुनाने लगे - “विराट् नगर के राजा सुकीर्ति के पास लौहशांग नामक एक हाथी था। राजा ने कई युद्धों में इस पर आरूढ़ होकर विजय प्राप्त की थी। शैशव से ही लौहशांग को इस तरह प्रशिक्षित किया था कि वह युद्ध कला में बड़ा प्रवीण हो गया था। सेना के आगे चलते हुए पर्वताकार लौहशांग जब अपनी क्रुद्धावस्था में प्रचण्ड हुँकार भरता हुआ शत्रु सेनाओं में घुसता था तो देखते ही देखते विपक्षियों के पाँव उखड़ जाते थे।

ल्किन जन्म के बाद जिस प्रकार सभी प्राणियों को युवा और जरावस्था से गुजरना पड़ता है, उसी क्रम से लौहशांग भी वृद्ध होने लगा, उसकी चमड़ी झूल गई और युवावस्था वाला पराक्रम जाता रहा। अब वह हाथीशाला की शोभा मात्र बनकर रह गया। उपयोगिता और महत्व कम हो जाने के कारण उसकी ओर पहले जैसा ध्यान भी नहीं था। उसे मिलने वाले भोजन में कमी कर दी गई। एक बूढ़ा सेवक उसके भोजन पानी की व्यवस्था करता, वह भी कई बार चूक कर जाता और हाथी को भूखा प्यासा ही रहना पड़ता।

बहुत प्यासा होने और कई दिनों से पानी न मिलने के कारण एक बार लौहशांग हाथीशाला से निकल कर पुराने तालाब की ओर चल पड़ा, जहाँ उसे पहले कभी प्रायः ले जाया करता था। उसने भरपेट पानी पीकर प्यास बुझाई और गहरे जल में स्नान के लिए चल पड़ा। उस तालाब में कीचड़ बहुत था दुर्भाग्य से वृद्ध हाथी उसमें फँस गया। जितना भी वह निकलने का प्रयास करता उतना ही फँसता जाता और आखिर गर्दन तक कीचड़ में फँस गया।

यह समाचार राजा सुकीर्ति तक पहुँचा, तो वे बड़े दुःखी हुए। हाथी को निकलवाने के कई कई प्रयास किये गये पर सभी निष्फल। उसे इस दयनीय दुर्दशा के साथ मृत्यु मुख में जाते देखकर सभी खिन्न थे। जब सारे प्रयास असफल हो गये, तब एक चतुर सैनिक ने युक्ति सुझाई। इसके अनुसार हाथी को निकलवाने वाले सभी प्रयत्न करने वालों को वापस बुला लिया गया और उन्हें युद्ध सैनिकों की वेशभूषा पहनाई गई। वे वाद्ययन्त्र मँगाये गए जो युद्ध अवसर पर उपयोग में लाए जाते थे।

हाथी के सामने युद्ध नगाड़े बजने लगे और सैनिक इस प्रकार कूच करने लगे जैसे वे शत्रु पक्ष की ओर से लौहशांग की ओर बढ़ रहे हैं। यह दृश्य देखकर लौहशांग में न जाने कैसे यौवन काल का जोश आ गया। उसने जोर से चिंघाड़ लगाई तथा शत्रु सैनिकों पर आक्रमण करने के लिए पूरी शक्ति से कण्ठ तक फँसे हुए कीचड़ को रौंदता हुआ तालाब के तट पर जा पहुँचा और शत्रु सैनिकों पर टूट पड़ने के लिए दौड़ने लगा। बड़ी मुश्किल से उसे नियन्त्रित किया गया।

यह कथा सुनाकर तथागत ने कहा - “भिक्षुओं! संसार में मनोबल ही प्रथम है। वह जाग उठे तो असहाय और अवश प्राणी भी असंभव होने वाले काम कर दिखाते हैं तथा मनुष्य अप्रत्याशित सफलताएँ प्राप्त करते हैं।

(अखंड ज्योति-1/1989)


आभामण्डल की प्रभाव-क्षमता अब सन्देह से परे.


आभामण्डल की प्रभाव-क्षमता
अब सन्देह से परे.

स्थूल शरीर को सतत् स्पन्दन देने वाली उसकी सत्ता को अक्षुण्ण बनाये रखने वाली ऊर्जा शक्ति एक ही है किन्तु .... में जाने जाते हैं। चीन व जापान में इसे .... या “की” एनर्जी, रेड इंडियंस में “आरेन्डा”, रूस में “बाँयोप्लाज्मा” तथा आधुनिक पाश्चात्य जगत में इसे “आँरगाँन एनर्जी” नाम से पुकारा जाता है। भारतीय दर्शन इसी शक्ति को प्राण ऊर्जा कहता है।

