श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः पंचम अध्यायः श्लोक 13-22 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
प्रथम स्कन्धः पंचम अध्यायः श्लोक 13-22 का हिन्दी अनुवाद

महाभाग व्यास जी! आपकी दृष्टि अमोघ है। आपकी कीर्ति पवित्र है। आप सत्यनारायण एवं दृढ़व्रत हैं। इसलिये अब आप सम्पूर्ण जीवों को बन्धन से मुक्त करने के लिये समाधि के द्वारा अचिन्त्य-शक्ति भगवान की लीलाओं का स्मरण कीजिये। जो मनुष्य भगवान की लीला के अतिरिक्त और कुछ कहने की इच्छा करता है, वह उस इच्छा से ही निर्मित अनेक नाम और रूपों के चक्कर में पड़ जाता है। उसकी बुद्धि भेदभाव से भर जाती है। जैसे हवा के झकोरों से डगमगाती हुई डोंगी को कहीं भी ठहरने का ठौर नहीं मिलता, वैसे ही उसकी चंचल बुद्धि कहीं भी स्थिर नहीं हो पाती। संसारी लोग स्वभाव से ही विषयों में फँसे हुए हैं।

धर्म के नाम पर आपने उन्हें निन्दित (पशु हिंसा युक्त) सकाम कर्म करने की भी आज्ञा दे दी है। यह बहुत उलटी बात हुई; क्योंकि मूर्ख लोग आपके वचनों से पूर्वोक्त निन्दित कर्म को ही धर्म मानकर- ‘यही मुख्य धर्म है’ ऐसा निश्चय करके उसका निषेध करने वाले वचनों को ठीक नहीं मानते। भगवान अनन्त हैं। कोई विचारवान् ज्ञानी पुरुष ही संसार की ओर से निवृत्त होकर उनके स्वरूपभूत परमानन्द का अनुभव कर सकता है। अतः जो लोग पारमार्थिक बुद्धि से रहित हैं और गुणों के द्वारा नचाये जा रहे हैं, उनके कल्याण के लिये ही आप भगवान की लीलाओं का सर्वसाधारण के हित की दृष्टि से वर्णन कीजिये। जो मनुष्य अपने धर्म का परित्याग करके भगवान के चरणकमलों का भजन-सेवन करता है- भजन परिपक्व हो जाने पर तो बात ही क्या है- यदि इससे पूर्व ही उसका भजन छूट जाये तो क्या कहीं भी उसका कोई अमंगल हो सकता है?

परन्तु जो भगवान का भजन नहीं करते और केवल स्वधर्म का पालन करते हैं, उन्हें कौन-सा लाभ मिलता है। बुद्धिमान मनुष्य को चाहिये कि वह उसी वस्तु की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करे, जो तिनके से लेकर ब्रह्मापर्यन्त समस्त ऊँची-नीची योनियों में कर्मों के फलस्वरूप आने-जाने पर भी स्वयं प्राप्त नहीं होती। संसार के विषय सुख तो, जैसे बिना चेष्टा के दुःख मिलते हैं वैसे ही, कर्म के फलरूप में अचिन्त्य गति समय के फेर से सबको सर्वत्र स्वभाव से ही मिल जाते हैं, व्यास जी! जो भगवान श्रीकृष्ण के चरणारविन्द का सेवक है, वह भजन न करने वाले कर्मी मनुष्यों के समान दैवात् कभी बुरा भाव हो जाने पर भी जन्म-मृत्युमय संसार में नहीं आता। वह भगवान के चरणकमलों के आलिंगन का स्मरण करके फिर उसे छोड़ना नहीं चाहता; उसे रस का चसका जो लोग चुका है। जिनसे जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय होते हैं, वे भगवान ही इस विश्व के रूप में भी हैं। ऐसा होने पर भी वे इससे विलक्षण हैं। इस बात को आप स्वयं जानते हैं, तथापि मैंने आपको संकेतमात्र कर दिया है, व्यास जी!

आपकी दृष्टि अमोघ है; आप इस बात को जानिये कि आप पुरुषोत्तम-भगवान के कलावतार हैं। आपने अजन्मा होकर भी जगत् के कल्याण के लिये जन्म ग्रहण किया है। इसलिये आप विशेष रूप से भगवान की लीलाओं का कीर्तन कीजिये। विद्वानों ने इस बात का निरूपण किया है कि मनुष्य की तपस्या, वेदाध्ययन, यज्ञानुष्ठान, स्वाध्याय, ज्ञान और दान का एकमात्र प्रयोजन यही है कि पुण्यकीर्ति श्रीकृष्ण के गुणों और लीलाओं का वर्णन किया जाये।

क्रमश:

साभार krishnakosh.org

राक्षसी शूर्पणखा. (पं.सुरेशचन्द्र ठाकुर)


राक्षसी शूर्पणखा.
(पं.सुरेशचन्द्र ठाकुर)

जनमानस में शूर्पणखा की छवि राक्षसी होने, कामी होने, निर्ममता से नरसंहार करने की होने से वह घृणा की दृष्टि से देखी जाती है। करोड़ों जन्मों तक तपस्या करने के बाद भी ऋषि-मुनियों को भगवद् दर्शन लाभ नहीं हो पाते, परंतु इसने उनके दर्शन के साथ-साथ बातें भी कीं तथा श्रीराम ने उसकी लक्ष्मणजी से भी बात करवाकर भक्तिस्वरूपा आद्या शक्ति जगत जननी सीता माता के दर्शन भी करवा दिए। एक जिज्ञासा बनी रहती है कि आखिर शूर्पणखा ने ऐसा कौन सा पुण्य किया होगा जिससे उसे यह सौभाग्य प्राप्त हुआ। मनीषी व ज्ञानीजन हमेशा इसका चिंतन किया करते हैं।

शूर्पणखा के पूर्व जन्म का वृत्तांत.

पूर्व जन्म में शूर्पणखा, इन्द्रलोक की 'नयनतारा' नामक अप्सरा थी। उर्वशी, रम्भा, मेनका, पूंजिकस्थला आदि प्रमुख अप्सराओं में इसकी गिनती थी। एक बार इन्द्र के दरबार में अप्सराओं का नृत्य चल रहा था। उस समय यह नयनतारा नृत्य करते समय भ्रूसंचालन अर्थात आंखों से इशारा भी कर रही थी। इसे देख इन्द्र विचलित हो गए और उसके ऊपर प्रसन्न हो गए।

तब से नयनतारा इन्द्र की प्रेयसी बन गई। तत्कालीन समय में पृथ्वी पर एक 'वज्रा' नामक एक ऋषि घोर तपस्या कर रहे थे, तब नयनतारा पर प्रसन्न होने के कारण ऋषि की तपस्या भंग करने हेतु इन्द्र ने इसे ही पृथ्वी पर भेजा, परंतु वज्रा ऋषि की तपस्या भंग होने पर उन्होंने इसे राक्षसी होने का श्राप दे दिया। ऋषि से क्षमा-याचना करने पर वज्रा ऋषि ने उससे कहा कि राक्षस जन्म में ही तुझे प्रभु के दर्शन होंगे। तब वही अप्सरा देह त्याग के बाद शूर्पणखा राक्षसी बनी। उसने दृढ़ निश्चय कर लिया कि प्रभु के दर्शन होने पर वह उन्हें प्राप्त कर लेगी।

वही नयनतारा वाला मोहक रूप बनाकर ही शूर्पणखा श्रीराम प्रभु के पास गई, परंतु एक गलती कर बैठी। वह यह कि परब्रह्म प्रभु परमात्मा परात्पर परब्रह्म को पति रूप में पाने की इच्छा प्रकट कर दी-

'तुम सम पुरुष न मो सम नारी। यह संजोग विधि रचा विचारी।।'
मम अनुरूप पुरुष जग माही। देखेऊं खोजि लोक तिहुं नाहीं।
ताते अब लगि रहिऊं कुंवारी। मनु माना कछु तुम्हहि निहारी।।

परब्रह्म को प्राप्त करने की एक प्रक्रिया होती है। भक्ति या वैराग्य के सहारे ही परब्रह्म को प्राप्त किया जा सकता है। शूर्पणखा भक्तिरूपा सीता माता और वैराग्यरूपी श्री लक्ष्मणजी के पास न जाकर सीधे ब्रह्म के पास चली गई। यह उसकी सबसे बड़ी गलती है। वह तो डायरेक्ट श्रीराम की पत्नी बनकर भक्ति को ही अलग कर देना चाहती थी। इसके अलावा वैराग्य का आश्रय लेती तो भी प्रभु को प्राप्त कर सकती थी, परंतु वैराग्य को भी नकारकर अर्थात वैराग्यरूपी श्री लक्ष्मणजी के पास भी न जाकर एवं अहंकार में आकर सीधे प्रभु के पास चली गई। उसमें अहंकार आ गया। वह कहती है- 'संपूर्ण संसार में मेरे समान कोई नारी नहीं'। इसका अर्थ यह हुआ कि समस्त संसार में आपकी पत्नी बनने लायक मेरे समान कोई नारी नहीं है।

अहंकारी को प्रभु मिलन संभव ही नहीं हो सकता, फिर भी उचित प्रक्रिया का ज्ञान कराने के लिए उसे वैराग्यरूपी लक्ष्मण के पास भेजा गया ताकि उसे प्रभु मिलन की सही प्रक्रिया ज्ञात हो सके। शूर्पणखा जैसी गलतियां कई बार हम लोग भी करते हैं, जैसे प्रभु के मंदिर में जाने पर हम लोग जहां अगरबत्ती का खाली पैकेट, नारियल की पॉलिथीन, माचिस की तीली, दूध चढ़ाकर दूध का खाली पाउच मंदिर परिसर में डस्टबिन में न डालकर चाहे जहां फेंक देते हैं। चैनल गेट में ही अगरबत्ती लगा देते हैं, नियत स्थान को छोड़कर पेड़ी पर भी दीपक लगा देते हैं, या भगवान के पैर के पास या शिवजी की जलाधारी के ऊपर ही दीपक रख आते हैं, आदि-आदि...। इस प्रकार के 32 भागवतापराध होते हैं। मंदिरों में जाकर इन 32 अपराधों में से 1 भी अपराध यदि कोई करता है तो उस पर भगवान की कृपा तो नहीं होती है, अपितु वह ईश्वर का कोपभाजन अवश्य बन जाता है।

वैरागी लक्ष्मण ने सोचा कि राक्षसी को वैराग्य तो आ नहीं सकता, अत: उसे पुन: प्रभु के पास भेज दिया। तब प्रभु ने कहा कि मैं तो भक्ति के वश में हूं, तब शूर्पणखा भक्तिरूपा सीता माता के पास गई, परंतु वहां भी एक भागवतापराध कर बैठी। सोचा, प्रभु इस भक्ति के वश में हैं, अत: मैं इस भक्ति को ही खा जाऊं। भक्ति को ही नष्ट कर दूं, ज‍बकि नियम यह है कि- 'श्रद्धा-भक्ति बढ़ाओ संतन की सेवा।

अत: लक्ष्मणजी ने क्रोध में आकर उसके नाक-कान काटकर अंग भंग कर दिया। तब शूर्पणखा के ज्ञान-चक्षु खुल गए और प्रभु के कार्य को पूरा कराने 'विनाशाय च दुष्कृतम्' के लिए उनकी सहायिका बनकर प्रभु के हाथ से खर व दूषण, रावण, कुंभकर्ण, मेघनाद आदि निशाचरों को मरवा दिया और प्रभु प्राप्ति की उचित प्रक्रिया अपनाने के लिए पुष्करजी में चली गई और जल में खड़ी होकर भगवान शिव का ध्यान करने लगी। 

'ज्योतिमत्रिस्वरूपाय निर्मल ज्ञान चक्षुसे।
ॐ रुद्रेश्वराय शान्ताय ब्रह्मणे लिंग मूर्तये।।'


दस हजार वर्ष बाद भगवान शिव ने शूर्पणखा को दर्शन दिए और वर प्रदान किया कि 28वें द्वापर युग में जब श्रीराम कृष्णावतार लेंगे, तब कुब्जा के रूप में तुम्हें कृष्ण से पति सुख की प्राप्ति होगी। तब श्रीकृष्ण तुम्हारी कूबड़ ठीक करके वही नयनतारा अप्सरा का मनमोहक रूप प्रदान करेंगे।

तीर्थ यात्रा में ना करें-32 अपराध.


