बद्रीनाथ धाम.


बद्रीनाथ धाम.

उत्तराखंड में अलकनंदा नदी के किनारे बद्रीनाथ धाम है। इसे बदरीनारायण मंदिर भी कहते हैं। भगवान विष्‍णु, शेषनाग की शैया पर दीर्घ अवधि से विश्रामरत थे। उसी समय वहाँ से जाते हुए नारदजी ने उन्‍हें जगा दिया और प्रणाम करते हुए बोले कि 'प्रभु आप लंबे समय से विश्राम कर रहे हैं। इससे लोगों के बीच आपका उदाहरण आलस के लिए दिया जाने लगा है। यह बात ठीक नहीं है।'

नारदजी की बातें सुनकर भगवान विष्‍णु ने शेषनाग की शैया को छोड़ दिया और तपस्‍या के लिए एक शांत स्‍थान ढूंढने निकल पड़े। इस प्रयास में वे हिमालय की ओर चल पड़े, उनकी दृष्‍टि पहाड़ों पर बने बद्रीनाथ पर पड़ी। विष्‍णुजी को लगा कि यह तपस्‍या के लिए अच्‍छा स्‍थान साबित हो सकता है। जब विष्‍णुजी वहां पहुंचे तो देखा कि वहां एक कुटिया में भगवान शिव और माता पार्वती विराजमान थे।

अब विष्‍णुजी सोच में पड़ गए कि अगर इस स्‍थान को तपस्‍या के लिए चुनते हैं तो भगवान शिव क्रोधित हो जाएंगे। उन्‍होंने उस स्‍थान को प्राप्त करने का उपाय सोचा। एक शिशु का अवतार लिया और बद्रीनाथ के दरवाजे पर रोने लगे। बच्‍चे के रोने की आवाज सुनकर माता पार्वती का हृदय द्रवित हो गया और वह उस बालक को गोद में उठाने के लिए बढ़ने लगीं। शिवजी ने उन्‍हें मना भी किया कि वह इस शिशु को गोद में न लें, लेकिन वे नहीं मानीं और शिवजी से कहने लगी कि आप कितने निर्दयी हैं, एक बच्‍चे को रोता हुए कैसे देख सकते हैं? इसके बाद पार्वतीजी ने उस बच्‍चे को गोद में उठा लिया और उसे लेकर घर के अंदर आ गईं। उन्‍होंने शिशु को दूध पिलाया और चुप कराया। बच्‍चे को नींद आने लगी तो पार्वतीजी ने उसे घर में सुला दिया। इसके बाद वे दोनों अपने-अपने काम से कुटिया से बाहर चले गए।

शिव-पार्वती जब लौटे तो देखा कि कुटिया का दरवाजा अंदर से बंद था। पार्वतीजी ने उस बच्‍चे को जगाने का प्रयत्न करने लगी पर द्वार नहीं खुला। तब शिवजी ने कहा कि अब उनके पास दो ही विकल्‍प हैं, या तो यहां कि हर चीज को वो जला दें या फिर कहीं और चले जाएं। पार्वतीजी ने कहा कि इस कुटिया को जला नहीं सकते हैं क्‍योंकि वह शिशु उन्‍हें बहुत पसंद था और प्‍यार से उसे अंदर सुलाया भी था। इसके बाद शिव और पार्वती उस स्‍थान से चल पड़े और केदारनाथ पहुंचे। वहां पर उन्‍होंने अपना स्‍थान बनाया और “बद्रीनाथ-धाम” विष्‍णुजी का हो गया।

बड़ा तपस्वी.


बड़ा तपस्वी.

कौशिक नामक एक ब्राह्मण बड़ा तपस्वी था। तप के प्रभाव से उसमें बहुत आत्म बल आ गया था। एक दिन वह वृक्ष के नीचे बैठा हुआ था कि ऊपर बैठी हुई चिड़िया ने उस पर बीट कर दी। कौशिक को क्रोध आ गया। लाल नेत्र करके ऊपर को देखा तो तेज के प्रभाव से चिड़िया जल कर नीचे गिर पड़ी। ब्राह्मण को अपने बल पर गर्व हो गया।

दूसरे दिन वह एक सद्गृहस्थ के यहाँ भिक्षा माँगने गया। गृहस्वामिनी पति को भोजन परोसने में लगी थी। उसने कहा- “भगवन्, थोड़ी देर ठहरो अभी आपको भिक्षा दूँगी।” इस पर ब्राह्मण को क्रोध आया कि मुझ जैसे तपस्वी की उपेक्षा करके यह पति-सेवा को अधिक महत्व दे रही है। गृहस्वामिनी ने दिव्य दृष्टि से सब बात जान ली। उसने ब्राह्मण से कहा- “क्रोध न कीजिए मैं चिड़िया नहीं हूँ। अपना नियत कर्तव्य पूरा करने पर आपकी सेवा करूंगी।”

ब्राह्मण क्रोध करना तो भूल गया, उसे यह आश्चर्य हुआ कि चिड़िया वाली बात इसे कैसे मालूम हुई? ब्राह्मणी ने इसे पति सेवा का फल बताया और कहा कि इस संबंध में अधिक जानना हो तो मिथिलापुरी में तुलाधार वैश्य के पास जाइए। वे आपको अधिक बता सकेंगे।

भिक्षा लेकर कौशिक चल दिया और मिथिलापुरी में तुलाधार के घर जा पहुँचा। वह तौल-नाप के व्यापार में लगा हुआ था। उसने ब्राह्मण को देखते ही प्रणाम अभिवादन किया और कहा- “तपोधन कौशिक देव? आपको उस सद्गृहस्थ गृहस्वामिनी ने भेजा है सो ठीक है। अपना नियत कर्म कर लूँ तब आपकी सेवा करूंगा। कृपया थोड़ी देर बैठिये। “ब्राह्मण को बड़ा आश्चर्य हुआ कि मेरे बिना बताये ही इसने मेरा नाम तथा आने का उद्देश्य कैसे जाना? थोड़ी देर में जब वैश्य अपने कार्य से निवृत्त हुआ तो उसने बताया कि मैं ईमानदारी के साथ उचित मुनाफा लेकर अच्छी चीजें लोक-हित की दृष्टि से बेचता हूँ। इस नियत कर्म को करने से ही मुझे यह दिव्य दृष्टि प्राप्त हुई है। अधिक जानना हो तो मगध के निजाता चाण्डाल के पास जाइए।

कौशिक मगध चल दिये और चाण्डाल के यहाँ पहुँचे। वह नगर की गंदगी झाड़ने में लगा हुआ था। ब्राह्मण को देखकर उसने साष्टाँग प्रणाम किया और कहा- “भगवन् आप चिड़िया मारने जितना तप करके उस सद्गृहस्थ देवी और तुलाधार वैश्य के यहाँ होते हुये यहाँ पधारे यह मेरा सौभाग्य है। मैं नियत कर्म कर लूँ, तब आपसे बात करूंगा। तब तक आप विश्राम कीजिये।”

चाण्डाल जब सेवा-वृत्ति से निवृत्त हुआ तो उन्हें संग ले गया और अपने वृद्ध माता पिता को दिखाकर कहा- “अब मुझे इनकी सेवा करनी है। मैं नियत कर्त्तव्य कर्मों में निरन्तर लगा रहता हूँ इसी से मुझे दिव्य दृष्टि प्राप्त है।”

तब कौशिक की समझ में आया कि केवल तप साधना से ही नहीं, नियत कर्त्तव्य, कर्म निष्ठापूर्वक करते रहने से भी ‘आध्यात्मिक का लक्ष्य’ पूरा हो सकता है और सिद्धियाँ मिल सकती हैं।

अब पछताएँ होत क्या?


अब पछताएँ होत क्या?

एक बार पाँच असमर्थ और अपंग लोग इकट्ठे हुए और कहने लगे, यदि भगवान ने हमें समर्थ बनाया होता तो बहुत बड़ा परमार्थ करते। अन्धे ने कहा- यदि मेरी आंखें होतीं तो जहाँ कहीं अनुपयुक्त देखता वहीं उसे सुधारने में लग जाता। लंगड़े ने कहा- पैर होते तो दौड़-दौड़ कर भलाई के काम करता। निर्बल ने कहा- बल होता तो अत्याचारियों को मजा चखा देता। निर्धन ने कहा- धनी होता तो दीन दुखियों के लिए सब कुछ लुटा देता। मूर्ख ने कहा- विद्वान होता तो संसार में ज्ञान की गंगा बहा देता।

वरुण देव उनकी बातें सुन रहे थे। उनकी सचाई को परखने के लिए उनने आशीर्वाद दिया और इन पाँचों को उनकी इच्छित स्थिति मिल गई। अन्धे ने आँखें, लँगड़े ने पैर, निर्बल ने बल, निर्धन ने धन और मूर्ख ने विद्या पायी और वे फूले न समाये। परिस्थिति बदलते ही उनके विचार भी बदल गये। अन्धा सुन्दर वस्तुएँ देखने में लगा रहता और अपनी इतने दिन की अतृप्ति बुझाता। लँगड़ा सैर-सपाटे के लिए निकल पड़ा। धनी ठाट-बाट जमा करने में लगा। बलवान ने दूसरों को आतंकित करना शुरू कर दिया। विद्वान ने अपनी चतुरता के बल पर जमाने को उल्लू बना दिया। बहुत दिन बाद वरुण देव उधर से लौटे और उन असमर्थों की प्रतिज्ञा निभी या नहीं, यह देखने के लिए रुक गये। पता लगाया तो वे पाँचों अपने-अपने स्वार्थ सिद्धि करने में लगे हुए थे।

वरुण देव बहुत खिन्न हुए और अपने दिये हुए वरदान वापस ले लिये। वे फिर जैसे के तैसे हो गये। अन्धे की आँखों का प्रकाश चला गया। लँगड़े के पैर जकड़ गये। धनी निर्धन हो गया। बलवान को निर्बलता ने आ घेरा। अब उन्हें अपनी पुरानी प्रतिज्ञायें याद आई और पछताने लगे कि पाये हुए सुअवसर को उन्होंने इस प्रकार प्रमाद में क्यों खो दिया। समय निकल चुका था, अब पछताने से बनता भी क्या था?

इस तरह आप खुद अपने भाग्य को बदल सकते हैं.


इस तरह आप खुद
अपने भाग्य को बदल सकते हैं.
(सुधांशु जी महाराज)

व्यक्ति सोचता है कि जो होना है वह अवश्य होगा, जो नहीं होना वह नहीं होगा, इसलिए आराम से बैठे रहें, जो होगा देखा जाएगा। भाग्य के भरोसे बैठे रहना कायरता है। दुर्भाग्य से समाज आज भाग्यवादी बन गया है। बहुत बार हम केवल पंडितों की बातों में आकर भाग्य के भरोसे बैठे रहते हैं कि अभी समय ठीक नहीं चल रहा। याद रखिए समस्या से जूझे बिना कोई हल नहीं निकलेगा। जो जूझने लग गया उसका भाग्य जरूर चमकेगा।

अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम।
दास मलूका कह गए, सबके दाता राम।।


यह ठीक है कि राम ही सबके दाता हैं, मगर यह कहना कि अजगर नौकरी नहीं करता, पंछी काम नहीं करते तो भी उन्हें खाना मिल जाता है। हमें भी काम करने की क्या जरूरत है, जो भाग्य में होगा मिल जाएगा, यह विचार नकारात्मक है। भाग्यवादी नहीं होना चाहिए। बात-बात पर हम हाथ दिखाने बैठ जाते हैं, डराने वाले लोग डराते हैं।

परिणामस्वरूप हम आशंकाओं से घिर जाते हैं। हाथों की लकीरों में गुम होकर अपने जीवन को बरबाद मत करना क्योंकि कुछ लोग दुनिया में ऐसे भी होते हैं, जिनके हाथ ही नहीं होते लेकिन भाग्य उनका भी होता है और बनता-बिगड़ता भी है। बुद्घि का सही प्रयोग करके कर्म करते रहना चाहिए। आप कर्म नहीं करोगे तो राम भी कृपा नहीं करेंगे। संसार कर्मक्षेत्र हैं, इस कर्मभूमि में सब कर्म करने आए हैं और कर्मठ व्यक्ति ही प्रभु की कृपाएं प्राप्त करता है।

पुरुषार्थ को छोड़िए नहीं, कर्मठ बनें, कर्म से जी चुराकर भाग्यवादी बनकर बैठने से बात नहीं बनेगी, जब कर्म करोगे तब ही सौभाग्यशाली बनोगे। हम काम करना नहीं चाहते, भाग्य के भरोसे बैठकर अपनी कमजोरियों का दोष दूसरे के माथे मढ़ देते हैं कि दूसरों के कारण हम दुःखी हैं। खुद झुकना नहीं चाहते, हम सोचते हैं दूसरा झुके, हमसे तालमेल बैठाकर चले तो सौभाग्य आगे बढ़ता जाएगा।

प्रारब्ध बहुत महत्वपूर्ण है, आप किसी का भाग्य नहीं बदल सकते, उन्हें सुख-सुविधा दे सकते हो मगर भाग्य बदलना आपके हाथ में नहीं। भाग्य हमारे पूर्वकृत कर्मों का फल है और कर्मफल अवश्य भोगना पड़ता है। परम दुर्भाग्य चल रहा हो तो उस समय में मन को कमजोर नहीं होने देना। बहुत बार दुर्भाग्य के समय में व्यक्ति जहां से सौभाग्य का द्वार खुलता है, उस परमेश्वर के प्रति भी पीठ करके खड़ा हो जाता है।

जीवन में कैसी भी विषम परिस्थिति सामने आए लेकिन अपना इष्ट, अपना गुरुमन्त्र कभी नहीं छोड़ना चाहिए। भाग्य अपना कार्य करता है, शास्त्र कहता है कि भाग्य बड़ा प्रबल है, मगर पुरुषार्थ द्वारा भाग्य को तोड़कर सौभाग्य में बदला जा सकता है। दवा और दुआ दोनों का मेल बिठाएं। अन्दर की ज्योति और बाहर की ज्योति दोनों काम करें तो बात बनती है।

आंख में ज्योति हो, बाहर प्रकाश हो तो आंखें काम करती हैं। बाहर सूर्य निकला हो, मगर आंखों में ज्योति न हो तो अन्धेरा है। फिर भी कहा गया अपनी तरफ से कोई कसर बाकी न रखें। पुरुषार्थ छोड़ें नहीं, पूर्ण पुरुषार्थी होकर कार्य में लगें और साथ में प्रभु से आशीर्वाद भी मांगें।

प्राचीन काल की एक घटना.


प्राचीन काल की एक घटना.


बहुत प्राचीन काल की घटना है कि एक बार मिथिला नरेश ने कौशल राज्य के ऊपर चढ़ाई की। कौशल में सेना थोड़ी थी, राजा हार गया और वह किले को छोड़कर भाग निकला, उसे पकड़ने के लिए मिथिला नरेश ने एक हजार स्वर्ण मुद्राओं की घोषणा की।

कौशल नरेश इधर उधर जंगलों में अपनी जान बचाकर छिपते फिरते थे। एक दिन वे ऐसे नगर में पहुँचे जहाँ के सभी युवक उनकी फौज में भर्ती होकर अपने प्राण गँवा चुके थे, केवल स्त्रियाँ तथा छोटे बच्चे उस नगर में शेष थे। उनकी खेती भी इस वर्ष नष्ट हो गई थी, इसलिये गाँव आपत्ति ग्रस्त हो रहा था। कितने ही बाल, वृद्ध बीमार पड़े थे और कितने ही भूख से प्राण गँवा रहे थे। उन लोगों की ऐसी दुर्दशा देखकर राजा की आँखों में आँसू आ गये। इन लोगों को आर्थिक सहायता की आवश्यकता थी, पर वे तो स्वयं ही छिपते फिरते थे, किसी को क्या देते?