चिकित्सा जगत के पितामह माने जाने वाले पैरासेल्सस की यही मान्यता थी कि मानवी काया बड़ी विलक्षण है। इसके भीतर निहित ऊर्जा पुँज काया के बाहर भी एक प्रकाश पुँज के रूप में प्रतिभासित होता रहता है। इसे हम चाहें तो प्राण शरीर कह लें अथवा प्राणमय कोष अथवा थियोसोफी की भाषा में इथरीक डबल, है यह प्राण ऊर्जा का एक रूप ही। “बैक थ्रू टू क्रिएटीविटी” नामक ग्रन्थ में विद्वान लेखक आर्नल्डजेन्सन ने बताया है कि हमारे शरीर के इर्द-गिर्द ही नहीं, अपितु बार-बार फोटोन्स के माध्यम से निकलने वाले तीव्र प्रकाश का एक विद्युतचुंबकीय परिकर होता है, जो काया के अंग प्रत्यंग को ही नहीं समूचे परिकर को प्रभावित करता है। जो इसका क्षरण रोककर उसे संग्रहित करता है, वह प्राण-शक्ति सम्पन्न बनता है, ऋद्धि सिद्धियाँ उस पर बरसती हैं।

यह चर्चा मानवी चुम्बकत्व से उपजे प्रभामण्डल के संदर्भ में चल रही है। इस सम्बन्ध में प्रसिद्ध मनःचिकित्सक-लेखक जेफ्री मिशलोव ने अपने ग्रन्थ “रुट्स ऑफ काँशसनेस” में पाश्चात्य जगत में हुए प्रयोगों, जिनका मूल आधार भारतीय धर्मग्रन्थ हैं, का उल्लेख किया है। उन्होंने आँरा खण्ड में बताया है कि डा॰ .... के हृदय से नीला, हाथ के अग्रभाग से नीला-हरा एवं जाँघ जननेन्द्रियों के क्षेत्र से हरा रंग निस्सृत होते देखा व फोटोग्राफी द्वारा उसे रिकार्ड भी किया। विभिन्न व्यक्तियों पर प्रयोग कर वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि इन रंगों में भिन्नता मनुष्य की भावना .... अंतःकरण की उत्कृष्टता निकृष्टता के आधार पर निर्धारित होती है। वस्तुतः प्रभामण्डल सूक्ष्म मनोवेगों से बना एक आयन मण्डल है जिससे चारों ओर एक उच्चस्तरीय ऊर्जा क्षेत्र बनता है। रूस के आँरासायकिएट्री इंस्टीट्यूट की प्रमुख थेल्मामाँस ने भी इस दिशा में काफी प्रयोग किए हैं।

ईसाई धर्म के पवित्र ग्रन्थ बाइबिल में इस शक्ति को “आँरेओला” नाम दिया गया है। अतीन्द्रिय क्षमता सम्पन्न मनीषी स्वीडन बोर्ग ने अपनी स्प्रिचुअल डायरी में लिखा है कि प्रत्येक जीवधारी का शरीर आध्यात्मिक प्रकाश से घिरा रहता है। इसका रंग मानवी स्वभाव, स्वास्थ्य, भावनाएँ, जीवनचर्या के संयम, नियम-अनुशासन, आत्मविश्वास के आधार पर बदलता रहता है।

डा॰ किलोल से पूर्व रिचेन बेच ने मनुष्य की अंगुलियों के संवेदात्मक चित्र खींच कर इसे “ओडिस फोर्स” नाम दिया था। रिचेन बेच के अनुसार, “ओजस् एवं तेजस्” का दूसरा नाम ही तेजोवलय है। यह शरीर के चारों ओर छह इंच की दूरी तक फैला रहता है। चेहरे पर उसकी मात्रा, सघनता की परिधि अधिक होती है एवं इसे एक प्रकार की भाप उष्मा समझा जा सकता है। यह भाप निकट क्षेत्र में तो खुली आँखों से देखी जा सकती है पर कुछ ऊँचा उठने के बाद वह विरल एवं अदृश्य हो जाती है, फिर भी उसका अस्तित्व बना रहता है। रात्रि में शीतलता का संपर्क होने पर जिस प्रकार सूर्य ऊष्मा घास-पात पर ओस बिन्दु बनकर जमा हो जाती है, ठीक उसी प्रकार स्थूल शरीर एवं उसमें समाई हुई प्राण चेतना की सक्रियता अंतरंग में बढ़ने के अलावा त्वचा के बाहर भी उसका फैलाव होने लगता है। यही ओजस् या तेजोवलय है।

“द ओरीजीन एण्ड प्रौपर्टीज ऑफ ह्यूमन आँरा” के लेखक डा॰ किलोल ने स्पष्ट किया है कि पाशविक प्रवृत्तियाँ, निद्रा, भूख, प्यास, क्रोध, वासना, विषय लोलुपता आदि प्रभामण्डल को काले रंगों से भर देते हैं। वे मस्तिष्क की विकृति का मूल कारण मस्तिष्क के अणुओं का रोगी होना मानते हैं।

