पहले अपनी सेवा और सहायता करो.


पहले अपनी सेवा और सहायता करो.

इस संसार में अनेक प्रकार के पुण्य और परमार्थ हैं। शास्त्रों में नाना प्रकार के धर्म अनुष्ठानों का सविस्तार विधि विधान है और उनके सुविस्तृत महात्म्यों का वर्णन है। दूसरों की सेवा सहायता करना पुण्य कार्य है, इससे कीर्ति आत्म संतोष तथा सद्गति की प्राप्ति होती है।

पर इन सबसे बढ़ कर भी एक पुण्य परमार्थ है और वह है-आत्म निर्माण। अपने दुर्गुणों को, कुविचारों को, कुसंस्कारों को, ईर्ष्या, तृष्णा, क्रोध, डाह, क्षोभ, चिन्ता, भय एवं वासनाओं को विवेक की सहायता से आत्मज्ञान की अग्नि में जला देना इतना बड़ा यज्ञ है जिसकी तुलना सशस्त्र अश्वमेधों से नहीं हो सकती।

अपने अज्ञान को दूर करके मन मन्दिर में ज्ञान का दीपक जलाना भगवान की सच्ची पूजा है। अपनी मानसिक तुच्छता, दीनता, हीनता, दासता, को हटाकर निर्भयता, सत्यता, पवित्रता एवं प्रसन्नता की आत्मिक प्रवृत्तियाँ बढ़ाना करोड़ मन सोना दान करने की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण है।

हर मनुष्य अपना-अपना आत्म निर्माण करे तो यह पृथ्वी स्वर्ग बन सकती है। फिर मनुष्यों को स्वर्ग जाने की इच्छा करने की नहीं, वरन् देवताओं के पृथ्वी पर आने की आवश्यकता अनुभव होगी। दूसरों की सेवा सहायता करना पुण्य है, पर अपनी सेवा सहायता करना इससे भी बड़ा पुण्य है। अपनी शारीरिक मानसिक, आर्थिक, सामाजिक, नैतिक और आध्यात्मिक स्थिति को ऊँचा उठाना, अपने को एक आदर्श नागरिक बनाना इतना बड़ा धर्म कार्य है जिसकी तुलना अन्य किसी भी पुण्य परमार्थ से नहीं हो सकती।

ज्ञान की चार बात. 

एक राजा के विशाल महल में एक सुंदर वाटिका थी,जिसमें अंगूरों की एक बेल लगी थी।वहां रोज एक चिड़िया आती और मीठे अंगूर चुन-चुनकर खा जाती और अधपके और खट्टे अंगूरों को नीचे गिरा देती।

माली ने चिड़िया को पकड़ने की बहुत कोशिश की पर वह हाथ नहीं आई। हताश होकर एक दिन माली ने राजा को यह बात बताई। यह सुनकर भानुप्रताप को आश्चर्य हुआ। उसने चिड़िया को सबक सिखाने की ठान ली और वाटिका में छिपकर बैठ गया।

जब चिड़िया अंगूर खाने आई तो राजा ने तेजी दिखाते हुए उसे पकड़ लिया। जब राजा चिड़िया को मारने लगा,तो चिड़िया ने कहा- हे राजन !! मुझे मत मारो। मैं आपको ज्ञान की 4 महत्वपूर्ण बातें बताऊंगी।'

राजा ने कहा, 'जल्दी बता।'

चिड़िया बोली, 'हे राजन !! सबसे पहले, तो हाथ में आए शत्रु को कभी मत छोड़ो।'

राजा ने कहा, 'दूसरी बात बता।'

चिड़िया ने कहा, 'असंभव बात पर भूलकर भी विश्वास मत करो और तीसरी बात यह है कि बीती बातों पर कभी पश्चाताप मत करो।'

राजा ने कहा, 'अब चौथी बात भी जल्दी बता दो।'

इस पर चिड़िया बोली, 'चौथी बात बड़ी गूढ़ और रहस्यमयी है। मुझे जरा ढीला छोड़ दें क्योंकि मेरा दम घुट रहा है। कुछ सांस लेकर ही बता सकूंगी।'

चिड़िया की बात सुन जैसे ही राजा ने अपना हाथ ढीला किया,चिड़िया उड़ कर एक डाल पर बैठ गई और बोली, 'मेरे पेट में दो हीरे हैं।'

यह सुनकर राजा पश्चाताप में डूब गया। राजा की हालत देख चिड़िया बोली, 'हे राजन !! ज्ञान की बात सुनने और पढ़ने से कुछ लाभ नहीं होता,उस पर अमल करने से होता है। आपने मेरी बात नहीं मानी।

मैं आपकी शत्रु थी, फिर भी आपने पकड़कर मुझे छोड़ दिया।

मैंने यह असंभव बात कही कि मेरे पेट में दो हीरे हैं फिर भी आपने उस पर भरोसा कर लिया।

आपके हाथ में वे काल्पनिक हीरे नहीं आए, तो आप पछताने लगे।

उपदेशों को आचरण में उतारे बगैर उनका कोई मोल नहीं।

सकारात्मक हार.


सकारात्म हा.

गोपालदास जी के एक पुत्र और एक पुत्री थे। उन्हे अपने पुत्र के विवाह के लिये संस्कारशील पुत्रवधु की तलाश थी। किसी मित्र ने सुझाया कि पास के गांव में ही स्वरूपदास जी के एक सुन्दर सुशील कन्या है।

गोपालदास जी किसी कार्य के बहाने स्वरूपदास जी के घर पहूंच गये, कन्या स्वरूपवान थी देखते ही उन्हे पुत्रवधु के रूप में पसन्द आ गई। गोपालदास जी ने रिश्ते की बात चलाई जिसे स्वरूपदास जी ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। स्वरूपदास जी की पत्नी ने मिष्ठान भोजन आदि से आगत स्वागत की।

संयोगवश स्वरूपदास जी की पत्नी के लिये नवसहर का सोने का हार आज ही बनकर आया था। समधन ने बडे उत्साह से समधी को दिखाया, हार वास्तव में सुन्दर था। गोपालदास जी ने जी भरकर उस हार की तारीफ की। कुछ देर आपस में बातें चली और फ़िर गोपालदास जी ने लौटने के लिये विदा मांगी और घर के लिये चल दिये।

चार दिन बाद ही स्वरूपदास जी की पत्नी को किसी समारोह में जाने की योजना बनी, और उन्हे वही हार पहनना था। उन्होने ड्रॉअर का कोना कोना छान मारा पर हार नहीं मिला। सोचने लगी हार गया तो गया कहाँ? कुछ निश्चय किया और स्वरूपदास जी को बताया कि हार गोपालदास जी, चोरी कर गये है।

स्वरूपदास जी ने कहा भागवान! ठीक से देख, घर में ही कहीं होगा, समधी ऐसी हरक़त नहीं कर सकते। उसने कहा मैने सब जगह देख लिया है और मुझे पूरा यकीन है हार गोपाल जी ही ले गये है, हार देखते ही उनकी आंखे फ़ट गई थी। वे बडा घूर कर देख रहे थे, निश्चित ही हार तो समधी जी ही लेकर गये है। आप गोपाल जी के यहां जाईए और पूछिए, देखना! हार वहां से ही मिलेगा।

बडी ना-नुकर के बाद पत्नी की जिद्द के आगे स्वरूप जी को झुकना पडा और बडे भारी मन से वे गोपाल जी के घर पहूंचे। अचानक स्वरूप जी को घर आया देखकर गोपाल जी शंकित हो उठे कि क्या बात हो गई?

स्वरूपजी दुविधा में कि आखिर समधी से कैसे पूछा जाय। इधर उधर की बात करते हुए साहस जुटा कर बोले- आप जिस दिन हमारे घर आए थे, उसी दिन घर एक हार आया था, वह मिल नहीं रहा।

कुछ क्षण के लिये गोपाल जी विचार में पडे, और बोले अरे हां, ‘वह हार तो मैं लेकर आया था’, मुझे अपनी पुत्री के लिये ऐसा ही हार बनवाना था, अतः सुनार को सेम्पल दिखाने के लिये, मैं ही ले आया था। वह हार तो अब सुनार के यहां है। आप तीन दिन रुकिये और हार ले जाईए। किन्तु असलियत में तो हार के बारे में पूछते ही गोपाल जी को आभास हो गया कि हो न हो समधन ने चोरी का इल्जाम लगाया है।

उसी समय सुनार के यहां जाकर, देखे गये हार की डिज़ाइन के आधार पर सुनार को बिलकुल वैसा ही हार,मात्र दो दिन में तैयार करने का आदेश दे आए। तीसरे दिन सुनार के यहाँ से हार लाकर स्वरूप जी को सौप दिया। लिजिये सम्हालिये अपना हार।

घर आकर स्वरूप जी ने हार श्रीमति को सौपते हुए हक़िक़त बता दी। पत्नी ने कहा- मैं न कहती थी,बाकि सब पकडे जाने पर बहाना है, भला कोई बिना बताए सोने का हार लेकर जाता है ? समधी सही व्यक्ति नहीं है, आप आज ही समाचार कर दिजिये कि यह रिश्ता नहीं हो सकता। स्वरूप जी नें फ़ोन पर गोपाल जी को सूचना दे दी, गोपाल जी कुछ न बोले।उन्हे आभास था ऐसा ही होना है।

सप्ताह बाद स्वरूप जी की पत्नी साफ सफ़ाई कर रही थी, उन्होने पूरा ड्रॉअर ही बाहर निकाला तो पिछे के भाग में से हार मिला, निश्चित करने के लिये दूसरा हार ढूढा तो वह भी था। दो हार थे। वह सोचने लगी, अरे यह तो भारी हुआ, समधी जी नें इल्जाम से बचने के लिये ऐसा ही दूसरा हार बनवा कर दिया है।

तत्काल उसने स्वरूप जी को वस्तुस्थिति बताई, और कहा समधी जी तो बहुत उंचे खानदानी है। ऐसे समधी खोना तो रत्न खोने के समान है। आप पुनः जाईए, उन्हें हार वापस लौटा कर और समझा कर रिश्ता पुनः जोड कर आईए। ऐसा रिश्ता बार बार नहीं मिलता।

स्वरूप जी पुनः दुविधा में फंस गये, पर ऐसे विवेकवान समधी से पुनः सम्बंध जोडने का प्रयास उन्हे भी उचित लग रहा था। सफलता में उन्हें भी संदेह था पर सोचा एक कोशीश तो करनी ही चाहिए।

स्वरूप जी, गोपाल जी के यहां पहूँचे, गोपाल जी समझ गये कि शायद पुराना हार मिल चुका होगा।

स्वरूप जी ने क्षमायाचना करते हुए हार सौपा और अनुनय करने लगे कि जल्दबाजी में हमारा सोचना गलत था। आप हमारी भूलों को क्षमा कर दिजिए, और उसी सम्बंध को पुनः कायम किजिए।

गोपाल जी नें कहा देखो स्वरूप जी यह रिश्ता तो अब हो नहीं सकता, आपके घर में शक्की और जल्दबाजी के संस्कार है जो कभी भी मेरे घर के संस्कारो को प्रभावित कर सकते है।

लेकिन मैं आपको निराश नहीं करूंगा। मैं अपनी बेटी का रिश्ता आपके बेटे के लिये देता हूँ, मेरी बेटी में वो संस्कार है जो आपके परिवार को भी सुधार देने में सक्षम है। मुझे अपने संस्कारो पर पूरा भरोसा है। पहले रिश्ते में जहां दो घर बिगडने की सम्भावनाएं थी, वहां यह नया रिश्ता दोनो घर सुधारने में सक्षम होगा। स्वरूप जी की आंखे ऐसा हितैषी पाकर छल छला आई।

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: अष्टाविंश अध्यायः श्लोक 36-44 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: अष्टाविंश अध्यायः श्लोक 36-44 का हिन्दी अनुवाद

योगाभ्यास से प्राप्त हुई चित्त की इस अविद्यारहित लयरूप निवृत्ति से अपनी सुख-दुःख रहित ब्रह्मरूप महिमा में स्थित होकर परमात्मतत्त्व का साक्षात्कार कर लेने पर वह योगी जिस सुख-दुःख के भोक्तृत्व को पहले अज्ञानवश अपने स्वरूप में देखता था, उसे अब अविद्याकृत अहंकार में ही देखता है। जिस प्रकार मदिरा के मद से मतवाले पुरुष को अपनी कमर पर लपेटे हुए वस्त्र के रहने या गिरने की कुछ भी सुधि नहीं रहती, उसी प्रकार चरमावस्था को प्राप्त हुए सिद्ध पुरुष को भी अपनी देह के बैठने-उठने अथवा दैववश कहीं जाने या लौट आने के विषय में कुछ भी ज्ञान नहीं रहता; क्योंकि वह अपने परमानन्दमयस्वरूप में स्थित है। 