अन्त में एक उपाय उन्हें सूझा वे उस गाँव के कुछ वृद्ध पुरुषों को साथ लेकर मिथिला नरेश के यहाँ पहुँचे और कहा- मैं कौशल नरेश हूँ। मेरे पकड़ने के लिये एक हजार स्वर्ण मुद्रायें देने की जो घोषणा आपने की थी सो इन वृद्ध पुरुषों को दे दी जायें।

सब लोग आश्चर्य चकित रह गये कि अपनी इस प्रकार जान जोखिम में डालकर इनने क्यों आत्म समर्पण किया? जब सारी बात मालूम हुई कि इन भूखे मरते लोगों की सहायता के लिये अपना सर्वस्व दे रहे हैं तो उनकी उदारता देखकर श्रद्धा से सब का मस्तक नीचा हो गया। मिथिला नरेश ने उन्हें गले लगा लिया और यह कहते हुए उनका राज वापस कर दिया कि ऐसे उदार हृदय सत्पुरुष का राज लेकर मैं अपने को कलंकित नहीं करना चाहता।

उदार हृदय व्यक्ति दूसरों को दुख से बचाने के लिये अपने प्राणों तक की परवाह नहीं करते।

अलक्ष्मी (दरिद्रता) का निवास.


अलक्ष्मी (दरिद्रता) का निवास.
(लक्ष्मीजी  की ज्येष्ठ बहन)

आदि तथा अन्त से रहित, ऐश्वर्यशाली, प्रभुता सम्पन्न तथा जगत् के स्वामी नारायण विष्णु ने प्राणियों को व्यामोह में डालने के लिये इस जगत् को दो प्रकार का बनाया है। उन महातेजस्वी विष्णु ने ब्राह्मणों, वेदों, सनातन वैदिक-धर्मों, श्री तथा श्रेष्ठ पद्मा की उत्पत्ति करके एक भाग किया और अशुभ तथा ज्येष्ठा अलक्ष्मी, वेदविरोधी अधम मनुष्यों तथा अधर्म का निर्माण करके एक दूसरा भाग किया।

भगवान् जनार्दन ने पहले अलक्ष्मी का सृजन करके ही पद्मा (लक्ष्मी) का सृजन किया है, इसीलिये अलक्ष्मी ज्येष्ठा कही गयी हैं। अमृत की उत्पत्ति के समय महाभयङ्कर विष निकलने के पश्चात् पहले ज्येष्ठा अशुभ अलक्ष्मी उत्पन्न हुई, ऐसा सुना गया है। उसके अनन्तर विष्णुभार्या लक्ष्मी पद्मा आविर्भूत हुई।

अलक्ष्मी कहाँ कहाँ निवास करती है?

1.जिसके घर में वैदिकों, द्विजों, गौओं, गुरुओं तथा अतिथियों की पूजा न होती हो और जहाँ पति-पत्नी एक-दूसरे के विरोधी हों।

2. जहाँ पर देवाधिदेव, महादेव तथा तीनों भुवनों के स्वामी भगवान् रुद्रकी निन्दा होती हो।

3. जहाँ भगवान् वासुदेव के प्रति भक्ति न हो, जहाँ सदाशिव न स्थापित हों, जहाँ मनुष्यों के घर में जप-होम आदि न होता हो, भस्म-धारण न किया जाता हो, पर्व पर विशेष करके चतुर्दशी तथा कृष्णाष्टमी तिथि पर रुद्र-पूजन न होता हो, लोग सन्ध्योपासन के समय भस्म धारण न करते हों, जहाँ पर लोग चतुर्दशी के दिन महादेव का यजन न करते हों, जहाँ लोग विष्णु के नाम-संकीर्तन से विमुख हों।

4. जहाँ वेदध्वनि तथा गुरु पूजा आदि न होते हों, उन स्थानों पर और पितृ कर्म (श्राद्ध आदि) से विमुख हों।

5. जिस घर में रात्रि-वेला में (लोगों के बीच) परस्पर कलह होता हो।

6. जिसके यहाँ शिवलिङ्ग का पूजन न होता हो तथा जिसके यहाँ जप आदि न होते हों, अपितु रुद्रभक्त्ति की निन्दा होती हो।

7. जिस घर में अतिथि, श्रोत्रिय (वैदिक), गुरु, विष्णु भक्त्त और गायें न हों।

8. जहाँ बालकों के देखते रहने पर उन्हें बिना दिये ही लोग भक्ष्य पदार्थ स्वयं खा जाते हों।

9. जिस घर में या देश में पापकृत्य में संलग्न रहने वाले मूर्ख तथा दयाहीन लोग रहते हों।

10. घर और घर की चार दीवारी को तोड़ने वाली अर्थात् घर की मान–मर्यादा को भङ्ग करने वाली, दुःशीलता के कारण किसी भी प्रकार प्रसन्न न होने वाली गृहिणी जिस घर में हो।

11. जहाँ काँटेदार वृक्ष हों, जहाँ निष्पाव (सेम आदि)- की लता हो और जहाँ पलाश का वृक्ष हो।

12. जिनके घरों में अगस्त्य, आक आदि दूधवाले वृक्ष, बन्धुजीव (गुलदुपहरिया) का पौधा, विशेषरूप से करवीर, नन्द्धावर्त (तगर) और मल्लिका के वृक्ष हों। जिस घर में अपराजित, अजमोदा, निम्ब, जटामांसी, बहुला (नीलका पौधा), केले के वृक्ष हों। जहाँ ताल, तमाल, भल्लात (भिलावा), इमली, कदम्ब और खैर के वृक्ष हों। जिनके घरों में बरगद, पीपल, आम, गूलर तथा कटहल के वृक्ष हों। जिसके निम्बवृक्ष में, बगीचे में अथवा घर में कौवों का निवास हो और जिसके घरमें दण्डधारिणी तथा कपालधारिणी स्त्री हो।

13. जिस घर में एक दासी, तीन गायें, पाँच भैंसे, छः घोड़े और सात हाथी हों।

14. जिस घर में प्रेतरूप तथा डाकिनी, काली-प्रतिमा स्थापित हो और जहाँ भैरव-मूर्ति हो।

15. जिस घर में भिक्षुबिम्ब आदि हो।

16. जो मूर्ख तथा अज्ञानी लोग अकेले ही पका हुआ अन्न खाते हैं और स्नान आदि मङ्गलकार्यों से विहीन रहते हैं, उनके घर में।

17. जो स्त्री शौचाचार से विमुख हो, देहशुद्धि से रहित हो तथा सभी (भक्ष्याभक्ष्य) पदार्थों के भक्षण में तत्पर रहती हो, उसके घर में।

18. जो गृहस्थ मानव स्वयं मलिन मुखवाले, गन्दे वस्त्र धारण करने वाले तथा मलयुक्त्त दाँतों वाले हैं, उनके घर में।

19. जो लोग अपना पैर नहीं धोते, सन्ध्या के समय शयन करते हैं और सन्ध्या वेला में भोजन करते हैं, उनके घर में।

20. जो मूर्ख मनुष्य बहुत भोजन करते हैं, अत्यधिक पान करते हैं और जुआ-सम्बन्धी वार्ता करने तथा उसके खेलने में तत्पर रहते हैं, उनके घर में।

21. जो मनुष्य मद्धपान में संलग्न रहते हैं, पाप-परायण हैं, मांस-भक्षण में तत्पर रहते हैं और परायी स्त्रियों में आसक्त्त रहते हैं, उनके घर में।

22. जो लोग पर्व के अवसर पर भगवान् की पूजा में संलगन नहीं रहते, दिन में तथा सन्ध्या के समय मैथुन करते हैं, उनके घर में। जो लोग कुत्ते तथा मृग की भाँति पीछे से मैथुन करते हैं और जल में मैथुन करते हैं।


23. जो नराधम रजस्वला स्त्री के साथ अथवा चाण्डाली के साथ अथवा कन्या के साथ अथवा गोशाला में सम्भोग करता है, उसके घर में।

24. कृत्रिम साधनों से सम्पन्न होकर जो मनुष्य स्त्री के पास जाता है और स्त्री संसर्ग करता है, उसके यहाँ।

25. जो महादेव की तो निन्दा करता है, परन्तु विष्णु का पूजन करता है, उसके यहाँ।

(गीताप्रेस द्वारा प्रकाशित पत्रिका कल्याण के विशेषाङ्क श्रीलिङ्गमहापुराण के अन्तर्गत उत्तर भाग में से लिया गया)


जीवन में खुशी की चाबी है, यह छह चीजें.


जीवन में खुशी
की चाबी है, यह छह चीजें.
(सुधांशु जी महाराज)

संस्कृत में एक श्लोक है-

वदनम् प्रसाद सदनम्, सदयम् हृदयम् सुधमुचो वाचः।
करणम् परोपकरणम्, ऐषां तेषानु ते वन्द्या।।


अर्थात्... जिनके मुखमण्डल पर सदैव प्रसन्नता विराजमान रहती है, जो अपने जीवन में शान्त, सन्तुष्ट और प्रसन्नचित्त रहते हैं।

सर्दी-गर्मी, लाभ-हानि, जीत-हार और सुख-दुःख की विषम परिस्थितियों में प्रसन्नता से भरपूर रहते हैं, मधुर-मुस्कान जिनके मुख मण्डल पर सदैव तैरती रहती है। वे लोग इस जहान में वन्दनीय हैं, धन्य हैं और पूज्यनीय हैं। क्योंकि दुनिया में स्वर्ग की स्थापना उन्हीं के कर कमलों से संभव होती है, जो प्रसन्न होते हैं।

प्रसन्नचित्त रहने के लिए कुछ विशेष चिन्तन करना जरूरी है। जैसे कि कहा जाता है ऐसे न कमाओ कि पाप हो जाए, ऐसे कार्यों में न उलझो कि चिन्ता का जन्म हो जाए, ऐसे न खर्च करना कि कर्ज हो जाए, ऐसे मदमस्त होकर न खाना कि मर्ज हो जाए, ऐसी वाणी न बोलना कि क्लेश हो जाए, और संसार की उबड़-खाबड़ राहों में ऐसे लड़खड़ाकर न चलना कि देर हो जाए। प्रसन्न रहने के लिए यह महत्वपूर्ण संदेश है।

प्रसन्नता का वास उन्हीं के दिलों में होता है, जिनके मन में कोई क्लेश नहीं होता, जिनके सिर पर कर्जा नहीं होता, शरीर में रोग नहीं होता, चिन्ता और अशान्ति से जिनका कोई संबंध नहीं है। उनके ऊपर प्रभु की कृपा है और वे लोग ही दुनिया में प्रसन्न रहते हैं। क्योंकि परमात्मा की कृपा के बिना यह अनमोल गुण प्राप्त नहीं होता। जिस पर प्रभु की कृपा होती है वही इस उलझन भरी दुनिया में मुस्कुरा सकता है।

दुनिया की कृपा से तो मनुष्य को उलझनों के सिवाए क्या मिलता है? दुनिया वालों को रोज मनाते हैं, लेकिन दुनिया रोज रूठ जाती है। संसार के संबंध में प्रतिदिन विश्वसनीयता पैदा करने का प्रयास करते हैं किंतु विश्वास रोज टूट जाता है। इससे प्यार करने का प्रयास करें तो वैर बढ जाता है।

जिनके प्रति बड़ी-बड़ी आशाएं होती हैं, उन्हें निराशा परोसने में देर नहीं लगती। लेकिन क्या कभी किसी को परमात्मा की भक्ति में निराशा, हताशा, चिन्ता, दुःख, समास्याएं और विश्वासघात मिला? प्रभु के घर से तो सभी की झोलियां प्रसन्नता के प्रसाद से परिपूर्ण होती हैं।

हमारी अभिलाषाएँ पूरी क्यों नहीं होती?


हमारी अभिलाषाएँ
पूरी क्यों नहीं होती?
(पं. गोकुल प्रसाद भट्ट)

बहुत से मनुष्य कहा करते हैं, कल्पना जगत में ही विचरण करते रहने से-इस प्रकार के स्वप्नों में रहने से-हम वास्तव में कुछ नहीं कर सकते। केवल मन के लड्डू ही हम खाते रहेंगे। किन्तु यह भ्रम है। कहने का आशय यह है कि हम सदैव कल्पना-जगत में ही विचरण करते रहें और विचार ही विचार में रह जायें और मन के लड्डू में ही सन्तुष्ट रहें। कहने का आशय यह है कि किसी काम को करने के पहले उस काम को करने की दृढ़ इच्छा मन में उत्पन्न होने दें और तब सारी शक्तियों को उस ओर झुका देंगे जिससे आपको अधिकाधिक सफलता प्राप्त हो। मन के विचार को मन में ही गाढ़ कर न रखें वरन् उसे व्यवहार रूप में लाना आवश्यक है। हम यह भी अवश्य कहेंगे कि ये शक्तियाँ बड़ी ही कार्य कुशल है-पवित्र है। ईश्वर ने दैवी उद्देश्य सिद्ध के लिए हमें ये शक्तियाँ दी हैं, जिससे हम सत्य की झलक देख सकें। इन्हीं की बदौलत हम उस समय भी अपने आदर्श पर कायम रह सकते हैं जब कि असुविधा पूर्ण एवं विपरीत परिस्थिति में कार्य करने को बाध्य किए गये हों।

हवाई किले बनाना सर्वथा निःसार नहीं है। हम पहले मन में ही अपने कार्यों का सृजन करते हैं-अभिलाषा सूत्र में उनका नक्शा तैयार करते हैं और फिर कार्य रूप में उसकी बुनियाद डालते हैं। कारीगर मकान का नक्शा पहले मन से ही तैयार कर लेता है और मकान बनाता है। सुन्दर और भव्य मकान बनाने के पूर्व ही वह मनश्चक्षु से निर्मित इमारत देख लेता है।

इसी प्रकार हम जो कार्य करते हैं पहले उसकी सृष्टि हमारे मन में होती है और फिर वह स्थूल रूप धारण करता है। हमारी कल्पनाएँ हमारी इमारतों के नक्शे हैं। किन्तु यदि हम कल्पनाओं को सत्य करने के लिए जी-जान से प्रयत्न न करेंगे तो उनका नक्शा मात्र ही रह जावेगा। कारीगर यदि बैठा नक्शा बनाता रहे और मकान बनाने के साधनों को न जुटाए तो फिर उसका नक्शा बेकार ही रहेगा और उसके प्रयास नक्शे तक ही समाप्त हो जायेंगे।

सभी महान पुरुष, जिन्होंने संसार में महत्वपूर्ण सफलता प्राप्त की है पहले अपनी इच्छित वस्तुओं को स्वप्न में ही देख सकते थे। जितनी स्पष्टता से, जितने आग्रह से, जिस उत्साह से उन्होंने अपने सुख स्वप्न की-आदर्श की सिद्धि में प्रयत्न किया उतनी सिद्धि या सफलता उन्हें प्राप्त हुई।