तान्त्रिक एवं थियोसोफिकल इसे हिन्दू दर्शन द्वारा निर्धारित काया के षट्चक्रों से जोड़ते हैं, जो आध्यात्मिक प्रगति के साथ जाग्रत होते चले जाते हैं। अतीन्द्रिय क्षमता सम्पन्न व्यक्तियों ने इसे विभिन्न आकार एवं रंगों में देखा है। कुछ वैज्ञानिक इसे मानव की जैव-विद्युत का उत्पादन ही मानते हैं। जो व्यक्ति की भिन्न-भिन्न प्रकृति के अनुसार चारों ओर फैला रहता है।

“मैन विजीबल इनविजीबल” के लेखक डा॰ लेडबीटर का मत है कि तेजोवलय वस्तुतः अन्तरंग में समाहित प्राण शक्ति का बाहर झाँकता हुआ मँडराता हुआ स्वरूप है। वह उच्चस्तरीय भी होता है और निकृष्टतम भी। रूप सौंदर्य वाले व्यभिचारियों में वेश्याओं में ठगों में क्रूर आक्रांताओं में एवं निकृष्ट चिन्तन वाले लोगों में यह अत्यन्त निम्न स्तर का होता है। इसे असुरता का परिचायक कह सकते हैं। इसका सघन होना धारण कर्ता के पतन का द्वार खोलता है। जिस पर ऐसा प्रभामण्डल प्रभाव छोड़ता है, उसे अशक्त असहाय बनाकर निर्जीव पराधीन की स्थिति में ला पटकता है। इस आसुरी तेजोवलय का रंग कालिख लिये होता है ऐसा दिव्य दर्शियों का मत है।

मनीषियों का मत है कि कामोत्तेजना के कारण यदि व्यक्ति रोगी हो तो मस्तिष्क के अणुओं की आभा काले व गहरे लाल रंग की होगी एवं द्वेष से पीड़ित अणुओं की आभा हरे रंग की होगी। इसी प्रकार विभिन्न दुर्गुणों से पीड़ित होने पर अणु आभा अलग अलग रंग की होती है एवं इस आधार पर व्यक्ति के अंतरंग को पहचाना जा सकता है।

सन्त सज्जन एवं देव प्रवृत्ति के लोगों का तेजोवलय पीली आभा लिये हुए होता है। वे समीपवर्ती लोगों को स्नेह, अनुग्रह, अनुदान अनायास ही देते रहते हैं। ऐसे व्यक्ति के समीप बैठने वाले एक विधेयात्मक आकर्षण, आँतरिक आनन्द की, उल्लास की अनुभूति करते हैं। उनसे सतत् संपर्क बनाये रखने से उनका आशीर्वाद पाने की आकाँक्षा बनी रहती है। महामानवों, देवदूतों, देव मानवों के रूप में जो भी सिद्ध पुरुष जन्मे हैं, उनके चहुं ओर सदैव श्रेष्ठ लोगों का बाहुल्य इसी कारण पाया जाता रहा है।

सुप्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक मनीषी डा॰ कोलीन विल्सन और स्टार्ट हालराइड ने अपनी किताब “मिस्ट्रीज ऑफ द माइण्ड” में लिखा है कि देवताओं, अवतारों, के चेहरे के चारों ओर जो प्रभामण्डल चित्रित किया जाता है, वह वस्तुतः प्राण ऊर्जा का ही प्रतीक है। यह उनकी आध्यात्मिक विशिष्टता का परिचय देता है। यों इसे खुली आँखों नहीं देखा जा सकता, किन्तु जिनका अतीन्द्रिय ज्ञान जाग्रत है उन्हें बहिरंग को देखकर ही व्यक्ति की मानसिक आँतरिक स्थिति का परिचय मिल जाता है।

इसी प्रभामण्डल का वैज्ञानिक विश्लेषण करने की दृष्टि से रूस के वैज्ञानिकों सीमेन, वेलेन्टाइना एवं किर्लियन ने जब हाइवोल्टेज विद्युत प्रवाहित की तो पाया कि जीव, प्राणियों, वनस्पतियों के चारों ओर प्रकाश किरण का प्रवाह बिखरा पड़ा है, तब उसे उन्होंने बायोप्लास्मिक बॉडी नाम दिया। इन वैज्ञानिकों ने बताया कि प्रत्येक जीव इस बायोप्लास्मिक बाँडी से घिरा रहता है। किर्लियन फोटोग्राफी में पौधों के पत्तों से निकलने वाली प्रकाश किरणों को दिखाया गया। उन्होंने आगे स्पष्ट किया कि एक ही जाति के पत्तों में भिन्न भिन्न रंग प्राप्त हुए जो पत्तों में जीवनी शक्ति एवं रोगों की स्थिति की जानकारी देते हैं। विभिन्न बैक्टीरिया के प्रभाव से पूर्व इन रंगों में परिवर्तन होते भी देखा गया।

यह बायोप्लाज्मा मनुष्यों में संभावित रोगों के बारे में भी जानकारी देते हैं। बैग्नेल (लंदन) एवं रिगल (अमेरिका) वैज्ञानिकों के मतानुसार आँरा का पूर्व मापन करके बताया जा सकता है कि अमुक व्यक्ति किस मनोविकार का शिकार है एवं भविष्य में इसे कौन सा रोग हो सकता है? मस्तिष्क में रक्तस्राव, दमा, हृदयाघात, कैंसर संभावित रोगों में पूर्व से ही निदान की इस विधि में साठ से अस्सी प्रतिशत सफलता उन्हें मिली है। उन्होंने निषेधात्मक एवं विधेयात्मक चिन्तन के आँरा का भी गहरा विश्लेषण किया है।

