दाह – संस्कार.


दाह संस्कार.
(अंतिम संस्कार)

पुत्र और पौत्र यदि विधि पूर्वक अंतिम संस्कार करते हैं, तो वह पुस्तैनी कर्ज़ से मुक्त हो जाते हैं।

दाह-संस्कार के अंतगर्त छह पिंड देने की विधि है।

पहला पिंड – उत्तराभिमुख.

दूसरा पिंड - दुआर पर.

तीसरा पिंड - चौराहे पर.

चौथा पिंड - विश्राम स्थान पर.

पांचवां पिंड - चिता पर.

छटा पिंड - अस्थि -संचयन के समय.

शमशान घाट से आधा रास्ता पर रूक कर, लाश को स्वच्छ स्थान पर नहला कर चारों दिशाओं में पूजा करनी चाहिए। तब इसे शमशान भूमि पर, सिर उत्तर दिशा में करके लिटाना चाहिए।

जलाने वाली जगह को साफ़ करके, गोबर का लेप करें। जिस स्थान पर पहले कोई लाश न जली हो।

कुछ मिटटी बटोर कर, उसकी मूर्ती बना कर, पानी से छिडक कर पूजा करके अग्नि की स्थापना करें।

अग्नि की पूजा, रंगे-चावलों से करते हुए, अग्नि शक्ति को संबोधित करें: "हे अग्निदेव, इस संसार से यह प्राणी चला गया है, इस आत्मा को स्वर्ग प्रदान करें"

इस के बाद चिता का निर्माण करें / लाश को उस पर रखें /मृतक के हाथों में, और चिता पर "लाइ" के दाने रखें। इस प्रकार मृतक को 5 "लाइ" के दाने मिलने से, वह घर वालों को परेशान नहीं करता।

शमशान भूमि में, शूद्रों द्वारा पहुंचाई गई वस्तुओं से वहां पर किया गया सम्पूर्ण कर्म निष्फल हो जाता है।

किसी कारण वश उपर्युक्त पिंड न दिए जाने पर, शव राक्षसों के भक्षण-योग्य हो जाता है।

दाह - कार्य में चंडाल के घर की अग्नि, चिता की अग्नि और पापी के घर की अग्नि का प्रयोग नहीं करना चाहिए।

जब चिता में, शव का आधा शरीर जल जाय, उसकी खोपरी को किसी लकड़ी के डंडे से भंग करके {ताकि वह पित्तरों की दुनिया में चला जाये}, तिल मिश्रित घी अर्पित करे। पुत्र को इस समय भाभुक हो कर रोना चाहिए, ताकि वह सदा प्रसन्न रहे।

जब चिता जल कर समाप्त हो जाये, तो पहले स्त्रिओं को, बाद में पुत्रों को नहा कर, नीम वृक्ष का एक एक पत्ता खाना चाहिए। घर को जाने के समय स्त्रियों को आगे चलना चाहिए।

दोबारा घर में स्नान करने के बाद, पुत्र को पहिले गौ को खाना देकर, पत्ते की प्लेट पर स्वयं खाना, खाना चाहिए, किन्तु खाना पहले से ही बना नहीं होना चाहिए।

मृत्यु वाले स्थान को गोबर से साफ़ करके, एक दीपक (जिस का मुख दक्षिण की तरफ रहे) १२ दिन तक उस स्थान पर जलता रहना चाहिए।

अग्नि दाह "पंचक" में नहीं करना चाहिए। जो प्राणी "पंचक" में प्राण त्यागता है, उस की मुक्ति नहीं होती।

दाह - संस्कार भी नहीं करना चाहिए वरना घर में एक और मृत्यु हो सकती है।

मास के प्रारम्भ में " धनिष्ठा" नक्षत्र के अर्ध भाग से लेकर "रेवती नक्षत्र" तक का समय पंचक कहलाता है। पंचक में दाह संस्कार करना हो तो, कुश के मानवकार चार पुतले बना कर, नक्षत्र मन्त्रों से उनको अभिमंत्रित करके शव पर रख दें और उन्ही पुतलों के साथ दाह-संस्कार करें। पुत्रों द्वारा पंचक शांति भी करवानी चाहिए।

