श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: अष्टाविंश अध्यायः श्लोक 29-35 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: अष्टाविंश अध्यायः श्लोक 29-35 का हिन्दी अनुवाद

भक्तों पर कृपा करने के लिये ही यहाँ साकाररूप धारण करने वाले श्रीहरि के मुखकमल का ध्यान करे, जो सुधड़ नासिका से सुशोभित है और झिलमिलाते हुए मकराकृत कुण्डलों के हिलने से अतिशय प्रकाशमान स्वच्छ कपोलों के कारण बड़ा ही मनोहर जान पड़ता है। काली-काली घुँघराली अलकावली से मण्डित भगवान् का मुखमण्डल अपनी छवि के द्वारा भ्रमरों से सेवित कमलकोश का भी तिरस्कार कर रहा है और उसके कमलसदृश विशाल एवं चंचल नेत्र उस कमलकोश पर उछलते हुए मछलियों के जोड़े की शोभा को मात कर रहे हैं। उन्नत भ्रूलताओं से सुशोभित भगवान् के ऐसे मनोहर मुखारविन्द की मन में धारणा करके आलस्यरहित हो उसी का ध्यान करे। हृदयगुहा में चिरकाल तक भक्तिभाव से भगवान् के नेत्रों की चितवन का ध्यान करना चाहिये, जो कृपा से और प्रेमभरी मुस्कान से क्षण-क्षण अधिकाधिक बढ़ती रहती है, विपुल प्रसाद की वर्षा करती रहती है और भक्तजनों के अत्यन्त घोर तीनों तापों को शान्त करने के लिये ही प्रकट हुई है। 

श्रीहरि का हास्य प्रणतजनों के तीव्र-से-तीव्र शोक के अश्रु सागर को सुखा देता है और अत्यन्त उदार है। मुनियों के हित के लिये कामदेव को मोहित करने के लिये ही अपनी माया से श्रीहरि ने अपने भ्रूमण्डल को बनाया है-उनका ध्यान करना चाहिये। अत्यन्त प्रेमार्द्रभाव से अपने हृदय में विराजमान श्रीहरि के खिलखिलाकर हँसने का ध्यान करे, जो वस्तुतः ध्यान के ही योग है तथा जिसमें ऊपर और नीचे के दोनों होठों की अत्यधिक अरुण कान्ति के कारण उनके कुन्दकली के समान शुभ्र छोटे-छोटे दाँतों पर लालिमा-सी प्रतीत होने लगी है। इस प्रकार ध्यान में तन्मय होकर उनके सिवा किसी अन्य पदार्थ को देखने की इच्छा न करे। इस प्रकार के ध्यान के अभ्यास से साधक का श्रीहरि में प्रेम हो जाता है, उसका हृदय भक्ति से द्रवित हो जाता है, शरीर में आनन्दातिरेक के कारण रोमांच होने लगता है, उत्कण्ठाजनित प्रेमाश्रूओं की धारा में वह बारम्बार अपने शरीर को नहलाता है और फिर मछली पकड़ने के काँटे के समान श्रीहरि को अपनी ओर आकर्षित करने के साधनरूप अपने चित्त को भी धीरे-धीरे ध्येय वस्तु को हटा लेता है। जैसे तेज आदि के चूक जाने पर दीपशिखा अपने कारणरूप तेजस्-तत्त्व में लीन हो जाती है, वैसे ही आश्रय, विषय और राग से रहित होकर मन शान्त-ब्रह्माकार हो जाता है। इस अवस्था के प्राप्त होने पर जीव गुण प्रवाहरूप देहादि उपाधि के निवृत्त हो जाने के कारण ध्याता, ध्येय आदि विभाग से रहित एक अखण्ड परमात्मा को ही सर्वत्र अनुगत देखता है।
साभार krishnakosh.org

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