उसका शरीर तो पूर्वजन्म के संस्कारों के अधीन है; अतः जब तक उसका आरम्भक प्रारब्ध शेष है, तक तक वह इन्द्रियों के सहित जीवित रहता है; किन्तु जिसे समाधिपर्यन्त योग की स्थिति प्राप्त हो गयी है और जिसने परमात्मतत्त्व को भी भलीभाँति जान लिया है, वह सिद्धपुरुष पुत्र-कलत्रादि के सहित इस शरीर को स्वप्न में प्रतीत होने वाले शरीरों के समान फिर स्वीकार नहीं करता-फिर उसमें अहंता-ममता नहीं करता। जिस प्रकार अत्यन्त स्नेह के कारण पुत्र और धनादि में भी साधारण जीवों की आत्मबुद्धि रहती है, किन्तु थोड़ा-सा विचार करने से ही वे उनसे स्पष्टतया अलग दिखायी देते हैं, उसी प्रकार जिन्हें यह अपना आत्मा मान बैठा है, उन देहादि से भी उनका साक्षी पुरुष पृथक् ही है। जिस प्रकार जलती हुई लकड़ी से, चिनगारी से, स्वयं अग्नि से ही प्रकट हुए धुंएँ से तथा अग्निरूप मानी जाने वाली उस जलती हुई लकड़ी से ही अग्नि वास्तव में पृथक् ही है-उसी प्रकार भूत, इन्द्रिय और अन्तःकरण से उनका साक्षी आत्मा अलग है तथा जीव कहलाने वाले उस आत्मा से भी ब्रह्म भिन्न है और प्रकृति से उसके संचालक पुरुषोत्तम भिन्न हैं। 

जिस प्रकार देहदृष्टि से जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उद्भिज्ज-चारों प्रकार के प्राणी पंचभूत मात्र हैं, उसी प्रकार सम्पूर्ण जीवों में आत्मा को और आत्मा में सम्पूर्ण जीवों को अनन्यभाव से अनुगत देखे। जिस प्रकार एक ही अग्नि अपने पृथक्-पृथक् आश्रयों में उनकी विभिन्नता के कारण भिन्न-भिन्न आकार का दिखायी देता है, उसी प्रकार देव-मनुष्यादि शरीरों में रहने वाला एक ही आत्मा अपने आश्रयों के गुण-भेद के कारण भिन्न-भिन्न प्रकार का भासता है। अतः भगवान् का भक्त जीव के स्वरूप को छिपा देने वाली कार्यकारणरूप से परिणाम को प्राप्त हुई भगवान् की इस अचिन्त्य शक्तिमयी माया को भगवान् की कृपा से ही जीतकर अपने वास्तविक स्वरूप-ब्रह्मरूप में स्थित होता है।
साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: अष्टाविंश अध्यायः श्लोक 29-35 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: अष्टाविंश अध्यायः श्लोक 29-35 का हिन्दी अनुवाद

भक्तों पर कृपा करने के लिये ही यहाँ साकाररूप धारण करने वाले श्रीहरि के मुखकमल का ध्यान करे, जो सुधड़ नासिका से सुशोभित है और झिलमिलाते हुए मकराकृत कुण्डलों के हिलने से अतिशय प्रकाशमान स्वच्छ कपोलों के कारण बड़ा ही मनोहर जान पड़ता है। काली-काली घुँघराली अलकावली से मण्डित भगवान् का मुखमण्डल अपनी छवि के द्वारा भ्रमरों से सेवित कमलकोश का भी तिरस्कार कर रहा है और उसके कमलसदृश विशाल एवं चंचल नेत्र उस कमलकोश पर उछलते हुए मछलियों के जोड़े की शोभा को मात कर रहे हैं। उन्नत भ्रूलताओं से सुशोभित भगवान् के ऐसे मनोहर मुखारविन्द की मन में धारणा करके आलस्यरहित हो उसी का ध्यान करे। हृदयगुहा में चिरकाल तक भक्तिभाव से भगवान् के नेत्रों की चितवन का ध्यान करना चाहिये, जो कृपा से और प्रेमभरी मुस्कान से क्षण-क्षण अधिकाधिक बढ़ती रहती है, विपुल प्रसाद की वर्षा करती रहती है और भक्तजनों के अत्यन्त घोर तीनों तापों को शान्त करने के लिये ही प्रकट हुई है। 

श्रीहरि का हास्य प्रणतजनों के तीव्र-से-तीव्र शोक के अश्रु सागर को सुखा देता है और अत्यन्त उदार है। मुनियों के हित के लिये कामदेव को मोहित करने के लिये ही अपनी माया से श्रीहरि ने अपने भ्रूमण्डल को बनाया है-उनका ध्यान करना चाहिये। अत्यन्त प्रेमार्द्रभाव से अपने हृदय में विराजमान श्रीहरि के खिलखिलाकर हँसने का ध्यान करे, जो वस्तुतः ध्यान के ही योग है तथा जिसमें ऊपर और नीचे के दोनों होठों की अत्यधिक अरुण कान्ति के कारण उनके कुन्दकली के समान शुभ्र छोटे-छोटे दाँतों पर लालिमा-सी प्रतीत होने लगी है। इस प्रकार ध्यान में तन्मय होकर उनके सिवा किसी अन्य पदार्थ को देखने की इच्छा न करे। इस प्रकार के ध्यान के अभ्यास से साधक का श्रीहरि में प्रेम हो जाता है, उसका हृदय भक्ति से द्रवित हो जाता है, शरीर में आनन्दातिरेक के कारण रोमांच होने लगता है, उत्कण्ठाजनित प्रेमाश्रूओं की धारा में वह बारम्बार अपने शरीर को नहलाता है और फिर मछली पकड़ने के काँटे के समान श्रीहरि को अपनी ओर आकर्षित करने के साधनरूप अपने चित्त को भी धीरे-धीरे ध्येय वस्तु को हटा लेता है। जैसे तेज आदि के चूक जाने पर दीपशिखा अपने कारणरूप तेजस्-तत्त्व में लीन हो जाती है, वैसे ही आश्रय, विषय और राग से रहित होकर मन शान्त-ब्रह्माकार हो जाता है। इस अवस्था के प्राप्त होने पर जीव गुण प्रवाहरूप देहादि उपाधि के निवृत्त हो जाने के कारण ध्याता, ध्येय आदि विभाग से रहित एक अखण्ड परमात्मा को ही सर्वत्र अनुगत देखता है।
साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: अष्टाविंश अध्यायः श्लोक 17-28 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: अष्टाविंश अध्यायः श्लोक 17-28 का हिन्दी अनुवाद


उनकी अति सुन्दर किशोर अवस्था है, वे भक्तों पर कृपा करने के लिये आतुर हो रहे हैं। बड़ी मनोहर झाँकी है। भगवान् सदा सम्पूर्ण लोकों से वन्दित हैं। उनका पवित्र यश परम कीर्तनीय है और वे राजा बलि आदि परम यशस्वियों के भी यश को बढ़ाने वाले हैं। इस प्रकार श्रीनारायणदेव का सम्पूर्ण अंगों के सहित तब तक ध्यान करे, जब तक चित्त वहाँ से हटे नहीं। भगवान् की लीलाएँ बड़ी दर्शनीय हैं, अतः अपनी रुचि के अनुसार खड़े हुए, चलते हुए, बैठे हुए, पौढ़े हुए अथवा अन्तर्यामीरूप से स्थित हुए उनके स्वरूप का विशुद्ध भावयुक्त चित्त से चिन्तन करे। इस प्रकार योगी जब यह अच्छी तरह देख ले कि भगवद्विग्रह में चित्त की स्थिति हो गयी, तब वह उनके समस्त अंगों में लगे हुए चित्त को विशेष रूप से एक-एक अंग में लगावे।

भगवान् के चरणकमलों का ध्यान करना चाहिये। वे वज्र, अंकुश, ध्वजा और कमल के मंगलमय चिह्नों से युक्त हैं तथा अपने उभरे हुए लाल-लाल शोभामय नखचन्द्रमण्डल की चन्द्रिका से ध्यान करने वालों के हृदय के अज्ञानरूप घोर अन्धकार को दूर कर देते हैं। इन्हीं की धोवन से नदियों में श्रेष्ठ श्रीगंगा जी प्रकट हुई थीं, जिनके पवित्र मंगलरूप श्रीमहादेव जी और भी अधिक मंगलमय हो गये। ये अपना ध्यान करने वालों के पापरूप पर्वतों पर छोड़े हुए इन्द्र के वज्र के समान हैं। भगवान् के इन चरणकमलों का चिरकाल तक चिन्तन करे। भवभयहारी अजन्मा श्रीहरि की दोनों पिंडलियों एवं घुटनों का ध्यान करे, जिनको विश्वविधाता ब्रह्मा जी की माता सुरवन्दिता कमललोचना लक्ष्मी जी अपनी जाँघों पर रखकर अपने कान्तिमान् करकिसलयों की कान्ति से लाड़ लड़ाती रहती हैं।

भगवान् की जाँघों का ध्यान करे, जो अलसी के फूल के समन नीलवर्ण और बल की निधि हैं तथा गरुड़ जी की पीठ पर शोभायमान हैं। भगवान् के नितम्बबिम्ब का ध्यान करे, जो एड़ी तक लटके हुए पीताम्बर से ढका हुआ है और उस पीताम्बर के ऊपर पहली हुई सुवर्णमयी करधनी की लड़ियों को आलिंगन कर रहा है। सम्पूर्ण लोकों के आश्रयस्थान भगवान् के उदर देश में स्थित नाभि सरोवर का ध्यान करे; इसी में से ब्रह्मा जी का आधारभूत सर्वलोकमय कमल प्रकट हुआ है। फिर प्रभु के श्रेष्ठ मरकतमणि सदृश दोनों स्तनों का चिन्तन करे, जो वक्षःस्थल पर पड़े हुए शुभ्र हारों की किरणों से गौरवर्ण जान पड़ते हैं। इसके पश्चात् पुरुषोत्तम भगवान् के वक्षःस्थल का ध्यान करे, जो महालक्ष्मी का निवासस्थान और लोगों के मन एवं नेत्रों को आनन्द देने वाला है।

फिर सम्पूर्ण लोकों के वन्दनीय भगवान् के गले का चिन्तन करे, जो मानो कौस्तुभ मणि को भी सुशोभित करने के लिये ही उसे धारण करता है। समस्त लोकपालों की आश्रयभूता भगवान् की चारों भुजाओं का ध्यान करे, जिनमें धारण किये हुए कंकणादि आभूषण समुद्र मन्थन के समय मन्दराचल की रगड़ से और भी उजले हो गये हैं। इसी प्रकार जिसके तेज को सहन नहीं किया जा सकता, उस सहस्र धारों वाले सुदर्शन चक्र का तथा उनके करकमल के राजहंस के समान विराजमान शंख का चिन्तन करे। फिर विपक्षी वीरों के रुधिर से सनी हुई प्रभु की प्यारी कौमोदकी गदा का, भौरों के शब्द से गुंजायमान वनमाला का और उनके कण्ठ में सुशोभित सम्पूर्ण जीवों के निर्मल तत्त्वरूप कौस्तुभ मणि का ध्यान करे।

चिन्तन

चिन्तन

👉 मानसिक रोगों का एक कारण मनोविज्ञानी आत्म केन्द्रित होना बताते हैं। व्यक्ति जितना आत्म केन्द्रित होगा, उतनी ही मानस रोग एवं शारीरिक रोग की संभावना उसमें बढ़ जाएगी। संभवत: इस तथ्य से हमारे प्राचीन ऋषि परिचित रहे होंगे । इसलिए "आत्मवत सर्वभूतेषु" और "वसुधैव कुटुम्बकम्" जैसे सिद्धान्त-वाक्यों के पीछे उनका एक भाव व्यक्ति और सामाज को आत्मकेन्द्रित होने से बचाना भी होगा, ताकि स्वरुप मन और स्वस्थ शरीर वाले व्यक्ति और समाज की रचना की जा सके।