तीर्थ यात्रा में
ना करें-32 अपराध.

मनुष्य के जीवन में तीर्थ यात्रा का विशेष महत्व है। ईश्वरीय आराधना इया भी यह एक अंग हैं, इसलिये इसमें में शास्त्र के नियम लागू होते हैं। ऐसा भी उल्लिखित हैं कि तीर्थ यात्रा में हुए दुष्कर्म का दंड सामान्य स्तिथि से चौगुना होता हैं। शास्त्र में ऐसे ३२ कर्म बताये गए हैं, जिन्हें नहीं करना चाहिए। वे हैं...

1. सवारी पर चढ़कर अथवा पैरों में खड़ाऊ (पद-रक्षक) पहनकर भगवान के मंदिर में जाना।

2. रथयात्रा, जन्माष्टमी आदि उत्सवों का न करना या उनके दर्शन न करना।

3. श्रीमूर्ति के दर्शन करके प्रणाम न करना।


4. अशौच-अवस्‍था में दर्शन करना।


5. एक हाथ से प्रणाम करना।

6. परिक्रमा करते समय भगवान के सामने आकर कुछ देर न रुककर, फिर परिक्रमा करना अथवा केवल सामने ही परिक्रमा करते रहना।


7. भगवान के श्रीविग्रह के सामने पैर फैला कर बैठना।


8. दोनों घुटनों को ऊंचा करके उनको हाथों से लपेटकर बैठ जाना।


9. मूर्ति के समक्ष सो जाना।


10. भोजन करना।


11. झूठ बोलना।


12. भगवान के श्रीविग्रह के सामने जोर से बोलना।

13. आपस में बातचीत करना।


14. मूर्ति के सामने चिल्लाना।


15. कलह करना।


16. पीड़ा देना।


17. ‍‍किसी पर अनुग्रह करना।


18. निष्ठुर वचन बोलना।


19. कम्बल से सारा शरीर ढंक लेना।

20. दूसरों की निंदा करना।


21. दूसरों की स्तुति करना।


22. अश्लील शब्द बोलना।


23. अधोवायु का त्याग करना।


24. शक्ति रहते हुए भी गौण अर्थात सामान्य उपचारों से भगवान की सेवा-पूजा करना।


25. भगवान को निवेदित किए बिना किसी भी वस्तु का खाना-पीना। 


26. ऋतु फल खाने से पहले भगवान को न चढ़ाना।

27. किसी शाक या फलादि के अगले भाग को तोड़कर भगवान के व्यंजनादि के लिए देना।


28. भगवान के श्रीविग्रह को पीठ देकर बैठना। 


29. भगवान के श्रीविग्रह के सामने दूसरे किसी को भी प्रणाम करना।


30. गुरुदेव की अभ्यर्थना, कुशल-प्रश्न और उनका स्तवन न करना।


31. अपने मुख से अपनी प्रशंसा करना।


32. किसी भी देवता की निंदा करना।

उपरोक्त निर्देश सामान्य रूप से यात्रा ही नहीं बल्कि मंदिर जाने-आने अथवा घर में स्थापित देव स्थान के भी लिए लागू होते हैं। इसका पालन अनिवार्य रूप से हर देव स्थान में किया जाना चाहिए।

कार्बन... (हीरा)


कार्ब....(हीरा)

पृथ्वी पर पाए जाने वाले तत्वों में कार्बन या प्रांगार एक प्रमुख एवं महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। इस रासायनिक तत्त्व का संकेत C तथा परमाणु संख्या ६, मात्रा संख्या १२ एवं परमाणु भार १२.००० है। कार्बन के तीन प्राकृतिक समस्थानिक 6C12, 6C13 एवं 6C14 होते हैं। कार्बन के समस्थानिकों के अनुपात को मापकर प्राचीन तथा पुरातात्विक अवशेषों की आयु मापी जाती है। कार्बन के परमाणुओं में कैटिनेशन नामक एक विशेष गुण पाया जाता है, जिसके कारण कार्बन के बहुत से परमाणु आपस में संयोग करके एक लम्बी श्रृंखला का निर्माण कर लेते हैं। इसके इस गुण के कारण पृथ्वी पर कार्बनिक पदार्थों की संख्या सबसे अधिक है। यह मुक्त एवं संयुक्त दोनों ही अवस्थाओं में पाया जाता है।

इसके विविध गुणों वाले कई बहुरूप हैं, जिनमें हीरा, ग्रेफाइट काजल, कोयला प्रमुख हैं। इसका एक अपरूप हीरा, जहाँ अत्यन्त कठोर होता है, वहीं दूसरा अपरूप ग्रेफाइट इतना मुलायम होता है कि इससे कागज पर निशान तक बना सकते हैं। हीरा विद्युत का कुचालक होता है, एवं ग्रेफाइट सुचालक होता है। इसके सभी अपरूप सामान्य तापमान पर ठोस होते हैं एवं वायु में जलकर कार्बन डाइ-आक्साइड गैस बनाते हैं। हाइड्रोजन, हीलियम एवं आक्सीजन के बाद विश्व में सबसे अधिक पाया जाने वाला यह तत्व विभिन्न रूपों में संसार के समस्त प्राणियों एवं पेड़-पौधों में उपस्थित है। यह सभी सजीवों का एक महत्त्वपूर्ण अवयव होता है, मनुष्य के शरीर में इसकी मात्रा १८.५ प्रतिशत होती है और इसको जीवन का रासायनिक आधार कहते हैं।

कार्बन शब्द लैटिन भाषा के कार्बो शब्द से आया है जिसका अर्थ कोयला या चारकोल होता है। कार्बन की खोज प्रागैतिहासिक युग में हुई थी। कार्बन तत्व का ज्ञान विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं को भी था। चीन के लोग ५००० वर्षों पहले हीरे के बारे में जानते थे और रोम के लोग लकड़ी को मिट्टी के पिरामिड से ढककर चारकोल बनाते थे। लेवोजियर ने १७७२ में अपने प्रयोगो द्वारा यह प्रमाणित किया कि हीरा कार्बन का ही एक अपरूप है एवं कोयले की ही तरह यह जलकर कार्बन डाइ-आक्साइड गैस उत्पन्न करता है। कार्बन का बहुत ही उपयोगी बहुरूप फुलेरेन की खोज १९९५ ई. में राइस विश्वविद्यालय के प्रोफेसर आर इ स्मैली तथा उनके सहकर्मियों ने की। इस खोज के लिए उन्हें वर्ष १९९६ ई. का नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ।



(साभार-विकिपीडिया)

कार्तिक पूर्णिमा पर दान का महत्व.


कार्तिक पूर्णिमा पर
दान का महत्व.

कार्तिक मास मे दीपक का विशेष महत्व है। कार्तिक मास मे आकाशमंडल का सबसे तेजस्वी ग्रह सूर्य अपनी नीच राशि तुला की ओर गमन करता है। ऐसा माना जाता है कि सूर्य के इस राशि परिवर्तन से जीवन मे जड़ता तथा अंधकार की वृद्धि होती है। इसीलिये इस पूरे मास दीपक के प्रकाश, जप, दान तथा स्नान का विशेष महत्व रहता है। धर्मशास्त्रों में दीपदान का काफी गुणगान किया गया है और दीपदान से मानव अपने मनवांछित फल को प्राप्त कर सकता है। विभिन्न धर्मग्रंथों में दीपदान का गरिमामयी गुणगान किया गया है।

सूर्यग्रहे कुरुक्षेत्रे नर्मदायां शशिग्रहे ।
तुलादानस्य यत् पुण्यं तदूर्जे दीपदानतः ।

आशय....कुरुक्षेत्र में सूर्यग्रहण के समय और नर्मदा में चन्द्रग्रहण के समय अपने वजन के बराबर स्वर्ण के तुलादान करने का जो पुण्य है वह केवल दीपदान से मिल जाता है। 


तेनेष्टं क्रतुभिः सर्वं कृतं तीर्थावगाहनम् ।
दीपदानं कृतं येन कार्तिके केशवाग्रतः ।।

आशय...जो घृत का दीपक जलाकर पुनः तिल के तेल का दीपक जलाता है। उसे अश्वमेध यज्ञ से क्या लेना देना? उस प्राणी ने समस्त यज्ञों को कर लिया, सम्पूर्ण तीर्थों में स्नान हो गया। जिसने भगवान के आगे कार्तिक मास में दीपक लगाया।

मन्त्रहीनं क्रियाहीनं शुद्धिहीनं जनार्दन।
व्रतं सम्पूर्णतां यातु कार्तिके दीपदानतः ।।

आशय...दीपदान में नियमो, शुद्धता, मंत्रो की गलती भी सर्वथा माफ़ है। जो भगवान के सामने दीपक लगाता है, उसके मन्त्र, क्रिया और शुद्धि रहित व्रत भी पूर्ण हो जाते हैं।

दीपदानं कार्तिके ये दास्यन्ति हरितुष्टिदम् ।
गयायां पिण्डदानेन कृतं न प्रीणनं सुतैः ।।

आशय...दीपदान से गया श्राद्ध एवं पिंडदान का फल प्राप्त होता है। इससे पितर तृप्त होते हैं। 


सर्वंसहा वसुमती सहते न त्विदं द्वयम् ।
अकार्यपादघातं च दीपतापस्तथैव च ।।

आशय...भगवान् के समक्ष दीपक भूमि पर कभी न रखें क्योंकि सब कुछ सहने वाली पृथ्वी को अकारण किया गया पदाघात और दीपक का ताप सहन नही होता।

चेतना जगत के अदृश्य संदेश वाहक.


चेतना जगत के
अदृश्य संदेश वाहक.

मनुष्य जीवन का सर्वाधिक समय सोने में लगता है। यद्यपि दिन के 24 घन्टों में से सामान्यतः 16 घन्टे जागते हुँए ही बीतते है परन्तु इन 16 घन्टों में अनेक विधि क्रिया कलाप अपनाया जाता रहता है। यदि एक ही काम में समय लगने की दृष्टि से समय विभाजन और उसका मूल्याकंन किया जाये तो इसी निर्ष्कष पर पहुँचना पड़ेगा कि निद्रा ही मनुष्य का सबसे ज्यादा समय लेती है। स्वस्थ मनुष्य के लिए प्रायः आठ घन्टे नींद लेना आवश्यक समझा गया है।

नींद के सम्बन्ध में एक तथ्य यह भी प्रकाश में आया है कि उस समय शरीर तो सोया रहता है किन्तु मन जागता रहता है और वह तरह-तरह की हलचलें किया करता है। जागृत अवस्था में मन के जो क्रिया-कलाप, व्यवहार, आचरण और कार्यों के रुप में अभिव्यक्त होते जान पड़ते है, सुप्तावस्था में मन की वही हलचलें स्वप्न के रुप में दिखाई देती है। जागृत स्थिति में मन की उमंगों को सामाजिक दबाब, नैतिकता और सभ्यता के मानदण्डों से दबाना पड़ता है, उन्हें व्यक्त होने से रोकना पड़ता है। लेकिन स्वप्न एक ऐसी स्थिति है, कि वहाँ इस तरह का कोई दबाब अथवा नैतिक बाध्यता नहीं रहती, इसलिए सपनों में मन स्वच्छन्द होकर विहार करता है। इसी आधार पर प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक फ्राइड ने यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया, कि “ प्रत्येक स्वप्न अतीत की अनुभूतियों और दैहिक संवेदनों, विकारों का संयुक्त परिणाम होता है। स्वप्न यह स्पष्ट करते है कि हमारा चेतन मन, हमारी भावनाओं के हाथ का एक खिलौना मात्र है।