अपने आदर्श को कभी इसलिए न त्याग दें कि उसे व्यवहृत करने का प्रत्यक्ष साधन आपको नहीं दिखलायी पड़ता। आप अपनी समस्त शक्तियों का प्रवाह अपने आदर्श पर लगा कर उस पर दृढ़ता से जमे रहें। आप सदैव उसे प्रज्वलित रखें। कभी भी अन्धकारमय या मन्द उसे न होने दें। सदैव आप नूतन एवं आनन्दप्रद अभिलाषा में उत्पन्न वायुमण्डल में भ्रमण करते रहें। आप वही ग्रन्थ पढ़ें जो आपके आदर्श की ओर आपको प्रोत्साहन दें-उन्हीं व्यक्तियों के संपर्क में रहे जिन्होंने ऐसे कार्य किए हैं जो आप करना चाहते हैं और जिसे सफल बनाने के लिए आप जी-जान से प्रयत्नशील हैं।

रात में सोने के पूर्व शान्त से आप एकाग्रचित्त हो अपने आदर्श पर चिन्तन करें-विचारों में आदर्श का व्यवहारिक रूप देखें और सफलता के आनन्द में विभोर हो उठें। आप भयभीत न हों-क्योंकि जो अपने आदर्श की असफलता के स्वप्न देखा करता है उसका निश्चय ही पतन होता हैं। स्वप्न-शक्ति या विचार-शक्ति आपको इसलिए नहीं दी गयी है कि वह आशंकाएँ उत्पन्न करें। उसके पीछे सत्य छिपा हुआ है। यह एक ईश्वर प्रदत्त गुण है जो दैवी कोष से दैवी धन देता है और आप साधारण व्यक्तियों की श्रेणी से उठकर असाधारण पुरुषों की श्रेणी में रहने लगते हैं-दुर्व्यवस्था से वह आपको दिव्य आदर्शों में निमग्न कर देता है।

हम अपने हृदय के आनन्दमय भवन में आदर्श के जिस आभास को देखा करते हैं वह हमें असफलता और दुराशा के कारण हतोत्साह होने से रोकता है।

यहाँ स्वप्नों का तात्पर्य उन स्वप्नों से नहीं है जो तरंगों के समान क्षणिक हैं-वरन् तात्पर्य उस सच्ची एवं प्रकृत अभिलाषा-उस पवित्र आत्मिक आकाँक्षा से है जो हमें सदैव हृदय में इस विचार को बल देती रहती है कि हम अपने जीवन को दिव्य और महान बनाएँ, तथा जो हमें सदैव सावधान करती रहती है कि हम अवाँछनीय एवं दुर्व्यवस्था से उठकर उन आदर्शों को ग्रहण करें जिनकी कल्पना हम किया करते हैं।

हमारी प्रकृत अभिलाषा के पीछे ईश्वरत्व छिपा हुआ है।

दैवी और फलप्रद अभिलाषाओं के लिए हम यह नहीं कहते कि आप अपनी अभिलाषाओं को उन पदार्थों के लिये उपयोग करें जिनको आप चाहते तो हैं लेकिन जिनकी आवश्यकता आपको नहीं है। उन अभिलाषाओं की चर्चा यहाँ पर नहीं है जो मरुदेश के उस फल के समान है जो देखने में सुन्दर है किन्तु मुँह लगाते ही जिसकी जघन्यता प्रकट हो जाती है। हमारा आशय यहाँ पर उन प्रकृत अभिलाषाओं से है जो हमारे आदर्श की सिद्धि में सहायक होती है। मेरा आश्रय उन वास्तविक आकाँक्षाओं से है जो हमें पूर्ण बनाने में आत्म विकास करने में मदद करती हैं।

हमारी मानसिक प्रवृत्तियाँ-हमारी हार्दिक अभिलाषाएँ हमारी रोज की प्रार्थनाएँ हैं। इन प्रार्थनाओं को प्रकृत दैवी सुनती है और उनका यथोचित उत्तर देती है। वह इस बात को स्वीकार कर लेती है कि हम वही वस्तु चाहते हैं जिसकी सूचना हमारी अन्तरात्मा देती है और वह हमें उसकी प्राप्ति के लिए बल देती है। लोग यह बहुत कम समझते हैं कि हमारी नित्य की अभिलाषाएँ हमारी प्रार्थनाएँ हैं ये प्रार्थनाएँ नकली नहीं, बनावटी नहीं, किन्तु विमल हृदय से निकली हुई हैं-आत्मिक है और परमात्मा उनका सुफल हमें अवश्य देता है।

हम सभी इस बात को मानते और जानते हैं कि एक दिव्य पथ-प्रदर्शक हमारी आत्मा में आसीन है और वह सदैव हमारी रक्षा करता है, हमें उचित मार्ग दिखलाता है और हमारी आकाँक्षाओं का समाधान करता रहता है। जो व्यक्ति अपने मानसिक भाव को ठीक करके उत्साह एवं दृढ़ता से अपने लक्ष्य तक पहुँचना चाहती है वह अवश्य सफल होगा-पूर्णतया नहीं तो अंशतः अवश्य।

हमारी हार्दिक अभिलाषाएँ हमारे उत्पादक अर्न्तवल को जागृत करती हैं। वे हमारी शक्तियों को जोर देती रहती हैं हमारी योग्यता को बढ़ाती रहती हैं। प्रकृति देवी की ऐसी दुकान है कि वहाँ एक मूल्य निश्चित रहता है और मनुष्य वह मूल्य देकर प्रत्येक वस्तु खरीद सकता है। हमारे विचार उन जड़ों के समान हैं जो शक्ति रूपी अनन्त सागर में फैली हुई है और जिन्हें गति तथा स्पन्दन देने से वे हमारी आकाँक्षा एवं अभिलाषा का स्नेहाकर्षण कर देती है।

वनस्पति-संसार की प्रत्येक वस्तु क्या फल क्या फूल अपने निश्चित समय पर ही फूलते-फलते और पकते हैं। जब तक उन्हें पूर्ण रूप से फूलने-फलने का अवसर न मिले पतझड़ उन पर असर नहीं करता। बर्फ गिरने के पहले ही फल पक जाते हैं यही कारण है कि उनकी वृद्धि रुकती नहीं।

सात्विक भोजन का सूक्ष्म प्रभाव.


सात्विक भोजन का सूक्ष्म प्रभाव.
(पं.शिवकुमार जी शर्मा, मौरा)

शास्त्र कहते हैं-”मानएव मनुष्याणाँ कारणाँ मोक्ष बन्धयोः। बन्धाय विषयासक्त’ मुक्तौ निर्विषयं मनः॥” अर्थात्-’मन ही मनुष्य के बन्धन और मोक्ष का कारण है, क्योंकि विषयों में फँसा हुआ मन बन्धन में है और विषयों से छूटा हुआ मुक्त है।’ जब बन्धन और मोक्ष कारण मन ही है, तो मन पर ही क्यों न नियन्त्रण किया जाय? मन को नियन्त्रण करने की एक अमोध औषधि है, जिसकी महिमा का वर्णन, शास्त्रों में विशद रूप से किया गया है, वह है ‘सात्विक भोजन’।

भोजन तीन प्रकार के हैं-सात्विक, राजस तथा तामस। सात्विक भोजन सबसे उत्कृष्ट माना गया है, क्योंकि इससे मन पवित्र होता है, तथा आत्मिक शक्ति बढ़ती है। आत्मिक बल ही मनुष्य का सच्चा बल है। श्रुति कहती है- “नायमात्मा बलहीनेन लभ्य” अर्थात्-’इस आत्मा को बलहीन पुरुष प्राप्त नहीं कर सकता।’

सात्विक भोजन से निकृष्ट वृत्तियाँ तत्काल दब जाती है, विलासप्रियता का विनाश हो जाता है, सद्भाव जागृत होकर शान्ति का प्रादुर्भाव होता है, पापी से धर्मात्मा तथा व्यभिचारी से ब्रह्मचारी बन जाता है, आध्यात्मिक तथा नैतिक शक्तियों का विकास होता है। सात्विक भोजन रसायन है, सम्पूर्ण व्याधियों को नष्ट कर बुढ़ापा रोकने की शक्ति प्रदान करता है, असमय में बालों को पकने नहीं देता तथा वीर्य को उर्द्धगामी बनाता है, साँसारिक प्रपंच से उद्धार पाने की उत्कण्ठा जागृत होता है, विवेक और वैराग्य होता है। अतएव मनुष्य को ऐसा भोजन करना चाहिए जिससे मन प्रसन्न रहे, ब्रह्मचर्य की रक्षा हो, धार्मिक विचार तथा तीव्र बुद्धि हो, एवं अपनी पुरानी बुरी आदतों, कुविचारों, कुसंस्कारों तथा कुवासनाओं का उन्मूलन हो जाय।

जिन वस्तुओं में सरसता, सुवास, पुष्टि तथा तुष्टि होती है, जो पचने में तो हलकी और शक्ति देने में भारी होती हैं, उन्हीं को सात्विक आहार में ग्रहण करना चाहिए।

मन, बुद्धि तथा इन्द्रियों पर भोजन का बड़ा प्रभाव पड़ता है। अप्राकृतिक भोजन करने वाले राष्ट्र के लिए घातक हैं, क्योंकि उनकी तमोगुणी वृत्तियाँ समाज तथा देश में अशान्ति फैलाती रहती हैं। आज का मानव-जगत् इसी आसुरी-भाव को प्राप्त है।

“देहो देवालयः प्रोक्तः” अर्थात्-देह को परमात्मा का मन्दिर कहा गया है। यह तो परम पवित्र स्थान है, इसमें किसी अपवित्र वस्तु को स्थान देना ठीक नहीं, इसे सर्वदा शुद्ध, पवित्र और शुचि रखना चाहिए। किसी बुरे विचार या किसी बुरी वासना को रखना ठीक नहीं। अशुद्ध भोजन से देह को किसी कुकर्म में प्रवृत्त कराना अनुचित है, क्योंकि यह शिवालय है। पवित्र भोजन से इस देवालय को शुद्ध रखना चाहिये, जिससे देहस्थ भगवान प्रसन्न होकर हमारी आर्तनाद भरी प्रार्थनायें सुन सकें।

हम जो कुछ भी भोजन करते हैं, वह तीन हिस्से में बँट जाता है, उसका जो अत्यन्त स्थूल भाग है, वह मल हो जाता है, जो मध्य भाग है, वह माँस हो जाता है और उससे भी जो अत्यन्त सूक्ष्म भाग है, वह मन हो जाता है। इसलिए मन को पवित्र तथा पारदर्शी बनाने के लिए नैसर्गिक भोजन पर ही बसर करना चाहिए। नैसर्गिक भोजन ऋषियों का भोजन है, हमारे मन को निर्मल धारा में बहा कर मोक्ष या स्वर्ग के दिव्य-द्वार पर पहुँचा सकता है। इसके द्वारा हम भारत को फिर से ऋषि भूमि बनाकर सत्य युग की रचना कर सकते हैं। दाम्पत्य जीवन व्यतीत करने वाले यदि सात्विक भोजन करते हुए गर्भाधान करें तो उनकी सन्तान मेधावी, धर्मात्मा तथा दीर्घायु हो सकती है।

प्राचीन तथा अर्वाचीन काल में जितने महापुरुष हुए हैं, सभों ने भोजन के शुभाशुभ तत्व को अनुभव करके विश्व को प्राकृतिक भोजन करने की शिक्षा दी है। कहा भी है-”याद्दशी भक्षयेच्चान्न’ बुद्धिर्भवति ताद्दशी। दीपास्तिमिर भक्षयतिकज्जलं च प्रसूयते॥” अर्थात्-मनुष्य जैसा अन्न भक्षण करता है, वैसी ही उसकी बुद्धि हो जाती है, जैसे-दीप अन्धकार भक्षण कर कालिख उत्पन्न किया करता है इसी प्रकार छान्दोग्योपनिषद् चिल्ला-चिल्लाकर कह रही है-”आहार शुद्धौ सत्व शुद्धिः सत्व शुद्धौ ध्रुवा स्मृतिः। स्मृति लब्धे सर्व ग्रन्थीना मोक्षः॥” अर्थात्-’आहार शुद्ध होने पर अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है। अन्तःकरण शुद्ध होने पर बुद्धि निश्चयात्मक हो जाती है, निश्चयात्मक बुद्धि होने पर ग्रन्थियों का भेदन हो जाता है, ग्रंथियों का भेदन होने से अमरत्व की प्राप्ति होती है।’

यदि प्रत्येक भारतीय सात्विक भोजन पर निर्वाह करने की दृढ़ प्रतिज्ञा कर ले तो विषमता की प्रज्वलिताग्नि से भारत फिर छुटकारा पाकर ऋषियों की भूमि बन जाय।

तब दुःख चिंताएं डरकर दूर भागेगी.

तब दुःख चिंताएं 
                 डरकर दूर भागेगी.
(सुधांशु जी महाराज)

वह व्यक्ति जो स्वयं को नहीं पहचानता, वह अपने साथ शत्रु सा व्यवहार करता है। बहुत जन्मों के बीज लेकर आए, हर जन्म में ऐसा ही किया तो कर्मों की श्रृंखला कभी खत्म नहीं होगी। इस जन्म में होशपूर्वक कर्म करते हुए अपने को पावन करने के लिए उस पतित पावन परमात्मा से मन व भावना को जोड़ना है।

जिन्दगी की यात्रा निर्भरता से शुरू होती है, उसके बाद सुख-दुःख फिर परिवार में परस्पर निर्भरता और फिर एक स्थिति आती है जब सबको साथ लेकर चलना होता है, एक दूसरे को परस्पर निर्भरता से जोड़ना और सम्पूर्णता की ओर ले जाना।

जिसे जोड़ना आ जाता है, उसमें नेतृत्व का गुण आ जाता है, क्योंकि अकेली उंगली बोझ नहीं उठा सकती, सारी उंगलियां मिल जाएं तो बोझ उठाने में कठिनाई नहीं आती। मिल कर काम करने से सभी सपने साकार हो सकते हैं। व्यक्ति अपनी शक्तियां पहचान लेता है तो विकास होता है।

अपनी शक्तियां नहीं पहचानने का मतलब है, आप स्वयं के शत्रु हैं। जो शक्तियां-क्षमताएं पहचानते हैं, वह जीवन में कमाल कर जाते हैं। समस्याएं सब के पास हैं, इनके जालों से बाहर निकलो। आपकी क्षमता से समस्याएं भागने लग जाएंगी। हर व्यक्ति को स्वयं अपना सर्वश्रष्ठ मित्र बनना चाहिए। अपने को शाबासी भी देनी चाहिए, आत्महीनता नहीं आने देनी चाहिए। दीन-हीन बन कर जीवन मत जिओ।

जब स्वयं को नहीं पहचानोगे, दुनिया में दुःख चिन्ताएं, समस्याएं सताएंगी। जब स्वयं की पहचान कर लोगे, चिन्ताएं डरकर दूर भागेगी। साहस रख कर भीड़ से हट कर, लगातार प्रयास द्वारा आप सफलता प्राप्त कर सकते हैं। आप जागरूक हैं तो स्वयं के मित्र हैं, नहीं तो स्वयं के शत्रु हैं। स्वयं के मित्र बनो-शत्रु नहीं।

कोई यह अनुदान ग्रहण भी तो करे.


        कोई यह अनुदान
           ग्रहण भी तो करे.