👉 पिछले सौ-डेढ़ सौ वर्षों से संसार में स्वार्थपरता की वृद्धि के साथ ही ईश्वर से विमुखता का भाव भी जोर पकड रहा था। अब कई बार ठोकरें खाने के बाद संसार को विशेष रुप से सबसे धनी और ऐश्वर्यशाली देशों को फिर से ईश्वर की याद आ रही है। केवल धन से ही सुख तथा शान्ति नहीं मिलती। इसके लिए चित्त की शुद्धता बिना विवेक के संभव नहीं और विवेक धर्म तथा ईश्वर के ज्ञान से ही उत्पन्न हो सकता है। 


👉 मनुष्य चाहे समाज की दृष्टि से बचकर चुपचाप कोई पाप कर डाले, जंगल में छिपकर किसी की हत्या कर डाले, रात के घनघोर अन्धकार में पाप कर ले, लेकिन सर्वव्यापक परमात्मा की दिनरात, भीतर बाहर सब ओर देखने वाली असंख्य दृष्टियों से नहीं बच सकता। घर, बाहर, जंगल, समुद्र, आकाश, व्यवहार, व्यापार सर्वत्र ईश्वर ही ईश्वर है। आप की अलग कोई सत्ता नहीं है। आप स्वयं ही अपने अन्दर परमात्मा को बसाये हुए हैं।

👉 जिस प्रकार शरीर के रोग हैं उसी प्रकार मन के रोग भी हैं और वे मनुष्य की कल्पना से ही जन्म लेते हैं। जब मन में क्रोध होता है तो किसी से बदला लेने की इच्छा होती है। ईर्ष्या होती है तो मन अशान्त हो जाता है और मन दु:खी रहता है। अनेक लोग दुसरों को झूठ-मूँठ शत्रु अथवा प्रतियोगी समझकर दुख पाते हैं। जिस मनुष्य ने अपने जीवन में अनेक अत्याचार किये हैं वह भी मरने के समय उनकी स्मृति से अत्यन्त दु:ख को प्राप्त होता है। चुगलखोर के मन में एक प्रकार की खुजलाहट बनी रहती है जो उसके मन को सदैव अशान्त रखती है।


पं श्रीराम शर्मा आचार्य

बड़े मर्द बनते हो?


बड़े मर्द बनते हो?

आज हमेंशा की तरह ट्रेन में कम भीड़ थी। पुष्पा ने खाली जगह पर अपना ऑफिस बैग रखा और खुद बगल में बैठ गई। पूरे डिब्बे में कुछ मर्दों के अलावा सिर्फ पुष्पा ही थी। रात का समय था, सब उनींदे से सीट पर टेक लगाये या तो बतिया रहे थे या ऊंघ रहे थे।

अचानक डिब्बे में 3-4 तृतीय लिंगी तालियां बजाते हुए पहुंचे और मर्दों से 5-10 रूपये वसूलने लगे। कुछ ने चुपचाप दे दिए और कुछ उनींदे से बड़बड़ाने लगे- क्या मौसी रात को तो छोड़ दिया करो, ये हफ्ता वसूली... । वह सभी पुष्पा की तरफ रुख न करते हुए सीधा आगे बढ़ गए, फिर ट्रेन कुछ देर रुकी और कुछ लड़के चढ़े, फिर दौड़ ली आगे की ओर।

पुष्पा की मंजिल अभी 1 घंटे के फासले पर थी। वे 4-5 लड़के पुष्पा के नजदीक खड़े हो गए और उनमे से एक ने नीचे से उपर तक पुष्पा को ललचाई नजरो से देखा और बोला -मैडम अपना ये बैग तो उठा लो, सीट बैठने के लिए है, सामान रखने के लिए नहीं।

साथी लड़कों ने वीभत्स हंसी से उसका साथ दिया, पुष्पा ने अपना बैग उठाया और सीट पर सिमट कर बैठ गई। वे सारे लड़के पुष्पा के बगल में आकर बैठ गए।

पुष्पा ने कातर नजरों से सामने बैठे 2-3 पुरुषों की ओर देखा पर वे ऐसा जाहिर करने लगे मानो पुष्पा का कोई अस्तित्व ही ना हो। तभी पास बैठे लड़के ने पुष्पा की बांह पर अपनी ऊंगली फेरी तो बाकी लड़कों ने फिर उसी वीभत्स हंसी से उसका उत्साहवर्धन किया।

ओ मिस्टर थोड़ा तमीज में रहिये- पुष्पा सीट से उठ खड़ी हुई और ऊंची आवाज में बोली। डिब्बे के सभी मर्द अब भी अपनी अपनी मोबाइल में विचरण कर रहे थे। किसी के मुंह से कुछ नहीं निकला।

अरे..अरे मैडम तो गुस्सा हो गईं, अरे बैठ जाइये मैडम, आपकी और हमारी मंजिल अभी दूर है। तब तक हम आपका मनोरंजन करते रहेंगे, कत्थई दांतों वाला लड़का पुष्पा का हाथ पकड़कर बोला।

डिब्बे की सारीं सीटों पर मानो पत्थर की मूर्तियां विराजमान थी। तभी...अरे तूं क्या मनोरंजन करेगा? हम करतें हैं तेरा मनोरंजन।

शबाना उठा रे लहंगा, ले इस चिकने को लहंगे में बड़ी जवानी चढ़ी है इसे। आय हाय मुंह तो देखो सुअरों का, कुतिया भी ना चाटे। इनके बदन में बड़ी मस्ती चढ़ी है, अरे वो जूली उतारो इनके कपड़े, पूरी मस्ती निकालते हैं, इन कमीनों की।

जूली नाम का भयंकर डीलडौल वाला तृतीय लिंगी जब उन लड़कों की तरफ बढ़ा तो सभी लड़के डिब्बे के दरवाजे की ओर भाग निकले और धीमे चलती ट्रेन से बाहर कूद पड़े।
पुष्पा की भीगी आंखों ने अपनी सुरक्षा करने के लिए सिर झुकाकर उन सभी तृतीय लिगिंयों का अभिवादन किया और फिर नजर जब डिब्बे के कथित मर्दों की तरफ पड़ी जो अपनी आंखे झुकाएं अपनी मोबाइल में व्यस्त थे।

और असली मर्द तालियां बजाते आगे की ओर बढ़ गये।


कौन है, असली मर्द??

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: अष्टाविंश अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: अष्टाविंश अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद

अष्टांगयोग की विधि

कपिल भगवान् कहते हैं- माताजी! अब मैं तुम्हें सबीज (धयेयस्वरूप के आलम्बन से युक्त) योग का लक्षण बताता हूँ, जिसके द्वारा चित्त शुद्ध एवं प्रसन्न होकर परमात्मा के मार्ग में प्रवृत्त हो जाता है। यशाशक्ति शास्त्रविहित स्वधर्म का पालन करना तथा शास्त्रविरुद्ध आचरण का परित्याग करना, प्रारब्ध के अनुसार जो कुछ मिल जाये, उसी में सन्तुष्ट रहना आत्मज्ञानियों के चरणों की पूजा करना, विषय-वासनाओं को बढ़ाने वाले कर्मों से दूर रहना, संसारबन्धन से छुड़ाने वाले धर्मों में प्रेम करना, पवित्र और परिमित भोजन करना, निरन्तर एकान्त और निर्भय स्थान में रहना, मन, वाणी और शरीर से किसी जीव को न सताना, सत्य बोलना, चोरी न करना, आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह न करना, ब्रह्मचर्य का पालन करना, तपस्या करना (धर्मपालन के लिये कष्ट सहना), बाहर-भीतर से पवित्र रहना, शास्त्रों का अध्ययन करना, भगवान् की पूजा करना, वाणी का संयम करना, उत्तम आसनों का अभ्यास करके स्थिरतापूर्वक बैठना, धीरे-धीरे प्राणायाम के द्वारा श्वास को जीतना, इन्द्रियों को मन के द्वारा विषयों से हटाकर अपने हृदय में ले जाना। मूलाधार आदि किसी एक केन्द्र में मन के सहित प्राणों को स्थिर करना, निरन्तर भगवान् की लीलाओं का चिन्तन और चित्त को समाहित करना। उनसे तथा व्रत-दानादि दूसरे साधनों से भी सावधानी के साथ प्राणों को जीतकर बुद्धि के द्वारा अपने कुमार्गगामी दुष्टचित्त को धीरे-धीरे एकाग्र करे, परमात्मा के ध्यान में लगावे। पहले आसन को जीते, फिर प्राणायाम के अभ्यास के लिये पवित्र देश में कुश-मृगचर्मादि युक्त आसन बिछावे। उस पर शरीर को सीधा और स्थिर रखते हुए सुखपूर्वक बैठकर अभ्यास करे।

आरम्भ में बायें नासिका से पूरक, कुम्भक और रेचक करे, फिर इसके विपरीत दाहिनी नासिका से प्राणायाम करके प्राण के मार्ग का शोधन करे-जिससे चित्त स्थिर और निश्चल हो जाये। जिस प्रकार वायु और अग्नि से तपाया हुआ सोना अपने मल को त्याग देता है, उसी प्रकार जो योगी प्राण वायु को जीत लेता है, उसका मन बहुत शीघ्र शुद्ध हो जाता है। अतः योगी को उचित है कि प्राणायाम से वात-पित्तादिजनित दोषों को, धारणा से पापों को, प्रत्याहार से विषयों के सम्बन्ध को और ध्यान से भगवद्विमुख करने वाले राग-द्वेषादि दुर्गुणों को दूर करे। जब योग का अभ्यास करते-करते चित्त निर्मल और एकाग्र हो जाये, तब नासिका के अग्रभाग में दृष्टि जमाकर इस प्रकार भगवान् की मूर्ति का ध्यान करे। भगवान् का मुखकमल आनन्द से प्रफुल्ल है, नेत्र कमलकोश के समान रतनारे हैं, शरीर नीलकमलदल के समान श्याम हैं; हाथों में शंख, चक्र और गदा धारण किये हैं। कमल की केसर के समान पीला रेशमी वस्त्र लहरा रहा है, वक्षःस्थल में श्रीवत्स चिह्न है और गले में कौस्तुभ मणि झिलमिला रही है। वनमाला चरणों तक लटकी हुई है, जिसके चारों ओर भौंरे सुगन्ध से मतवाले होकर मधुर गुंजार कर रहे हैं; अंग-प्रत्यंग में महामूल्य हार, कंकण, किरीट, भुजबन्ध और नूपुर आदि आभूषण विराजमान हैं। कमर में करधनी की लड़ियाँ उसकी शोभा बढ़ा रही हैं; भक्तों के हृदयकमल ही उनके आसन हैं, उनक दर्शनीय श्यामसुन्दरस्वरूप अत्यन्त शान्त एवं मन और नयनों को आनन्दित करने वाला है।



साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: सप्तविंश अध्यायः श्लोक 17-30 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: सप्तविंश अध्यायः श्लोक 17-30 का हिन्दी अनुवाद

देवहूति ने पूछा- प्रभो! पुरुष और प्रकृति दोनों ही नित्य और एक-दूसरे के आश्रय से रहने वाले हैं, इसलिये प्रकृति तो पुरुष को कभी छोड़ ही नहीं सकती। ब्रह्मन्! जिस प्रकार गन्ध और पृथ्वी तथा रस और जल की पृथक्-पृथक् स्थिति नहीं हो सकती, उसी प्रकार पुरुष और प्रकृति भी एक-दूसरे को छोड़कर नहीं जा सकते। अतः जिनके आश्रय से अकर्ता पुरुष को यह कर्मबन्धन प्राप्त हुआ है, उन प्रकृति के गुणों के रहते हुए उसे कैवल्य कैसे प्राप्त होगा? यदि तत्त्वों का विचार करने से कभी यह संसार बन्धन का तीव्र भय निवृत्त हो भी जाये, तो भी उसके निमित्तभूत प्राकृत गुणों का अभाव न होने से वह भय फिर उपस्थित हो सकता है।