फ्राइड ने यह भी कहा कि मन की उचित वासनाएँ ही प्रायः स्वप्न के रुप में प्रकट होती है और तरह-तरह के रंग गिरंगे चित्र दिखाकर अपनी तृप्ति का उपाय सृजती रहती है। लेकिन अब यह धारणा पुरानी पड़ चुकी है और यह स्वप्नों का एक पक्ष हुई, न कि उन्हे समझने या व्याख्यायित करने का सम्पूर्ण आधार। फ्रायड के अनुसार व्यक्ति के अवचेतन को किन्ही सामान्य और संकीर्ण सिद्धान्तो द्वारा स्वप्न के माध्यम से समझने का दावा किया जाता था और उन्हें अतृप्त इच्छाओं की अभिव्यक्ति मात्र समझा जाता था। किन्तु अब स्वप्नों को सामान्यतः तीन वर्गों में रखा जाता है, एक तो वह स्वप्न जो शारीरिक दबावों से प्रभावित होने के कारण दिखाई देते है, दूसरे प्रकार के स्वप्न मानसिक स्थिति की प्रक्रिया स्वरुप उत्पन्न होते है, तीसरी श्रेंणी में उन स्वप्नों को रखा गया है, जिन्हें आध्यात्मिक स्वप्न कहा जा सकता है।

शारीरिक दशाओं से प्रभावित स्वप्नों में अपच, उदर, विकार, सर्दी गर्मी की अधिकता, भूख-प्यास, शरीर से किसी वस्तु के र्स्पश होने, सोते समय वातावरण में विशेष बदलाव आ जाने के कारण दिखाई पड़ने वाले दृश्य आते है। ऐसे स्वप्नों में अतिरंजना और विकृति की प्रधानता होती है। उदाहरण के लिये सोते समय यदि कोई सुई या कील वगैरह चुभ रही हो तो स्वप्न में जान पड़ता है कि किसी ने भाला या तलवार घुसेड़ दिया हो। सर्दी की अधिकता में बर्फ की सिल्लियों पर लेटने या ठन्डे पानी में डूबने तथा गर्मी में आग से झुलसने जैसे अनेक दृश्य दिखाई पड़ते है।

मनमस्तिष्क पर पड़ने वाले विभिन्न दबावों, इच्छाओं वासनाओं के आघातों से उत्पन्न स्वप्न दृश्य दूसरी श्रेणी के स्वप्नों की कोटी में आते है। इस प्रकार के स्वप्नों के संबंध में प्रसिद्ध मनःशास्त्री कार्य शेरनल का कथन है कि “शरीर या मन का प्रत्येक विक्षोभ एक विशिष्ट प्रकार के स्वप्न को उत्पन्न करता है। यह ठीक है कि स्वप्न तथ्यों पर आधारित होते है किन्तु वे तथ्यों की सीमाओं से बँधे नहीं होते। उनमें कल्पनात्मक उड़ान भी भरपूर होती है।

तीसरी श्रेणी के स्वप्न वे है जिन्हें आध्यत्मिक कहा जाता है। उन्हें अतीन्द्रिय भी कहा जा सकता है। फ्रायड ने इस तरह के स्वप्नों को योन कुष्ठाओं के द्वारा प्रेरित और दमित इच्छाओं का प्रतीक कहा था, वहीं स्वप्न अब अतीन्द्रिय अनुभूतियों के आधार सिद्ध हो रहे है। विभिन्न अनुसंधानों, प्रयोगों और परीक्षणों द्वारा यह भली भाँति स्पष्ट हो चुका हैं कि स्वप्न मात्र दमित यौन आकाँक्षाओं अथवा कल्पित क्लिष्ट मनोविकृतियों के दायरे में नहीं सिमट सकते अपितु उनके विविध वर्ग एवं स्तर है। अतीन्द्रिय अथवा आध्यात्मिक स्वप्न भी उनमें से एक है।

अतीन्द्रिय अनुभूतियों स्पष्ट प्रमाण देने वाले विभिन्न स्वप्नों की वैज्ञानिक छान-बीन से यही संकेत मिल रहे है कि व्यक्ति का अवचेतन मनुष्य के सामूहिक अवचेतन का ही एक अंग है। उसका विस्तार विराट् और महत् है
 विश्व के अनेक आविष्कार इसी अवचेतन की कृपा से सम्भव हुए है। हेनरी फार डेसफाटिस, डन पाइनकेयर जैसे गणितज्ञों को स्वप्न से मार्गदर्शन मिलने की घटनाएँ सर्व विदित है। सिलाई की सुई से लेकर बन्दूक के लिए शीसे के छर्रों और मनुष्यों तक की सैकड़ों वैज्ञानिकों आविष्कारों की सफलताओं का आधार स्वप्न प्रेरणाएँ रही है। विश्व विख्यात संगीतकार मीजार्ट को एक ललित संगीत धुन एक ही बग्घी में बैठकर कही जाते समय जरा सी झपकी लेने के वक्त सूझी। वायलिन बादक तारालिनी को द डेविल्स सानेट’ नामक धुन पूरी की पूरी स्वप्न में दिखाई पड़ी थी। ये धुने काफी प्रसिद्ध और लोकप्रिय हुई। विश्व प्रसिद्ध संगीतकार चैम्पीन भी अपने संगीत सृजन की प्रेरणाएँ सपनों में पाते थे। प्रसिद्ध नृत्याँगना मेरी विगमैन ने ‘पास्तेरोल’ नामक एक नृत्य की प्रेरणा एक स्वप्न द्वारा ही प्राप्त की थी। हेनरी भूर पाठलो पिकासो, ‘एडयू वेथ, वान गाँगासल्वाडोर डाली आदि प्रख्यात चित्रकारों की सृजन चेतना में स्वप्नों का बड़ा हाथ रहा है। 

साहित्यकारों का तो कहना ही क्या? पुश्किन, गेटे, शेक्सपीयर, टालस्टाय आदि सैकड़ों लेखकों को स्वप्न में प्राप्त हुए संकेतों, प्रेरणाओं, निर्देशों और परामर्शो के आधार पर एक से एक अनूँठी और ऐतिहासिक कृतियाँ सृजीं। प्रख्यात यूनानी लेखक होमर अँग्रेजी साहित्यकार कालरिज, एडगर एलनपो आदि ने अर्द्ध चेतन स्थिति में,स्वप्न लोक में विचरण करते उन्हीं प्रेरणाओं के आधार पर अनेक रचनाओं का सृजन किया।

इसी प्रकार अनेक गणितज्ञों ने गणित की जटिल समस्याओं को स्वप्नों के माध्यम से अवचेतन की झलकियों के आधार पर सुलझाया। वैज्ञानिकों ने इस आधार पर अनेकों महत्वपूर्ण आविष्कार किये है, कवियों ने अमर काव्यकृतियाँ रची है, कथाकारों और नाट्यकारों ने स्वप्नों के माध्यम से रचनाओं के प्लाट प्राप्त किये है इन स्वप्नों का विश्लेषण अभी संभव नहीं हुआ है, पर यह तथ्य है कि अनेक व्यक्तियों ने स्वप्नों के माध्यम से वर्तमान में प्रस्तुत जटिल गुत्थियों का समाधान प्राप्त किया और उन्हें सुलझाया। अनेक वैज्ञानिक आविष्कारों के मूल में स्वप्नों की प्रेरणा होने तथा साहित्यिक कृतियों का आधार मिलने की सैकड़ों घटनाएँ मिलती है। उनमें से कई तो विश्व विख्यात है। प्रश्न उठता है कि स्वप्नों का कारण यदि मन की दमित और कुँठित इच्छाएँ वासनाएँ ही है, तो ये महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक स्वप्नों के पीछे कौन-सी दमित आकाँक्षाएँ काम करती रही थीं जिन्होने सृजन और निर्माण की नई-नई धाराओं को निःसृत किया।

इन सभी घटनाओं का विश्लेषण करने के बाद इसी निर्ष्कष पर पहुँचना पड़ता है कि स्वप्न में मानवीय मस्तिष्क का अधिक विस्तृत और सशक्त भाग, जिसे अवचेतन कहा जाता है, जागृत और क्रियाशील रहता है तथा व्यक्ति के मन की संरचना के अनुसार वह विश्वव्यापी गतिविधियों से गहराई के साथ सम्बद्ध हो सकता है। अतीन्द्रिय स्वप्नों का यह एक प्रकार है और सर्व सामान्य भी
 यदा-कदा इस प्रकार की अनुभूतियाँ प्राप्त करता है, जब कोई सुलझाये नहीं सुलझ रही हो, मन बहुत बेचैन और व्यथित हो तो, न जाने कहाँ से कई बार ऐसे समाधान सूझ पड़ते है कि चमत्कृत रह जाना पड़ता है। इसे सृष्टा की अनुकम्पा और करुणा ही कहा जाना चाहिए कि उसने अपनी प्रिय सन्तान के लिए स्वयं उत्पन्न की गई समस्याओं के लिए भी समाधान के ऐसे स्त्रोत प्रस्तुत किऐ और न सही समस्याएँ, अनेक महत्वपूर्ण प्रेरणाएँ सृजन के सन्देश, इस विचित्र माध्यम से प्राप्त होते है।


(अखंड ज्योति-६/१९८०)

अंधे की लालटेन. (तोल्सतोय)


अंधे की लालटेन. 
(तोल्सतोय)
अनुवाद - सुकेश साहनी

अँधेरी रात में एक अंधा सड़क पर जा रहा था। उसके हाथ में एक लालटेन थी और सिर पर एक मिट्टी का घड़ा। किसी रास्ता चलने वाले ने उससे पूछा, 'अरे मूर्ख, तेरे लिए क्या दिन और क्या रात। दोनों एक से हैं। फिर, यह लालटेन तुझे किसलिए चाहिए?' 

अंधे ने उसे उत्तर दिया, 'यह लालटेन मेरे लिए नहीं, तेरे लिए जरूरी है कि रात के अँधेरे में मुझसे टकरा कर कहीं तू मेरा मिट्टी का यह घड़ा न गिरा दे।'

गीता प्रवचन-भाग–१३ (राष्ट्रसंत श्री विनोवाजी भावे)

राष्ट्र-संत आदरणीय श्री विनोबा भावे जी का गीता पर दिया गया प्रवचन क्रमश: पोस्ट किया जा रहा हैं|
सोलहवां अध्याय.परिशिष्ट-1-दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा…88.पुरुषोत्तम-योग की पूर्व-प्रभाः दैवी संपत्ति.

गीता प्रवचन-भाग–१३   
(राष्ट्रसंत श्री विनोवाजी भावे)

1. गीता के पहले पांच अध्यायों में हमने देखा कि जीवन की कुल योजना क्या है, और हम अपना जन्म सफल कैसे कर सकते हैं। उसके बाद छठे अध्याय से ग्यारहवें अध्याय तक हमने भक्ति का भिन्न-भिन्न प्रकार से विचार किया। ग्यारहवें अध्याय में भक्ति का दर्शन हुआ। बाहरवें में सगुण और निर्गुण भक्ति की तुलना करके भक्त के महान लक्षण देखे। बारहवें अध्याय के अंत तक कर्म और भक्ति, इन दोनों तथ्यों की छानबीन हुई। ज्ञान का तीसरा विभाग रह गया था, उसे हमने तेरहवें, चौदहवें और पंद्रहवें अध्यायों में देख लिया- आत्मा को देह से अलग करना और उसके लिए तीनों गुणों को जीतकर अंत में सर्वत्र प्रभु को देखना। पंद्रहवें अध्याय में जीवन का संपूर्ण शास्त्र देख लिया। पुरुषोत्तम-योग में जीवन की पूर्णता होती है। उसके बाद फिर कुछ बाकी नहीं रहता।

2. कर्म, ज्ञान और भक्ति की पृथक्ता मुझे सहन नहीं होती। कुछ साधकों की ऐसी निष्ठा होती है कि उन्हें केवल कर्म ही सूझता है। कोई भक्ति के स्वतंत्र मार्ग की कल्पना करते हैं और उसी पर सारा जोर देते हैं। कुछ लोगों को झुकाव ज्ञान की ओर होता है। जीवन का अर्थ केवल कर्म, केवल भक्ति, केवल ज्ञान- ऐसा केवल-वाद मुझे मंजूर नहीं। इसके विपरीत कर्म भक्ति, कुछ ज्ञान और कुछ कर्म, इस तरह का उपयोगिता-वाद भी मुझे नहीं जंचता।