यों बाल-विधवा पिसनहारी ने दो-दो पैसा बचा कर बुढ़ापे तक एक पक्का कुँआ बना सकने जितना पैसा इकट्ठा कर लिया था। उसी प्रकार कोई चाहे तो अन्य सम्पदाएँ एवं विभूतियाँ भी अपने बलबूते क्रमशः जमा करता रह सकता है और उस संचय के बल पर कोई बड़ा काम कर सकता है, पर यह अपवाद है, सामान्य या विशिष्ट रीति नहीं। आमतौर से होता यह है कि समर्थों का आश्रय लेकर असमर्थ तेजी से ऊँचे उठते और आगे बढ़ते हैं।

बेल अपने आप ही इधर-उधर बढ़ती-फैलती रहती है। उसे पानी में गलने, धूप में सूखने और जानवरों द्वारा चरे जाने का खतरा भी रहता है, किन्तु जब वह किसी ऊँचे पेड़ का आश्रय पकड़ लेती है तो उतनी ऊँची उठ जाती है, जितना कि लम्बा वाला बिल्व वृक्ष। बाढ़, धूप, पशु भी उसका कुछ बिगाड़ नहीं पाते। “अमर बेल” तो पूरी तरह उस पेड़ से ही अपनी खुराक आजीवन प्राप्त करती रहती है, जिस पर कि वह फैलती है। यह तरीका और भी अधिक सरल है।

जीव की मूल सत्ता शुक्राणु के रूप में इतनी छोटी होती है कि आँख से देखी भी नहीं जा सकती, किंतु भ्रूण में प्रवेश करने के बाद माता की शरीर-सम्पदा उसे मिलने लगती है और नौ महीने में वह इस योग्य हो जाता है कि बाह्य संसार में प्रवेश कर सके। इसके बाद भी माता दूध पिलाने, खिलाने, पहनाने, सफाई रखने जैसी अनेकों सुरक्षात्मक सावधानियाँ रखती है। यदि ऐसा न करे, तो बालक का जीवित रह सकना संभव नहीं। अब पिता की बारी आती है। पोषण, शिक्षण, स्वावलम्बन, विवाह आदि के लिए वह अपनी कमाई का अधिकाँश भाग खर्च कर देता है। अध्यापक भी अपना दायित्व पूरा करता है और सभ्य-शिक्षित बनाने में योगदान देता है। इन सहायताओं के बल पर मनुष्य आगे बढ़ता है। यदि उसे उपरोक्त सभी प्रसंगों में अपने पैरों खड़ा होना पड़े, तो वह क्या कुछ बन सकेगा?, इस संबंध में असमंजस और संदेह ही बना रहेगा।

सुसभ्य छत्रछाया में सभी को विकसित होने का असाधारण अवसर मिलता है। चतुर माली बगीचे को ऐसा नयनाभिराम और लाभदायक बना देता है, उसे देखकर दर्शकों तक को प्रशंसा करनी पड़ती है। सुव्यवस्थित गुरुकुलों में पढ़कर छात्र अत्यन्त मेधावी नर-रत्न बन कर निकलते रहे। यह कार्य कोई विद्यार्थी अपने आप पोथी पढ़ कर सम्पन्न नहीं कर सकता है। पहलवान अखाड़ों में ही बना जाता है। अभिनेता बनने के लिए रंगमंच चाहिए। प्रगति के लिए आवश्यक वातावरण, मार्गदर्शन एवं अनुदान- इन सभी की आवश्यकता पड़ती है। स्वउत्पादित् तो जंगलों के झाड़-झंखाड़ ही होते हैं। अनगढ़ चट्टानें देव प्रतिमाओं का कलेवर धारण नहीं कर सकतीं, इसके लिए निर्माता, कलाकार चाहिए। आभूषण भी हर कोई नहीं बना सकता। यह स्वर्णकार का ही कौशल है, जो अनगढ़ धातु-खण्डों को अपनी कलाकारिता से ऐसे आभूषणों में बदल देता है, जिससे सिर और गले तक की शोभा बढ़ती है, नाक-कान तक सजते हैं, उँगली के पोरवे भी।

व्यक्ति की भौतिक अथवा आत्मिक प्रगति के लिए किसी सहायक मार्गदर्शक की आवश्यकता पड़ती है। गायक, वादक, मूर्तिकार, चित्रकार आदि को किसी-न-किसी निष्णात के यहाँ शिक्षा प्राप्त करनी पड़ती है। आत्मिक क्षेत्र में तो यह एक प्रकार से अनिवार्य है, नितान्त आवश्यक। जिस प्रकार भ्रूण बिन्दु को माता का रस-रक्त चाहिए, उसी प्रकार आत्मिक प्रगति के लिए ऐसे संरक्षण परिपोषक की आवश्यकता पड़ती है, जो अपने विषय का प्रवीण पारंगत भी हो और साथ ही उतना उदार भी कि अपनी उपार्जित सम्पदा को बिना संकोच के ‘इच्छुक’ को उदारतापूर्वक हस्तान्तरित करता रहे।

चर्चा गुरु-शिष्य संयोग-सुयोग की हो रही है। उसमें प्रमुखता एवं वरिष्ठता गुरु की है, क्योंकि वह अपने विषय का धनी भी होता है और दानी भी। इतिहास साक्षी है कि जहाँ कहीं, जब कभी कोई महत्वपूर्ण प्रसंग सामने आया है, तब उसमें गुरु की प्रत्यक्ष या परोक्ष भूमिका अपना चमत्कार प्रस्तुत करती दिखाई दी है। यों भटकते-पूछते भी पथिक देर-सबेर में ठिकाने तक जा पहुँचते हैं, पर उन्हें वह सुगमता और सफलता नहीं मिलती, जो गुरु और शिष्य का संयोग बनने पर संभव होती है। इस तथ्य को समझते हुए निराश एकलव्य को द्रोणाचार्य की प्रतिमा मिट्टी से बनानी पड़ी थी। श्रद्धा के बल पर उसने उस खिलौने को असली द्रोणाचार्य से कहीं अधिक सुयोग्य एवं सहायक शिक्षक बना लिया था।

विश्वामित्र यज्ञ रक्षा के बहाने राम-लक्ष्मण को अपने तपोवन में ले गये थे। वहाँ उन्हें बला और अतिबला-गायत्री और सावित्री की रहस्यमयी जानकारी दी थी। फलतः सीता स्वयंवर जीतने, लंका विजय करने, राम राज्य की प्रतिष्ठा करने एवं भगवान कहे जाने की स्थिति तक वे पहुँचे थे। ऐसा सुयोग भरत, शत्रुघ्न को नहीं मिला था। उन्हें सामान्य स्थिति में रहना पड़ा। वे विश्व विख्यात न बन सके।

नारद के परामर्श से भगीरथ गंगावतरण में प्रवृत्त हुए थे। उन्हीं का निर्देशन परशुराम को मिला था कि संव्याप्त अनीति के धुर्रे बिखेर दें। वे परामर्श मात्र देकर चले नहीं गये थे, वरन् आदि से अन्त तक उनकी साज-संभाल करते और कठिनाइयों का समाधान करते रहे थे। नचिकेता ने यमाचार्य से पंचाग्नि विद्याएँ प्राप्त की थीं और वे उस आधार पर ऊर्जा विज्ञान की समग्रता एवं प्रवीणता उपलब्ध कर सके थे। गुरुकुल की महत्ता इसी दृष्टि से थी कि वहाँ पुस्तकें ही नहीं पढ़ाई जाती थीं, वरन् छात्र में नये प्राण फूँकने और तुच्छ से महान बनाने की प्रक्रिया भी सम्पन्न की जाती थी।

भारतीय संस्कृति की पुण्य परम्परा में माता-पिता के अतिरिक्त संरक्षकों की तीसरी पदवी गुरु की है। यही प्रत्यक्ष त्रिदेव हैं। शिव के बिना जिस प्रकार देव समुच्चय अधूरा रहता है, उसी प्रकार उच्चस्तरीय शिक्षार्थी भी उपयुक्त गुरु के अभाव में अनाथ-अपंग की स्थिति में पड़ा रहता है। अभाव, अज्ञान एवं अशक्ति से उफनते इस भवसागर जैसे महानद को सुरक्षित रूप से पार करने के लिए जिस मजबूत पतवार वाले जहाज की जरूरत है, उसे ही गुरु कहा गया है।

महानता के पुरातन इतिहास में गुरु गरिमा की जितनी बड़ी भूमिका रही है, उतनी किसी और की नहीं। इसलिए भावनाशील शिक्षार्थी गुरुदक्षिणा में आचार्य को मुँह माँगा अनुदान अपनी समूची सामर्थ्य को भी न्यौछावर करते हुए हर संभावना को साकार कर दिखाते थे। हरिश्चंद्र ने अपना राजपाट ही नहीं, शरीर और परिवार तक इस गुरु दक्षिणा के निमित्त समर्पित कर दिया था। वाजिश्रवा, हरिश्चंद्र और बिम्बसार की भी ऐसी ही कथाएँ हैं। जो पाया था, उसका मूल्य चुकाते समय इन भावनाशील शिष्यों ने कृपणता का परिचय नहीं दिया। आरुणी, उद्दालक, सत्यकेतु और द्रुपद की कथाएँ सुप्रसिद्ध हैं और उनके गुरु ने अनुदानों को देखते हुए शिष्यों के लिए उपयुक्त प्रतिदान प्रस्तुत करने में भी कोताही नहीं की थी।

कुछ ही शताब्दियों के बीच घटित हुई घटनाओं में कई ऐसी हैं जो रहस्यमय तथ्यों का उद्घाटन करती हैं। भगवान बुद्ध ने अपने तपोबल से अनेकों को भागीदार बनाया और उनसे बड़े काम कराये। कुमार जीव को उन्होंने समूचे चीन का धर्मगुरु बना दिया। मंचूरिया, मंगोलिया, कोरिया, जापान तक में वह दूसरा बुद्ध माना जाने लगा था। तथागत का कार्यक्रम एक केन्द्र से धर्मचक्र प्रवर्तन की धुरी घुमाना था। वे स्वयं समूचे संसार और एशिया में किस प्रकार भ्रमण करते? उन्होंने अंगुलिमाल, अम्बपाली जैसों का कायाकल्प किया और उनके द्वारा पूर्वी-दक्षिणी एशिया में नवीन चेतना जगाई। एक दुर्दान्त डाकू उच्चकोटि का धर्म प्रचारक बन गया और अनेकों की पर्यंक शायिनी नर्तकी अम्बपाली ने सुविस्तृत क्षेत्र के नारी समुदाय में ऐसा प्राण फूँका मानो किसी ने उसे तपती जमीन पर अमृत बरसा दिया हो। वह देवी में बदल गई, साध्वी हो गयी। क्या यह पतित समझा जाने वाला परिकर बिना गुरु -कृपा के ऐसी स्थिति में पहुँच सकता था कि उनके चरणों पर कोटि-कोटि जन समुदाय के पलक पाँवड़े बिछे। बिम्बसार ने राज्यकोष बौद्ध विहार बनाने में चुका दिया और हर्षवर्धन ने तक्षशिला विश्वविद्यालय का समूचा भार उठाया। लगता है कि इन शिष्यों को घाटे में रहना पड़ा। पर उस घाटे पर कुबेर जैसे रतन भण्डारों को न्यौछावर किया जा सकता है, जिसने मनुष्यों को देवताओं से बढ़कर सम्माननीय बना दिया। कोटि-कोटि कण्ठों से गदगद कण्ठ में जिनकी यशोगाथा गाई गयी। ऐसा सौभाग्य क्या किसी छोटी मोटी धनराशि और सुख सम्पदा से लाखों गुना बढ़कर नहीं है? बुद्ध के अवतार होने का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि उनने सामान्य स्तर के लोगों को लाखों की संख्या में महामानवों की पंक्ति में बिठाया। समर्थ गुरु के अभाव में यह लाखों भिक्षुओं और भिक्षुणियों की धर्म सेवा विश्वमानस का नवनिर्माण करने के लिए निकल न पाती।

तपस्वी चाणक्य की तप सम्पदा गाय के दूध भरे थनों की तरह निस्सृत हो रही थी, पर प्रश्न यह था कि सत्पात्र ढूंढ़े बिना यह अमृत किस पर लुटाया जाय। आखिर चन्द्रगुप्त मिल गया। एक क्षुद्र जाति के बालक को राजपूतों के बीच वरिष्ठता कैसे मिलती? पर चाणक्य की योजना, दक्षता और तप-सम्पदा थी जिसे लेकर चन्द्रगुप्त भारत के गौरव में चार चाँद लगा देने में समर्थ हुआ। यह मिला तब था जब उसने अपने पराक्रम का लाभ अपने निज के लिए नहीं, समस्त राष्ट्र के लिए अर्पित करने का व्रत लिया और आश्वासन दिया था।

समर्थ गुरु रामदास और छत्रपति शिवाजी की ऐसी ही गाथाएँ हैं। गुरु ने शिष्य को और शिष्य ने गुरु को अपना निजत्व पूरी तरह समर्पित कर दिया था। रामकृष्ण परमहंस ने अपनी तप साधना विश्व संस्कृति में नई हलचल पैदा करने के लिए प्रदान की और शिष्य ने अनुभव किया कि उनके प्राण और शरीर में गुरु ही काम कर रहा है। उनने संसार भर में रामकृष्ण मिशन मठों की स्थापना की। निजी महत्वाकाँक्षा से प्रेरित होकर विवेकानन्द नाम की एक कुटिया भी कहीं नहीं बनाई।

महायोगी और उद्भट विद्वान विरजानन्द की पाठशाला में ढेरों विद्यार्थी संस्कृत पढ़ते थे और पढ़ाई पूरी करके कथा बाँचने, जन्मपत्री बनाने का धन्धा करते थे। गुरु को आवश्यकता ऐसे शिष्य की थी जो पेट पालने और मनोकामना पूरी कराने का आशीर्वाद न माँगकर अपने को देश, धर्म, समाज और संस्कृति के लिए समर्पित करे। अगणित छात्र आए और चले गए। पर एक छात्र मिला- दयानन्द, जिसने आचार्य से गुरु दक्षिणा माँगने के लिए कहा और जब उन्होंने तन, मन, धन पाखण्ड खण्डन करने के निमित्त समर्पित करने की माँग की तो शिष्य ने गुरु आदेश के लिए सर्वस्य समर्पित कर दिया। वे ब्रह्मचारी से संन्यासी बन गए और जब तक जिए, एक निष्ठ भाव से वेद धर्म का प्रचार करने में लगे रहे। आर्य समाज के रूप में उनका दिवंगत शरीर अभी भी जीवित है। उन्हें राष्ट्रीय आन्दोलन के- समाज सुधार अभियान के जन्मदाता के रूप में स्मरण किया जाता है।

ऊपर की पंक्तियों में कुछ ऐसे नेतृत्व करने वाले शिष्यों का उल्लेख है जिन्होंने पुरुष से पुरुषोत्तम, नर से नारायण बनने की दिशा में कदम बढ़ाये और असंख्यों के हृदय पटलों पर अपने आसन जमाए।

आज ऐसे ही नेताओं का, शिष्यों का आह्वान हो रहा है जिन्हें विपुल सहायता प्रदान करने के लिए देव सत्ता व्याकुल है। तलाशा उन्हें जा रहा है जो इस अनुदान को पाकर अपने को और गुरु परंपरा को धन्य बनावें। ढूंढ़ना गुरु को नहीं, शिष्यों को इस तरह पड़ रहा है मानो भारत माता की बहुमूल्य रत्न-राशि कहीं मिट्टी धूलि में गुम हो गई हो।