पाश्चात्य परामनोवैज्ञानिकों ने “बायोप्लाज्मिक बाडी” के प्रभाव को पूर्वार्त्त मनोविज्ञानियों की तरह ही स्वीकारा है। डा॰ मान्टेग्यू अलमेन ने “सायकिक मेगेजिन” में लिखा है कि ये प्रकाश पुँज मनुष्य के मन एवं अन्तःकरण से सम्बन्धित हैं, जिनसे सारा वातावरण प्रभावित होता है। श्वेत एवं तेजस्वी वलय शरीर एवं मनोगत समर्थता का परिचायक है इनमें सन्निहित रंगों का आभा मानसिक विशेषता को प्रदर्शित करती है, जबकि दिव्यता विहीन धुँधले कुहरे जैसा वलय मानसिक दृष्टि से गये, बीते एवं निकृष्ट चिन्तन की ओर इंगित करता है। इस लेख में उन्होंने आगे लिखा है कि यह “बायोप्लाज्मिक बाडी” अपने आसपास के वातावरण के घूमते कणों को अपनी शक्ति से चार्ज कर देती है। इस प्रक्रिया को उन्होंने “आयोनाइजेशन” कहा है। जिस स्तर के प्राण प्रवाह होते हैं, परिष्कृत अन्तःकरण होता है, चिन्तन का स्तर होता है, उसी अनुरूप आँरा का निर्माण होता है एवं सारा वातावरण इन आयन्स से चार्ज हो जाता है।

डा॰ जार्ज मिक ने मानवी प्रभामण्डल को तीन भागों बाँटा है। पहला शरीर तक सीमित विद्युत विभव, दूसरा शरीर के बाहर तक निकला तेजोवलय एवं तीसरा शरीर को कवच की तरह चारों ओर से लपेटे 6 से 9 इंच व साधनात्मक प्रगति पर कई फीट तक का विस्तार वाला क्षेत्र तीसरे प्रभावशाली आभा परिकर को उन्होंने “जोन ऑफ एनर्जी” कहा है। पहले में बिन्दु होते हैं दूसरी में रेखाएँ, और तीसरे में सघन आयनों का समुच्चय। पहले को स्थूल शरीर या बायोप्लाज्मा, दूसरे को प्लाज्मा एवं तीसरे को आयन विकिरण कहा गया है जिसमें वास्तव में हीलिंग (चिकित्सा) की क्षमता होती है। प्राण प्रत्यावर्तन में इसीकी प्रधान भूमिका होती है। हाथ सिर पर या रुग्ण अंग पर रखकर चिकित्सा करने वाले आयन विकिरण प्रक्रिया द्वारा ही यह सायकिक हीलिंग करते हैं।

मात्र स्थूल शरीर तक सीमित विद्युत विभव जो बिन्दु रूप में क्रियाशील है, विशेष आभा रूप में निकलता है, इसमें उपचार की शीघ्रगामी क्षमता है। प॰ जर्मनी के अतीन्द्रिय क्षमता सम्पन्न वैज्ञानिक जार्ज मिचेल ने “थियो-सोफिका प्रेक्टिका” में लिखा है कि इन बिन्दुओं से प्रकाश किरणें निस्सृत होती रहती हैं। इसका संबंध उन्होंने चीन में चल रहे एक्यूपंक्चर चिकित्सा पद्धति से जोड़ा है। एक्यूपंक्चर एवं जार्ज मिचेल द्वारा बताये गए बिन्दुओं में विलक्षण समानता पायी गयी है। एक्यूपंचर विशेषज्ञों का कहना है कि शारीरिक स्वास्थ्य के लिए जीवनीशक्ति एक विशेष अदृश्य रेखाओं से आती है जिनका सम्बन्ध सम्पूर्ण शरीर से है। उन बिन्दुओं पर सुई का स्पर्श या थोड़ा सा दबाव (एक्यूप्रेशर) दर्द या रोग को तुरन्त समाप्त कर देता है। विशेषज्ञों के अनुसार इन बिन्दुओं को उत्तेजित करने पर उन विशेष बिन्दुओं से विशेष आभा निकलती है जिसके द्वारा स्थूल शरीर में दृष्टिगोचर होने वाले रोगों का उपचार किया जा सकता है। दर्द को समाप्त कर व्यक्ति को कष्टमुक्त किया जा सकता है।

एक्यूपंक्चर के बिन्दु, बायोप्लाज्मिक बॉडी, आयनीकरण इत्यादि सभी एक ही तथ्य की ओर संकेत करते हैं कि यदि अपने सूक्ष्म व कारण शरीर की संरचना को सुदृढ़ बनाया जा सके, प्रसुप्त केन्द्रों को उत्तेजित किया जा सके तो जाग्रत प्राण ऊर्जा के प्रभाव से न केवल स्वयं रोगमुक्त रहा जा सकता है, अन्यान्यों को भी लाभान्वित किया जा सकता है। प्रभामण्डल एक प्रकार का छाया पुरुष है। इसकी सिद्धि जो कर लेता है, वह न केवल सामने वाले के गुण, कर्म, स्वभाव को जाँचने-परखने में सिद्ध हस्त हो जाता है वरन् उसे यह मार्ग दर्शन दे सकने में भी समर्थ हो जाता है कि कैसे उसे अपनी आध्यात्मिक ऊर्जा को सशक्त बनाना चाहिए? इसके लिए क्या उपचार किस प्रकार किये जाने चाहिए?