श्रीभगवान् ने कहा- माताजी! जिस प्रकार अग्नि का उत्पत्तिस्थान अरणि अपने से ही उत्पन्न अग्नि से जलकर भस्म हो जाता है, उसी प्रकार निष्काम भाव से किये हुए स्वधर्मपालन द्वारा अन्तःकरण शुद्ध होने से बहुत समय तक भगवत्कथा-श्रवण द्वारा पुष्ट हुई मेरी तीव्र भक्ति से, तत्त्व साक्षात्कार कराने वाला ज्ञान से, प्रबल वैराग्य से, व्रत नियमादि के सहित किये हुए ध्यानाभ्यास से और चित्त की प्रगाढ़ एकाग्रता से पुरुष की प्रकृति (अविद्या) दिन-रात क्षीण होती हुई धीरे-धीरे लीन हो जाती है। फिर नित्य प्रति दोष दीखने से भोगकर त्यागी हुई वह प्रकृति अपने स्वरूप में स्थित और स्वतन्त्र (बन्धनमुक्त) हुए उस पुरुष का कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती। जैसे सोये हुए पुरुष को स्वप्न में कितने ही अनर्थों का अनुभव करना पड़ता है, किन्तु जग पड़ने पर उसे उन स्वप्न के अनुभवों से किसी प्रकार का मोह नहीं होता। उसी प्रकार जिसे तत्त्वज्ञान हो गया है और जो निरन्तर मुझमें ही मन लगाये रहता है, उस आत्माराम मुनि का प्रकृति कुछ भी बिगाड़ सकती। जब मनुष्य अनेकों जन्मों में बहुत समय तक इस प्रकार आत्मचिन्तन में ही निमग्न रहता है, तब उसे ब्रह्मलोक-पर्यन्त सभी प्रकार के भोगों से वैराग्य हो जाता है। मेरा वह धर्यवान् भक्त मेरी ही महती कृपा से तत्त्वज्ञान प्राप्त करके आत्मानुभव के द्वारा सारे संशयों से मुक्त हो जाता है और फिर लिंगदेह का नाश होने पर एकमात्र मेरे ही आश्रित अपने स्वरूपभूत कैवल्य संज्ञक मंगलमय पद को सहज में ही प्राप्त कर लेता है, जहाँ पहुँचने पर योगी फिर लौटकर नहीं आता। माताजी! यदि योगी का चित योगसाधना से बढ़ी हुई मायामयी अणिमादि सिद्धियों में, जिनकी प्राप्ति का योग के सिवा दूसरा कोई साधन नहीं है, नहीं फँसता, तो उसे मेरा वह अविनाशी परमपद प्राप्त होता है-जहाँ मृत्यु की कुछ भी दाल नहीं गलती।


साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: सप्तविंश अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: सप्तविंश अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद

प्रकृति-पुरुष के विवेक से मोक्ष-प्राप्ति का वर्णन.

श्रीभगवान् कहते हैं- माताजी! जिस तरह जल में प्रतिबिम्ब सूर्य के साथ जल में शीतलता, चंचलता आदि गुणों का सम्बन्ध नहीं होता, उसी प्रकार प्रकृति के कार्य शरीर में स्थित रहने पर भी आत्मा वास्तव में उसके सुख-दुःखादि धर्मों से लिप्त नहीं होता; क्योंकि वह स्वभाव से निर्विकार, अकर्ता और निर्गुण है। किन्तु जब वही प्राकृत गुणों से अपना सम्बन्ध स्थापित कर लेता है, तब अहंकार से मोहित होकर ‘मैं कर्ता हूँ’-ऐसा मानने लगता है। उस अभिमान के कारण वह देह के संसर्ग से किये हुए पुण्य-पापरूप कर्मो के दोष से अपनी स्वाधीनता और शान्ति खो बैठता है तथा उत्तम, मध्यम और नीच योनियों में उत्पन्न होकर संसार चक्र में घूमता रहता है। जिस प्रकार स्वप्न के पदार्थों में आस्था हो जाने के कारण दुःख उठाना पड़ता है, उसी प्रकार भय-शोक, अहं-मम एवं जन्म-मरणादिरूप संसार की कोई सत्ता न होने पर भी अविद्यावश विषयों का चिन्तन करते रहने से जीव का संसार-चक्र कभी निवृत्त नहीं होता। इसलिये बुद्धिमान् मनुष्य को उचित है कि असन्मार्ग (विषय-चिन्तन) में फँसे हुए चित्त को तीव्र भक्तियोग और वैराग्य के द्वारा धीरे-धीरे अपने वश में लावे।

यमादि योग साधनों के द्वारा श्रद्धापूर्वक अभ्यास-चित्त को बारम्बार एकाग्र करते हुए मुझमें सच्चा भाव रखने, मेरी कथा श्रवण करने, समस्त प्राणियों में समभाव रखने, किसी से वैर न करने, आसक्ति के त्याग, ब्रह्मचर्य, मौन-व्रत और बलिष्ठ (अर्थात् भगवान् को समर्पित किये हुए) स्वधर्म से जिसे ऐसी स्थिति प्राप्त हो गयी है कि-प्रारब्ध के अनुसार जो कुछ मिल जाता है उसी में सन्तुष्ट रहता है, परिमित भोजन करता है, सदा एकान्त में रहता है, शान्त स्वभाव है, सबका मित्र है, दयालु और धर्यवान् है, प्रकृति और पुरुष के वास्तविक स्वरूप के अनुभव से प्राप्त हुए तत्त्वज्ञान के कारण स्त्री-पुत्रादि सम्बन्धियों के सहित इस देह में मैं-मेरेपन का मिथ्या अभिनिवेश नहीं करता, बुद्धि की जाग्रदादि अवस्थाओं से भी अलग हो गया है तथा परमात्मा के सिवा और कोई वस्तु नहीं देखता-वह आत्मदर्शी मुनि नेत्रों से सूर्य को देखने कि भाँति अपने शुद्ध अन्तःकरण द्वारा परमात्मा का साक्षात्कार कर उस अद्वितीय ब्रह्मपद को प्राप्त हो जाता है, जो देहादि सम्पूर्ण उपाधियों से पृथक्, अहंकारादि मिथ्या वस्तुओं में सत्यरूप से भासने वाला, जगत्कारणभूता प्रकृति का अधिष्ठान, महदादि कार्य-वर्ग का प्रकाशक और कार्य-कारणरूप सम्पूर्ण पदार्थों में व्याप्त है। जिस प्रकार जल में पड़ा हुआ सूर्य का प्रतिबिम्ब दीवाल पर पड़े हुए अपने आभास के सम्बन्ध से देखा जाता है और जल में दीखने वाले प्रतिबिम्ब से आकाशास्थित सूर्य का ज्ञान होता है, उसी प्रकार वैकारिक आदि भेद से तीन प्रकार का अहंकार देह, इन्द्रिय और मन में स्थित अपने प्रतिबिम्बों से लक्षित होता है और फिर सत् परमात्मा के प्रतिबिम्ब युक्त उस अहंकार के द्वारा सत्य ज्ञानस्वरूप परमात्मा का दर्शन होता है-जो सुषुप्ति के समय निद्रा से शब्दादि भूतसूक्ष्म, इन्द्रिय और मनबुद्धि आदि के अव्याकृत में लीन हो जाने पर स्वयं जागता रहता है और सर्वथा अहंकार शून्य है। (जाग्रत्-अवस्था में यह आत्मा भूत-सूक्ष्मादि दृश्य वर्ग के द्रष्टारूप में स्पष्टतया अनुभव में आता है; किन्तु) सुषुप्ति के समय अपने उपाधिभूत अहंकार का नाश होने से वह भ्रमवश अपने को ही नष्ट हुआ मान लेता है और जिस प्रकार धन का नाश हो जाने पर मनुष्य अपने को ही नष्ट हुआ मानकर अत्यन्त व्याकुल हो जाता है, उसी प्रकार वह भी अत्यन्त विवश होकर नष्टवत् हो जाता है। माताजी! इन सब बातों का मनन करके विवेकी पुरुष अपने आत्मा का अनुभव कर लेता है, जो अहंकार के सहित सम्पूर्ण तत्त्वों का अधिष्ठान और प्रकाशक है।

साभार krishnakosh.org

मूर्ख कौन?


मूर्ख कौन?

ज्ञानचंद नामक एक जिज्ञासु भक्त था। वह सदैव प्रभुभक्ति में लीन रहता था। रोज सुबह उठकर पूजा- पाठ, ध्यान-भजन करने का उसका नियम था। उसके बाद वह दुकान में काम करने जाता। दोपहर के भोजन के समय वह दुकान बंद कर देता और फिर दुकान नहीं खोलता था।

बाकी के समय में वह साधु- संतों को भोजन करवाता, गरीबों की सेवा करता, साधु- संग एवं दान-पुण्य करता। व्यापार में जो भी मिलता उसी में संतोष रखकर प्रभुप्रीति के लिए जीवन बिताता था।

उसके ऐसे व्यवहार से लोगों को आश्चर्य होता और लोग उसे पागल समझते। लोग कहतेः "यह तो महामूर्ख है। कमाये हुए सभी पैसों को दान में लुटा देता है। फिर दुकान भी थोड़ी देर के लिए ही खोलता है। सुबह का कमाई करने का समय भी पूजा- पाठ में गँवा देता है। यह तो पागल ही है।"

एक बार गाँव के नगरसेठ ने उसे अपने पास बुलाया। उसने एक लाल टोपी बनायी थी। नगरसेठ ने वह टोपी ज्ञानचंद को देते हुए कहाः "यह टोपी मूर्खों के लिए है। तेरे जैसा महान् मूर्ख मैंने अभी तक नहीं देखा, इसलिए यह टोपी तुझे पहनने के लिए देता हूँ। इसके बाद यदि कोई तेरे से भी ज्यादा बड़ा मूर्ख दिखे तो तू उसे पहनने के लिए दे देना।"

ज्ञानचंद शांति से वह टोपी लेकर घर वापस आ गया। एक दिन वह नगर सेठ खूब बीमार पड़ा। ज्ञानचंद उससे मिलने गया और उसकी तबीयत के हालचाल पूछे। नगरसेठ ने कहाः "भाई ! अब तो जाने की तैयारी कर रहा हूँ।"

ज्ञानचंद ने पूछाः "कहाँ जाने की तैयारी कर रहे हो? वहाँ आपसे पहले किसी व्यक्ति को सब तैयारी करने के लिए भेजा कि नहीं? आपके साथ आपकी स्त्री, पुत्र, धन, गाड़ी, बंगला वगैरह आयेगा कि नहीं?"

"भाई ! वहाँ कौन साथ आयेगा? कोई भी साथ नहीं आने वाला है। अकेले ही जाना है। कुटुंब-परिवार, धन-दौलत, महल-गाड़ियाँ सब छोड़कर यहाँ से जाना है ।आत्मा-परमात्मा के सिवाय किसी का साथ नहीं रहने वाला है।"

सेठ के इन शब्दों को सुनकर ज्ञानचंद ने खुद को दी गयी वह लाल टोपी नगरसेठ को वापस देते हुए कहाः "आप ही इसे पहनो।"

नगरसेठः "क्यों?"

ज्ञानचंदः "मुझसे ज्यादा मूर्ख तो आप हैं। जब आपको पता था कि पूरी संपत्ति, मकान, परिवार वगैरह सब यहीं रह जायेगा, आपका कोई भी साथी आपके साथ नहीं आयेगा, भगवान के सिवाय कोई भी सच्चा सहारा नहीं है, फिर भी आपने पूरी जिंदगी इन्हीं सबके पीछे बरबाद कर दी?"

जैसी सोच, वैसा कर्म.


जैसी सोच,
वैसा कर्म.