यह तथ्य याद रखा जाना चाहिए कि टंकी में पानी जब तक भरा रहता है, तब तक उसके साथ जुड़े हुए नल का प्रवाह चलता ही रहता है। बिजली घर के साथ जुड़े हुए बल्ब, पंखे, मोटर गतिशील रहते ही हैं। समर्थ गुरु सत्ता के साथ जो जुड़ सके, उसे थकने, हारने या निराश होने की कोई आशंका नहीं। नेतृत्व के शिक्षार्थी किसी प्रकार हताश न हों, अपने आपको समर्थता के साथ जोड़े रहने का संकल्प भर सुदृढ़ बनाये रहें।

युग नेतृत्व के उदाहरणों की शृंखला में निकटवर्ती, अभी तक जीवित व्यक्ति को तलाशना हो तो प्रज्ञा अभियान के सूत्र संचालक को उलट पुलट कर परखा जा सकता है। उनने ऐसे अनेक काम किए हैं जिनसे असंभव शब्द को संभव में बदलने की नेपोलियन वाली उक्ति को चरितार्थ होते देखा जा सकता है। यह हाड़ माँस से बनी काया के व्यक्ति का कर्त्तव्य नहीं हो सकता। मनुष्य की कार्यक्षमता सीमित है, कौशल और साधन भी सीमित हैं पर जब असीम साधनों की आवश्यकता पड़े और वे सभी यथा समय जुटते चले जायँ तो एक शब्द में यही कहना होगा कि यह किसी दैवी शक्ति का पृष्ठ पोषण है। इसके उपलब्ध प्रत्यक्ष प्रमाणों में से हर एक यही कहता है कि इस प्रत्यक्ष के पीछे परोक्ष भूमिका गुरु तत्व की है।

एक लाख “नेता”, सच्चे अर्थों में नेता विनिर्मित करने का संकल्प अकेला ही इतना भारी है जिसे तराजू के एक पलड़े में रखने के बाद दूसरे में पुरातन काल के नालन्दा और तक्षशिला विश्वविद्यालयों को रखते हुए बराबरी की बात सोचनी पड़ेगी। क्या यह सम्भव है? क्या यह सब हो सकेगा? क्या एक लाख युग शिल्पी नवसृजन में संलग्न होकर सतयुग की वापसी का वह प्रयोजन पूरा कर सकेंगे जिसे समुद्र सेतु बाँधने के समतुल्य माना जा सके। बात अचंभे की है, पर तब-जब सामान्य मनुष्य की सामर्थ्य से इतने बड़े उत्तरदायित्व को तौला जाय। जब स्थिति ऐसी हो कि प्रस्तुत संकल्प की प्रेरणा, निर्धारणा, योजना ही नहीं, उसकी सफलता की जिम्मेदारी भी किसी महान शक्ति ने उठाई हो तो उसकी सफलता में किसी प्रकार का सन्देह यह असमंजस करने की गुँजाइश नहीं है। इस अवसर का लाभ उठाने पर वही उक्ति लागू होगी जिसमें कृष्ण ने अर्जुन से कहा था कि “शत्रु को मैंने पहले ही मार कर रख दिया है, तुझे तो विजय का श्रेय भर लूटना है”।



(अखंड ज्योति-9/1986)

उपवास कब और कैसे?


उपवास कब और कैसे?
(डा॰ लक्ष्मी नारायण टण्डन प्रेमीएम॰ए॰)

साधारणतया उपवास सभी कर सकते हैं और सबको ही उपवास लाभप्रद हो सकता है किन्तु कुछ रोगों में तो उपवास ही राम-बाण है।

यदि किसी अंग-विशेष से हम बहुत दिनों तक काम न लें तो वह निर्बल या बेकाम हो जाता है। बहुत से साधु जो सदा अपना हाथ उठाते रहते हैं बहुत दिनों के बाद उनका वह हाथ बेकाम हो जाता है। वैसे ही जब कोई अंग ठीक-ठीक काम नहीं करता तो स्वयं उस अंग में कोई दोष न होते हुए भी वह रोगाक्रांत हो जाता है। ऐसे रोग प्रतिक्रियात्मक कहलाते हैं। वे निश्चय रूप से उपवास से ठीक हो जाते हैं।

अर्वुद (केन्सर) में उपवास राम-बाण है। रोग की आरंभ अवस्था में तो कैंसर बिल्कुल ही ठीक हो सकता है। किन्तु बढ़ी हुई अवस्था में भी उपवास के अतिरिक्त और किसी चीज से आरोग्य की आशा की ही नहीं जा सकती। ऐसी दशा में उपवास शीघ्रता से रोगी के कष्ट को रोकता और कम करता है और अपेक्षाकृत अधिक कष्ट रहित तथा लम्बा जीवन दे सकता है।

यदि चोट आ जाने के कारण मस्तिष्क में चोट आ गई हो तो उपवास से अवश्य लाभ होगा। जिस समय तक मस्तिष्क के गूदे में वह पड़ने के कारण उत्पन्न हुआ पागलपन होश-हवास का दुरुस्त न रहना तथा अन्य भयंकर लक्षण समाप्त न हो जाएं उपवास जारी रखना चाहिए। वैसे ही विषों के प्रभाव से जो एक नशा-सा रह कर मन की बीमारी हो जाती है उसमें भी उपवास लाभ प्रद है।

लाल बुखार साधारण ज्वर तथा सब प्रकार के ज्वरों में, गले की सूजन, कुकर खाँसी, जुकाम, सर्दी, खाँसी, जुकाम, सर्दी, खाँसी, पायेरिया, छोटी माता या खसरा, बच्चों के अर्धांग वात रोग की प्रारम्भिक दशा में हिस्टीरिया (अपतन्त्र वायु), मानसिक, वायु रोग, आधा-शीशी, सर-दर्द, दस्त, कै, जी मिचलाना आदि में भी उपवास तथा हल्के उपवास बहुत लाभ प्रद होते हैं।

गर्मी या उपदेश की प्रारंभिक अवस्था में उपवास विशेष लाभप्रद होता है।

महात्मा गाँधी ने भी लिखा है-”डॉक्टर मित्रों से माफी माँगते हुए किन्तु अपने सम्पूर्ण अनुभवों के और अपने जैसे दूसरों के अनुभवों के आधार पर मैं बिना किसी हिचकिचाहट के यह कहूँगा कि यदि निम्नलिखित शिकायत हो तो अवश्य ही उपवास किया जाय-

1-कब्ज में 2- रक्त की कमी में 3-बुखार आने पर 4-बदहजमी में 5-सिर दर्द में 6-वायु के दर्द में 7-जोड़ों के दर्द में 8-भारीपन मालूम होने पर 9-उदासी और चिन्ता में 10-बेहद खुशी में। यदि इन अवसरों पर उपवास किया जाय तो डा. के नुस्खों और पेटेन्ट दवाओं से बचत हो जायगी।”

बादी, मोटापा कम करने की इच्छा वालों के लिए उपवासों से बढ़ कर कोई सरल और उत्तम उपाय है ही नहीं। बादी को दूर करने में भी उपवास रामबाण है।

लकुवा, कण्ठ माली, ताप तिल्ली, बवासीर आदि में भी उपवास बहुत लाभ करता है। मन्दाग्नि, पेट के दर्द, अतिसार, पेचिश, आँतों, पेट तथा प्रदर के अन्य सभी रोगों में उपवास करना चाहिये। जीर्ण रोगों में भी उपवास लाभप्रद है। आँव-अन्तर प्रदाह, भीतरी सूजन, पित्त सम्बन्धी रोगों में, दमा, गठिया, मधुमेह, जिगर के रोग, जुकाम, गले में खराश, खाँसी, चिड़चिड़ापन क्रोध तथा मानसिक विकारों को दूर करने के लिये बाई, वायुगोला, शूल-दर्द आदि में उपवास करें।

आत्मिक शान्ति तथा मानसिक आवेगों को दबाने में भी उपवास बड़ा सहायक सिद्ध होता है। क्रोध, शोक, घृणा आदि भी उपवास द्वारा दबाये जा सकते हैं। इससे कुत्सित विचार तथा बुरी भावनाओं आदि का शमन हो जाता है।

गठिया बाई, मूत्राशय सम्बन्धी रोगों (जैसे गर्मी, सुजाक, सूजन, मधुमेह) दमा, लकुवा, यकृत में रक्त का जमा होना, बादी, मोटापा, मस्तिष्क में खून का जमा होना, पेट तथा सीने की जलन, नसों के कड़े होने या अन्य विकारों में, कैन्सर, मोतीझरा, अपेंडी साइरिस आदि में लम्बे उपवास करने चाहिये।

कब्ज, पेचिश, मन्दाग्नि, अतिसार, शूल-दर्द, खाँसी, जुकाम-सर्दी, फोड़े-फुँसी, खुजली तथा अन्य चर्म रोगों में, दाँत, आँख, नाक, आदि में दर्द, छूत के रोगों जैसे शीतला, खसरा आदि में पेट में कृमि पड़ जाने या चुनने होने पर, सर-दर्द, पेट-दर्द, साधारण बुखार, डिफथीरिया आँतों या पेट के अन्य यन्त्रों के स्थानापन्न होने आदि रोगों में छोटे उपवास करना चाहिये।

लम्बे उपवासों की पहले से कोई निश्चित दिनों की संख्या निर्धारित नहीं की जा सकती। यह तो मनुष्य की शारीरिक दशा स्थिति आदि के ऊपर निर्भर है। साधारणतया जब तक स्वाभाविक भूख न लगे तब तक उपवास जारी रखना चाहिए। साधारण रोगों में भी जब तक रोग की तीव्रता न समाप्त हो जाय तब तक उपवास करें। छोटे-छोटे उपवास करके अच्छा होने में समय अधिक लगता है और लम्बे उपवास में रोग से मुक्ति शीघ्र ही होती है। अप्टन सिंक्लेयर का मत है-’मेरी समझ में पाचन शक्ति के मन्द पड़ने, आँतों में मल जमा होने, सिर में दर्द रहने, कब्जियत होने अथवा इसी प्रकार की और दूसरी साधारण छोटी-मोटी शिकायतों के लिए दस-बारह दिनों का उपवास बहुत ठीक होता है। पर जिन लोगों को नासूर, गर्मी, बवासीर, गठिया आदि भारी और भयंकर रोग हैं, उन्हें अधिक दिनों तक उपवास करना चाहिये।” दुबले पतले आदमियों को लम्बे उपवास नहीं करना चाहिए पर मोटे आदमी लम्बा उपवास कर सकते हैं क्योंकि उनके शरीर में फालतू द्रव्य बहुत होता है।

छोटे बच्चों को लम्बे उपवास न कराइए। पाँच छः दिन से अधिक लम्बे उपवास उन्हें बिना किसी विशेषज्ञ की देख रेख और सलाह से कभी न करावे। 14 वर्ष तक के बच्चों को छोटे उपवासों से जितना लाभ होता है उतना बड़ों को कभी नहीं होता। जुकाम, खाँसी, हर प्रकार के ज्वर उपवास करते ही भाग जायेंगे। बच्चों के शरीर का संगठन ही प्रकृति की ओर से ऐसा होता है कि वे शीघ्र ही उपवास द्वारा आरोग्य हो जाते हैं।

एक सप्ताह से अधिक दिनों तक का महीना-दो या तीन महीने का उपवास लम्बा और एक सप्ताह तक का छोटा उपवास कहलाता है। 10 दिन के उपवास से पूरा विष शरीर से बाहर नहीं निकल सकता। जीभ पर पड़ी हुई पपड़ी और मैल, दुर्गन्धितवास, वेजयिका जीभ तथा खुलकर स्वाभाविक भूख लगना आदि लक्षण जब तक फिर प्रकट न हो जायं तब तक अपूर्ण तथा अधूरा रहता है। 8-10 दिन के उपवास अधूरे ही होते हैं। ऐसा उपवास तो प्रत्येक दशा और प्रत्येक अवसर पर बिना किसी हानि अथवा कष्ट के कोई मनुष्य कर सकता है। लम्बे उपवासों में भी जब भूख लौट आवे तभी उपवास तोड़ा जाय यह आवश्यक नहीं है। कई ऐसी दुर्घटनाएँ हुई हैं कि भूख नहीं लौटी पर अन्य चिन्ह उपवास तोड़ने लायक प्रकट हो गए, पर उपवास कर्त्ता जिद पकड़े रहा और अन्त में उसने भारी हानि उठाई।

जीवन की महानता की कसौटी.


जीवन की महानता की कसौटी.
(श्री अगरचन्दजी नाहटा)

प्रत्येक धर्म में जीवन को बहुत दुर्लभ व अनमोल बताया है। विचार करने पर उसका रहस्य समझ में भली भाँति आ जाता है। इतर प्राणियों से मानव की एक विशेषता है-विचारकता। और इसका फल है भोग से त्याग की ओर अधिकाधिक अग्रसर होना। इस सिद्धान्त से हमें मानव जीवन की महानता का मापक मन्त्र मिल जाता है। विवेक पूर्वक जिसके जीवन में जितना अधिक त्याग है, उसका जीवन उतना ही आदर्श व महान है।

शास्त्रों में देवों से भी अधिक मानव जीवन को उच्च बताया है। क्योंकि देवों का जीवन भोग प्रधान है। वे शुभ प्रवृत्तियाँ तो कर सकते हैं, पर इच्छा व विवेक पूर्वक त्याग नहीं कर सकते। इसलिए उन्हें अविरसि (त्याग रहित) की संज्ञा दी गई है। जगत के समस्त प्राणियों में मानव ही एक ऐसा प्राणी है जो जीवन का चरमोत्कर्ष मोक्ष प्राप्त कर सकता है। मानव के सिवाय कोई भी प्राणी मोक्ष-मुक्ति का अधिकारी नहीं। मुक्त शब्द स्वयं ही हमें त्याग की महत्ता इंगित करता नजर आता है।

मुक्ति किससे? बन्धन से! बन्धन का त्याग ही तो मोक्ष है और बन्धन भोग के द्वारा होता है। अतः जितने-जितने अंश में हम त्याग को अपनाते हैं उतने-उतने अंश में हम मोक्ष के समीप पहुँचते हैं। और भोग के द्वारा बन्धन को बढ़ा कर संसार में परिभ्रमण करते हैं। मानवेत्तर समस्त प्राणियों के जीवन पर दृष्टिपात करने पर वे निरन्तर भोग के पंक में ही फँसे हुए नजर आते हैं। अतः उनकी भव परम्परा समाप्त नहीं होती। विचारक मानव मस्तिष्क ने बन्धन एवं मोक्ष के कारण की मीमाँसा की, तो उसे जीवन धारा बहिर्मुखी प्रवाहित होती हुई नजर आई। अतः उसके धारा-प्रवाह के बदलने की आवश्यकता प्रतीत हुई। और वह भोग के दल-दल से हट कर अंतर्मुखी बना, पर पुदगलों के भोग से वृत्ति हटाकर त्यागी बना।

जैन धर्म के मान्य तीर्थंकरों व ऋषियों के जीवन एवं उपदेशों पर नजर डालते ही हमें इस दर्शन की निवृत्ति प्रधानता का पता चल जाता है। समस्त तीर्थंकरों ने त्याग धर्म को अपनाया। कुटुम्ब, परिवार, धन-माल, राज्य वैभव, सत्ता, ऐश आराम को छोड़ कर वे अंगार संन्यासी बने, गृह हीन बने। जीवन में अनेक भावों के परिपोषित आशक्ति के तन्तुओं पर उन्होंने विजय पाई। यावत् शरीर पर की ममता को भी त्याग भोगों पर पूर्ण विजय प्राप्त हो गई तो उन्हें आत्मदर्शन रूप केवल ज्ञान प्राप्त हुआ। और उन्होंने अपने अनुभूति के बल पर प्राणियों को आत्म दर्शन का रास्ता बतलाया।