तीन दिन तक, चौराहे पर, या चिता वाली ज़मीन पर, एक मिटटी के कच्चे बर्तन में, जो की तीन लकड़ी की डंडियों से बंधा हो, दूध और पानी से भरा हुआ, अर्पण करे।

दाह क्रिया के बाद, अस्थि -संचयन क्रिया करनी चाहिए। इस के बाद दाह - क्रिया के समय 6 पिंड तथा दशगात्र के अंतर्गत 10 पिंड दान आदि की प्रिक्रिया बताई गई है।

चौथे दिन अस्थि -संचयन करनी चाहिए। यदि कोई रूकावट न हो, तो दूसरे अथवा तीसरे दिन भी कर सकते हैं।

शमशान घाट पहुंच कर, स्नान करके, गर्म दुशाला ले कर, अनाज का दान, चिता वाली जगह पर देवी -देवताओं को नमस्कार करके, ३ चक्कर काटते हुए "यामायात्वा " मन्त्र का उच्चराण करते हुए, दूध का व फिर पानी का छींटे दे कर, चिता में से अस्थिओं को इकठा करें।

अस्थिओं को "पालाष" के पत्तों पर रख कर, दूध और पानी से छिड़क कर, एक मिटटी के बर्तन में रखें। श्राद्ध की रस्म पूरी करें।

एक तिकोने ज़मीन के टुकड़े को गोबर से पोत कर, उत्तर दिशा की ओर मुख करके, 3 लाइ, तीनो दिशाओं में अर्पण करें।

अस्थियाँ इकठी करने के बाद, एक तीन टांगों वाले स्टूल पर, बिना मूंह ढके, पानी से भरा हुआ एक जार रखें।

मृतक के लिए उबला हुआ चावल के साथ, दही, घी, पानी और मिठाई अर्पण करें।

15 कदम उत्तर दिशा की ओर चल कर, ज़मीन में एक गड्ढा बना कर, अस्थिओं वाला बर्तन उस में रखें।

एक लाइ इस पर रख कर (जलने के समय जो पीड़ा हूई, उसे दूर करती है), बर्तन को किसी वाटर टैंक के पास ले जाएँ।

अस्थिओं को कई बार दूध और पानी से छिडक कर, संदल आदि से लेप कर, पूजा करें / पत्ते के डिब्बे में रख कर, अपने माथा और हृदय से छू कर, गंगा नदी के बीच में छोड़ें।

जिन की अस्थियां, पानी में 10 दिन के अंदर डूब जाती हैं, वह आत्मा ब्रह्म लोक से वापिस नहीं आती।

जितनी देर तक अस्थियाँ तैरती रहती हैं, वह स्वर्ग लोक में रहता है।

अस्थियां विसर्जन के बाद 10 दिन चलने वाली रस्में शुरू होती हैं।

अकस्मात मृत्यु.

किसी अज्ञात जगह पर होने से, और शरीर न मिलने पर, जिस दिन यह खबर मिले, दर्भा घास की प्रतिमा बना कर उस को जलाएं। इस की राख एकत्रित करके गंगा नदी में विसर्जन करें। उस दिन से 10 दिन की रस्में पूरी करें।

यदि महिला बच्चा होने से पहले मर जाए, तो बच्चे को पेट से निकाल कर, ज़मीन पर रख दें और केवल महिला को चिता दें।

27 मास तक के बच्चे को मिटटी में दबाएँ / यदि इस की मृत्यु गंगा किनारे होती है, तो इसे गंगा में बहा दें।

इन से बड़े बच्चों को चिता देनी चाहिए और अस्थियाँ गंगा में बहा दें / बच्चों को खाना और एक एक बर्तन पानी का दें।

पेट में बच्चा मरने से कोई रस्म नहीं।

शिशु के मरण पर दूध का दान, बच्चे के मरण पर दूध का बर्तन, मिठाई, खाने की वस्तुएं दें।

मलिन्शौद्शी के बाद मध्य्म्शौद्शी श्राद्ध - विष्णु और पांच देव श्राद्ध, एकादश को किये जाते हैं। विद्वान ब्राह्मणों को कुश या चावल के चूरन से ही सांड का निर्माण करके उसका उत्सर्ग करना चाहिए।

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