समय बड़ा विचित्र है न ये समय। कहा जाय तो एक भाव है, एक संख्या है, एक विषय है, अब देखिये न, सूर्योदय सबका एक साथ होता है, है न? किसी का आगे किसी का पीछे तो नहीं होता न? सूर्यास्त भी सबका एक साथ होता है? अब सोचिये यही समय सबके लिये भिन्न-भिन्न है। किसी के लिये यही समय अच्छा है, तो किसी के लिये यही समय बुरा है। अभी इसी क्षण किसी के मुख पर सफलता का तेज है, तो किसी के मुख पर असफलता की निराशा। भला ऐसा क्यों ? क्यों ये समय किसी के लिये श्रेष्ठ है, क्यों ये समय किसी को निराश कर रहा है? इसका उत्तर है, आपकी सोच, आपके कर्म। जैसी आपकी सोच, जैसे आपके कर्म। उसी के अनुरूप होगा आपका ये सब।

आपके जीवन में सुख तभी मिलेगा जब आप किसी के जीवन में आशा की मुस्कान ला दो। आपको प्रसन्नता तभी मिलेगी, जब जीवन में आप किसी को प्रसन्न कर दो। हाँ ये हर बार नहीं कि आप किसी को प्रसन्नता दे पाओ। किन्तु ये तो आपके वश में है कि किसी को आप दुःख न पहुँचाओ, आप किसी को नाराज न करो? और आपका ये किसी को दुःख न पहुँचाने का प्रयास भी आपका कर्म ही तो है, और आपको इस शुभकर्म का फल प्रकृति आपको अवश्य देगी। स्मरण रखियेगा अच्छा समय उसी का आता है, जो कभी किसी का बुरा न चाहे।

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: षड्-विंश अध्यायः श्लोक 64-72 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: षड्-विंश अध्यायः श्लोक 64-72 का हिन्दी अनुवाद

सूर्य ने चक्षु के सहित नेत्रों में प्रवेश किया, तब भी विराट् पुरुष न उठा। दिशाओं ने श्रवणेन्द्रिय के सहित कानों में प्रवेश किया, तो भी विराट् पुरुष न उठा। ओषधियों ने रोमों के सहित त्वचा में प्रवेश किया, फिर भी विराट् पुरुष न उठा। जल ने वीर्य के साथ लिंग में प्रवेश किया, तब भी विराट् पुरुष न था। मृत्यु ने अपान के साथ गुदा में प्रवेश किया, फिर भी विराट् पुरुष न उठा। इन्द्र ने बल के साथ हाथों में प्रवेश किया, परन्तु इससे भी विराट् पुरुष न उठा। विष्णु ने गति के सहित चरणों में प्रवेश किया, तो भी विराट् पुरुष न उठा। नदियों ने रुधिर के सहित नाड़ियों में प्रवेश किया, तब भी विराट् पुरुष न उठा। समुद्र ने क्षुधा-पिपासा के सहित उदर में प्रवेश किया, फिर भी विराट् पुरुष न उठा। चन्द्रमा ने मन के सहित हृदय में प्रवेश किया, तो भी विराट् पुरुष न उठा। ब्रह्मा ने बुद्धि के सहित हृदय में प्रवेश किया, तब भी विराट् पुरुष न उठा। रुद्र ने अहंकार के सहित उसी हृदय में प्रवेश किया, तो भी विराट् पुरुष न उठा। किन्तु जब चित्त के अधिष्ठाता क्षेत्रज्ञ ने चित्त के सहित हृदय में प्रवेश किया, तो विराट् पुरुष उसी समय जल से उठकर खड़ा हो गया। जिस प्रकार लोक में प्राण, इन्द्रिय, मन और बुद्धि आदि चित्त के अधिष्ठाता क्षेत्रज्ञ की सहायता के बिना सोये हुए प्राणी को अपने बल से नहीं उठा सकते, उसी प्रकार विराट् पुरुष को भी वे क्षेत्रज्ञ परमात्मा के बिना नहीं उठा सके। अतः भक्ति, वैराग्य और चित्त की एकाग्रता से प्रकट हुए ज्ञान के द्वारा उस अन्तरात्मस्वरूप क्षेत्रज्ञ को इस शरीर में स्थित जानकर उसका चिन्तन करना चाहिये।
साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: षड्विंश अध्यायः श्लोक 51-63 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: षड्विंश अध्यायः श्लोक 51-63 का हिन्दी अनुवाद

फिर परमात्मा के प्रवेश से क्षुब्ध और आपस में मिले हुए उन तत्त्वों से एक जड़ अण्ड उत्पन्न हुआ। उस अण्ड से इस विराट् पुरुष की अभिव्यक्ति हुई। इस अण्ड का नाम विशेष है, इसी के अन्तर्गत श्रीहरि के स्वरूपभूत चौदहों भुवनों का विस्तार है। यह चारों ओर से क्रमशः एक-दूसरे से दस गुने जल, अग्नि, वायु, आकाश, अहंकार और महत्तत्त्व-इन छः अवरणों से घिरा हुआ है। इन सबके बाहर सातवाँ आवरण प्रकृति का है। कारणमय जल में स्थित उस तेजोमय अण्ड से उठकर उस विराट् पुरुष ने पुनः उसमें प्रवेश किया और फिर उसमें कई प्रकार के छिद्र किये। सबसे पहले उसमें मुख प्रकट हुआ, उससे वाक्-इन्द्रिय और उसके अनन्तर वाक् का अधिष्ठाता अग्नि उत्पन्न हुआ। फिर नाक के छिद्र (नथुने) प्रकट हुए, उनसे प्राणसहित घ्राणेन्द्रिय उत्पन्न हुई। घ्राण के बाद उसका अधिष्ठाता वायु उत्पन्न हुआ। तत्पश्चात् नेत्रगोलक प्रकट हुए, उनसे चक्षु-इन्द्रिय प्रकट हुई और उसके अनन्तर उसका अधिष्ठाता सूर्य उत्पन्न हुआ। फिर कानों के छिद्र प्रकट हुए, उनसे उनकी इन्द्रिय श्रोत और उसके अभिमानी दिग्देवता प्रकट हुए।

इसके बाद उस विराट् पुरुष के त्वचा उत्पन्न हुई। उससे रोम, मूँछ-दाढ़ी तथा सिर के बाल प्रकट हुए और उनके बाद त्वचा की अभिमानी ओषधियाँ (अन्न आदि) उत्पन्न हुईं। इसके पश्चात् लिंग प्रकट हुआ। उससे वीर्य और वीर्य के बाद लिंग का अभिमानी आपोदेव (जल) उत्पन्न हुआ। फिर गुदा प्रकट हुई, उससे अपानवायु और अपान के बाद उसका अभिमानी लोकों को भयभीत करने वाला मृत्यु देवता उत्पन्न हुआ। तदनन्तर हाथ प्रकट हुए, उनसे बल और बल के बाद हस्तेन्द्रिय का अभिमानी इन्द्र उत्पन्न हुआ। फिर चरण प्रकट हुए, उनसे गति (गमन की क्रिया) और फिर पादेन्द्रिय का अभिमानी विष्णु देवता उत्पन्न हुआ।

इसी प्रकार जब विराट् पुरुष के नाड़ियाँ प्रकट हुईं, तो उनसे रुधिर उत्पन्न हुआ और उससे नदियाँ हुई। फिर उसके उदर (पेट) प्रकट हुआ। उससे क्षुधा-पिपासा की अभिव्यक्ति हुई और फिर उदर का अभिमानी समुद्र देवता उत्पन्न हुआ। तत्पश्चात् उसके हृदय प्रकट हुआ, हृदय से मन का प्राकट्य हुआ। मन के बाद उसका अभिमानी देवता चन्द्रमा हुआ। फिर हृदय से ही बुद्धि और उसके बाद उसका अभिमानी ब्रह्मा हुआ। तत्पश्चात् अहंकार और उसके अनन्तर उसका अभिमानी रुद्र देवता उत्पन्न हुआ। इसके बाद चित्त और उसका अभिमानी क्षेत्रज्ञ प्रकट हुआ। जब ये क्षेत्रज्ञ के अतिरिक्त सारे देवता उत्पन्न होकर भी विराट् पुरुष को उठाने में असमर्थ रहे, तो उसे उठाने के लिये क्रमशः फिर अपने-अपने उत्पत्ति स्थानों में प्रविष्ट होने लगे। अग्नि ने वाणी के साथ मुख में प्रवेश किया, परन्तु इससे विराट् पुरुष न उठा। वायु ने घ्राणेन्द्रिय के सहित नासाछिद्रों में प्रवेश किया, फिर भी विराट् पुरुष न उठा।

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: षड्-विंश अध्यायः श्लोक 33-50 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: षड्-विंश अध्यायः श्लोक 33-50 का हिन्दी अनुवाद

फिर शब्दतन्मात्र के कार्य आकाश में कालगति से विकार होने पर स्पर्शतन्मात्र हुआ और उससे वायु तथा स्पर्श का ग्रहण कराने वाली त्वगिन्द्रिय (त्वचा) उत्पन्न हुई। कोमलता, कठोरता, शीतलता और उष्णता तथा वायु का सूक्ष्म रूप होना-ये स्पर्श के लक्षण हैं। वृक्ष की शाकाह आदि को हिलाना, तृणादि को इकठ्ठा कर देना, सर्वत्र पहुँचना, गन्धादियुक्त द्रव्य को घ्राणादि इन्द्रियों के पास तथा शब्द को श्रोत्रेन्द्रिय के समीप ले जाना तथा समस्त इन्द्रियों को कार्यशक्ति देना-ये वायु की वृत्तियों के लक्षण हैं। तदनन्तर दैव की प्रेरणा से स्पर्श तन्मात्राविशिष्ट वायु के विकृत होने पर उससे रूपतन्मात्र हुआ तथा उससे तेज और रूप को उपलब्ध कराने वाली नेत्रिन्द्रिका प्रादुर्भाव हुआ।

साध्वि! वस्तु के आकार का बोध कराना, गौण होना-द्रव्य के अंगरूप से प्रतीत होना, द्रव्य का जैसा आकार-प्रकार और परिणाम आदि हो, उसी रूप में उपलक्षित होना तथा तेज का स्वरूपभूत होना-ये सब रूप तन्मात्र की वृत्तियाँ हैं। चमकना, पकाना, शीत को दूर करना, सुखाना, भूख-प्यास पैदा कराना-ये तेज की वृत्तियाँ हैं। फिर दैव की प्रेरणा से रूपतन्मात्रमय तेज के विकृत होने पर उससे रसतन्मात्र हुआ और उससे जल तथा रस को ग्रहण कराने वाली रसनेन्द्रिय (जिह्वा) उत्पन्न हुई। रस अपने शुद्ध स्वरूप में एक ही है; किन्तु अन्य भौतिक पदार्थों के संयोग से वह कसैला, मीठा, तीखा, कड़वा, खट्टा और नमकीन आदि कई प्रकार का हो जाता है। गीला करना, मिट्टी आदि को पिण्डाकार बना देना, तृप्त करना, जीवित रखना, प्यास बुझाना, पदार्थों को मृदु कर देना, ताप की निवृत्ति करना और कूपादि में से निकाल लिये जाने पर भी वहाँ बार-बार पुनः प्रकट हो जाना-ये जल की वृत्तियाँ हैं। इसके पश्चात् दैवप्रेरित रसस्वरूप जल के विकृत होने पर उससे गन्धतन्मात्र हुआ और उससे पृथ्वी तथा गन्ध को ग्रहण कराने वाली घ्राणेन्द्रिय प्रकट हुईं। गन्ध एक ही है; तथापि परस्पर मिले हुए द्रव्य भोगों की न्यूनाधिकता से वह मिश्रित गन्ध, दुर्गन्ध, सुगन्ध, मृदु, तीव्र और अम्ल (खट्टा) आदि अनेक प्रकार का हो जाता है। प्रतिमादिरूप से ब्रह्म की साकार-भावना का आश्रय होना, जल आदि कारण तत्त्वों से भिन्न किसी दूसरे आश्रय की अपेक्षा किये बिना ही स्थित रहना, जल आदि अन्य पदार्थों को धारण करना, आकाशादि का अवच्छेदक होना (घटाकाश, मठाकाश आदि भेदों को सिद्ध करना) तथा परिणाम विशेष से सम्पूर्ण प्राणियों के [स्त्रीत्व, पुरुषत्व आदि] गुणों को प्रकट करना-ये पृथ्वी के कार्यरूप लक्षण हैं। आकाश का विशेष गुण शब्द जिसका विषय है, वह श्रोत्रेन्द्रिय है; वायु का विशेष गुण सपर्श जिसका विषय है, वह त्वगिन्द्रिय है। तेज का विशेष गुण रूप जिसका विषय है, वह नेत्रेन्द्रिय है; जल का विशेष गुणरस जिसका विषय है, वह रसनेन्द्रिय है और पृथ्वी का विशेष गुण गन्ध जिसका विषय है, उसे घ्राणेन्द्रिय कहते हैं। वायु आदि कार्य-तत्त्वों में आकाशादि कारण-तत्त्वों के रहने से उनके गुण भी अनुगत देखे जाते हैं; इसलिये समस्त महाभूतों के गुण शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध केवल पृथ्वी में ही पाये जाते हैं। जब महत्तत्त्व, अहंकार और पंचभूत- ये सात तत्त्व परस्पर मिल न सके-पृथक्-पृथक् ही रह गये, तब जगत् के आदिकारण श्रीनारायण ने काल, अदृष्ट और सत्त्वादि गुणों के सहित उसमें प्रवेश किया।



साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: षड्-विंश अध्यायः श्लोक 18-34 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: षड्-विंश अध्यायः श्लोक 18-34 का हिन्दी अनुवाद

इस प्रकार जो अपनी माया के द्वारा सब प्राणियों के भीतर जीवरूप से और बाहर कालरूप से व्याप्त हैं, वे भगवान् ही पचीसवें तत्त्व हैं। जब परमपुरुष परमात्मा जीवों के अदृष्टवश क्षोभ को प्राप्त हुई सम्पूर्ण जीवों की उत्पत्तिस्थानरूपा अपनी माया में चिच्छक्तिरूप वीर्य स्थापित किया, तो उससे तेजोमय महत्तत्त्व उत्पन्न हुआ। लय-विक्षेपादिरहित तथा जगत् के अंकुररूप इस महत्तत्त्व ने अपने में स्थित विश्व को प्रकट करने के लिये अपने स्वरूप को आच्छादित करने वाले प्रलयकालीन अन्धकार को अपने ही तेज से पी लिया। जो सत्त्वगुणमय, स्वच्छ, शान्त और भगवान् की उपलब्धि का स्थानरूप चित्त है, वही महत्तत्त्व है और उसी को ‘वासुदेव’ कहते हैं।

जिस प्रकार पृथ्वी आदि अन्य पदार्थों के संसर्ग से पूर्व जल अपनी स्वाभाविक (फेन-तरंगरहित) अवस्था में अत्यन्त स्वच्छ, विकारशून्य एवं शान्त होता है, उसी प्रकार अपनी स्वाभाविक अवस्था की दृष्टि से स्वच्छत्व, अविकारित्व और शान्तत्त्व ही वृत्तियों सहित चित्त का लक्षण कहा गया है। तदनन्तर भगवान् की वीर्यरूप चित्त्-शक्ति से उत्पन्न हुए महत्तत्त्व के विकृत होने पर उससे क्रिया-शक्तिप्रधान अहंकार उत्पन्न हुआ। वह वैकारिक, तैजस और तामस भेद से तीन प्रकार का है। उसी से क्रमशः मन, इन्द्रियों और पंचमहाभूतों की उत्पत्ति हुई। इस भूत, इन्द्रिय और मनरूप अहंकार को ही पण्डितजन साक्षात् ‘संकर्षण’ नामक सहस्र सिर वाले अनन्तदेव कहते हैं। इस अहंकार का देवतारूप से कर्तृत्व, इन्द्रियरूप से कारणत्व और पंचभूत रूप से कार्यत्व लक्षण है तथा सत्त्वादि गुणों के सम्बन्ध से शान्तत्त्व, घोरत्व और मूढत्व भी इसी के लक्षण हैं। उपर्युक्त तीन प्रकार के अहंकार के विकृत होने पर उससे मन हुआ, जिसके संकल्प-विकल्पों से कामनाओं की उत्पत्ति होती है। यह मनस्तत्त्व ही इन्द्रियों के अधिष्ठाता ‘अनिरुद्ध’ के नाम से प्रसिद्ध है। योगिजन शरत्कालीन नीलकमल के समान श्याम वर्ण वाले इन अनिरुद्ध जी की शनैः-शनैः मन को वशीभूत करके आराधन करते हैं।

साध्वि! फिर तैजस अहंकार में विकार होने पर उससे बुद्धित्व उत्पन्न हुआ। वस्तु का स्फुरणरूप विज्ञान और इन्द्रियों के व्यापार में सहायक होना-पदार्थों का विशेष ज्ञान करना-ये बुद्धि के कार्य हैं। वृत्तियों के भेद से संशय, विपर्यय (विपरीत ज्ञान), निश्चय, स्मृति और निद्रा भी बुद्धि के ही लक्षण हैं। यह बुद्धितत्त्व ही ‘प्रद्युम्न’ है। इन्द्रियाँ भी तैजस अहंकार का ही कार्य हैं। कर्म और ज्ञान के विभाग से उनके कर्मेन्द्रिय और ज्ञानेन्द्रिय दो भेद हैं। इनमें कर्म प्राण की शक्ति है और ज्ञान बुद्धि की। भगवान् की चेतना शक्ति की प्रेरणा से तापस अहंकार के विकृत होने पर उससे शब्दतन्मात्र का प्रादुर्भाव हुआ। शब्दतन्मात्र से आकाश तथा शब्द का ज्ञान कराने वाली श्रोत्रेन्द्रिय उत्पन्न हुई। अर्थ का प्रकाशक होना, ओट में खड़े हुए वक्ता का भी ज्ञान करा देना और आकाश का सूक्ष्म रूप होना-विद्वानों के मत में यही शब्द के लक्षण हैं। भूतों को अवकाश देना, सबके बाहर-भीतर वर्तमान रहना तथा प्राण, इन्द्रिय और मन का आश्रय होना-ये आकाश के वृत्ति (कार्य) रूप लक्षण हैं।



साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: षड्-विंश अध्यायः श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: षड्-विंश अध्यायः श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद

महदादि भिन्न-भिन्न तत्त्वों की उत्पत्ति का वर्णन.

श्रीभगवान् ने कहा- माताजी! अब मैं तुम्हें प्रकृति आदि सब तत्त्वों के अलग-अलग लक्षण बतलाता हूँ; इन्हें जानकर मनुष्य प्रकृति के गुणों से मुक्त हो जाता है। आत्मदर्शनरूप ज्ञान ही पुरुष के मोक्ष का कारण है और वही उसकी अहंकाररूप हृदय ग्रन्थि का छेदन करने वाला है, ऐसा पण्डितजन कहते हैं। उस ज्ञान का मैं तुम्हारे आगे वर्णन करता हूँ। यह सारा जगत् जिससे व्याप्त होकर प्रकाशित होता है, वह आत्मा ही पुरुष है। वह अनादि, निर्गुण, प्रकृति से परे, अन्तःकरण में स्फुरित होने वाला और स्वयंप्रकाश है। उस सर्वव्यापक पुरुष ने अपने पास लीला-विलासपूर्वक आयी हुई अव्यक्त और त्रिगुणात्मिक वैष्णवी माया को स्वेच्छा से स्वीकार कर दिया। लीला परायण प्रकृति अपने सत्त्वादि गुणों द्वारा उन्हीं के अनुरूप प्रजा की सृष्टि करने लगी; यह देख पुरुष ज्ञान को आच्छादित करने वाली उसकी आवरण शक्ति से मोहित हो गया, अपने स्वरूप को भूल गया। इस प्रकार अपने से भिन्न प्रकृति को ही अपना स्वरूप समझ लेने से पुरुष प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाने वाले कर्मों में अपने को ही कर्ता मानने लगता है। इस कर्तृत्वाभिमान से ही अकर्ता, स्वाधीन, साक्षी और आनन्दस्वरूप पुरुष को जन्म-मृत्युरूप बन्धन एवं परतन्त्रता की प्राप्ति होती है। कार्यरूप शरीर, कारणरूप इन्द्रिय तथा कर्तारूप इन्द्रियाधिष्ठातृ-देवताओं में पुरुष जो अपनेपन का आरोप कर लेता है, उसमें पण्डितजन प्रकृति को ही कारण मानते हैं तथा वास्तव में प्रकृति से परे होकर भी जो प्रकृतिस्थ हो रहा है, उस पुरुष को सुख-दुःखों के भोगने के कारण मानते हैं।

देवहूति ने कहा- पुरुषोत्तम! इस विश्व के स्थूल-सूक्ष्म कार्य जिनके स्वरूप हैं तथा जो इसके कारण हैं, उन प्रकृति और पुरुष का लक्षण भी आप मुझसे कहिये।

श्रीभगवान् ने कहा- जो त्रिगुणात्मक, अव्यक्त, नित्य और कार्य-कारणरूप है तथा स्वयं निर्विशेष होकर भी सम्पूर्ण विशेष धर्मों का आश्रय है, उन प्रधान नामक तत्त्व को ही प्रकृति कहते हैं। पाँच महाभूत, पाँच तन्मात्रा, चार अन्तःकरण और दस इन्द्रिय-इन चौबीस तत्त्वों के समूह को विद्वान् लोग प्रकृति का कार्य मानते हैं। पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश- ये पाँच महाभूत हैं; गन्ध, रस, रूप, स्पर्श और शब्द- ये पाँच तन्मात्र माने गये हैं। श्रोत्र, त्वचा, चक्षु, रसना, नासिका, वाक्, पाणि, पाद, उपस्थ और पायु- ये दस इन्द्रियाँ हैं। मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार- इन चार के रूप में एक ही अन्तःकरण अपनी संकल्प, निश्चय, चिन्ता और अभिमानरूप चार प्रकार की वृत्तियों से लक्षित होता है। इस प्रकार तत्त्वज्ञानी पुरुषों ने सगुण ब्रह्म के सन्निवेश स्थान इन चौबीस तत्त्वों की संख्या बतलायी है। इनके सिवा जो काल है, वह पचीसवाँ तत्त्व है। कुछ लोग काल को पुरुष से भिन्न तत्त्व न मानकर पुरुष का प्रभाव अर्थात् ईश्वर की संहारकारिणी शक्ति बताते हैं। जिससे माया के कार्यरूप देहादि में आत्मत्व का अभिमान करके अहंकार से मोहित और अपने को कर्ता मानने वाले जीव को निरन्तर भय लगा रहता है। मनुपुत्रि! जिनकी प्रेरणा से गुणों की साम्यावस्थारूप निर्विशेष प्रकृति में गति उत्पन्न होती है, वास्तव में वे पुरुषरूप भगवान् ही ‘काल’ कहे जाते हैं।


साभार krishnakosh.org

प्यास जो बुझ न सकी.


प्यास जो बुझ सकी.

श्रीकृष्ण स्वयं भी महाभारत रोक न सके। इस बात पर महामुनि उत्तंक को बड़ा क्रोध आ रहा था। दैवयोग से भगवान श्रीकृष्ण उसी दिन द्वारिका जाते हुए मुनि उत्तंक के आश्रम में आ पहुँचे। मुनि ने उन्हें देखते ही कटु शब्द कहना प्रारंभ किया- आप इतने महाज्ञानी और सामर्थ्यवान होकर भी युद्ध नहीं रोक सके। आपको उसके लिये शाप दे दूँ तो क्या यह उचित न होगा?

भगवान कृष्ण हंसे और बोले- महामुनि! किसी को ज्ञान दिया जाये, समझाया-बुझाया और रास्ता दिखाया जाये तो भी वह विपरीत आचरण करे, तो इसमें ज्ञान देने वाले का क्या दोष? यदि मैं स्वयं ही सब कुछ कर लेता, तो संसार के इतने सारे लोगों की क्या आवश्यकता थी?