हजारों व्यक्तियों ने पूर्णतः एवं अंशतः योग्यतानुसार त्याग को स्वीकार किया। सर्व विरति धारक सर्वस्व त्यागी को साधु, एवं देश विरति धारक अंशतः त्यागी को श्रावक या महात्मा कहा जाता है। इनमें जिनका त्याग जितना अधिक उसका दर्जा उतना ही उच्च माना जाता है, मूलतः त्याग में पौद्गलिक आसक्ति का त्याग ही प्रधान है। पर हमारी आसक्ति विविध प्रकार की है। अतः उनके अनेक भेद किये जा सकते हैं। धनादि परिग्रह आशक्ति का प्रधान करण है। अतः गृहस्थों के लिए उससे स्वामित्व हटाने रूप दान धर्म को भी त्याग का एक प्रकार माना गया है। “ज्ञान का सार विरति” बतलाया गया है। जो चरित्र (व्रत ग्रहण) एवं तप (देहादि आसक्ति का त्याग) रूप है। जैन दर्शन में इन सब गुणों को आत्म धर्म माना है। अतः त्याग हमारा सहज धर्म हो जाना चाहिए। प्रति समय हम त्याग की ओर अग्रसर होते रहें, यही प्रत्येक मानव को परम धर्म है। मनुष्य जन्मतः शरीर के सिवाय कुछ लाया न था। पीछे से अनेक वस्तुओं पर अपना पूरा-ममत्व आरोपित किया उसी से बन्धन बढ़ते गये जो त्याज्य, हैं।

त्याग के महत्व को जान लेने के बाद, वह किसका व कैसे किया जाय, यह प्रश्न रह जाता है। अतः संक्षेप में उसका भी यहाँ विचार कर लेना आवश्यक प्रतीत होता है।

हमारे प्राचीन महर्षियों ने हमारे दुःख के मूल कारणों पर गम्भीरता से विचार किया और वे इसी नतीजे पर पहुँचे कि बाहरी वस्तुओं को हमने सुख का साधन माना है वास्तव में वही हमारी सबसे बड़ी भूल है। सुख का स्रोत भीतर है, बाहर नहीं। अतः बाह्य पदार्थों पर सुख की कल्पना अज्ञानतावश हुई है। अनन्तकाल से हमने बाहरी साधनों को इकट्ठा किया व भोगों पर उससे तृप्ति नहीं मिली, शान्ति प्राप्त नहीं हुई। अतः वह रास्ता सही न था वह दीपक की भाँति अनुभव से स्पष्ट हो जाता है। जितने ही पाप, चाहें वे विचार कथन व वर्तन किसी भी प्रकार के हो, सारे भोग के कारण ही होते हैं।

हम हिंसा, मिथ्या भाषण, चोरी, अत्याचार करते हैं, सब भोग के लिए, ऐहिक स्वार्थ के लिए क्रोध, मान, माया, लोभ, कलह इत्यादि करते हैं इन सबके पीछे हमारी अहंकार शक्ति ही कार्य कर रही है। अतः त्याग योग्य इन दुर्गुणों व दुर्वासनाओं का हमें सहज पता चल जाता है। संक्षेप में हिंसा, असत्य, चोरी, आलस्य, वाचालता, कुसंस्कार व व्यसन, यश−कामना, अहंभाव, विषय, कषाय दुर्भावना आदि जिन-जिन भावों एवं कार्य को दुर्गुण व पाप माना जाता है, वे भी त्याग हैं और उनका त्याग ही धर्म हैं।

अन्तः निरीक्षण द्वारा हमें देखना है कि हमारा मन, वचन, काया की प्रवृत्ति में कहाँ-कहाँ क्या खराबी है? हममें कौन-कौन से बुरे विचार पैदा हुए? वचन का दुरुपयोग कहाँ-कहाँ किया गया। शारीरिक क्रिया से हिंसादि कौन से असद् कार्य हो गये? सूक्ष्म प्रज्ञा से हमें अपने दुर्गुणों को व दोषों को खोलना है, और यथाशक्य उनके त्याग करने में जुट जाना है। बाधक कारणों का त्याग व साधक कारणों को ग्रहण करके जीवन का सदुपयोग कर लेना है। स्वार्थ को छोड़ परमार्थ व सेवा में लग जाना है।

अब त्याग कैसे करें, उसका भी मार्ग बतलाया जाता है। सबसे पहले हमें निरर्थक पाप प्रवृत्तियों से हटना है, फिर आवश्यकताओं को कम करते जाना है। क्रमशः बाह्य पदार्थों के त्याग के साथ साथ आन्तरिक दोषों पर विजय प्राप्त करने का प्रयत्न करना होगा। आसक्ति के बाद क्रमशः इच्छा व अहंभाव का त्याग कर देना है। इस प्रकार त्याग को बढ़ाते ही चले जाना है।

साधारण व्यक्तियों का कहना है कि त्याग बहुत कठिन व कष्टप्रद है। पर वास्तव में जिसने त्याग के आनन्द का अनुभव नहीं किया, वे ही ऐसा कहा करते हैं। अन्यथा त्याग तो शान्ति, सुख व आनन्द का ही मार्ग है। जितनी बाह्य उपाधि बढ़ती है, आकुलता बढ़ती जाती है, अतः हम भारी बनते जाते हैं। जितना त्याग बढ़ता है, बोझ कम हो जाने से हलकेपन का व शान्ति का अनुभव होता है। इसीलिए चक्रवर्ती से भी मुनि एवं योगी को अधिक सुखी बताया गया है।

बाह्य दृष्टि से देखते हैं तो भी त्यागी के चरणों में भोगी झुकते हैं। भोगी त्यागी की महानता व अपनी दीनता का अनुभव करते हैं। त्यागी निस्पृह होते हैं, उन्हें भोगी से कुछ लेना नहीं होता। अतः स्वरूप में मस्त रहते हैं। जिन्होंने त्याग का वास्तविक अनुभव किया है उनके सामने भोग के साधन अनायास उपस्थित होते रहते हैं, पर उनकी ओर उनकी रुचि ही नहीं होती। त्याग हमें कठिन लगता है क्योंकि अनादिकाल के भोग के संस्कार हमें चक्कर में डाले हुए हैं।

कष्ट तो भोगों में भी अनेक उठाने पड़ते हैं, पर उनकी ओर हम दुर्लभ कर लेते हैं। सच्चे त्यागी को तो बाह्य कष्ट में आनन्द का ही अनुभव होता है, क्योंकि वे उसे कष्ट रूप अनुभव नहीं करते। मानसिक दुर्वासनाओं पर वे विजय प्राप्त कर लेते हैं। देह से भिन्न आत्मा के शुद्धावस्था की प्रतीति हो जाय तब कष्ट प्रतीत ही नहीं। कष्ट तो शारीरिक होते हैं, आत्मा को इससे अलग मानने पर त्यागी को दुःख कैसा? संक्षेप में पर भाव का त्याग कर स्व-स्वरूप में स्थित हो जाना ही मानव जीवन का पूर्ण साफल्य है।

हम अपने जीवन में त्याग को समुचित स्थान देकर बढ़ते चले जाना है, आखिर बाह्य वस्तुओं को त्याग करके जाना ही होगा पर बिना इच्छा के जबरन त्याग करना पड़ा उसमें कष्ट ही होगा। स्वयं इच्छापूर्वक जागृत विवेक से त्याग करेंगे तो शक्ति प्राप्त होगी। भोग में रहते हुए भी हमारा लक्ष्य त्याग की ओर होनी चाहिए। वर्णाश्रम धर्म में गृहस्थाश्रम के बाद वानप्रस्थ में स्वार्थ का त्याग होता है सेवामय जीवन की साधना होती है और अन्त में संन्यास आश्रम में पूर्णतः त्याग को स्थान दिया गया है। अतः आसक्ति रहित सेवा करना एवं त्यागमय जीवन का आदर्श कभी नहीं भूलना चाहिए। शान्ति का एकमात्र उपाय-विवेक पूर्वक त्याग ही है।

सफलता का मनोवैज्ञानिक मार्ग.


सफलता का मनोवैज्ञानिक मार्ग.
(प्रो॰ रामचरण महेन्द्र, एम.ए.)

समाज के मनोविज्ञान की जानकारी पर आपकी सामाजिक सफलता बहुत अंशों में निर्भर है। क्या आप दूसरों की कमजोरियाँ खुले आम बतलाते हैं? क्या उनकी आलोचना खराबियाँ, दोष, दिखलाते हैं? यदि ऐसा है, तो आप अपने पाँव में कुल्हाड़ा मार रहे हैं।

मनुष्य का “अहं” गर्व, अभिमान एक बड़ी महत्वपूर्ण भावना है। चाहे किसी ने भारी भूल ही क्यों न की हो, चाहे वह जेल खाने का अपराधी ही क्यों न हो, वह अपने आपको दोषी मानने को कदापि तैयार नहीं होता। आलोचना भयावह मानसिक व्यंग्य हैं, गर्व और अभिमान पर चोट है। वह जनता के क्रोध और अंतर्जगत में बद्धमूल गर्व पर आक्रमण करती है। यही कारण है कि अपराधी अपने सिवा और सबको दोष देता है। हम सबमें से कोई भी आलोचना पसन्द नहीं करते।

समाज में वह जीतता है, जो हँसमुख चेहरे द्वारा सर्वत्र प्रसन्नता बखेरता है। सच्चे हृदय से लोगों को उत्साहित करता है। उन्हें सत्पथ पर जाते देख प्रशंसा, प्रेरणा, उपहार, निष्कपट मैत्री द्वारा आगे बढ़ाता है।

संसार में मनुष्य आश्चर्य का पिटारा है। बिल्कुल नई चीज है, जिसमें निजी इच्छाएं, अनुभव, मानसिक आवेग भरे पड़े हैं। ये सब पृथक-2 हैं। आप सहानुभूति तथा उत्साह के यंत्रों से उन्हें खोलिये और समझिये। उनकी विगत समस्याओं और आपबीतियों को कान देकर दिलचस्पी के साथ सुनिये। और उन पर सहानुभूतिपूर्वक विचार कीजिए। हमें यह जानने का उद्योग करना चाहिए कि जो कुछ वे कहते हैं, या करते हैं, वह किस आकाँक्षा या गुप्त भाव से संतुलित होता है। आलोचना के स्थान पर मनुष्य को स्टडी करना, समझना, कहीं अधिक लाभदायक और गुप्त प्रभाव रखता है। इससे सहानुभूति, सहिष्णुता, और दयालुता उत्पन्न होती है, आत्मा का विस्तार होता है। दूसरों को समझाना ही हमारे जीवन का दृष्टिकोण होना चाहिए।

समाज में प्रसिद्धि के लिए आपको अपने मत, विचारधारा, एवं योजनाओं का आरोप दूसरों के मन, बुद्धि पर करना होता है। अर्थात् आपको दूसरों को अपनी विचारधारा के अनुकूल बनाना होता है। उनकी पुरानी रूढ़ियां, अंधविश्वास परिवर्तित कर नई अपनी विचार धार को उनके मन मंदिर में प्रतिष्ठित करना होता है।

साधारण व्यक्ति इस कार्य के निमित्त बुद्धि व, अर्थात् तर्क-वितर्क का आश्रय ग्रहण करते हैं लम्बी-लम्बी दलीलों पर उतर आते हैं। बहस लम्बी चलती है। और उसका निष्कर्ष यह होता है कि दूसरा व्यक्ति अपनी धारणाएं नहीं बदल सकता। एक खोज तथा ईर्ष्या का भाव लेकर वह पृथक हो जाता है।

मानव-मन में अनुभूतियों, भावना के तत्व, हृदय एवं आकाँक्षाओं का महत्वपूर्ण स्थान है। मान-वमन अनुभूतियों के सरस धरातल पर ऐसी ऐसी कठिन और अप्रासंगिक बातों पर विश्वास कर जाता है, जिन्हें कदाचित वह शुष्क तर्क के द्वारा कदापि विश्वास नहीं कर सकता। वे व्यक्ति कुछ सामाजिक लोकप्रियता प्राप्त नहीं कर सकते, तर्क-वितर्क के शुष्क धरातल से उठ कर अनुभूति और भावना के सरस धरातल पर नहीं आ सकते। मनुष्य भावना से परिचालित होता है, जो उसके हृदय को स्पर्श करता है, उसी पर अपना सब कुछ न्यौछावर कर देता है।

अनावश्यक वाद-विवाद त्याग कर दूसरों की मनोभावनाओं और अनुभूतियों को सहृदयता पूर्वक सुनिये, दूसरों के दृष्टिकोण की कटुआलोचना न कीजिए। जब वे अपनी बातें कह चुकें, तब अनुभूतियों और भावुकता से सरस बनाकर अपने दृष्टिकोण को प्रस्तुत कीजिये। अपने विचारों और योजनाओं की व्याख्या इस भावनात्मक दृष्टि कोण से प्रस्तुत कीजिये कि उनके हृदयतन्त्री के तार झंकृत हो उठें। उनका दिल यह गवाही दे दे कि बात वास्तव में ठीक है।

सार्वजनिक व्याख्यानदाता की सफलता का गुर यह है कि वह जनता की, आसपास के मनुष्यों की, भावना को झड़काना जानता है। वह चतुरता से इस बात को ध्यान रखता है कि दूसरों के आत्मसम्मान, और आत्मगौरव को ठेस न लग जाय। आत्म-सम्मान को ठेस पहुँचने से द्वेष पूर्ण घृणा उत्पन्न हो जाती है।

श्री शिव कंठ लाल शुक्ल ने सत्य ही लिखा है, “मनुष्य अनुभूतियों और भावनाओं, विचारों, इच्छाओं और सम्मान का दास है वह तर्क शास्त्र से वशीभूत कभी नहीं हो सकता। हमें सदैव ध्यान रखना चाहिए कि वे लोग “मनुष्य” हैं देवता नहीं है। उनके विचार और भावनाएं शिलाखंड पर लिखे अक्षर नहीं हैं। इसमें से प्रत्येक अपने को बुद्धिमान, विचारवान, और तर्क शास्त्री होने का दावा करता है और उसी के अनुसार प्रयत्न भी करता है, परन्तु जब वही बात प्रत्यक्ष अनुभव में आती है, तो हमें ज्ञात होता है कि हमारी प्रदर्शन बुद्धि तत्व की अपेक्षा पूर्व निर्मित धाराएँ अधिक काम करती हैं। तर्क हमारे साथ कार्य करने में असमर्थ सिद्ध होता है तर्क की विजय बहुत कम होती है। तर्क अधिकतर व्यर्थ सिद्ध होकर विजय को भी पराजय में बदल देती है। मान लीजिये, कि हमने किसी को अपने तर्क बल से कोई बात मनवाली और उसने स्वीकार भी कर लिया, पर विश्वास रखना चाहिए कि यह मान्यता बाह्यय और अस्थायी है। उससे विचारों में कोई स्थायी परिवर्तन नहीं हो सकता। हृदय नहीं बदल सकता।”

मानव स्वभाव कुछ ऐसा है कि वह उन्हीं बातों पर विश्वास करता है, जो उस के घर में पहले से ही चले आ रहे हैं। मानव स्वभाव स्मृतियों से, पूर्व धाराओं से स्नेह करता है। अतः आप इस प्रकार बातचीत करें कि उनके प्रिय सुनिश्चित विचारों पर कम से कम प्रहार हो। प्रेम पूर्वक हृदय की भाषा में समझाइये। पूर्व उदाहरण भी ऐसे प्रस्तुत कीजिए जिससे उसके स्नेह को जीता जा सके, वह उत्साहित रहे, “हाँ, हाँ” उच्चारण करता चले। सच्ची मान्यता प्रेम पूर्ण सुहृदय व्यवहार से हो सकती है, तर्क-वितर्क खण्डन-मण्डन द्वारा नहीं। वास्तव में प्रेम, सुहृदयता, दूसरों के दृष्टिकोण को आदर, प्रशंसा ही वशीकरण के मूल मन्त्र हैं।