आभामण्डल की जानकारी अब मात्र रोग निदान-उपचार तक ही नहीं सीमित रही है। इसका उपयोग आध्यात्मिक उपचार, शक्ति संवर्धन मनोबल व संकल्प शक्ति के उछालने में भी किया जा सकता है, यह क्रमशः स्पष्ट होता जा रहा है। भावी आत्मबल सम्पन्न व्यक्तियों की पीढ़ी इसी आधार पर विनिर्मित होगी।

(अखंड ज्योति-1/1989)


खुद से प्रेम करना, क्‍या कोई मानसिक बिमारी है?


खुद से प्रेम करना,
क्‍या कोई मानसिक बिमारी है?
(सद्गुरु जग्गी वासुदेव)

कुछ विचारकों और लेखकों का यह मानना है कि इंसान को खुद से प्रेम करना चाहिए। क्या खुशहाली के लिए इंसान को खुद से प्रेम करना जरुरी है? इंसान के भीतर शर्म और अपराधबोध ऐसे भाव हैं, जो अक्सर घर या ऑफिस में रहते, किसी न किसी कारण से पैदा हो जाते हैं। क्या है, इन भावों की बुनियाद?


प्रश्‍न:

ऐसा क्यों है कि इतने सारे लोग खुद से प्रेम नहीं कर पाते? क्या आप शर्म और अपराधबोध के बारे में कुछ बताएंगे? 


सद्‌गुरु:

‘खुद को पसंद करना?’ किसी और को आपको पसंद करना चाहिए। ‘मैं खुद से प्यार करता हूं’ – यह क्या बकवास है? ऐसे विचार और सिद्धांत दुनिया भर में प्रचलित हैं, खासकर अमेरिका के पश्चिमी तट पर। हाल में जब मैं कैलिफोर्निया गया, तो मुझे स्टेनफोर्ड यूनिवर्सिटी में एक लेक्चर में शामिल होने का मौका मिला। वहां वक्ता का मत था, ‘आपको अपने प्रति करुणा रखनी चाहिए।’ मैंने कहा, ‘पसंद करने, प्रेम करने और करुणा रखने के लिए, आपको दो जीवों की जरूरत है। अगर आप अपने भीतर दो जीव पाल लेते हैं, तो या तो आप पागल हैं या प्रेतग्रस्त।

लोगों में शर्म और अपराधबोध भरने का मतलब है कि आपको उनके विकास, रूपांतरण और अपने भीतरी आयाम को छूने की काबिलियत में कोई दिलचस्पी नहीं है। आपकी दिलचस्पी बस उन्हें बांध कर रखने में है।
या तो आपको मनोचिकित्सक की जरूरत है या किसी ओझा की।’

एक व्यक्ति का मतलब है, ‘जो आगे और बंट न सके।’ अगर आपने खुद को ऐसा बना लिया है कि आपके कोई दोस्त नहीं हैं और आप अकेले रह नहीं सकते, तो आप अपने अंदर दो लोग बना लेते हैं। ऐसा खेल न खेलें। शुरू में इसमें मजा आ सकता है, लेकिन अगर यह जम गया तो आप बीमार हो जाएंगे। मानसिक संतुलन और असंतुलन के बीच बहुत बारीक लकीर है। अगर आप लगातार उसे धकेलते रहे, तो आप दूसरी ओर जा गिरेंगे और जान नहीं पाएंगे कि आप कहां हैं।


एक बार ऐसा हुआ – शंकरन पिल्लै ने बंगलौर के निमहैंस इंस्टीट्यूट के मनोचिकित्सा वार्ड में फोन किया और कहा, ‘क्या कमरा नं 21 में मि. पिल्लै हैं?’ रिसेप्शनिस्ट ने जवाब दिया, ‘रुकिए सर, मैं अभी चेक करके बताती हूं।’ उसने चेक किया और बोली, ‘नहीं, वह यहां नहीं हैं।’ ‘हे भगवान, फिर यह सच है कि मैं भाग आया!’