मुनि का क्रोध शाँत न हुआ। लगता था वे मानेंगे नहीं- शाप दे ही देंगे। तब भगवान कृष्ण ने अपना विराट रूप दिखाकर कहा-महामुनि! मैंने आज तक किसी का अहित नहीं किया। निष्पाप व्यक्ति चट्टान की तरह सुदृढ़ होता है। आप शाप देकर देख लें, मेरा कुछ नहीं बिगड़ेगा। हाँ, आपको किसी वरदान की आवश्यकता हो तो हमसे अवश्य माँग लें।
उत्तंक ने कहा- तो फिर आप ऐसा करें कि इस मरुस्थल में भी जल-वृष्टि हो और यहाँ भी सर्वत्र हरा-भरा हो जाये। कृष्ण ने कहा ‘तथास्तु’ और वहाँ से आगे बढ़ गये।

महामुनि उत्तंक एक दिन प्रातःकालीन भ्रमण में कुछ दूर तक निकल गये। दिन चढ़ते ही धूल भरी आँधी आ गई और मुनि मरुस्थल में भटक गये। जब मरुद्गणों का कोप शाँत हुआ, तब उत्तंक ने अपने आपको निर्जन मरुस्थल में पड़ा पाया। धूप तप रही थी, प्यास के मारे उत्तंक के प्राण निकलने लगे।

तभी महामुनि उत्तंक ने देखा-चमड़े के पात्र में जल लिये एक चाँडाल सामने खड़ा है और पानी पीने के लिए कह रहा है। उत्तंक उत्तेजित हो उठे और बिगड़ कर बोले-शूद्र! मेरे सामने से हट जा, नहीं तो अभी शाप देकर भस्म कर दूँगा। चाँडाल होकर तू मुझे पानी पिलाने आया है।

उन्हें साथ-साथ कृष्ण पर भी क्रोध आ गया। मुझे उस दिन मूर्ख बनाकर चले गये। पर आज उत्तंक के क्रोध से बचना कठिन है।

जैसे ही शाप देने के लिए उन्होंने मुख खोला कि सामने भगवान श्रीकृष्ण दिखाई दिये। कृष्ण ने पूछा- नाराज न हों महामुनि! आप तो कहा करते हैं कि आत्मा ही आत्मा है, आत्मा ही इन्द्र और आत्मा ही साक्षात परमात्मा है। फिर आप ही बताइये कि इस चाँडाल की आत्मा में क्या इन्द्र नहीं थे? यह इन्द्र ही थे, जो आपको अमृत पिलाने आये थे, पर आपने उसे ठुकरा दिया। बताइये, अब मैं आपकी कैसे सहायता कर सकता हूँ। यह कहकर भगवान कृष्ण भी वहाँ से अदृश्य हो गये और वह चाण्डाल भी।

मुनि को बड़ा पश्चाताप हुआ। उन्होंने अनुभव किया कि जाति, कुल और योग्यता के अभिमान में डूबे हुए मेरे जैसे व्यक्ति ने शास्त्र-ज्ञान को व्यावहारिक नहीं बनाया, तो फिर यदि कौरवों-पाँडवों ने श्रीकृष्ण की बात को नहीं माना तो इसमें उनका क्या दोष? महापुरुष केवल मार्ग दर्शन कर सकते हैं। यदि कोई उस प्राप्त ज्ञान को आचरण में न लाये और यथार्थ लाभ से वंचित रहे, तो इसमें उनका क्या दोष?

यह भी कट जायेगा.


भी जायेगा.

जिंदगी है तो संघर्ष हैं, तनाव है, काम का दबाब है, ख़ुशी है, डर है! लेकिन अच्छी बात यह है कि ये सभी स्थायी नहीं हैं! समय रूपी नदी के प्रवाह में से सब प्रवाहमान हैं! कोई भी परिस्थिति चाहे ख़ुशी की हो या ग़म की, कभी स्थाई नहीं होती, समय के अविरल प्रवाह में विलीन हो जाती है!

सा अधिकतर होता है की जीवन की यात्रा के दौरान हम अपने आप को कई बार दुःख, तनाव,चिंता, डर, हताशा, निराशा, भय, रोग इत्यादि के मकडजाल में फंसा हुआ पाते हैं हम तत्कालिक परिस्थितियों के इतने वशीभूत हो जाते हैं कि दूर-दूर तक देखने पर भी हमें कोई प्रकाश की किरण मात्र भी दिखाई नहीं देती, दूर से चींटी की तरह महसूस होने वाली परेशानी हमारे नजदीक आते-आते हाथी के जैसा रूप धारण कर लेती है और हम उसकी विशालता और भयावहता के आगे समर्पण कर परिस्थितियों को अपने ऊपर हावी हो जाने देते हैं, वो परिस्थिति हमारे पूरे वजूद को हिला डालती है, हमें हताशा,निराशा के भंवर में उलझा जाती है…एक-एक क्षण पहाड़ सा प्रतीत होता है और हममे से ज्यादातर लोग आशा की कोई किरण ना देख पाने के कारण हताश होकर परिस्थिति के आगे हथियार डाल देते हैं!

गर आप किसी अनजान, निर्जन रेगिस्तान मे फँस जाएँ तो उससे निकलने का एक ही उपाए है, बस -चलते रहें! अगर आप नदी के बीच जाकर हाथ पैर नहीं चलाएँगे तो निश्चित ही डूब जाएंगे! जीवन मे कभी ऐसा क्षण भी आता है, जब लगता है की बस अब कुछ भी बाकी नहीं है, ऐसी परिस्थिति मे अपने आत्मविश्वास और साहस के साथ सिर्फ डटे रहें क्योंकि- हर चीज का हल होता है,आज नहीं तो कल होता है।

क बार एक राजा की सेवा से प्रसन्न होकर एक साधू नें उसे एक ताबीज दिया और कहा की राजन इसे अपने गले मे डाल लो और जिंदगी में कभी ऐसी परिस्थिति आये की जब तुम्हे लगे की बस अब तो सब ख़तम होने वाला है, परेशानी के भंवर मे अपने को फंसा पाओ, कोई प्रकाश की किरण नजर ना आ रही हो, हर तरफ निराशा और हताशा हो तब तुम इस ताबीज को खोल कर इसमें रखे कागज़ को पढ़ना, उससे पहले नहीं!

राजा ने वह ताबीज अपने गले मे पहन लिया! एक बार राजा अपने सैनिकों के साथ शिकार करने घने जंगल मे गया! एक शेर का पीछा करते करते राजा अपने सैनिकों से अलग हो गया और दुश्मन राजा की सीमा मे प्रवेश कर गया, घना जंगल और सांझ का समय, तभी कुछ दुश्मन सैनिकों के घोड़ों की टापों की आवाज राजा को आई और उसने भी अपने घोड़े को एड लगाई, राजा आगे आगे दुश्मन सैनिक पीछे पीछे! बहुत दूर तक भागने पर भी राजा उन सैनिकों से पीछा नहीं छुडा पाया! भूख प्यास से बेहाल राजा को तभी घने पेड़ों के बीच मे एक गुफा सी दिखी, उसने तुरंत स्वयं और घोड़े को उस गुफा की आड़ मे छुपा लिया! और सांस रोक कर बैठ गया, दुश्मन के घोड़ों के पैरों की आवाज धीरे धीरे पास आने लगी! दुश्मनों से घिरे हुए अकेले राजा को अपना अंत नजर आने लगा, उसे लगा की बस कुछ ही क्षणों में दुश्मन उसे पकड़ कर मौत के घाट उतार देंगे! वो जिंदगी से निराश हो ही गया था, की उसका हाथ अपने ताबीज पर गया और उसे साधू की बात याद आ गई! उसने तुरंत ताबीज को खोल कर कागज को बाहर निकाला और पढ़ा! उस पर्ची पर लिखा था —यह भी कट जाएगा।

राजा को अचानक ही जैसे घोर अन्धकार मे एक ज्योति की किरण दिखी, डूबते को जैसे कोई सहारा मिला! उसे अचानक अपनी आत्मा मे एक अकथनीय शान्ति का अनुभव हुआ! उसे लगा की सचमुच यह भयावह समय भी कट ही जाएगा, फिर मे क्यों चिंतित होऊं! अपने प्रभु और अपने पर विश्वासरख उसने स्वयं से कहा की हाँ, यह भी कट जाएगा!

र हुआ भी यही, दुश्मन के घोड़ों के पैरों की आवाज पास आते आते दूर जाने लगी, कुछ समय बाद वहां शांति छा गई! राजा रात मे गुफा से निकला और किसी तरह अपने राज्य मे वापस आ गया!

ह सिर्फ किसी राजा की कहानी नहीं है यह हम सब की कहानी है! हम सभी परिस्थिति,काम,नाव के दवाव में इतने जकड जाते हैं की हमे कुछ सूझता नहीं है, हमारा डर हम पर हावी होने लगता है, कोई रास्ता, समाधान दूर दूर तक नजर नहीं आता, लगने लगता है की बस, अब सब ख़तम, है ना?

जब ऐसा हो तो 2 मिनट शांति से बेठिये,थोड़ी गहरी गहरी साँसे लीजिये! अपने आराध्य को याद कीजिये और स्वयं से जोर से कहिये –यह भी कट जाएगा! आप देखिएगा एकदम से जादू सा महसूस होगा, और आप उस परिस्थिति से उबरने की शक्ति अपने अन्दर महसूस करेंगे!

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: पंचविंश अध्यायः श्लोक 34-44 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: पंचविंश अध्यायः श्लोक 34-44 का हिन्दी अनुवाद

मेरी चरण सेवा में प्रीति रखने वाले और मेरी ही प्रसन्नता के लिये समस्त कार्य करने वाले कितने ही बड़भागी भक्त, जो एक-दूसरे से मिलकर प्रेमपूर्वक मेरे ही पराक्रमों की चर्चा किया करते हैं, मेरे साथ एकीभाव (सायुज्यमोक्ष) की भी इच्छा नहीं करते। मा! वे साधुजन अरुण नयन एवं मनोहर मुखारविन्द से युक्त मेरे परम सुन्दर और वरदायक दिव्य रूपों की झाँकी करते हैं और उनके साथ सप्रेम सम्भाषण भी करते हैं, जिसके लिये बड़े-बड़े तपस्वी भी लालायित रहते हैं। दर्शनीय अंग-प्रत्यंग, उदार हास-विलास मनोहर चितवन और सुमधुर वाणी से युक्त मेरे उन रूपों की माधुरी में उनका मन और इन्द्रियाँ फँस जाती हैं। ऐसी मेरी भक्ति न चाहने पर भी उन्हें परमपद की प्राप्ति करा देती है। अविद्या की निवृत्ति हो जाने पर यद्यपि वे मुझ मायापति के सत्यादि लोकों की भोगसम्पत्ति, भक्ति की प्रवृत्ति के पश्चात् स्वयं प्राप्त होने वाली अष्टसिद्धि अथवा वैकुण्ठलोक के भगवदीय ऐश्वर्य की भी इच्छा नहीं करते, तथापि मेरे धाम पहुँचने पर उन्हें ये सब विभूतियाँ स्वयं ही प्राप्त हो जाती हैं। जिनका एकमात्र मैं ही प्रिय, आत्मा, पुत्र, मित्र, गुरु, सुहृद् और इष्टदेव हूँ-वे मेरे ही आश्रय में रहने वाले भक्तजन शान्तिमय वैकुण्ठधाम में पहुँचकर किसी प्रकार की भी इन दिव्य भोगों से रहित नहीं होते और न उन्हें मेरा कालचक्र ही ग्रस सकता है।

माताजी! जो लोग इहलोक, परलोक और इन दोनों लोकों में साथ जाने वाले वासनामय लिंगदेह को तथा शरीर से सम्बन्ध रखने वाले जो धन, पशु एवं गृह आदि पदार्थ हैं, उन सबको और अन्यान्य संग्रहों को भी छोड़कर अनन्य भक्ति से सब प्रकार मेरा ही भजन करते हैं-उन्हें मैं मृत्युरूप संसारसागर से पार कर देता हूँ। मैं साक्षात् भगवान् हूँ, प्रकृति और पुरुष का भी प्रभु हूँ तथा समस्त प्राणियों का आत्मा हूँ; मेरे सिवा और किसी का आश्रय लेने से मृत्युरूप महाभय से छुटकारा नहीं मिल सकता। मेरे भय से यह वायु चलती है, मेरे भय से सूर्य तपता है, मेरे भय से इन्द्र वर्षा करता और अग्नि जलाती है तथा मेरे ही भय से मृत्यु अपने कार्य में प्रवृत्त होता है। योगिजन ज्ञान-वैराग्ययुक्त भक्तियोग के द्वारा शान्ति प्राप्त करने के लिये मेरे निर्भय चरणकमलों का आश्रय लेते हैं। संसार में मनुष्य के लिये सबसे बड़ी कल्याण प्राप्ति यही है कि उसका चित्त तीव्र भक्तियोग के द्वारा मुझमें लगकर स्थिर हो जाये।


साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: पंचविंश अध्यायः श्लोक 17-33 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: पंचविंश अध्यायः श्लोक 17-33 का हिन्दी अनुवाद