समाज से डरने वाला, सभा-सोसाइटी से भागने और जन समूह से पृथक रहने वाला असामाजिक हो जाता है। यदि आप बहुत जल्दी चिढ़ जाते हैं, झल्ला उठते हैं, अपनी बात दूसरों को बताने में शर्म आती है, तो आप आत्मलघुता की भावना से पीड़ित हैं। यह मानसिक बीमारी है। यदि आपको निम्नलक्षण अपने व्यक्तित्व में दिखाई दें, तो सावधान हो जाइए-झेंपना लड़कियों की तरह यकायक नेत्र नीचे कर लेना, दूसरे से आँखें न मिला सकना, यदि आप काम कर रहे हों और दूसरा आदमी मेज के पास आ जाय, तो मन में बेचैनी का भाव अनुभव करना, लड़कियों से डरना, अपनी आलोचना न सुन सकना, भविष्य के प्रति निराश रहना, नये लोगों से मित्रता स्थापित करने में कठिनाई का अनुभव करना, अपनी भावनाओं को आघात लग जाना समझने लगना, सभा-सोसाइटियों में लोगों में घुल मिल न सकना, प्रसिद्ध लोगों से परिचय होने के समय आपके मुँह से शब्दों का न निकलना, ये सभी बातें बतलाती हैं कि आप सामाजिक तत्वों में कमजोर हैं।

सामाजिक बनिये। आपका काम प्रत्येक सामाजिक प्राणी से पड़ने वाला है। सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि आपको लोगों से मिलने जुलने की आदत बढ़ानी चाहिए। सभा-सोसाइटियों में जाने से और वहाँ कुछ बोलने से मत चूकिए । यह सोचने की आदत डालिये कि कमजोरी और हीनताएँ तो सभा में होती हैं। उनसे इतना घबराने की आवश्यकता नहीं है।

आप किस प्रकार के समाज में रहना चाहते हैं, वह उच्चकोटि के चरित्रवान, सात्विक प्रकृति के निष्ठा त्याग और बलिदान के व्यक्तियों का होना चाहिए। यदि मनुष्य को अच्छा समाज प्राप्त हो जाय, तो उससे बड़ा उत्तम प्रभाव चरित्र पर पड़ता है। आत्म संस्कार का कार्य सहज हो जाता है।

पं॰ रामचन्द्र शुक्ल की राय है कि आत्म संस्कार वाले मुमुक्षों को चाहिए कि सात्विक समाज में प्रवेश करें। साहित्यिकों, विद्वानों, उच्च कर्म मार्गियों से पारस्परिक सम्बन्ध स्थापित करने से जानकारी में अभिवृद्धि होती है। इस उच्च समाज में प्रवेश करने से हमें अपना यथार्थ मूल्य विदित हो जाता है। हम देखते हैं कि हम उतने चतुर नहीं हैं जितने एक कौने में बैठकर अपने आपको समझा करते थे। भिन्न-भिन्न व्यक्तियों में भिन्न-भिन्न गुण स्वभाव चारित्रयक विशेषताएँ होती है। यदि कोई एक बात में निपुण है तो दूसरा दूसरी बात से। समाज में प्रवेश करने पर हम देखते हैं कि इस बात की कितनी आवश्यकता है कि लोग हमारी भूलों को क्षमा करें। अतः हम दूसरों की भूलों को क्षमा करना सीखते हैं, नम्रता और आधीनता का पाठ सीखते हैं, हमारी समझ में बुद्धि में वृद्धि होती है, विवेक तीव्र होता है, वस्तुओं, घटनाओं तथा व्यक्तियों के विषय में हमारी धारणा विस्तृत होती है, हमारी सहानुभूति गहन होती है, हमें अपनी शक्तियों के उपयोग का अभ्यास होता है।

“समाज एक परेड है, जहाँ हम चढ़ाई करना सीखते हैं, इसमें भी साथियों के साथ-साथ मिल कर आगे बढ़ना और आज्ञा पालन सीखते हैं, इससे भी बढ़ कर और बातें हम सीखते हैं। हम दूसरों का ध्यान रखना, उनके लिए कुछ स्वार्थ त्याग करना, सद्गुणों का आदर करना और सुन्दर चाल ढाल की प्रशंसा करना सीखते हैं। बड़ों के प्रति सम्मान और सरलता का व्यवहार बराबर वालों से प्रसन्नता का व्यवहार और छोटों के प्रति कोमलता का व्यवहार-भले मनुष्यों के लक्षण हैं।”

अधिक से अधिक समाज के शिष्ट व्यक्तियों से मित्रता स्थापित कीजिए, अपना संपर्क उत्तरोत्तर बढ़ाते रहिए। जितना अधिक मेल होगा, उतनी ही प्रतिष्ठा, सहायता, पारस्परिक सद्भाव, सहयोग, प्रेम और मान बढ़ता जायेगा।

आलस्य एक प्रकार की आत्म-हत्या ही है.


      आलस्य एक प्रकार
          की आत्म-हत्या ही है.

‘आलस्य एक घोर पाप है’—ऐसा सुनकर कितने ही आश्चर्य में पड़कर सोच सकते हैं क्या अजीब-सी बात है! भला आलस्य किस प्रकार पाप हो सकता है? पाप तो चोरी, डकैती, लूट-खसोट, विश्वासघात, हत्या, व्यभिचार आदि कुकर्म ही होते हैं। इनसे मनुष्य का नैतिक पतन होता है और वह धर्म से गिर जाता है। आलस्य किस प्रकार पाप माना जा सकता है? आलसी व्यक्ति तो चुपचाप एक स्थान पर पड़ा-पड़ा जिन्दगी के दिन काटा करता है। वह न तो अधिक काम ही करता है और न समाज में घुलता-मिलता है, इसलिये उससे पाप हो सकने की सम्भावना नहीं के समान ही नगण्य रहती है।

पाप क्या है? वह हर आचार-व्यवहार एवं विचार पाप ही है जिससे किसी को अनुचित रीति से शारीरिक अथवा मानसिक कष्ट अथवा हानि हो। आत्म-हिंसा अथवा आत्म-हानि एक जघन्य-पाप कहा गया है। आलसी सबसे पहले इसी पाप का भागी होता है। मनुष्य को शरीररूपी धरोहर मिली हुई है। निष्क्रिय पड़ा रहकर आलसी इसे बरबाद किया करता है जबकि उसे ऐसा करने का कोई अधिकार नहीं है। यदि कोई समझदार व्यक्ति उससे इस अपराध का उपालम्भ करता है तो वह बड़े दम्भ से यही कहता है कि शरीर उसका अपना है। रखता है या बर्बाद करता है—इस बात से किसी दूसरे का क्या सम्बन्ध हो सकता है?

आलसी का यह अहंकार स्वयं एक पाप है। उसका यह कथन उसकी अनधिकारिक अहमन्यता को घोषित करता है। शरीर किसी की अपनी संपत्ति नहीं। वह ईश्वर-प्रदत्त एक साधन है जो भव बन्धन में बँधी आत्मा को इस शरीर रूपी साधन को उद्देश्य-दिशा में उपभोग करने क कर्तव्य भर ही मिला है। उसे अपना समझने अथवा बरबाद करने का अधिकार किसी को नहीं है। आलसी निरन्तर इस अनधिकार चेष्टा को करता हुआ पाप करता है।

शरीर की सुरक्षा श्रम द्वारा ही की जा सकती है। आलस्य में निष्क्रिय पड़े रहने से इसके सारे कल-पुर्जे ढीले तथा अशक्त हो जाते हैं, अनेक व्याधियाँ घेर लेती हैं। आरोग्य चला जाता है। अस्वस्थ शरीर आत्मा को भी अस्वस्थ कर डालता है। आत्मा चेतनास्वरूप परमात्मा का पावन अंश है, उसे इस प्रकार निस्तेज, निश्चेष्ट अथवा अपावन बनाने का अधिकार किसी जीव को नहीं है। और जो अबुद्धिमान ऐसा करता है वह नास्तिक जैसा ही माना जायेगा। आलसी निश्चय ही इस पाप का दोषी होता है।

परमात्मा ने शरीर दिया, शक्ति दी, चेतना दी और बोध दिया। इसलिये कि मनुष्य अपनी उन्नति करें और जीवन-पथ पर आगे बढ़े। स्वयं सुख पाये और उसके प्यारे अन्य प्राणियों को सुखी होने में सहयोग दे। मनुष्य का कर्तव्य है कि ईश्वर की इस अनुकम्पा को सार्थक करे और अपने उपकारी के प्रति भक्ति- भावना से कृतज्ञता प्रकट करे। पर क्या आलसी अपने इस कर्तव्य को पूरा करता है? निश्चय ही नहीं। वह दिन-रात प्रमाद में पड़ा ऊँघता रहता है। औरों को सुखी करना तो दूर, उल्टा उन्हें दुःख ही देता रहता है और स्वयं भी दीनता, दरिद्रता, रोग तथा निस्तेजता का दुःख भोगा करते हैं। क्या इस प्रकार की अकर्तव्य शालीनता पाप नहीं कही जायेगी? जो अभागा आलसी अपने साधारण जीवन-क्रम का निर्वाह प्रसन्नता, तत्परता तथा कुशलता से नहीं कर पाता वह स्वस्थ तन, प्रसन्न मन एवं उज्ज्वल आत्मा द्वारा कृतज्ञता प्रदर्शन रूप, पूजा-पाठ, जप-तप, सेवा-उपासना, भजन-कीर्तन का नियमित आयोजन कहाँ निभा सकता है? दोपहर तक सोते रहने, दिन में खाकर पड़े रहने और कष्टपूर्वक कोई आवश्यक कार्य कर सकने वाला प्रमाद उन्मादी भगवत्-भक्ति करता अथवा कर सकता है, ऐसा सम्भव नहीं। नियमित रूप से, भक्ति-भावना से भरी उपासना न करना उस अनुग्राहक ईश्वर के प्रति कृतघ्नता है। कृतघ्नता का पाप जघन्यता की कोटि का पाप है जिसका सबसे पहले अपराधी आलसी ही होता है। जिसके पास समय ही समय रहता हो वह परमात्मा की उपासना न करे उससे बढ़कर पापी और कौन हो सकता है जबकि व्यस्त जीवन में से भी समय निकाल कर प्रभु की याद न करने वाले आत्मधारी तक आलोचना एवं निन्दा के पात्र बनते हैं।

आलसी का हठ रहता है कि शरीर उसका अपना है। मान लो उसका है तब भी तो उसे नष्ट करने का अधिकार उसे नहीं हो सकता है। शरीर उसका है तो शरीर जन्य सन्तानें भी तो उसकी ही होती हैं और उनका भी उसके शरीर पर कुछ अधिकार होता है। शरीर नष्ट कर वह उनके शरीर का हनन तो नहीं कर सकता। शरीर से उपार्जन होता है और उपार्जन से बच्चों का पालन-पोषण। शिथिल एवं अशक्त शरीर आलसी उपार्जन से ऐसे घबराता है जैसे भेड़ भेड़िये से दूर भागती है। धन तो परिश्रम का मीठा फल है आलसी जिसे लाकर परिवार को नहीं दे पाता और रो-झींक कर, मर-खप कर विवश हो कर लाता भी है वह अपर्याप्त तो होता ही है साथ ही उसकी कुढ़न उसके साथ जुड़ी रहती है जो कि बच्चों के संस्कारों एवं शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य पर कुप्रभाव डालती है। इस प्रकार आलसी बच्चों का पालन करने के स्थान पर परोक्ष रूप से उनका भावनात्मक हनन ही किया करता है, जो एक अक्षम्य अपराध तथा पाप है। यदि बच्चों का सम्बन्ध न भी जोड़ा जाये तो भी अपने कर्मों से शरीर का सत्यानाश करना आत्महत्या के समान है जो उसी तरह पाप ही माना जायेगा।

आलस्य के कुठार द्वारा कल्पवृक्ष के समान उस शरीर की जड़ काटते रहना, उसकी शक्ति , क्षमताओं एवं योग्यताओं को नष्ट करते रहना पाप ही है जो मानव के महान से महान मनोरथों को चूर कर सकता है। शक्ति , सम्पन्नता, गौरव, ज्ञान, मान, प्रतिष्ठा, यश, कीर्ति आदि ऐसी कौन-सी समृद्धि अथवा ऐश्वर्य है जो शरीररूपी देवता को प्रसन्न करने पर नहीं मिल सकता। ऐसा कौन-सा पुण्य-परमार्थ है जो आत्मा की मुक्ति में सहायक हो और शरीर द्वारा सम्पन्न न किया जा सकता हो। मनुष्य श्रम-साधना द्वारा इस पंच-तात्विक देवता को प्रसन्न करने, समृद्धिय पाने, पुण्य-परमार्थ करके आत्मा को मुक्त करने के लिए है, वचन-बाध्य है। “मैं नहीं चाहता”—कहकर मनुष्य इस उद्देश्य से मुक्त नहीं हो सकता। उसका जन्म, उसकी नियुक्ति इस कर्तव्य के लिये ही की गई है और उसने जीवन-लाभ के लिए सर्व समर्थ को यह वचन दिया था कि वह उसके दिये जीवन को सुन्दर एवं समृद्ध बनाकर संसार की शोभा बढ़ायेगा और उसके आत्मा रूपी प्रकाश की किरणें आवरण से मुक्त कर उसमें ही मिला देने की लिए किसी परिश्रम, पुरुषार्थ तथा परमार्थ से विमुख न होगा। परमात्मा ने उसके इसी वचन पर विश्वास करके उसे सृष्टि की सर्वश्रेष्ठता प्रदान की। बल, बुद्धि एवं विवेक सब योग्य बना दिया। अब वचन से फिरकर कर्तव्य से विमुख हो जाना कहाँ तक उचित है? यह भयंकर पाप है, विश्वासघात के समान ही पाप है और आलसी इस पाप को जान-बूझकर किया करता है। मनुष्य संसार का सर्वश्रेष्ठ प्राणी और जीव-जगत का राजा है। संसार की व्यवस्था एवं सुन्दरता का भार उसके परिश्रम एवं पुरुषार्थ पर निर्भर है। किसी को कोई अधिकार नहीं कि वह उत्तरदायित्व से फिरकर आलस्य, प्रमाद अथवा निष्क्रियता द्वारा पृथ्वी का भार बने और उसे असुन्दर, अव्यवस्थित, अशाँत अथवा असुखकर बनाने की दुरभिसन्धि किया करे। आलसी एवं अकर्मण्य लोग निश्चय ही यह अपराध किया करते हैं जबकि उन्हें अपना सुधार कर ऐसा नहीं करना चाहिए। उनकी यह दुष्प्रवृत्ति अपरिमार्जन किसी प्रकार भी शोभनीय अथवा वाँछनीय नहीं है।