पहले कर्म, फिर भक्ति, फिर ज्ञान, इस तरह से क्रम-वाद को भी मैं नहीं स्वीकारता। तीनों वस्तुओं का समन्वय किया जाये, यह सामंजस्य-वाद भी मुझे पंसद नहीं है। मुझे तो यह अनुभव करने की इच्छा होती है कि जो कर्म है वही भक्ति है, वही ज्ञान है। बर्फी के एक टुकड़े की मिठास, उसका आकार और उसका वजन अलग-अलग नहीं है। जिस क्षण हम बर्फी का टुकड़ा मुँह में डालते हैं, उसी क्षण उसका आकार भी हम खा लेते है और उसका वजन भी पचा लेते हैं, और उसकी मिठास भी चख लेते हैं। तीनों बातें मिली-जुली हैं। बर्फी के प्रत्येक कण में आकार, वजन और मधुरता है। यह नहीं कि उसके एक टुकड़े में केवल आकार है, दूसरे में कोरी मिठास है और तीसरे में सिर्फ वजन ही है।

उसी तरह जीवन की प्रत्येक क्रिया में परमार्थ भरा रहना चाहिए- प्रत्येक कृत्य सेवामय, प्रेममय और ज्ञानमय होना चाहिए। जीवन के अंग-प्रत्यंग में कर्म, भक्ति और ज्ञान भरा रहना चाहिए, इसे ‘पुरुषोत्तम-योग’ कहते है। सारे जीवन को केवल परमार्थमय ही बना डालना- यह बात बोलने में तो बड़ी आसान है। परंतु इस कथन में जो भाव है, उसका यदि विचार करने लगें, तो केवल निर्मल सेवा करने के लिए अंतःकरण में शुद्ध ज्ञान-भक्ति की हार्दिकता गृहीत समझकर चलना होगा। इसलिए कर्म, भक्ति और ज्ञान अक्षरक्षः एकरूप हैं, इस परम दशा को ‘पुरुषोत्तम-योग’ कहते हैं। यहाँ जीवन की अंतिम सीमा आ गयी।

सत्रहवां अध्याय परिशिष्ट-2 साधक का कार्यक्रम 94. सुव्यवस्थित व्यवहार से वृत्ति मुक्त रहती है 1. प्यारे भाइयों, हम धीरे-धीरे अंत तक पहुँचते आ रहे हैं। पंद्रहवें अध्याय में हमने जीवन के संपूर्ण शास्त्र का अवलोकन किया। सोलहवें अध्याय में एक परिशिष्ट देखा। मनुष्य के मन में और उसके मन के प्रतिबिंब स्वरूप समाज में दो वृत्तियों, दो संस्कृतियों अथवा दो संपत्तियों का झगड़ा चल रहा है। इनमें से हमें दैवी संपत्ति का विकास करना चाहिए, यह शिक्षा सोलहवें अध्याय के परिशिष्ट से मिली है। आज सत्रहवें अध्याय में हमें दूसरा परिशिष्ट देखना है। एक दृष्टि से कह सकते हैं कि इसमें कार्यक्रम-योग कहा गया है। गीता इस अध्याय में रोज के कार्यक्रम की सूचना दे रही है। आज के अध्याय में हमें नित्य क्रिया पर विचार करना है। 2. अगर हम चाहते हैं कि हमारी वृत्ति मुक्त और प्रसन्न रहे, तो हमें अपने व्यवहार का एक क्रम बांध लेना चाहिए। हमारा नित्य का कार्यक्रम किसी-न-किसी निश्चित आधार पर चलना चाहिए। मन तभी मुक्त रह सकता है, जबकि हमारा जीवन उस मर्यादा में और एक निश्चित नियमित रीति से चलता रहे। नदी स्वच्छंदता से बहती है, परंतु उसका प्रवाह बंधा हुआ है। यदि वह बद्ध न हो, तो उसकी मुक्तता व्यर्थ चली जायेगी। ज्ञानी पुरुष का उदाहरण अपनी आंखों के सामने लाओ। सूर्य ज्ञानी पुरुषों का आचार्य है। भगवान ने पहले-पहल कर्मयोग सूर्य को सिखाया, फिर सूर्य से मनु को, अर्थात विचार करने वाले मनुष्य को, वह प्राप्त हुआ। सूर्य स्वतंत्र और मुक्त है। वह नियमित है- इसी में उसकी स्वतंत्रता का सार है। यह हमारे अनुभव की बात है कि हमें एक निश्चित रास्ते से घूमने जाने की आदत है, तो रास्ते की ओर ध्यान न देते हुए भी मन से विचार करते हुए हम घूम सकते हैं। यदि घूमने के लिए हम रोज नये-नये रास्ते निकालते रहेंगे, तो सारा ध्यान उन रास्तों में लगाना पड़ेगा। फिर मन को मुक्तता नहीं मिल सकती। सारांश यह कि हमें अपना व्यवहार इसीलिए बांध लेना चाहिए कि जीवन एक बोझ सा नहीं, बल्कि आनंदमय प्रतीत हो।


साभार krishnakosh.org

प्रथम स्कन्धः पंचम अध्यायः श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
प्रथम स्कन्धः पंचम अध्यायः श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद

भगवान के यश-कीर्तन की महिमा और देवर्षि नारद जी का पूर्व चरित्र. 

सूत जी कहते हैं- तदनन्तर सुखपूर्वक बैठे हुए वीणापाणि परम यशस्वी देवर्षि नारद ने मुसकराकर अपने पास ही बैठे ब्रह्मर्षि व्यास जी से, नारद जी ने प्रश्न किया- महाभाग व्यास जी! आपके शरीर एवं मन- दोनों ही अपने कर्म एवं चिन्तन से सन्तुष्ट हैं न? अवश्य ही आपकी जिज्ञासा तो भलीभाँति पूर्ण हो गयी है; क्योंकि आपने जो यह महाभारत की रचना की है, वह बड़ी ही अद्भुत है। वह धर्म आदि सभी पुरुषार्थों से परिपूर्ण है। सनातन ब्रह्मतत्त्व को भी आपने खूब विचारा है और जान भी लिया है। फिर भी प्रभु! आप अकृतार्थ पुरुष के समान अपने विषय में शोक क्यों कर रहे हैं?

व्यास जी ने कह- आपने मेरे विषय में जो कुछ कहा है, वह सब ठीक ही है। वैसा होने पर भी मेरा हृदय सन्तुष्ट नहीं है। पता नहीं, इसका क्या कारण है। आपका ज्ञान अगाध है। आप साक्षात् ब्रह्मा जी के मानसपुत्र हैं। इसलिये मैं आपसे ही इसका कारण पूछता हूँ। नारद जी! आप समस्त गोपनीय रहस्यों को जानते हैं; क्योंकि आपने उन पुराणपुरुष की उपासना की है, जो प्रकृति-पुरुष दोनों के स्वामी हैं और असंग रहते हुए ही अपने संकल्पमात्र से गुणों के द्वारा संसार की सृष्टि, स्थिति और प्रलय करते रहते हैं। आप सूर्य की भाँति तीनों लोकों में भ्रमण करते रहते हैं और योगबल से प्राण वायु के समान सबके भीतर रहकर अन्तःकरणों के साक्षी भी हैं। योगानुष्ठान और नियमों के द्वारा परब्रह्म और शब्दब्रह्म दोनों की पूर्ण प्राप्ति कर लेने पर भी मुझमें जो बड़ी कमी है, उसे आप कृपा करके बतलाइये।

नारद जी ने कहा- व्यास जी! आपने भगवान के निर्मल यश का गान प्रायः नहीं किया। मेरी ऐसी मान्यता है कि जिससे भगवान संतुष्ट नहीं होते, वह शास्त्र या ज्ञान अधुरा है। आपने धर्म आदि पुरुषार्थों का जैसा निरूपण किया है, भगवान श्रीकृष्ण की महिमा का वैसा निरूपण नहीं किया। जिस वाणी से- चाहे वह रस-भाव-अलंकारादि से युक्त ही क्यों न हो- जगत् को पवित्र करने वाले भगवान श्रीकृष्ण के यश का कभी गान नहीं होता, वह तो कौओं के लिये उच्छिष्ट फेंकने के स्थान के समान अपवित्र मानी जाती हैं। मानसरोवर के कमनीय कमलवन में विरहने वाले हंसों की भाँति ब्रह्मधाम में विहार करने वाले भगवच्चरणारविन्दाश्रित परमहंस भक्त कभी उसमें रमण नहीं करते।

इसके विपरीत जिसमें सुन्दर रचना भी नहीं है और जो दूषित शब्दों से युक्त भी है, परन्तु जिसका प्रत्येक श्लोक भगवान के सुयश सूचक नामों से युक्त है, वह वाणी लोगों के सारे पापों का नाश कर देती है; क्योंकि सत्पुरुष ऐसी ही वाणी का श्रवण, गान और कीर्तन किया करते हैं। वह निर्मल ज्ञान भी, जो मोक्ष की प्राप्ति का साक्षात् साधन है, यदि भगवान की भक्ति से रहित हो तो उसकी उतनी शोभा नहीं होती। फिर जो साधन और सिद्धि दोनों ही दशाओं में सदा ही अमंगल रूप है, वह काम्यकर्म और जो भगवान को अर्पण नहीं किया गया है, ऐसा अहैतुक (निष्काम) कर्म भी कैसे सुशोभित हो सकता है।

क्रमश:


साभार
krishnakosh.org

प्रगति तो हो, पर उत्कृष्टता की दिशा में.


प्रगति तो हो, पर
उत्कृष्टता की दिशा में.

गति और अवगति का स्वरुप समझने में भूल होते रहने के कारण ही मनुष्य भ्रम में पड़ते, पछताते और दुसह दुःख सहते है। प्रतिष्ठा की परिभाषा को बलिष्ठता, शिक्षा, सम्पदा और प्राप्त करने तक सीमित समझा जाता है। इस दिशा में जो जितना प्रयत्न करता है, वह उतना पुरुषार्थी कहलाता है और जो जितना सफल होता है, वह उतना भाग्यशाली माना जाता है।

वस्तुओं और सामर्थ्यों का अपना महत्व है, पर यह भुला नहीं दिया जाना चाहिए कि उन उपलब्धियों का सत्प्रयोजन में प्रयोग हो सकने पर भी उनके द्वारा वास्तविक प्रगति का लाभ मिलता है। प्रगति की वास्तविकता व्यक्तित्व की गरिमा के साथ जुड़ी हुई है। मनुष्य का चिन्तन, चरित्र एवं लक्ष्य ही वह आधार है, जिस पर व्यक्तित्व की गरिमा टिकी हुई है। यदि इस केन्द्र बिन्दु पर निकृष्टता आधिपत्य करले तो समस्त उपलब्धियाँ हेय प्रयोजनों के लिए ही प्रयुक्त होती रहेंगी और फलतः पतन और त्रास-विनाश का संकट ही उत्पन्न होता रहेगा। वह प्रगति कैसी जिसमें जलने और जलाने का- गिरने और गिराने का ही उपक्रम चलता रहे।

प्रगति का अर्थ है-ऊर्ध्वगमन, उर्त्कष, अभ्युदय। यह विभूतियाँ अन्तःक्षेत्र की है। दृष्टिकोण और लक्ष्य ऊँचा रहने पर इच्छा और आँकाक्षा का स्तर ऊँचा उठता है। आत्म गौरव का ध्यान रहता है। अपना मूल्य गिरने न पाये, यह सतर्कता जिसमें जितनी पाई जाती है, वह उतना ही प्रगतिशील है।

सम्पन्नता और सफलता चमत्कृत तो कर सकती है। आकर्षक भी लगती है किन्तु यदि उसका उपयोग सदुद्देश्यों के लिए कर सकने की साहसिकता उत्पन्न न हो सकी तो समझना चाहिए गतिशीलता तो रही पर अवगति के गर्त तक ले पहुँची। प्रगति वह है, जिसके सहारे आत्म सन्तोष मिल सके और अपनाई गई आदर्शवादिता के सम्मुख जन जन विवेक का मस्तक झुक सके।



(अखंड ज्योति-४/१९८०)

कर्म ही सर्वोपरि.