तब जीव अपने ज्ञान-वैराग्य और भक्ति से युक्त हृदय से आत्मा को प्रकृति से परे, एकमात्र (अद्वितीय), भेदरहित, स्वयंप्रकाश, सूक्ष्म, अखण्ड और उदासीन (सुख-दुःख शून्य) देखता है तथा प्रकृति को शक्तिहीन अनुभव करता है। योगियों के लिये भगवत्प्राप्ति के निमित्त सर्वात्मा श्रीहरि के प्रति की हुई भक्ति के समान और कोई मंगलमय मार्ग नहीं है। विवेकीजन संग या आसक्ति को ही आत्मा का अच्छेद्द बन्धन मानते हैं; किन्तु वही संग या आसक्ति जब संतों-महापुरुषों के प्रति हो जाती है तो मोक्ष का खुला द्वार बन जाती है। जो लोग सहनशीन, दयालु, समस्त देहधारियों के अकारण हितू, किसी के प्रति भी शत्रुभाव न रखने वाले, शान्त, सरल स्वभाव और सत्पुरुषों का सम्मान करने वाले होते हैं, जो मुझमें अनन्य भाव से सुदृढ़ प्रेम करते हैं, मेरे लिये सम्पूर्ण कर्म तथा अपने सगे-सम्बन्धियों को भी त्याग देते हैं, और मेरे परायण रहकर मेरी पवित्र कथाओं का श्रवण, कीर्तन करते हैं तथा मुझमें ही चित्त लगाये रहते हैं-उन भक्तों को संसार के तरह-तरह ताप कोई कष्ट नहीं पहुँचाते हैं।

साध्वि! ऐसे-ऐसे सर्वसंगपरित्यागी महापुरुष ही साधु होते हैं, तुम्हें उन्हीं के संग की इच्छा करनी चाहिये; क्योंकि वे आसक्ति से उत्पन्न सभी दोषों को हर लेने वाले हैं। सत्पुरुषों के समागम से मेरे पराक्रमों का यथार्थ ज्ञान कराने वाली तथा हृदय और कानों को प्रिय लगने वाली कथाएँ होती हैं। उनका सेवन करने से शीघ्र ही मोक्ष मार्ग में श्रद्धा, प्रेम और भक्ति का क्रमशः विकास होगा। फिर मेरी सृष्टि आदि लीलाओं का चिन्तन करने से प्राप्त हुई भक्ति के द्वारा लौकिक एवं पारलौकिक सुखों में वैराग्य हो जाने पर मनुष्य सावधानतापूर्वक योग के भक्ति प्रधान सरल उपायों से समाहित होकर मनोनिग्रह के लिये यत्न करेगा। इस प्रकार प्रकृति के गुणों से उत्पन्न हुए शब्दादि विषयों का त्याग करने से, वैराग्ययुक्त ज्ञान से, योग से और मेरे प्रति की हुई सुदृढ़ भक्ति से मनुष्य मुझे अपने अन्तरात्मा को इस देह में ही प्राप्त कर लेता है।

देवहूति ने कहा- भगवन्! आपकी समुचित भक्ति का स्वरूप क्या है? और मेरी-जैसी अबलाओं के लिये कैसी भक्ति ठीक है, जिससे कि मैं सहज में ही आपके निर्वाणपद को प्राप्त कर सकूँ? निर्वाणस्वरूप प्रभो! जिसके द्वारा तत्त्वज्ञान होता है और जो लक्ष्य को बेधने वाला बाण के समान भगवान् की प्राप्ति कराने वाला है, वह आपका कहा हुआ योग कैसा है उसके कितने अंग हैं? हरे! यह सब आप मुझे इस प्रकार समझाइये जिससे कि आपकी कृपा से मैं मन्दमति स्त्रीजाति भी इस दुर्बोध विषय को सुगमता से समझ सकूँ।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- विदुर जी! जिसके शरीर से उन्होंने स्वयं जन्म लिया था, उस अपनी माता का ऐसा अभिप्राय जानकर कपिल जी के हृदय में स्नेह उमड़ आया और उन्होंने प्रकृति आदि तत्त्वों का निरूपण करने वाले शास्त्र का, जिसे सांख्य कहते हैं, उपदेश किया। साथ ही भक्ति-विस्तार एवं योग का भी वर्णन किया। श्रीभगवान् ने कहा- माता! जिसका चित्त एकमात्र भगवान् में ही लग गाया है, ऐसे मनुष्य की वेदविहित कर्मों में लगी हुई तथा विषयों का ज्ञान कराने वाली (कर्मेंदिय एवं ज्ञानेद्रिय-दोनों प्रकार की) इन्द्रियों की जो सत्त्वमूर्ति श्रीहरि के प्रति स्वाभाविक प्रवृत्ति है, वही भगवान् की अहैतुकी भक्ति है। यह मुक्ति से भी बढ़कर है; क्योंकि जठरानल जिस प्रकार खाये हुए अन्न को पचाता है, उसी प्रकार यह भी कर्मसंसारों के भण्डाररूप लिंगशरीर को तत्काल भस्म कर देती है।



साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: पंचविंश अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: पंचविंश अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद

देवहूति का प्रश्न तथा भगवान् कपिल द्वारा भक्तियोग की महिमा का वर्णन.

शौनक जी ने पूछा- सूतजी! तत्त्वों की संख्या करने वाले भगवान् कपिल साक्षात् अजन्मा नारायण होकर भी लोगों को आत्मज्ञान का उपदेश करने के लिये अपनी माया से उत्पन्न हुए थे। मैंने भगवान् के बहुत-से चरित्र सुने हैं, तथापि इन योगिप्रवर पुरुषश्रेष्ठ कपिल जी की कीर्ति को सुनते-सुनते मेरी इन्द्रियाँ तृप्त नहीं होतीं। सर्वथा स्वतन्त्र श्रीहरि अपनी योगमाया द्वारा भक्तों की इच्छा के अनुसार शरीर धारण करके जो-जो लीलाएँ करते हैं, वे सभी कीर्तन करने योग्य हैं; अतः आप मुझे वे सभी सुनाइये, मुझे उन्हें सुनने में बड़ी श्रद्धा है। 

सूत जी कहते हैं- मुने! आपकी ही भाँति जब विदुर ने भी यह आत्मज्ञान विषयक प्रश्न किया, तो श्रीव्यास जी के सखा भगवान् मैत्रेय जी प्रसन्न होकर इस प्रकार कहने लगे। श्रीमैत्रेय जी ने कहा- विदुर जी! पिता के वन में चले जाने पर भगवान् कपिल जी माता का प्रिय करने की इच्छा से उस बिन्दुसर तीर्थ में रहने लगे। एक दिन तत्त्व समूह के पारदर्शी भगवान् कपिल कर्मकलाप से विरत हो आसन पर विराजमान थे। उस समय ब्रह्मा जी के वचनों का स्मरण करके देवहूति ने उनसे कहा।

देवहूति बोली- भूमन्! प्रभो! इन दुष्ट इन्द्रियों की विषय-लालसा से मैं बहुत ऊब गयी हूँ और इनकी इच्छा पूरी करते रहने से ही घोर अज्ञानान्धकार से पार लगाने के लिये सुन्दर नेत्ररूप आप प्राप्त हुए हैं। आप सम्पूर्ण जीवों के स्वामी भगवान् आदिपुरुष हैं तथा अज्ञानान्धकार से अन्धे पुरुषों के लिये नेत्र स्वरूप सूर्य की भाँति उदित हुए हैं। देव! इन देह-गेह आदि में मैं-मेरेपन का दुराग्रह होता है, वह भी आपका ही कराया हुआ है; अतः अब आप मेरे इस महामोह को दूर कीजिये। आप अपने भक्तों के संसाररूप वृक्ष के लिये कुठार के समान हैं; मैं प्रकृति और पुरुष का ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा से आप शरणागतवत्सल की शरण में आयी हूँ। आप भागवत धर्म जानने वालों में सबसे श्रेष्ठ हैं, मैं आपको प्रणाम करती हूँ।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- इस प्रकार माता देवहूति ने अपनी जो अभिलाषा प्रकट की, वह परम पवित्र और लोगों का मोक्ष मार्ग में अनुराग उत्पन्न करने वाली थी, उसे सुनकर आत्मज्ञ सत्पुरुषों की गति श्रीकपिल जी उसकी मन-ही-मन प्रशंसा करने लगे और फिर मृदु मुस्कान से सुशोभित मुखारविन्द से इस प्रकार कहने लगे।

भगवान् कपिल ने कहा- माता! यह मेरा निश्चय है कि अध्यात्मयोग ही मनुष्यों के आत्यन्तिक कल्याण का मुख्य साधन है, जहाँ दुःख और सुख की सर्वथा निवृत्ति हो जाती है। साध्वि! सब अंगों से सम्पन्न उस योग का मैंने पहले नारदादि ऋषियों के सामने, उनकी सुनने की इच्छा होने पर, वर्णन किया था। वही अब मैं आपको सुनाता हूँ। इस जीव के बन्धन और मोक्ष का कारण मन ही माना गया है। विषयों में आसक्त होने पर वह बन्धन का हेतु होता है और परमात्मा में अनुरक्त होने पर वही मोक्ष का कारण बन जाता है। जिस समय यह मन मैं और मेरेपन के कारण होने वाले काम-लोभ आदि विकारों से मुक्त एवं शुद्ध हो जाता है, उस समय वह सुख-दुःख से छूटकर सम अवस्था में आ जाता है।


साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः श्लोक 35-47 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः श्लोक 35-47 का हिन्दी अनुवाद

श्रीभगवान् ने कहा- मुने! वैदिक और लौकिक सभी कर्मों में संसार के लिये मेरा कथन ही प्रमाण है। इसलिये मैंने जो तुमसे कहा था कि ‘मैं तुम्हारे यहाँ जन्म लूँगा’, उसे सत्य करने के लिये ही मैंने यह अवतार लिया है। इस लोक में मेरा यह जन्म लिंगशरीर से मुक्त होने की इच्छा वाले मुनियों के लिये आत्मदर्शन में उपयोगी प्रकृति आदि तत्त्वों का विवेचन करने के लिये ही हुआ है। आत्मज्ञान का यह सूक्ष्म मार्ग बहुत समय से लुप्त हो गया है। इसे फिर से प्रवर्तित करने के लिये ही मैंने यह शरीर ग्रहण किया है- ऐसा जानो।

मुने! मैं आज्ञा देता हूँ, तुम इच्छानुसार जाओ और अपने सम्पूर्ण कर्म मुझे अर्पण करते हुए दुर्जय मृत्यु को जीतकर मोक्षपद प्राप्त करने के लिये मेरा भजन करो। मैं स्वयंप्रकाश और सम्पूर्ण जीवों के अन्तःकरणों में रहने वाला परमात्मा हूँ। अतः जब तुम विशुद्ध बुद्धि के द्वारा अपने अन्तःकरण में मेरा साक्षात्कार कर लोगे, तब सब प्रकार के शोकों से छूटकर निर्भय पद (मोक्ष) प्राप्त कर लोगे। माता देवहूति को भी मैं सम्पूर्ण कर्मों से छुड़ाने वाला आत्मज्ञान प्रदान करूँगा, जिससे यह संसाररूप भय से पार हो जायेगी।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- भगवान् कपिल के इस प्रकार कहने पर प्रजापति कर्दम जी उनकी परिक्रमा कर प्रसन्नतापूर्वक वन को चले गये। वहाँ अहिंसामय संन्यास-धर्म का पालन करते हुए वे एकमात्र श्रीभगवान् की शरण हो गये तथा अग्नि और आश्रम का त्याग करके निःसंग भाव पृथ्वी पर विचरने लगे। जो कार्यकारण से अतीत है, सात्वादि गुणों का प्रकाशक एवं निर्गुण है और अनन्य भक्ति से ही प्रत्यक्ष होता है, उस परब्रह्म में उन्होंने अपना मन लगा दिया। वे अहंकार, ममता और सुख-दुःखादि द्वन्दों से छूटकर समदर्शी (भेददृष्टि से रहित) हो, सबमें अपने आत्मा को ही देखने लगे। उनकी बुद्धि अन्तर्मुख एवं शान्त हो गयी। उस समय धीर कर्दम जी शान्त लहरों वाले समुद्र के समान जान पड़ने लगे। परम भक्तिभाव के द्वारा सर्वान्तर्यामी सर्वज्ञ श्रीवासुदेव में चित्त स्थिर हो जाने से वे सारे बन्धनों से मुक्त हो गये। सम्पूर्ण भूतों में अपने आत्मा श्रीभगवान् को और सम्पूर्ण भूतों को आत्मस्वरूप श्रीहरि में स्थित देखने लगे। इस प्रकार इच्छा और द्वेष से रहित, सर्वत्र समबुद्धि और भगवद्भक्ति से सम्पन्न होकर श्रीकर्दम जी ने भगवान् का परमपद प्राप्त कर लिया।



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