दरिद्रता भयानक अभिशाप है। इससे मनुष्य के शारीरिक, पारिवारिक, सामाजिक, मानसिक एवं आत्मिक स्तर का पतन हो जाता है। कहने को कोई कितना भी सन्तोषी, त्यागी एवं निस्पृह क्यों न बने किन्तु जब दरिद्रता जन्य अभावों के थपेड़े लगते हैं तब कदाचित् ही कोई ऐसा धीर-गम्भीर निकले जिसका अस्तित्व काँप न उठता हो। यह दरिद्रता की स्थिति का जन्म मनुष्य के शारीरिक एवं मानसिक आलस्य से ही होता है। गरीबी, दीनता, हीनता आदि कुफल आलस्यरूपी विषबेलि पर ही फला करते हैं।

आलसी व्यक्ति परावलम्बी एवं पर भाग भोगी ही होता है। इस धरती पर परिश्रम करके ही अन्न-वस्त्र की व्यवस्था हो सकती है। यदि परमात्मा को मनुष्य की परिश्रमशीलता वाँछनीय न होती तो वह मनुष्य का आहार रोटी वृक्षों पर उगाता। बने बनाए वस्त्रों को घास-फूस की तरह पैदा कर देता। मनुष्य को पेट भरने और शरीर ढकने के लिये भोजन-वस्त्र कड़ी मेहनत करके ही पैदा करना होता है। नियम है कि जब सब खाते-पहनते हैं तो सबको ही मेहनत तथा काम करना चाहिए। इसका कोई अर्थ नहीं कि एक कमाये और दूसरा बैठा-बैठा खाये। कोई काम किये बिना भोजन-वस्त्र का उपयोग करने वाला दूसरे के परिश्रम का चोर कहा गया है। अवश्य ही उसने हराम की तोड़कर संसार के किसी कोने में श्रम करते हुए किसी व्यक्ति का भाग हरण किया है। दूसरे का भाग चुराना नैतिक, सामाजिक तथा आत्मिक रूप से पाप है और अकर्मण्य आलसी इस पाप को निर्लज्ज होकर करते ही रहते हैं।

जो खाली ठाली रहकर निठल्ला बैठा रहता है उसका शारीरिक ही नहीं मानसिक तथा आध्यात्मिक पतन भी हो जाता है। “खाली आदमी शैतान का साथी” वाली कहावत आलसी पर पूरी तरह चरितार्थ होती है। जो निठल्ला बैठा रहता है उसे तरह-तराह की खुराफातें सूझती रहती हैं। यह विशेषता परिश्रमशीलता में ही है कि वह मनुष्य के मस्तिष्क में विकारपूर्ण विचार नहीं आने देती पुरुषार्थी व्यक्ति को इतना समय ही नहीं रहता कि वह काम से फुरसत पाकर बेकार के ऊहापोह में लगा रहेगा और अकर्मण्य आलसी के पास इसके सिवाय कोई काम नहीं रहता, निदान उसे अनेक प्रकार की ऐसी विकृतियाँ तथा दुर्गुण घेर लेते हैं जिससे उसके चरित्र का अधःपतन हो जाता है। लोग इस अभिशाप से दुराचारी तथा अपराधी बन जाया करते हैं। निठल्ले और निष्क्रिय बैठे रहने वाले व्यक्तियों का विचार-सन्तुलन बिगड़ जाता है जिससे उन्हें ऐसी-ऐसी अनेक सनकें सूझा करती हैं जो व्यवहार-जगत में पागलपन की संज्ञा पा सकती हैं। शेखचिल्ली की तरह वह न जानें किस प्रकार के मानस-महल बनाया और गिराया करता है। प्रमाद पूर्ण ऊहापोह ने संसार में जाने कितने उन्मादी पैदा कर दिये हैं। प्रमाद तथा आलस्य को उन्माद तथा पागलपन का प्रारम्भिक रूप समझकर उससे दूर ही रहना चाहिए। क्या आर्थिक क्या सामाजिक, क्या आत्मिक अथवा क्या आध्यात्मिक कोई भी उन्नति चाहने वाले को आलस्य के पाप का परित्याग कर श्रम एवं पुरुषार्थ का पुण्य करना चाहिए तभी वे अपनी वाँछित स्थिति पा सकेंगे, अपने उद्देश्य में सफल हो सकेंगे अन्य कोई नहीं।



(अखंड ज्योति-11 /1966)

नरसी भक्त.


नरसी भक्त.

नरसी जी, भगवान के अनन्य भक्त थे, वे सत्संग करते हुए ठाकुरजी को केदार राग सुनाया करते थे। जिसे सुनकर ठाकुरजी के गले की माला अपने आप नरसीजी के गले में आ जाया करती थी। एक बार भक्त नरसीजी के घर संतों की मंडली आई, तो नरसीजी एक सेठ से राशन उधार लेने गये, पर सेठ ने राशन के बदले कुछ गिरवी रखने को कहा। नरसीजी ने अपना केदार राग का भजन गिरवी रख दिया और सेठ से वायदा किया कि उधार चुकाने तक इस राग को नही गाऊंगा और सेठ से राशन लाकर संतो को भोजन करवाया।

राजा को, नरसीजी से जलने वाले पंडितो ने भड़काया कि नरसीजी सब ढोंग करते है। माला को कच्ची डोर से बांधते है जिससे भजन गाते हुए माला अपने आप गिरती है।राजा ने परीक्षा लेने के लिए नरसी को उनके भक्त सहित महल में भजन सत्संग करने के लिए बुलाया और कहा कि हम भी ठाकुरजी की कृपा के दर्शन करना चाहते है। नरसीजी संतो के साथ राजा के महल में आये और सत्संग शुरू कर दिया। राजा ने अभिमान में आकर रेशम की मजबूत डोर मंगाई और उसमें हार पिरोकर ठाकुरजी को पहनाया।
नरसीजी ने कीर्तन आरंभ किया.. आनंद बरसने लगा। नरसीजी ने बहुत से भावपूर्ण भजन गाये पर माला नही गिरी। नरसीजी के विरोधी बहुत प्रसन्न हुए कि अब राजा नरसी जी को दंड देगा।

ठाकुरजी की माला केदार राग में गाये गए भजन से ही गिरती थी और नरसी जी केदार राग को गिरवी रख आये थे। अब नरसी ने ठाकुरजी को उलाहना देते हुए गाने लगे कि ठाकुरजी आप माला पहने रखो, भक्तो की लाज जाती है तो जाये, माला संभाले रखो आप।

ठाकुरजी की लीला देखिये, भक्त-नरसी का रूप बनाकर सेठ के घर गये और दरवाजा खटखटाया।


सेठजी सो रहे थे। पत्नी ने दरवाजा खोला और जानकारी लेकर पति से कहा- नरसी का भजन छुड़वाने आये है। सेठ ने सोते सोते ही कहा कि पैसे ले लो और रसीद बनाकर भजन सहित दे दो। उधर नरसीजी भाव से कीर्तन कर ऱहे थे पर सब संत हैरान थे कि आज नरसीजी केदार राग क्यूं नही गा रहे, पर नरसीजी के मन की बात तो भगवान ही जानते थे। भगवान ने गिरवी रखा केदार राग का भजन छुड़ाया और नरसीजी के पास जाकर, उनकी गोद में सेठ की पत्नी द्वारा दी हुई भजन की रसीद डाल दी। बस फिर क्या था, नरसीजी जान गये कि ये ठाकुरजी की लीला है, उन्होने उसी समय भाव से केदार राग का वह भजन गाना शुरू किया। सब समाज आनंद से भर गया और इस बार ठाकुरजी सिहांसन से उठे. नुपुरों की झन्न झन्न ध्वनि करते हुए स्वयं जाकर नरसी भक्त के गले में हार पहनाया.. और अपने भक्त का मान बढ़ाया।

राजा और विरोधी पंडित, नरसीजी की भक्ति से प्रभावित हुए और वे सब ठाकुरजी के भक्त बन गए!

पाप की मनोवैज्ञानिक परिभाषा.


पाप की मनोवैज्ञानिक परिभाषा.
(प्रो. लालजीराम शुक्ल एम. ए.)

मनोविज्ञान की परिभाषा में पाप वह कृत्य है जिससे मनुष्य का मानसिक साम्य अथवा एकत्व नष्ट हो। पाप से मनुष्य के मन में दो भाग हो जाते हैं और एक भाग दूसरे भाग से लड़ने लगता है। पाप मनुष्य न केवल दूसरों से छिपाता है वरन् अपने आपसे भी छिपाता है। समाज से विरुद्ध किया कार्य अपराध कहलाता है और अपने आपके विरुद्ध किया गया कार्य पाप। धर्म की भाषा में पाप ईश्वर के विरुद्ध होता है और अपराध राज द्वारा दण्डनीय होते हैं और कुछ समाज निन्दा के द्वारा अथवा अपराधी को बहिष्कार के द्वारा दण्डित करता है। मनुष्य के प्रायः सभी अपराध पाप होते हैं पर सभी पाप अपराध नहीं होते हैं। समाज व्यवस्था को जब ईश्वरीय मान लिया जाता है तो उसके प्रतिकूल आचरण करना न केवल अपराध माना जाता है वरन् पाप भी माना जाता है। परन्तु पाप का दायरा अपराध से बड़ा है। अपने बच्चों की शिक्षा की चिन्ता न करना अपराध नहीं है पर पाप है। इसी प्रकार किसी अतिथि का सत्कार न करना अपराध नहीं है पर पाप है।

अब नैतिक चर्चाओं में ईश्वर का स्थान नहीं किया जाता। धर्म से मनुष्य ऊब गये हैं। अतएव पाप की कोई दूसरी ही परिभाषा होना आवश्यक है। मनुष्य का कुछ आचरण ऐसा अवश्य है जो समाज के द्वारा दण्डनीय नहीं है। पर तिसपर भी बुरा माना जाता है। यह बुरा क्यों माना जाता है। इस प्रकार के आचरण को कैसा आचरण कहा जायगा? हम उस सभी आचरणों को अपराध कहेंगे जिससे मनुष्य अपने ही आदर्श स्वत्व के प्रतिकूल आचरण करता है। इस आदर्श स्वत्व का आरोपण ही ईश्वर कहलाता है। धर्म भावना के लोग ईश्वर के भय से डरते हैं, दूसरे लोग अपनी अन्तरात्मा के भाव से डरते हैं। यह अन्तरात्मक मनुष्य का आदर्श स्वत्व है। जब कोई मनुष्य इसके प्रतिकूल आचरण करता है तो उसके मन में फूट उत्पन्न हो जाती है। अपने घृणास्पद कार्यों से स्वयं व्यक्ति दुःखी होता है। पर वह इनके लिए प्रायः निश्चित न करके उन्हें भूल जाने की चेष्टा करता है। इस प्रकार से अपने आपको भुलाने से पाप की प्रवृत्ति और भी प्रबल हो जाती है। फिर यह मनुष्य कुछ ऐसे कार्य कर बैठता है जो समाज की दृष्टि में निन्दनीय माने जाते हैं। और कुछ भूलें भी करता है जिससे उसका अपराध प्रकाशित हो जाय और उसके लिए उसे दण्ड मिले। इस प्रकार पाप का दण्ड बाहरी दण्ड के रूप में मिलता है।

कभी कभी पाप का दण्ड समाज से न मिलकर प्रकृति से मिलता है। मानसिक विच्छेद मानसिक अथवा शारीरिक रोग का रूप धारण कर लेता है। पाप दबाया जा सकता वह किसी न किसी रूप में प्रकट होता है। पाप की मनोवृत्ति के कारण मनुष्य अपने ही निकट सम्बन्धियों से ऐसा व्यवहार करने लगता है जिससे वे उससे घृणा करने लगे। फिर उसे बार बार क्रोध सताने लगता है। क्रोध में आकर वह कुछ का कुछ कर बैठता है और इस प्रकार वह अपने आपका नुकसान कर लेता है।

कितने ही लोग कठोर पाप करते हैं। वे ऐसे होते हैं कि यदि समाज उनका पता चला ले तो वे दण्डित हैं। धनी लोग अपने धन के बल पर चोरी, हत्या और व्यभिचार करके भी राज दण्ड से बच जाते हैं। पर इस प्रकार राजदण्ड से बच जाने पर वे पूरी तरह से नहीं बचते। उन्हें दूसरे प्रकार का दण्ड होता है। किसी भी बुरे काम के करने के बाद मनुष्य का मानसिक साम्य नष्ट हो जाता है। जब तक मनुष्य पाप के लिए प्रायश्चित नहीं कर लेता तब तक उसे अपना खोया मानसिक साम्य फिर से प्राप्त नहीं होता। यह प्रायश्चित जान बूझ कर हो अथवा अनजाने हो, मनुष्य की इच्छा के अनुसार हो अथवा उसकी इच्छा के विरुद्ध, उसका होना नितान्त आवश्यक है। बिना प्रायश्चित के मनुष्य के, मानसिक विकास की प्रगति रुक जाती है। मनुष्य का सच्चा स्वत्व व्यापक है। वह तब तक अपने आप में चैन नहीं पाता जब तक वह निश्चय नहीं कर लेता कि वह संसार के भले लोगों की दृष्टि में भला है। उसे दूसरे लोग भले ही न पहिचाने पर वह अपने आपको तो पहचानता है? अतएव किसी प्रकार की बुराई को अपने आपमें देखकर मनुष्य उद्विग्न मन हो जाता है। वह उस बुराई को दूर करने की चेष्टा करता है। जब वह ऐसा करने में समर्थ नहीं होता तो वह उसे भुलाने की चेष्टा करता है। पर बुराई को अन्तरात्मा स्थान कैसे दे सकती है। इसी के कारण मनुष्य को अनेक प्रकार के मानसिक और शारीरिक रोग उत्पन्न होते हैं और वह अनायास ही घोर विपत्तियों में पड़ जाता है। मनुष्य इस प्रकार रोग ग्रस्त होता अथवा विपत्तियों में पड़ता है। उसकी आत्मा की परिष्कृत होने की चेष्टा को दर्शाता है।

मानसिक रोगों की अवस्था में देखा गया है कि मनुष्य के मन में कुछ ऐसी बातें रहती हैं जो वह दूसरों के सामने प्रकट करने से भय करता है। जब वह इन बातों को मनो विश्लेषक के प्रति प्रगट कर देता है और मनो विश्लेषक उसके प्रति प्रेम का भाव बनाये रखता तो रोगी को अपनी नैतिकता के विषय में आत्म विश्वास उत्पन्न हो जाता है। अपने आपका सुधार मनुष्य तभी कर सकता है जब वह अपने आपको जाने अर्थात् जब वह अपनी भूलों को तथा भूल करने वाली प्रवृत्तियों को भली प्रकार से पहचान ले। मनोविश्लेषण से इन भूलों का, जो विस्मृत हो चुकी है, और अपनी दबी प्रवृत्तियों का ज्ञान होता है। जब ये प्रवृत्तियाँ मनुष्य की चेतना पर आ जाती है तो मनुष्य अपने आपको नैतिक दृष्टि से गिरता हुआ पाता है। पर साथ ही साथ ये प्रवृत्तियाँ निर्बल भी हो जाती हैं। अब उनकी शक्ति का उदात्तीकरण करना सरल हो जाता है। इस उदात्तीकरण के प्रयत्न से पुरानी भूलों का वास्तविक प्रायश्चित होता है।

किसी भूल का सच्चा प्रायश्चित पुराने पाप के लिए रोना, आत्मभर्त्सना करना अथवा अनेक प्रकार पश्चाताप करना नहीं है। पुरानी भूल का सच्चा प्रायश्चित नये भले काम को करना है। यदि भूल समझ में आ गई तो भूल का मार्ग छोड़कर सही मार्ग पर चलने लगना यही उसका प्रायश्चित है।