कर्म ही सर्वोपरि.


नमस्याओ देवान्नतु हतविधेस्तेऽपि वशगाः, विधिर्वन्द्यः सोऽपि प्रतिनियत कर्मैकफलदः ।
फलं कर्मायतं किममरणैं किं च विधिना नमस्तत्कर्मेभ्यो विधिरपि न येभ्यः प्रभवित ॥
(भतृहरिकृत नीति शतक 75 वाँ श्लोक)


हम सब जिन देव शक्तियों को अर्चना-आराधना के उपायों और विधानों से जानने के लिए उत्सुक रहते हैं, वे देव-सत्ताएँ भी विधि-व्यवस्था से ही बँधी दीखती है। दैवी विधानों की अवहेलना वे भी नहीं करतीं। तो क्या उस सृष्टि-संचालक विधान की और उसके विधाता की ही वन्दना की जाय? पर हमारे भाग्य का निर्धारण तो वह विधि-व्यवस्था हमारे ही कर्मो के अनुसार करती है। यही उसका सुनिश्चित नियम है। हमारे अपने ही कर्मो का फल प्रदान करने की प्रक्रिया, वह चलाता रहता है।

इस प्रकार हमारे भोगों, उपलब्धियों और प्रवृत्तियों के एकमात्र सूत्र संचालक हमारे स्वयं के कर्म ही हैं। तब फिर देवताओं और विधाता को प्रसन्न करने की चिन्ता करते रहना कहाँ की बुद्धिमत्ता है? हमारा साध्य और असाध्य तो कर्म ही है। वही वन्दनीय है-अभिनन्दनीय है, वही वरण और आचरण के योग्य है। दैवी विधान भी उससे भिन्न और उसके विरुद्ध कुछ कभी नहीं करता। कर्म ही सर्वोपरि है। परिस्थितियों और मनःस्थितियों का वही निर्माता है। उसी की साधना से अभीष्ट की उपलब्धि सम्भव है।



(अखंड ज्योति-२/१९८०)

परिवर्तन में प्रगति और जीवन.

परिवर्तन में प्रगति और जीवन.


स्थिरता जड़ता का चिन्ह है और परिवर्तन प्रगति का। स्थिरता में नीरसता है, निस्तब्धता और निष्क्रियता। किन्तु परिवर्तन नये चिन्तन, नये अनुभव और नये अनुभव का पथ प्रशस्त करता है। जीवन प्रगतिशील है, अस्तु उसमें परिवर्तन आवश्यक होता है और अनिवार्य भी।

प्रगतिशील परिवर्तन से डरते नहीं, उसका समर्थन करते हैं और स्वागत भी। आकाश में सभी ग्रह गोलक गतिशील हैं। इससे उनका चुम्बकत्व स्थिर रहता और उसके सहारे उनका मध्यवर्ती सहकार बना रहता है। यदि वे निष्क्रिय रहे होते तो अपनी ऊर्जा गँवा बैठते। जो आगे नहीं बढ़ता, वह स्थिर भी नहीं रह सकता। स्थिरता पर संकट आते ही, विकल्प विनाश ही रह जाता है। अस्तु जीवन को गतिशील रहना पड़ता है। जो निर्जीव है, वह भी गतिहीन नहीं है।

युग बदलते हैं, परिवर्तन क्रम में आशा और निराशा के अवसर आते और चले जाते हैं। रात्रि और दिन स्वप्न और जागृति, जीवन और मरण, शीत और ग्रीष्म, हानि और लाभ, संयोग और वियोग का अनुभव लगता तो परस्पर विरोधी है, पर अन्ततः वे एक-दूसरे के साथ गुँथे रहते हैं और दुहरे रसास्वादन का आनन्द देते हैं। ऋण और धन धाराओं का मिलन ही बिजली के सामर्थ्यवना् प्रवाह को जन्म देता है।

आपत्तियाँ मनुष्य को सशक्त और जागरुक साहसी बनाती हैं। असुविधाएँ उत्साह बढ़ाती और प्रगति के लिए सुविधाएँ प्रदान करती हैं। एकाकी रहने पर दोनों अपूर्ण हैं। पूर्णता के लिए ऐसा कुछ चाहिए जिसमें अग्रगमन का उत्साह और अवरोध से जूझने का पराक्रम प्रकट होता रहे।




(अखंड ज्योति-३/१०८०)

गीता प्रवचन-भाग–१२-(राष्ट्रसंत श्री विनोवाजी भावे)


राष्ट्र-संत आदरणीय श्री विनोबा भावे जी का गीता पर दिया गया प्रवचन क्रमश: पोस्ट किया जा रहा हैं|
पंद्रहवां अध्याय - पूर्णयोग: सर्वत्र पुरुषोत्तम-दर्शन...82. प्रयत्न-मार्ग से भक्ति भिन्न नहीं।

गीता प्रवचन-भाग–१२  
(राष्ट्रसंत श्री विनोवाजी भावे)

1. आज एक अर्थ में हम गीता के छोर पर आ पहुँचे हैं। पंद्रहवें अध्याय में सब विचारों की परिपूर्णता हो गयी है। सोलहवां और सत्रहवां अध्याय परिशिष्ट रूप है, अठारहवां उपसंहार है। यही कारण है कि भगवान ने इस अध्याय के अंत में ‘शास्त्र’ संज्ञा दी है। इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयाऽनघ- ऐसा अंत में भगवान ने कहा है। यह इसलिए नहीं कि यह अंतिम अध्याय है, बल्कि इसलिए कि अब तक जीवन के जो शास्त्र, जो सिद्धांत बताये, उनकी परिपूर्णता इस अध्याय में की गयी है। इस अध्याय में परमार्थ पूरा हो गया। वेदों का संपूर्ण सार इसमें आ गया। परमार्थ की चेतना मनुष्य में उत्पन्न कर देना ही वेदों का कार्य हैं वह इस अध्याय में किया गया है, अतः इसे वेद का सार यह गौरवपूर्ण पदवी मिली है।

तेरहवें अध्याय में हमने देह से आत्मा को अलग करने की आवश्यकता देखी। चौदहवें में तत्संबंधी प्रयत्नवाद की थोड़ी छानबीन की। रजोगुण और तमोगुण का निग्रहपूर्वक त्याग करें, सत्त्वगुण का विकास करके उसकी आसक्ति को जीत लें, उसके फल का त्याग करें- इस तरह यह प्रयत्न करना है। अंत में कहा गया कि इन प्रयत्नों के सोलहों आने सफल होने के लिए आत्मज्ञान की आवश्यता है और बिना भक्ति के आत्मज्ञान संभव नहीं।

2. परन्तु भक्ति-मार्ग प्रयत्न-मार्ग से भिन्न नहीं है। यह सूचित करने के लिए इस पंद्रहवें अध्याय के आरंभ में ही संसार को एक महान वृक्ष की उपमा दी गयी है। इस वृक्ष में त्रिगुणों से पोषित प्रचंड शाखाएं फूटी हैं। आरंभ में ही यह कर दिया है कि अनासक्ति और वैराग्यरूपी शस्त्रों से इस वृक्ष को काटना चाहिए। स्पष्ट है कि पिछले अध्याय में जो साधनमार्ग बताया गया है, वही फिर यहाँ आरंभ में दुहराया गया है। रज-तम को मिटाना और सत्त्वगुण की पुष्टि द्वारा अपना विकास कर लेना है। एक विनाशक है, दूसरा विधायक। दोनों को मिलाकर मार्ग एक ही होता है। घास-फूस काटना और बीज बोना दोनों एक ही क्रिया के दो अंग हैं। वैसी ही यह बात है।

साभार krishnakosh.org

अभिमान का विश्लेषण.

अभिमान का विश्लेषण.


प्रत्येक व्यक्ति की धारणा और मानता रहती है कि वह संसार का सर्वश्रेष्ठ, सबसे अधिक महत्वपूर्ण और सबसे बड़ा व्यक्ति है। कोई अपनी इस मान्यता को व्यक्त करे, या न करे पर आचार में व्यवहार में, उसका जो अहं झलकता है, उससे क्षण क्षण में यही भाव टपकता है। विचार किया जाना चाहिए कि व्यक्ति जैसा जो कुछ है, उस रुप में उसकी हस्ती क्या है? पुराणों में कथा आती है कि चक्रवर्ती सम्राट भरत ने जब समस्त भूमण्डल को जीत लिया और वे इन्द्र के पास पहुँचे तो उन्होंने दावा किया कि, मैं ही संभवतः एक ऐसा व्यक्ति हूँ, जिसने पूरे भूमण्डल को जय कर लिया है। मुझे अपनी कीर्ति को अक्षय और अमर बनाना चाहिए और इसके लिए मुझे वृषमाचल पर अपना नाम अंकित करना चाहिए। भरत की धारणा थी कि यहाँ उनका यह पहला नाम होगा।

इन्द्र ने सम्राट भरत के कथन से सहमति व्यक्त की और कहा कि आप जाइये तथा वृषमाचल पर अपना नाम अंकित कर आइये। वहाँ हम ऐसे ही व्यक्ति को अपना नाम अंकित करने की छूट देते है, जिसने पूरी पृथ्वी पर तीनों लोकों पर विजय प्राप्त कर ली हो। सम्राट भरत बड़े इठलाते हुए वृषमाचल की ओर बढे, पर यह क्या? वहाँ पहुँच कर तो उनके पैर यकायक ठिठक गये, उन्होने ऊपर से नीचे तक पर्वत शिखर नाप डाला। जहाँ तक वे जा सकते थे, ऊपर से नीचे तक शिखर की अन्य दिखाओं में भी गये। समस्या यह थी कि वह अपना नाम कहाँ लिखें? शिखर पर ही नहीं पूरे पर्वत पर नाम ही नाम लिखे हुए थे। पूरे पर्वत पर इतने अधिक नाम लिखे थें कि कहीं कोई स्थान इतना खाली नहीं था, जहाँ कि एक नाम और लिखा जा सके। इन लिखे हुए नामों में से एक भी ऐसा नहीं था, जो चकक्रवर्ती का नाम न हो।

भरत खिन्न हो गये। वे पर्वत शिखर से उतर कर इन्द्र के पास गये और कहा- शिखर पर तो कहीं कोई स्थान खाली नहीं है। पूरे पर्वत पर चक्रवर्ती सम्राटों के नाम अंकित है। मैं अपना नाम कहाँ लिखूँ ?

इन्द्र ने कहा - ‘किसी का नाम मिटा दीजिये और स्थान पर अपना नाम लिख दीजिए। मुझे जहाँ तक ज्ञात है पिछले सहस्त्रों वर्षों से यही क्रम चलता आ रहा है। मेरे पिता भी बताते थे कि न मालूम कब से यह परम्परा चली आ रही है, उन्हें इस बारे में कुछ भी नहीं मालूम।”

“तो फिर कभी मेरा नाम भी मिटा कर भविष्य में कोई चक्रवर्ती सम्राट वहाँ अपना नाम लिख जायेगा?” सम्राट भरत ने पूछा।

‘अवश्य ही इस सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा जा सकता। अतीत में अनादि काल से असंख्य चक्रवर्ती सम्राट हुए हैं और भविष्य में भी अनन्त काल तक होते रहेंगे। किसी के सम्बन्ध में आश्वासन पूर्वक यह नहीं कहा जा सकता कि उनका नाम अनन्त काल तक इस पर्वत शिखर पर अंकित रहेगा।”

तो फिर क्या लाभ? सम्राट भरत का अहं विचलित होकर पानी-पानी हो गया। वे अनुभव करने लगे कि कितना विराट् और अनादि अनन्त काल से चला आ रहा है, यह जगत? इस विराट् और विषम जगत में अपना अस्तित्व, अपना स्थान, है ही कितना? यह सोचना गलत होगा कि हम से पहले किसी ने वह काम न किया है, जो मैंने कर लिया है। अति समर्थ शक्तिशली,, अजेय कुबेर के समान वैभव सम्पन्न और सूर्य के समान अपनी कीर्ति को चतुर्दिश बिखेरने वाले मानव न जाने कितने हुए है? भविष्य में भी वे और होते रहेंगे, इस स्थिति में अपना महत्व, है ही कितना?