एक बार जब आप अपने आप को बांटने का यह खेल खेलेंगे, तो आपको पता नहीं चलेगा कि आप कहां हैं। आप एक व्यक्ति हैं – जो आप हैं, वह कभी बंटा हुआ नहीं होना चाहिए। आपको एक व्यक्ति के रूप में समूचा होना चाहिए। केवल एक की ही मरम्मत हो सकती है, केवल एक ही विकास कर सकता है। केवल एक ही रूपांतरित हो सकता है, केवल एक ही आध्यात्मिक आयाम में जा सकता है। अगर दो होंगे, तो वे दो अलग-अलग दिशाओं में जाएंगे। अगर चार हैं, तो वे चार अलग-अलग दिशाओं में जाएंगे।
खुद से प्रेम करने की कोशिश न करें। आपमें पसंद करने लायक क्या है? ‘तो फिर क्या मुझे खुद को नापसंद करना चाहिए?’ आप इन सब तरीकों से सोच क्यों रहे हैं? खुद को पसंद या नापसंद करने का सवाल कहां है? जब आप खुद को सिर्फ जीवन के एक अंश के रूप में देखते हैं, तो अपने भीतर इस मूल और बुनियादी जीवन को न तो पसंद करने की जरूरत है न नापसंद करने की। अगर आप देखेंगे कि ‘यह सिर्फ मैं ही हूं’ तो आप इसे अच्छी तरह रखेंगे। अगर इसमें दो होंगे, तो दो लोगों को अच्छे से रखना मुश्किल होगा।

‘खुद से प्रेम करो। अपने आप में यकीन रखो। खुद के प्रति करुणा रखो,’ इन सब विचारों से आप बीमारी को न्यौता दे रहे हैं। और अगर आप बहुत दृढ़तापूर्वक मांगेंगे, तो आपको यह मिल भी सकता है। इन चीजों की मांग न करें। यह समझना बहुत जरूरी है कि आप एक व्यक्ति हैं – आप खुद को बांट नहीं सकते। अगर आप ऐसा करते हैं तो आप एक मनोवैज्ञानिक खेल खेल रहे हैं जिससे आप पागलपन की ओर बढ़ रहे हैं। अगर आप ऐसे लोगों के साथ रहते हैं, तो इसमें कुछ भी असामान्य नहीं लगेगा लेकिन अगर जीवन के हालात आपके खिलाफ हो गये, तो आप पागल हो जाएंगे। अगर हालात आपका साथ देते हैं, तो आप ऐसे खेल खेलकर किसी तरह बच सकते हैं। मगर आपके जीवन में कोई महत्वपूर्ण चीज नहीं होगी क्योंकि जब तक कि आप एक व्यक्ति नहीं हैं, आप रूपांतरित नहीं हो सकते, आप परे नहीं जा सकते। 


शर्म और अपराध-बोध.

शर्म और अपराध-बोध के आपके विचार एक सामाजिक घटना हैं। एक समाज में लोग जिस चीज को लेकर अपराध-बोध महसूस करते हैं, दूसरे समाज में वे ऐसा नहीं महसूस करते। शर्म और अपराध-बोध कुदरती नहीं हैं। बात सिर्फ इतनी है कि कुछ धर्मों ने आपको हर चीज़ के बारे में अपराधी महसूस करा दिया है। अगर आप उन सभी चीजों की सूची बनाएं, जिन्हें वे पाप कहते हैं और जिनके लिए आपको अपराधी महसूस करना चाहिए, तो आप जीवित रहने पर भी अपराध-बोध महसूस करेंगे क्योंकि आपका जन्म ही एक पाप है। आप पूरी जिंदगी अपराध-बोध महसूस करते हैं। अगर कुछ ख़ास धार्मिक शिक्षाएं नहीं होतीं, तो अपराध-बोध और शर्म की भावना ही नहीं होती। अगर अपराध-बोध और शर्म की कोई गुंजाइश नहीं होती, तो आप अपनी हरकतों को सुधार लेते। अपराध-बोध और शर्म आपके जीवन में बहुत सारी अस्पष्टता ले आते हैं। आप लगातार कुछ मूर्खतापूर्ण चीजें करते हैं, उसे लेकर अपराधबोध महसूस करते हैं, अपना अपराध-बोध धो डालते हैं और फिर से वही चीजें करते हैं।


जिन लोगों को शर्म और अपराधबोध का खूब सारा पाठ पढ़ाया गया है, वे ऐसे लोग हैं जो बहुत सारी हरकतें करते रहते, हैं क्योंकि अपराध-बोध को ठीक करने का रास्ता हमेशा, हर सप्ताह होता है। चेतनता एक चीज है – ‘सही गलत का ज्ञान’ या अंत:करण दूसरी चीज है।

एक बार जब आप अपने आप को बांटने का यह खेल खेलेंगे, तो आपको पता नहीं चलेगा कि आप कहां हैं। आप एक व्यक्ति हैं – जो आप हैं, वह कभी बंटा हुआ नहीं होना चाहिए। आपको एक व्यक्ति के रूप में समूचा होना चाहिए।
चेतनता जीवन और अस्तित्व का आधार है। आध्यात्मिक प्रक्रिया चेतनता पर आधारित होती है, अंत:करण पर नहीं। अंत:करण एक सामाजिक तौर पर स्थापित किया गया तंत्र है, जिसका आम तौर पर एक धार्मिक आधार होता है। यह आपको जीवन में इस या उस या हर चीज के लिए अपराधी महसूस कराता है। जब आप अपराधी महसूस करेंगे तो आप किसी न किसी रूप में अधीन हो जाएंगे।

