(लगातार-सम्पूर्ण
श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: त्रयोविंश
अध्यायः श्लोक 30-44
का हिन्दी अनुवाद
विदुरजी! जब देवहूति ने अपने प्रिय पतिदेव का स्मरण किया, तो अपने को सहेलियों के सहित वहीं पाया, जहाँ प्रजापति कर्दम जी विराजमान थे। उस समय अपने को सहस्रों स्त्रियों के सहित अपने प्राणनाथ के सामने देख और उनके योग का प्रभाव समझकर देवहूति को बड़ा विस्मय हुआ। शत्रुविजयी विदुर! जब कर्दम जी ने देखा कि देवहूति का शरीर स्नान करने से अत्यन्त निर्मल हो गया है, और विवाह काल से पूर्व उसका जैसा रूप था, उसी रूप को पाकर वह अपूर्व शोभा से सम्पन्न हो गयी है। उसका सुन्दर वक्षःस्थल चोली से ढका हुआ है, हजारों विद्याधरियाँ उसकी सेवा में लगी हुई हैं तथा उसके शरीर पर बढ़िया-बढ़िया वस्त्र शोभा पा रहे हैं, तब उन्होंने बड़े प्रेम से उसे विमान पर चढ़ाया। उस समय अपनी प्रिया के प्रति अनुरक्त होने पर भी कर्दम जी की महिमा (मन और इन्द्रियों पर प्रभुता) कम नहीं हुई। विद्याधरियाँ उनके शरीर की सेवा कर रही थीं। खिले हुए कुमुद के फूलों से श्रृंगार करके अत्यन्त सुन्दर बने हुए वे विमान पर इस प्रकार शोभा पा रहे थे, मानो आकाश में तारागण से घिरे हुए चन्द्रदेव विराजमान हों। उस विमान पर निवास कर उन्होंने दीर्घकाल तक कुबेर जी के समान मेरु पर्वत की घाटियों में विहार किया। ये घाटियाँ आठों लोकपालों की विहार भूमि हैं; इसमें कामदेव को बढ़ाने वाली शीतल, मन्द, सुगन्ध वायु चलकर इनकी कमनीय शोभा का विस्तार करती है तथा श्रीगंगा जी के स्वर्गलोक से गिरने की मंगलमय ध्वनि निरन्तर गूँजती रहती है। उस समय भी दिव्य विद्याधरियों का समुदाय उनकी सेवा में उपस्थित था और सिद्धगण वन्दना किया करते थे।
इसी प्रकार प्राणप्रिया देवहूति के साथ उन्होंने वैश्रम्भ्क, सुरसन, नन्दन, पुष्पभद्र और चैत्ररथ आदि अनेकों देवोद्यानों तथा मानस-सरोवर में अनुरागपूर्वक विहार किया। उस कान्तिमान् और इच्छानुसार चलने वाले श्रेष्ठ विमान पर बैठकर वायु के समान सभी लोकों में विचरते हुए कर्दम जी विमानविहारी देवताओं से भी आगे बढ़ गये। विदुर जी! जिन्होंने भगवान् के भवभयहारी पवित्र पादपद्मों का आश्रय लिया है, उन धीर पुरुषों के लिये कौन-सी वस्तु या शक्ति दुर्लभ है। इस प्रकार महायोगी कर्दम जी यह सारा भूमण्डल, जो द्वीप-वर्ष आदि की विचित्र रचना के कारण बड़ा आश्चर्यमय प्रतीत होता है, अपनी प्रिया को दिखाकर अपने आश्रम को लौट आये। फिर उन्होंने अपने को नौ रूपों में विभक्त कर रतिसुख के लिये अत्यन्त उत्सुक मनुकुमारी देवहूति को आनन्दित करते हुए उसके साथ बहुत वर्षों तक विहार किया, किन्तु उनका इतना लम्बा समय एक मुहूर्त के समान बीत गया।
साभार krishnakosh.org
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