यह सोचकर सम्राट भरत इन्द्रलोक से वापिस चले आये। उनका अभिमान जाता रहा था, अहं जल कर क्षार-क्षार हो गया था और उस ‘अहं’ का विसर्जन होते ही इतनी शान्ति अनुभव होने लगी, जितनी कि समस्त भूमण्डल पर विजय प्राप्त करने के उपरान्त भी नहीं हुई थी। तब भी महत्वाकाँक्षाओं की अद्विग्नता अशान्त किए दे रही थी और जब अपने अहं का सत्य महत्व का भान खुलकर सामने आ गया तो लगा सब कुछ शान्त हो गया है।

समस्त विग्रह, क्लेश, कलह, युद्ध केवल अहं का पोषण और महत्व का तोषण करने के लिए ही तो है। काल के प्रवाह को दृष्टिगत देखते हुए, उस परिप्रेक्ष्य में आत्मविश्लेषण किया जाये तो शान्ति इसी क्षण, अभी और यहीं उपलब्ध है।


(अखंड ज्योति-४/१९८०)

श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः चतुर्थ अध्यायः श्लोक 16-33 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
प्रथम स्कन्धः चतुर्थ अध्यायः श्लोक 16-33 का हिन्दी अनुवाद

महर्षि भूत और भविष्य को जानते थे। उनकी दृष्टि अचूक थी। उन्होंने देखा कि जिसको लोग जान नहीं पाते, ऐसे समय के फेर से प्रत्येक युग में धर्म संकरता और उसके प्रभाव से भौतिक वस्तुओं की भी शक्ति का ह्रास होता रहता है। संसार के लोग श्रद्धाहीन और शक्तिरहित हो जाते हैं। उनकी बुद्धि कर्तव्य का ठीक-ठीक निर्णय नहीं कर पाती और आयु भी कम हो जाती है। लोगों की इस भाग्यहीनता को देखकर उन मुनीश्वर ने अपनी दिव्य दृष्टि से समस्त वर्णों और आश्रमों का हित कैसे हो, इस पर विचार किया। उन्होंने सोचा कि वेदोक्त चातुर्होत्र* कर्म लोगों का हृदय शुद्ध करने वाला है। इस दृष्टि से यज्ञों का विस्तार करने के लिये उन्होंने एक ही वेद के चार विभाग कर दिये।

व्यास जी के द्वारा ऋक्, यजुः, साम और अथर्व- इन चार वेदों का उद्धार (पृथक्करण) हुआ। इतिहास और पुराणों को पाँचवाँ वेद कहा जाता है। उनमें से ऋग्वेद के पैल, सामगान के विद्वान् जैमिनि एवं यजुर्वेद के एकमात्र स्नातक वैशम्पायन हुए। अथर्ववेद में प्रवीण हुए दरुणनन्दन सुमन्तु मुनि। इतिहास और पुराणों के स्नातक मेरे पिता रोमहर्षण थे। इन पूर्वोक्त ऋषियों ने अपनी-अपनी शाखा को और भी अनेक भागों में विभक्त कर दिया।

इस प्रकार शिष्य, प्रशिष्य और उनके शिष्यों द्वारा वेदों की बहुत-सी शाखाएँ बन गयीं। कम समझने वाले पुरुषों पर कृपा करके भगवान वेदव्यास ने इसलिये ऐसा विभाग कर दिया कि जिन लोगों को स्मरण शक्ति नहीं है या कम है, वे भी वेदों को धारण कर सकें। स्त्री, शूद्र और पतित द्विजाति- तीनों ही वेद-श्रवण के अधिकारी नहीं हैं। इसलिये वे कल्याणकारी शास्त्रोक्त कर्मों के आचरण में भूल कर बैठते हैं। अब इसके द्वारा उनका भी कल्याण हो जाये, यह सोचकर महामुनि व्यास जी ने बड़ी कृपा करके महाभारत इतिहास की रचना की।

शौनकादि ऋषियों! यद्यपि व्यास जी इस प्रकार अपनी पूरी शक्ति से सदा-सर्वदा प्राणियों के कल्याण में ही लगे रहे, तथापि उनके हृदय को सन्तोष नहीं हुआ। उनका मन कुछ खिन्न-सा हो गया। सरस्वती नदी के पवित्र तट पर एकान्त में बैठकर धर्मवेत्ता व्यास जी मन-ही-मन विचार करते हुए, इस प्रकार कहने लगे- ‘मैंने निष्कपट भाव से ब्रह्मचर्यादी व्रतों का पालन करते हुए वेद, गुरुजन और अग्नियों का सम्मान किया है और उनकी आज्ञा का पालन किया है। महाभारत की रचना के बहाने मैंने वेद के अर्थ को खोल दिया है- जिससे स्त्री, शूद्र आदि भी अपने-अपने धर्म-कर्म का ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं। यद्यपि मैं ब्रह्मतेज से सम्पन्न एवं समर्थ हूँ, तथापि मेरा हृदय कुछ अपूर्णकाम-सा जान पड़ता है। अवश्य ही अब तक मैंने भगवान को प्राप्त कराने वाले धर्मों का प्रायः निरूपण नहीं किया है। वे ही धर्म परमहंसों को प्रिय हैं और वे ही भगवान को भी प्रिय हैं (हो-न-हो मेरी अपूर्णता का यही कारण है)’। श्रीकृष्णद्वैपायन व्यास इस प्रकार अपने को अपूर्ण-सा मानकर जब खिन्न हो रहे थे, उसी समय पूर्वोक्त आश्रम पर देवर्षि नारद जी आ पहुँचे। उन्हें आया देख व्यास जी तुरन्त खड़े हो गये। उन्होंने देवताओं के द्वारा सम्मानित देवर्षि नारद की विधिपूर्वक पूजा की।

टीका/टिप्पणी.

*होता, अध्वर्यु, उद्गाता और ब्रह्मा- ये चार होता है। इनके द्वारा सम्पादित होने वाले अग्निष्टोमादि यज्ञ को चातुर्होत्र कहते हैं। 


क्रमश:

साभार- krishnakosh.org


श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः चतुर्थ अध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
प्रथम स्कन्धः चतुर्थ अध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद

महर्षि व्यास का असन्तोष.

व्यास जी कहते हैं- उस दीर्घकालीन सत्र में सम्मिलित हुए मुनियों में विद्यावयोवृद्ध कुलपति ऋग्वेदी शौनक जी ने सूत जी की पूर्वोक्त बात सुनकर उनकी प्रशंसा की और कहा।

शौनक जी बोले- सूत जी! आप वक्ताओं में श्रेष्ठ हैं तथा बड़े भाग्यशाली हैं, जो कथा भगवान श्रीशुकदेव जी ने कही थी, वही भगवान की पुण्यमयी कथा कृपा करके आप हमें सुनाइये। वह कथा किस युग में, किस स्थान पर और किस कारण से हुई थी? मुनिवर श्रीकृष्णद्वैपायन ने किसकी प्रेरणा से इस परमहंसों की संहिता का निर्माण किया था। उनके पुत्र शुकदेव जी बड़े योगी, समदर्शी, भेदभावरहित, संसार निद्रा से एवं निरन्तर एकमात्र परमात्मा में ही स्थिर रहते हैं। वे छिपे रहने के कारण मूढ़-से प्रतीत होते हैं।

व्यास जी जब संन्यास के लिये वन की ओर जाते हुए अपने पुत्र का पीछा कर रहे थे, उस समय जल में स्नान करने वाली स्त्रियों ने नंगे शुकदेव को देखकर तो वस्त्र धारण नहीं किया, परंतु वस्त्र पहने हुए व्यास जी को देखकर लज्जा से कपड़े पहन लिये थे। इस आश्चर्य को देखकर जब व्यास जी ने उन स्त्रियों से इसका कारण पूछा, तब उन्होंने उत्तर दिया कि ‘आपकी दृष्टि में तो अभी स्त्री-पुरुष का भेद बना हुआ है, परंतु आपके पुत्र की शुद्ध दृष्टि में यह भेद नहीं है।’ कुरुजांगल देश में पहुँचकर हस्तिनापुर में वे पागल, गूँगे तथा जड़ के समान विचरते होंगे। नगरवासियों ने उन्हें कैसे पहचाना?

पाण्डवनन्दन राजर्षि परीक्षित का इन मौनी शुकदेव जी के साथ संवाद कैसे हुआ, जिसमें यह भागवत संहिता कही गयी? महाभाग श्रीशुकदेव जी तो गृहस्थों के घरों को तीर्थस्वरूप बना देने के लिये उतनी ही देर उनके दरवाजे पर रहते हैं, जितनी देर में एक गाय दुही जाती है।

सूत जी! हमने सुना है कि अभिमन्युनन्दन परीक्षित् भगवान के बड़े प्रेमी भक्त थे। उनके अत्यन्त आश्चर्यमय जन्म और कर्मों का भी वर्णन कीजिये। वे तो पाण्डव वंश के गौरव बढ़ाने वाले सम्राट् थे। वे भला, किस कारण से साम्राज्य लक्ष्मी का परित्याग करके गंगा तट पर मृत्यु पर्यन्त अनशन का व्रत लेकर बैठे थे? शत्रुगण अपने भले के लिये बहुत-सा धन लाकर उनके चरण रखने की चौकी को नमस्कार करते थे। वे एक वीर युवक थे। उन्होंने उस दुस्त्यज लक्ष्मी को, अपने प्राणों के साथ भला, क्यों त्याग देने की इच्छा की। जिन लोगों का जीवन भगवान के आश्रित है, वे तो संसार के परम कल्याण, अभ्युदय और समृद्धि के लिये ही जीवन धारण करते हैं। उसमें उनका अपना कोई स्वार्थ नहीं होता। उनका शरीर तो दूसरों के हित के लिये था, उन्होंने विरक्त होकर उसका परित्याग क्यों किया। वेदवाणी को छोड़कर अन्य समस्त शास्त्रों के आप पारदर्शी विद्वान् हैं। सूत जी! इसलिये इस समय जो कुछ हमने आपसे पूछा है, वह सब कृपा करके हमें कहिये।

सूत जी कहते हैं- इस वर्तमान चतुर्युगी के तीसरे युग द्वापर में महर्षि पराशर के द्वारा वसुकन्या सत्यवती के गर्भ से भगवान के कलावतार योगिराज व्यास जी का जन्म हुआ। एक दिन वे सूर्योदय के समय सरस्वती के पवित्र जल में स्नानादि करके एकान्त पवित्र स्थान पर बैठे हुए थे।

क्रमशः


साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः तृतीय अध्यायः श्लोक 32-45 का हिन्दी अनुवाद.


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
प्रथम स्कन्धः तृतीय अध्यायः श्लोक 32-45 का हिन्दी अनुवाद.