आपको अंत:करण की जरूरत नहीं है – आपको चेतनता की जरूरत है क्योंकि चेतनता सब को अपने अंदर शामिल करती है। हर किसी को खुद में ही शामिल करना आपके कार्यों को सुधारता है। आप इसलिए किसी काम से परहेज नहीं करते कि आपको वह गलत लगता है। आप जानते हैं कि आप अपने साथ ऐसा नहीं करना चाहेंगे, इसलिए आप किसी और के साथ भी ऐसा नहीं करना चाहेंगे। आप जानते हैं कि वह आपके लिए कारगर नहीं होगा, इसलिए आप किसी और के लिए भी ऐसा नहीं करना चाहेंगे। बस इतनी ही बात है। चेतनता हर चीज को अपने में शामिल करने के कारण आपको सुधारती है। अंत:करण आपको अपराधबोध, डर, सजा और शर्म से सुधारने की कोशिश करता है। यह ऐसी चीज है जो किसी इंसान को मुजरिम की तरह महसूस कराता है। जब कोई इंसान मुजरिम या अपराधी महसूस करे, तो उससे आप विकसित होने की उम्मीद नहीं कर सकते। लोगों में शर्म और अपराधबोध भरने का मतलब है कि आपको उनके विकास, रूपांतरण और अपने भीतरी आयाम को छूने की काबिलियत में कोई दिलचस्पी नहीं है। आपकी दिलचस्पी बस उन्हें बांध कर रखने में है। अपराधबोध और शर्म सामाजिक विवेक से आते हैं, सर्वव्यापी चेतनता या जागरूकता से नहीं।

दुर्भावनाओं को दूर हटाइए.


दुर्भावनाओं को दूर हटाइए.
(स्वामी शिवानन्दजी महाराज)

हमारी प्रकृति में बुरी प्रवृत्तियाँ हैं। उनको उखाड़ने के लिये बड़े साहस तथा परिश्रम की आवश्यकता है और सबसे सहज उपाय यह है कि उच्च प्रवृत्तियों को उनका स्थानापन्न बनायें। यदि स्वभाव बुरा है, तो अच्छा स्वभाव बनाने का प्रयत्न कीजिये। धीरे-धीरे बुरी प्रवृत्तियाँ दूर हो जायेगी और उनके स्थान पर अच्छी प्रवृत्तियाँ अपना अड्डा जमायेंगी। बुरे विचार अच्छे विचारों से हटाये जा सकते हैं।

प्रेम सनातन तथा स्वाभाविक है। घृणा क्षणिक है तथा इसका विकास अस्वाभाविक है। साहस अनादि तथा प्राकृतिक है। साहस धर्म है। भय क्षणिक है तथा अस्वाभाविक है। दया धर्म है, यह अनादि तथा स्वाभाविक है, घृणा अस्वाभाविक विकास है। घृणा के स्थान पर प्रेम लाना चाहिये। हर एक मनुष्य के गुण को देखिये। उसके अवगुणों का विचार न कीजिये। सतत् परिश्रम से धीरे धीरे मन को शिक्षा दीजिये। पचास बार यदि आप असफल होंगे, तो इक्यावनवीं बार आप अवश्य सफलता प्राप्त करेंगे। यह निश्चय है। राजसिक मन की यह स्वाभाविक वृत्ति है कि मनुष्य के अवगुणों को ही देखता है, घृणा उत्पन्न होती है, दूसरे के स्वभाव की समालोचना करता है, दूसरे की निंदा करता है, दूसरों से लड़ता झगड़ता है। सात्विक मन का यह गुण है कि वह मनुष्य के अच्छे गुणों को देखता है, अवगुणों पर विचार नहीं करता, क्षमा प्रदान करता है तथा अज्ञानियों के साथ सहानुभूति दर्शाता है।

