आत्मज्ञान का मार्ग.
प्राचीन समय में एक राजा था। राजा महागुणी होने के साथ प्रजावत्सल, प्रतापी और शूरवीर भी था। उसके राज्य में प्रजा बड़ी सुखी थी। धन-धान्य का अभाव कहीं पर नहीं था। चारों और सुख और समृद्धी का साम्राज्य था। राज्य की सीमाएं दूर-दराज तक फैली हुई थी। इसलिए जगत प्रसिद्ध महाराज की कीर्ति भी दूर दूर तक फैली हुई थी। महाराज का यशोगान दसों दिशाओं में गुंजायमान था। महाराज को भी इस बात का अभिमान था कि मैं महाराज बनने की कसौटी पर खरा उतरता हूं और किसी राज्य का महाराज बनने के सभी गुण मेरे अंदर विद्यमान है। चारों तरफ अपनी महिमा का डंका बजाने वाले इस महाराज का नाम था जानश्रुति पौत्रायण।एक बार पूर्णमासी के समय जैसे ही चंद्रमा आसमान पर आकर झिलमिलाया, राजहंसों की टोली मानसरोवर के प्रवास पर रवाना हो गई। हंस शिरोमणी श्वेताक्ष दल का नेतृत्व कर आगे- आगे उड़ते जा रहे थे और दल के पीछे भल्लाक्ष संरक्षण प्रदान करते हुए जा रहे थे। जब हंसों का दल राजा पौत्रायण के राज्य के ऊपर से गुजर रहा था तब भल्लाक्ष ने अपनी चुप्पी तोड़ते हुए कहा कि ' महामहिम राजा पौत्रायण की यशगाथा पूर्णमासी के चंद्र की तरह चारों और फैल रही है। उन्होने अपना सारा जीवन अपनी प्रजा की भलाई में लगा दिया और उनके राज्य में कोई भी दुखी नहीं है।'
इतना सुनकर शिरोमणी श्वेताक्ष हंसते हुए बोले ' यह सच है तात! राजा पौत्रायण महान है, उनकी प्रजा भी उनका गुणगान करते नहीं थकती है और वह भी अपनी प्रजा का खास ख्याल रखते हैं, लेकिन इसके बावजूद वह ब्रह्मज्ञानी है इसमें संदेह है, क्योंकि ब्रह्मज्ञानी तो सारे संसार में केवल रैक्य मुनि है।'
महाराज जानश्रुति पौत्रायण पक्षियों की भाषा समझते थे इसलिए वह हंसों की बातचीत को समझ गए। पहले तो राजा ने इस बात को गंभीरता से नहीं लिया, लेकिन जब उन्होने अपने राज्य में अपनी प्रजा से रैक्य मुनि के चर्चे सुने तो उनका स्वाभिमान काफी आहत हुआ। राजा जानश्रुति ने सुबह होते ही अपने हाथी पर सवार होकर मुनि से मुलाकात करने के लिए महल से प्रस्थान किया। दिनभर चलने के बाद रैक्य मुनि उनको एक गांव के किनारे पर मिल गए। वह एक बैलगाड़ी के सहारे से साधारण से बिछौने पर बैठकर ग्रामीणों को सुखी जीवन के सूत्र बता रहे थे।
राजा वहीं खड़े होकर सभा के विसर्जन का इंतजार करने लगे। जैसे ही सभा विसर्जित हुई राजा ने अपने साथ लाए गए धन को मुनि को समर्पित करते हुए कहा कि ' मुनिवर आप महान है, लेकिन आप छोटी सी गाड़ी पर भ्रमण करते हैं इसलिए इस धन से अपनी गरीबी को दूर करें।' मुनि रैक्य ने राजा जानश्रुति की भेंट को अस्वीकार करते हुए कहा कि ' राजन यह धन जीवन के स्थूल अभाव को दूर कर सकता है, लेकिन आत्मकल्याण के मार्ग की प्राप्ति इस से नहीं की जा सकती है। ' इतना कहकर मुनि रैक्य ने अपनी गाड़ी तैयार की और आगे के ओर प्रस्थान कर गए। राजा को मुनि की बातों से काफी सुकून मिला और साथ ही यह सीख भी मिली कि निर्लिप्त भाव से यश-अपयश की चिंता किए बिना एक लक्ष्य की ओर आगे बढ़ने से ही आत्मज्ञान की प्राप्ति संभव है।
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