इस स्थूल रूप से परे भगवान का एक सूक्ष्म अव्यक्त रूप है- जो न तो स्थूल की तरह आकारादि गुणों वाला है और न देखने, सुनने में ही आ सकता है; वही सूक्ष्म शरीर है। आत्मा का आरोप या प्रवेश होने से यही जीव कहलाता है और इसी का बार-बार जन्म होता है।

उपर्युक्त सूक्ष्म और स्थूल शरीर अविद्या से ही आत्मा में आरोपित हैं। जिस अवस्था में आत्मस्वरूप के ज्ञान से यह आरोप दूर हो जाता है, उसी समय ब्रह्म का साक्षात्कार होता है। तत्त्वज्ञानी लोग जानते हैं कि जिस समय यह बुद्धिरूपा परमेश्वर की माया निवृत्त हो जाती है, उस समय जीव परमानन्दमय हो जाता है और अपनी स्वरूप-महिमा में प्रतिष्ठित होता है। वास्तव में जिनके जन्म नहीं हैं और कर्म भी नहीं हैं, उन हृदयेश्वर भगवान के अप्राकृत जन्म और कर्मों का तत्त्वज्ञानी लोग इसी प्रकार वर्णन करते हैं; क्योंकि उनके जन्म और कर्म वेदों के अत्यन्त गोपनीय रहस्य हैं। भगवान की लीला अमोघ है।

वे लीला से ही इस संसार का सृजन, पालन और संहार करते हैं, किंतु इसमें आसक्त नहीं होते। प्राणियों के अन्तःकरण में छिपे रहकर ज्ञानेन्द्रिय और मन के नियन्ता के रूप में उनके विषयों को ग्रहण भी करते हैं, परंतु उनसे अलग रहते हैं, वे परम स्वतन्त्र हैं- ये विषय कभी उन्हें लिप्त नहीं कर सकते। जैसे अनजान मनुष्य जादूगर अथवा नट के संकल्प और वचनों से की हुई करामात को नहीं समझ पाता, वैसे ही अपने संकल्प और वेदवाणी के द्वारा भगवान के प्रकट किये हुए इन नाना नाम और रूपों को तथा उनकी लीलाओं को कुबुद्धि जीव बहुत-सी तर्क-युक्तियों के द्वारा नहीं पहचान सकता। चक्रपाणि भगवान की शक्ति और पराक्रम अनन्त है- उनकी कोई थाह नहीं पा सकता। वे सारे जगत् के निर्माता होने पर भी उससे सर्वथा परे हैं। उनके स्वरूप को अथवा उनकी लीला के रहस्य को वही जान सकता है, जो नित्य-निरन्तर निष्कपट भाव से उनके चरणकमलों की दिव्य गन्ध का सेवन करता है- सेवा भाव से उनके चरणों का चिन्तन करता रहता है।

शौनकादि ऋषियों! आप लोग बड़े ही सौभाग्यशाली तथा धन्य हैं जो इस जीवन में और विघ्न-बाधाओं से भरे इस संसार में समस्त लोकों के स्वामी भगवान श्रीकृष्ण से वह सर्वात्मक आत्मभाव, वह अनिर्वचनीय अनन्य प्रेम करते हैं, जिससे फिर इस जन्म-मरण रूप संसार के भयंकर चक्र में नहीं पड़ना होता।

भगवान वेदव्यास ने यह वेदों के समान भगवच्चरित्र से परिपूर्ण भागवत नाम का पुराण बनाया है। उन्होंने इस श्लाघनीय, कल्याणकारी और महान् पुराण को लोगों के परम कल्याण के लिये अपने आत्मज्ञान शिरोमणि पुत्र को ग्रहण कराया। इसमें सारे वेद और इतिहासों का सार-सार संग्रह किया गया है।

शुकदेव जी ने राजा परीक्षित् को यह सुनाया। उस समय वे परमर्षियों से घिरे हुए आमरण अनशन का व्रत लेकर गंगा तट पर बैठे हुए थे। भगवान श्रीकृष्ण जब धर्म, ज्ञान आदि के साथ अपने परम धाम को पधार गये, तब इस कलियुग में जो लोग अज्ञानरूपी अन्धकार से अंधे हो रहे हैं, उनके लिये यह पुराणरूपी सूर्य इस समय प्रकट हुआ है।

शौनकादि ऋषियों! जब महातेजस्वी श्रीशुकदेव जी महाराज वहाँ इस पुराण की कथा कह रहे थे, तब मैं भी वहाँ बैठा था। वहीं मैंने उनकी कृपापूर्ण अनुमति से इसका अध्ययन किया। मेरा जैसा अध्ययन है और मेरी बुद्धि ने जितना जिस प्रकार ग्रहण किया है, उसी के अनुसार इसे मैं आप लोगों को सुनाउँगा।


क्रमशः


साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः तृतीय अध्यायः श्लोक 15-31 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
प्रथम स्कन्धः तृतीय अध्यायः श्लोक 15-31 का हिन्दी अनुवाद

चाक्षुस मन्वन्तर के अन्त में जब सारी त्रिलोकी समुद्र में डूब रही थी, तब उन्होंने मत्स्य के रूप में दसवाँ अवतार ग्रहण किया और पृथ्वीरूपी नौका पर बैठाकर अगले मन्वन्तर के अधिपति वैवस्वत मनु की रक्षा की।

जिस समय देवता और दैत्य समुद्र-मन्थन कर रहे थे, उस समय ग्यारहवाँ अवतार धारण करके कच्छप रूप से भगवान ने मन्दराचल को अपनी पीठ पर धारण किया।

बारहवीं बार धन्वन्तरि के रूप में अमृत लेकर समुद्र से प्रकट हुए और तेरहवीं बार मोहिनी रूप धारण करके दैत्यों को मोहित करते हुए देवताओं को अमृत पिलाया।

चौदहवें अवतार में उन्होंने नरसिंह रूप धारण किया और अत्यन्त बलवान दैत्यराज हिरण्यकशिपु की छाती अपने नखों से अनायास इस प्रकार फाड़ डाली, जैसे चटाई बनाने वाला सींक को चीर डालता है।

पंद्रहवीं बार वामन का रूप धारण करके भगवान दैत्यराज बलि के यज्ञ में गये। वे चाहते तो थे त्रिलोकी का राज्य, परन्तु माँगी उन्होंने केवल तीन पग पृथ्वी।

सोलहवें परशुराम अवतार में जब उन्होंने देखा कि राजा लोग ब्राह्मणों के द्रोही हो गये हैं, तब क्रोधित होकर उन्होंने पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रियों से शून्य कर दिया।

इसके बाद सत्रहवें अवतार में सत्यवती के गर्भ से पराशरजी के द्वारा वे व्यास के रूप में अवतीर्ण हुए, उस समय लोगों की समझ और धारणाशक्ति का देखकर आपने वेदरूप वृक्ष की कई शाखाएँ बना दीं।

अठारहवीं बार देवताओं का कार्य सम्पन्न करने की इच्छा से उन्होंने राजा के रूप में रामावतार ग्रहण किया और सेतुबन्धन, रावणवध आदि वीरतापूर्ण बहुत-सी लीलाएँ कीं।

उन्नीसवें और बीसवें अवतारों में उन्होंने यदुवंश में बलराम और श्रीकृष्ण के नाम से प्रकट होकर पृथ्वी का भार उतारा।

उसके बाद कलियुग आ जाने पर मगध देश (बिहार) में देवताओं के द्वेषी दैत्यों को मोहित करने के लिये अजन के पुत्ररूप में आपका बुद्धावतार होगा।

इसके भी बहुत पीछे जब कलियुग का अन्त समीप होगा और राजा लोग प्रायः लुटेरे हो जायेंगे, तब जगत् के रक्षक भगवान विष्णुयश नामक ब्राह्मण के घर कल्कि रूप में अवतीर्ण होंगे।

शौनकादि ऋषियों! जैसे अगाध सरोवर से हजारों छोटे-छोटे नाले निकलते हैं, वैसे ही सत्त्वनिधि भगवान श्रीहरि के असंख्य अवतार हुआ करते हैं। ऋषि, मनु, देवता, प्रजापति, मनुपुत्र और जितने भी महान् शक्तिशाली हैं, वे सब-के-सब भगवान के ही अंश हैं। ये सब अवतार तो भगवान के अंशावतार अथवा कलावतार हैं, परन्तु भगवान श्रीकृष्ण तो स्वयं भगवान (अवतारी) ही हैं। जब लोग दैत्यों के अत्याचार से व्याकुल हो उठते हैं, तब युग-युग में अनेक रूप धारण करके भगवान उनकी रक्षा करते हैं। भगवान के दिव्य जन्मों की यह कथा अत्यन्त गोपनीय-रहस्यमयी है; जो मनुष्य एकाग्रचित्त से नियमपूर्वक सायंकाल और प्रातःकाल प्रेम से इसका पाठ करता है, वह सब दुःखों से छूट जाता है। प्राकृत स्वरूपरहित चिन्मय भगवान का जो यह स्थूल जगदाकार रूप है, यह उनकी माया के महत्तत्त्वादि गुणों से भगवान में ही कल्पित है। जैसे बादल वायु के आश्रय रहते हैं और धूसर पना धूल में होता है, परन्तु अल्पबुद्धि मनुष्य बादलों का आकाश में और धूसरपने का वायु में आरोप करते हैं- वैसे ही अविवेकी पुरुष सबके साक्षी आत्मा में स्थूल दृश्यरूप जगत् का आरोप करते हैं।

क्रमशः


साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः तृतीय अध्यायः श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद.


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
प्रथम स्कन्धः तृतीय अध्यायः श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद.

भगवान के अवतारों का वर्णन.

श्रीसूत जी कहते हैं- सृष्टि के आदि में भगवान ने लोकों के निर्माण की इच्छा की। इच्छा होते ही उन्होंने महतत्त्व आदि से निष्पन्न पुरुष रूप ग्रहण किया। उसमें दस इन्द्रियाँ, एक मन और पाँच भूत- ये सोलह कलाएँ थीं। उन्होंने कारण-जल में शयन करते हुए जब योगनिद्रा का विस्तार किया, तब उनके नाभि-सरोवर में से एक कमल प्रकट हुआ और उस कमल से प्रजापतियों के अधिपति ब्रह्मा जी उत्पन्न हुए। भगवान के उस विराट् रूप के अंग-प्रत्यंग में ही समस्त लोकों की कल्पना की गयी है, वह भगवान का विशुद्ध सत्त्वमय श्रेष्ठ रूप है।

योगी लोग दिव्यदृष्टि से भगवान के उस रूप का दर्शन करते हैं। भगवान का वह रूप हजारों पैर, जाँघें, भुजाएँ और मुखों के कारण अत्यन्त विलक्षण है; उसमें सहस्रों सिर, हजारों कान, हजारों आँखें और हजारों नासिकाएँ हैं। हजारों मुकुट, वस्त्र और कुण्डल आदि आभूषणों से वह उल्लसित रहता है। भगवान का यही पुरुष रूप जिसे नारायण कहते हैं, अनेक अवतारों का अक्षय कोष है- इसी से सारे अवतार प्रकट होते हैं। इस रूप के छोटे-से-छोटे अंश से देवता, पशु-पक्षी और मनुष्यादि योनियों की सृष्टि होती है।

उन्हीं प्रभु ने पहले कौमार सर्ग में सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार- इन चार ब्राह्मणों के रूप में अवतार ग्रहण अत्यन्त कठिन अखण्ड ब्रह्मचर्य का पालन किया। दूसरी बार इस संसार के कल्याण के लिये समस्त यज्ञों के स्वामी उन भगवान ने ही रसातल में गयी हुई पृथ्वी को निकाल लाने के विचार से सुकर रूप ग्रहण किया। ऋषियों की सृष्टि में उन्होंने देवर्षि नारद के रूप में तीसरा अवतार ग्रहण किया और सात्वत तन्त्र का (जिसे ‘नारद-पांचरात्र’ कहते हैं) उपदेश किया; उसमें कर्मों के द्वारा किस प्रकार कर्म बन्धन से मुक्ति मिलती है, इसका वर्णन है। धर्मपत्नी मूर्ति के गर्भ से उन्होंने नर-नारायण के रूप में चौथा अवतार ग्रहण किया। इस अवतार में उन्होंने ऋषि बनकर मन और इन्द्रियों का सर्वथा संयम करके बड़ी कठिन तपस्या की। पाँचवें अवतार में वे सिद्धों के स्वामी कपिल के रूप में प्रकट हुए और तत्त्वों का निर्णय करने वाले सांख्य-शास्त्र का, जो समय के फेर से लुप्त हो गया था, आसुरि नामक ब्राह्मण को उपदेश किया। अनसूया के वर माँगने पर छठे अवतार में वे अत्रि की सन्तान- दत्तात्रेय हुए। इस अवतार में उन्होंने अलर्क एवं प्रह्लाद आदि को ब्रह्मज्ञान का उपदेश किया। सातवीं बार रुचि प्रजापति की आकूति नामक पत्नी से यज्ञ के रूप में उन्होंने अवतार ग्रहण किया और अपने पुत्र याम आदि देवताओं के साथ स्वायम्भुव मन्वन्तर की रक्षा की।

राजा नाभि की पत्नी मेरु देवी के गर्भ से ऋषभदेव के रूप में भगवान ने आठवाँ अवतार ग्रहण किया। इस रूप में उन्होंने परमहंसों का वह मार्ग, जो सभी आश्रमियों के लिये वन्दनीय है, दिखाया। ऋषियों की प्रार्थना से नवीं बार वे राजा पृथु के रूप में अवतीर्ण हुए। शौनकादि ऋषियों! इस अवतार में उन्होंने पृथ्वी से समस्त ओषधियों का दोहन किया था, इससे यह अवतार सबके लिये बड़ा ही कल्याणकारी हुआ।

क्रमश:


साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः द्वितीय अध्यायः श्लोक 29-34 का हिन्दी अनुवाद.