जब कोई स्त्री अपने पति से झगड़ा करती है और उसका बच्चा गोदी से गिर पड़ता है, तो वह बच्चे को चूम लेती है और झगड़ा बन्द हो जाता है। वह हँसती है। बच्चे की उपस्थिति है। इसी प्रकार बुरी वासनायें अच्छे विचारों से दवाई जा सकती हैं। जिस प्रकार एक माली बड़े प्रयत्न तथा परिश्रम से उत्तम-उत्तम सुगन्धित पुष्पों को वाटिका में लगाता है, इसी प्रकार हमें अच्छी वृत्तियों तथा भावनाओं को अपने हृदय में लगाना चाहिये, जिससे आत्मोन्नति हो। पाँचवें या छठे मास हमें देखना चाहिये कि इसमें कहाँ तक अच्छी भावनायें तथा उच्च विचार पाये जाते हैं। पुरानी दुष्ट प्रवृत्तियाँ हृदय में अपना अड्डा जमाने के लिये सतत् प्रयत्न करेंगी तथा अच्छी भावनाओं के दबाने का प्रयत्न करेंगी। हमको सदैव सचेत रहना चाहिये। अन्त में हमारी विजय होगी, विचार द्वारा बुरी वासनाओं को हटाइये। सदैव ‘शिवोऽहम्’ पर विचार कीजिये। वृथा विचार मन में न आने दीजिये। हवाई किले की गढ़न्त मस्तिष्क में न होने दीजिये। वासनाओं को स्वतंत्र न होने दीजिये। वासनाओं को नष्ट कीजिये। प्रयत्न से, वे स्वयं नष्ट हो जायेगी। क्षमा द्वारा क्रोध को शान्त कीजिये। हृदय में प्रेम तथा ऐक्यभाव उत्पन्न कीजिये दूसरा कौन है, जिस पर आप क्रोध करेंगे। सब तो आप ही हैं, दूसरा कहाँ है। यह सब अविद्या है। ‘एकमेवाद्वितीयम्’ सब एक ही है, दूसरा कोई नहीं है, ये विचार सदैव मनन करने योग्य है।

उदारता तथा दान द्वारा लोभ को नष्ट कीजिये। ‘अहं ब्रह्मास्मि’ भावना द्वारा आत्मप्रशंसा को नष्ट कीजिये। ब्रह्म के अतिरिक्त और कुछ नहीं हैं। नम्रता से अपने घमण्ड को दूर कीजिए। निष्काम कर्म से अभिमान को दूर कीजिए। साहस से भय को दूर कीजिए, जब ब्रह्म के अतिरिक्त और कोई है ही नहीं, तो भय किसका, आप तो स्वयं ब्रह्म हैं। इन्द्रियों को तप से नष्ट कीजिए। मैत्री, करुण तथा आर्जव से भावनाओं को स्वच्छ कीजिए। मुदित से ईर्ष्या को दूर कीजिए। वासनाओं को हटाकर इच्छा को बलवान कीजिए। सन्तोष, विचार, संन्यास, सत्संग तथा समाधि द्वारा अपने हृदय में शान्ति का राज्य स्थापन कीजिए।

पञ्च तत्व की उत्पत्ति.


पञ्च तत्व की उत्पत्ति.

1.ब्रह्मा के मन से आकाश, आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल और जल से पृथ्वी की क्रमशः उत्पत्ति हुई। एक-एक गुणों (तन्मात्रा) की वृद्धि से ये पाँचों पञ्च महाभूत कहे गए. अर्थात,

आकाश में एक गुण=> शब्द

वायु में दो गुण => शब्द + स्पर्श

अग्नि में तीन गुण => शब्द + स्पर्श + रूप

जल में चार गुण => शब्द + स्पर्श + रूप + रस

पृथ्वी में पांच गुण => शब्द + स्पर्श + रूप + रस + गन्ध

2.तत्व प्राण ऊर्जा (योग में प्राण का एक विशिष्ट अर्थ होता है) के विशिष्ट रूप बताते हैं। प्राण इन्ही पाँच तत्वों से मिलकर बना है - ठीक उसी प्रकार जैसे हमारा शरीर और अन्य कई चीज़। माण्डुक्योपनिषद, प्रश्नोपनिषद तथा शिव स्वरोदय मानते हैं कि पंचतत्वों का विकास मन से, मन का प्राण से और प्राण का समाधि (यानि पराचेतना) से हुआ है।

गुण-प्रकार
पृथ्वी
जल
अग्नि
वायु
आकाश
  प्रकृति
भारी
शीतल
ऊष्ण
अनिश्चित
मिश्रित
  गुण
वज़न
एकजुटता
द्रवता,
संकुचन
गरम
प्रसार
गति
फैलाव
  वर्ण
पीला
सफ़ेद
लाल
नीला या
भूरा
काला
  आकार
चौकौन
अर्धचंद्र
त्रिभुज
षट्कोण
बिन्दु
  चक्र
मूलाधार
स्वाधिष्ठान
मणिपूर
अनाहत
विशुद्धि
  मंत्र
लं
वं
रं
यं
हं
  तन्मात्रा
गंध
स्वाद
दृश्य
स्पर्श
शब्द
  शरीर में 
  कार्य
त्वचा, रक्त
शरीर के 
सभी द्रव
क्षुधा, निद्रा,
प्यास
पेशियों का 
संकुचन-
आकुचन
संवेग, वासना
  शरीर में
   स्थिति
जाँघे
पैर
कंधे
नाभि
मस्तक
  मानसिक 
  दशा
अहंकार
बुद्धि
मनस,
विवेक
चित्त
प्रज्ञा
  कोश
अन्नमय
प्राणमय
मनोमय
विज्ञानमय
आनंदमय
  प्राणवायु
अपान
प्राण
समान
उदान
व्यान
  ग्रह
बुध
चंद्र, शुक्र
सूर्य, मंगल
शनि
बृहस्पति
  दिशा
पूर्व
पश्चिम
दक्षिण
उत्तर
मध्य-ऊर्ध्व