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
प्रथम स्कन्धः द्वितीय अध्यायः श्लोक 29-34 का हिन्दी अनुवाद.

ज्ञान से ब्रह्मस्वरूप श्रीकृष्ण की ही प्राप्ति होती है। तपस्या श्रीकृष्ण की प्रसन्नता के लिये ही की जाती है। श्रीकृष्ण के लिये ही धर्मों का अनुष्ठान होता है और सब गतियाँ श्रीकृष्ण में ही समा जाती हैं।

यद्यपि भगवान श्रीकृष्ण प्रकृति और उसके गुणों से अतीत हैं, फिर भी अपनी गुणमयी माया से, जो प्रपंच की दृष्टि से है और तत्त्व की दृष्टि से नहीं है-उन्होंने ही सर्ग के आदि में इस संसार की रचना की थी।

ये सत्त्व, रज और तम- तीनों गुण उसी माया के विलास हैं; इनके भीतर रहकर भगवान इनसे युक्त-सरीखे मालूम पड़ते हैं। वास्तव में तो वे परिपूर्ण विज्ञानघन हैं। अग्नि तो वस्तुतः एक ही है, परन्तु जब वह अनेक प्रकार की लकड़ियों में प्रकट होती है, तब अनेक-सी मालूम पड़ती है। वैसे ही सबके आत्मरूप भगवान तो एक ही हैं, परन्तु प्राणियों की अनेकता से अनेक-जैसे जान पड़ते हैं।

भगवान ही इस सूक्ष्म भूत-तन्मात्रा, इन्द्रिय तथा अन्तःकरण आदि गुणों के विकार भूत भावों के द्वारा नाना प्रकार की योनियों का निर्माण करते हैं और उनमें भिन्न-भिन्न जीवों के रूप में प्रवेश करके उन-उन योनियों के अनुरूप विषयों का उपभोग करते-कराते हैं। वे ही सम्पूर्ण लोगों की रचना करते हैं और देवता, पशु-पक्षी, मनुष्य आदि योनियों में लीलावतार ग्रहण करके सत्त्वगुण के द्वारा जीवों का पालन-पोषण करते हैं।

क्रमश:

साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः द्वितीय अध्यायः श्लोक 15-28 का हिन्दी अनुवाद.


(लगातार -सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
प्रथम स्कन्धः द्वितीय अध्यायः श्लोक 15-28 का हिन्दी अनुवाद.

कर्मों की गाँठ बड़ी कड़ी है। विचारवान् पुरुष भगवान के चिन्तन की तलवार से उस गाँठ को काट डालते हैं। तब भला, ऐसा कौन मनुष्य होगा, जो भगवान की लीला कथा में प्रेम न करे।

शौनकादि ऋषियों! पवित्र तीर्थों का सेवन करने से महत्सेवा, तदनन्तर श्रवण की इच्छा, फिर श्रद्धा, तत्पश्चात् भगवत्-कथा में रुचि होती है। भगवान श्रीकृष्ण के यश का श्रवण और कीर्तन दोनों पवित्र करने वाले हैं। वे अपनी कथा सुनने वालों के हृदय में आकर स्थित हो जाते हैं और उनकी अशुभ वासनाओं को नष्ट कर देते हैं; क्योंकि वे संतों के नित्य सुहृद हैं। जब श्रीमद्भागवत अथवा भगवद्भक्तों के निरन्तर सेवन से अशुभ वासनाएँ नष्ट हो जाती हैं, तब पवित्र कीर्ति भगवान श्रीकृष्ण के प्रति स्थायी प्रेम की प्राप्ति होती है। तब रजोगुण और तमोगुण के भाव- काम और लोभादि शान्त हो जाते हैं और चित्त इनसे रहित होकर सत्त्वगुण में स्थित एवं निर्मल हो जाता है। इस प्रकार भगवान की प्रेममयी भक्ति से जब संसार की समस्त असक्तियाँ मिट जाती हैं, हृदय आनन्द से भर जाता है, तब भगवान के तत्त्व का अनुभव अपने-आप हो जाता है। हृदय में आत्मस्वरूप भगवान का साक्षात्कार होते ही हृदय की ग्रन्थि टूट जाती है, सारे सन्देह मिट जाते हैं और कर्म बन्धन क्षीण हो जाता है। इसी से बुद्धिमान लोग नित्य-निरन्तर बड़े आनन्द से भगवान श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम-भक्ति करते हैं, जिससे आत्म प्रसाद की प्राप्ति होती है।

प्रकृति के तीन गुण हैं- सत्त्व, रज और तम। इनको स्वीकार करके इस संसार की स्थिति, उत्पत्ति और प्रलय के लिये एक अद्वितीय परमात्मा ही विष्णु, ब्रह्मा और रुद्र- ये तीन नाम ग्रहण करते हैं। फिर भी मनुष्यों का परम कल्याण तो सत्त्वगुण स्वीकार करने वाले श्रीहरि से ही होता है। जैसे पृथ्वी के विकार लकड़ी की अपेक्षा धुआँ श्रेष्ठ है और उससे भी श्रेष्ठ है अग्नि- क्योंकि वेदोक्त यज्ञ-यागादि के द्वारा अग्नि सद्गति देने वाला है- वैसे ही तमोगुण से रजोगुण श्रेष्ठ है और रजोगुण से भी सत्त्वगुण श्रेष्ठ है; क्योंकि वह भगवान का दर्शन कराने वाला है।

प्राचीन युग में महात्मा लोग अपने कल्याण के लिये विशुद्ध सत्त्वमय भगवान विष्णु की आराधना किया करते थे। अब भी जो लोग उनका अनुसरण करते हैं, वे उन्हीं के समान कल्याण भाजन होते हैं। जो लोग इस संसार सागर से पार जाना चाहते हैं, वे यद्यपि किसी की निन्दा तो नहीं करते, न किसी में दोष ही देखते हैं, फिर भी घोर रूप वाले- तमोगुणी-रजोगुणी भैरवादि भूतपतियों की उपासना न करके सत्त्वगुणी विष्णु भगवान और उनके अंश- कला स्वरूपों का ही भजन करते हैं। परन्तु जिसका स्वभाव रजोगुणी अथवा तमोगुणी है, वे धन, ऐश्वर्य और सन्तान की कामना से भूत, पितर और प्रजापतियों की उपासना करते हैं; क्योंकि इन लोगों का स्वभाव उन (भूतादि) से मिलता-जुलता होता है। वेदों का तात्पर्य श्रीकृष्ण में ही है। यज्ञों के उद्देश्य श्रीकृष्ण ही हैं। योग श्रीकृष्ण के लिये ही किये जाते हैं और समस्त कर्मों की परिसमाप्ति भी श्रीकृष्ण में ही है।

क्रमश:

साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः द्वितीय अध्यायः श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद.


(लगातार -सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
प्रथम स्कन्धः द्वितीय अध्यायः श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद.

भगवत्कथा और भगवद्भक्ति का माहात्म्य श्रीव्यास जी कहते हैं- शौनकादि ब्रह्मवादी ऋषियों के ये प्रश्न सुनकर रोमहर्षण के पुत्र उग्रश्रवा को बड़ा ही आनन्द हुआ। उन्होंने ऋषियों के इस मंगलमय प्रश्न का अभिनन्दन करके कहना आरम्भ किया।

सूत जी ने कहा- जिस समय श्रीशुकदेव जी का यज्ञोपवीत-संस्कार भी नहीं हुआ था, सुतरा लौकिक-वैदिक कर्मों के अनुष्ठान का अवसर भी नहीं आया था, उन्हें अकेले ही संन्यास लेने के उद्देश्य से जाते देखकर उनके पिता व्यास जी विरह से कातर होकर पुकारने लगे- ‘बेटा! बेटा!’ उस समय तन्मय होने के कारण श्रीशुकदेव जी की ओर से वृक्षों ने उत्तर दिया। ऐसे सबके हृदय में विराजमान श्रीशुकदेव मुनि को मैं नमस्कार करता हूँ।

यह श्रीमद्भागवत अत्यन्त गोपनीय-रहस्यात्मक पुराण है। यह भगवत्स्वरूप का अनुभव कराने वाला और समस्त वेदों का सार है। संसार में फँसे हुए जो लोग इस घोर अज्ञानान्धकार से पार जाना चाहते हैं, उनके लिये अध्यात्मिक तत्त्वों को प्रकाशित कराने वाला यह एक अद्वितीय दीपक है। वास्तव में उन्हीं पर करुणा करके बड़े-बड़े मुनियों के आचार्य श्रीशुकदेव जी ने इसका वर्णन किया है। मैं उनकी शरण ग्रहण करता हूँ।

मनुष्यों में सर्वश्रेष्ठ भगवान के अवतार नर-नारायण ऋषियों को, सरस्वती देवि को और श्री व्यासदेव जी को नमस्कार करके सब संसार और अन्तःकरण के समस्त विकारों पर विजय प्राप्त कराने वाले इस श्रीमद्भागवत महापुराण का पाठ करना चाहिये।

ऋषियों! आपने सम्पूर्ण विश्व के कल्याण के लिये यह बहुत सुन्दर प्रश्न किया है; क्योंकि यह प्रश्न श्रीकृष्ण के सम्बन्ध में है और इससे भलीभाँति आत्मशुद्धि हो जाती है। मनुष्यों के लिये सर्वश्रेष्ठ धर्म वही है, जिससे भगवान श्रीकृष्ण में भक्ति हो- भक्ति भी ऐसी, जिसमें किसी प्रकार की कामना न हो और जो नित्य-निरन्तर बनी रहे; ऐसी भक्ति से हृदय आनन्दस्वरूप परमात्मा की उपलब्धि करके कृतकृत्य हो जाता है। भगवान श्रीकृष्ण में भक्ति होते ही, अनन्य प्रेम से उनमें चित्त जोड़ते ही निष्काम ज्ञान और वैराग्य का अविर्भाव हो जाता है।

धर्म का ठीक-ठीक अनुष्ठान करने पर भी यदि मनुष्य के हृदय में भगवान की लीला-कथाओं के प्रति अनुराग का उदय न हो तो वह निरा श्रम-ही-श्रम है। धर्म का फल है मोक्ष। उसकी सार्थकता अर्थ प्राप्ति में नहीं है। अर्थ केवल धर्म के लिये है। भोग विलास उसका फल नहीं माना गया है। भोग विलास का फल इन्द्रियों को तृप्त करना नहीं हैं, उसका प्रयोजन है, केवल जीवन निर्वाह।

जीवन का फल भी तत्त्व जिज्ञासा है। बहुत कर्म करके स्वर्गादि प्राप्त करना उसका फल नहीं है। तत्त्ववेत्ता लोग ज्ञाता और ज्ञेय के भेद से रहित अखण्ड अद्वितीय सच्चिदानन्द स्वरूप ज्ञान को ही तत्त्व कहते हैं। उसी को कोई ब्रह्मा, कोई परमात्मा और कोई भगवान के नाम से पुकारते हैं। श्रद्धालु मुनिजन भागवत श्रवण से प्राप्त ज्ञान-वैराग्य युक्त भक्ति से अपने हृदय में उस परम तत्त्वरूप परमात्मा का अनुभव करते हैं।

शौनकादि ऋषियों! यही कारण है कि अपने-अपने वर्ण तथा आश्रम के अनुसार मनुष्य जो धर्म का अनुष्ठान करते हैं, उसकी पूर्ण सिद्धि इसी में है कि भगवान प्रसन्न हों। इसलिये एकाग्र मन से भक्तवत्सल भगवान का ही नित्य-निरन्तर श्रवण, कीर्तन, ध्यान और आराधन करना चाहिये।

क्रमश:



साभार krishnakosh.org