पिंड दान का महत्व.
(गरुड़ पुराण)
मृतक शरीर की आत्मा अपने साथ कर्मों का लेखा जोखा दूसरे लोक या अगले जीवन के लिए नहीं ले जाती। आत्मा अपने साथ अपने कर्मों का व्योरा जो की एक चिप (कार्बोन के कण पर अंकित होता है, और जिसे चित्र गुप्त भी कहा जाता है। चित्र का अर्थ - तस्वीर और गुप्त का अर्थ -जिस का भेद न मालूम हो, यह एक आलोकिक क्रिया है) और जो की वायु द्वारा साथ जाता है, और जिसे बायो -चिप बोलते हैं, मृतु के बाद, आत्मा के साथ चिपका रहता है। यह बायो -आत्मा, साधारण आँखों से दिखाई नहीं देती और यह अंगूठे जितनी बड़ी होती है, परन्तु इस की मोटाई नहीं दिख सकती। पूरे जीवन का व्योरा, कार्बोन, वायु या हाड्रोजन के कण पर, प्राणी जो कुछ भी देखता, सुनता, बोलता और सोचता है, अंकित हो जाता है। इस में अंकित सारी सूची, यह चिप यमराज को देता है। केवल यमराज ही इस को पढ़ सकता और नष्ट कर सकता है। उसे नष्ट करने के बाद ही, यमराज प्राणी के कर्मों अनुसार उसे दंडित करते है। जब तक बायो चिप आत्मा के साथ रहता है, बायो -आत्मा दूसरा शरीर धारण नहीं कर सकती। जब यह चिप बायो -आत्मा से अलग किया जाता है, तब शुद्ध आत्मा अपने कर्मों अनुसार, दुःख या सुख का भोग करके, नया शरीर धारण करती है।
मृतु उपरांत बायो -आत्मा, मृतक शरीर में प्रवेश करने की कोशिश करती है। परन्तु यह प्रेत -आत्मा, मृतक शरीर, उसकी अस्थिओं के पास वायु में दुखी रूप में मंडराती रहती है। प्रेत -आत्मा मृत स्थान पर तब तक रहती है जब तक यह प्रेत आत्मा से बायो -आत्मा में नहीं बदल जाती। यह बायो-आत्मा ही यमराज के पास जाने में सक्षम होती है। इस प्रेत-आत्मा को बायो आत्मा में परीवर्तन करने के लिए पिंड दान की आवशकता होती है। पिंड दान पुत्र, रिश्तेदार, या किसी और द्वारा भी सम्पन्न कराया जा सकता है।
यह दस दिन की रस्म है। पिंड को ४ भागों में बांटा जाता है। दो भाग पांच भूतों (पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश), एक भाग यमदूतों और एक भाग प्रेत-आत्मा के लिए अर्पण किया जाता है। 9 दिन तक यह भोज खाने के बाद प्रेत- आत्मा, प्रेत-शरीर में, जिस का नाप मनुष्य शरीर के हाथ जितना होता है, बदल जाती है और दसवें दिन इस को शक्ति मिलती है। इस शक्ति के साथ यह यमराज तक के रास्ते पर चलने को तैयार हो जाती है। इस रास्ते को मृत्यु-सडक भी कहा जाता है।
पिंड दान में दी हुई "लाइ" से :-
प्रथम दिन - सर
दुसरे दिन - गर्दन, कंधे
तीसरे दिन - हृदय
चौथे दिन - पीठ
पांचवें दिन - धूनी
छेवें दिन - कुल्हे, गुप्त अंग
सातवें दिन - जांघ
आठवें दिन - घुटने
नवें दिन - पेर
दसवें दिन - भूख, प्यास
यह निर्वाचित प्रेत-शरीर, भूख, प्यास से दुखी, 11 वें, 12 वें दिन भोजन करता है।
तेहरवें दिन, प्रेत शरीर, यमदूतों के पाश्बुधों में जकड़ा, एक बंदी बन्दर की तरह, मृत्यु सडक पर घसीड़ता हुआ, चलता है।
यम नगरी की दूरी 86000 योजन (1 योजन =15 की मी लग-भग) है, और एक दिन-रात में 247 योजन चलना पड़ता है। 16 पौर रास्ते में, अनेक प्रकार की यातनाएं, दुर्लभ रास्ते, भयानक पीडाएं, 11 महीनों तक सहते हुए, यमराज का राज्य शुरू होता है। वहां से यम नगरी का रास्ता शुरू होता है, जो कि इस से भी कष्ट दाई है।
मृतक शरीर छोड़ने के १७ दिन बाद, 18 वें दिन प्रेत-शरीर पहली नगरी में विश्राम के लिए रुकता है और पुत्र द्वारा दिया हुआ भोजन ग्रहण करता है। इस तरह सब नगरिओं को पार करता हुआ, एक वर्ष के अंत में बाहुभ्हेतपुर नगरी पहुँच कर प्रेत-शरीर अपने शरीर को छोड़ कर, अंगूठे के नाप का शरीर धारण कर लेता है।
प्रेत-आत्मा अपने कर्मों का भोग भोगने, यम दूतों के साथ, पाश्बुन्धों में जकड़ा, हवा में चल पड़ता है।
यमराज की नगरी में चार द्वार बने हुए हैं। इन में से पाप कर्मी दक्षिण द्वार से यमराज की राजधानी की ओर प्रस्थान करते हैं।
(टिप्पणी: कई विद्वानों का मत है की यह प्रेत -आत्मा वायु की सहायता से चलती है और हम यह समझ सकते हैं कि जो वायु प्रेत -आत्मा को ले कर चलती है, उसे कई प्रकार के वातावरण, जैसे बदबू, नदी, पहाड़, ठंड, गर्मी, जानवर आदि के पास से निकलना पड़ता है। गरुड़ पुराण में वेतेरणी नदी का इतना भयानक रूप वर्णन किया है। सम्भवतया प्राचीन काल में लिखा गया यह ग्रन्थ, उस समय में ब्राह्मणों और गौ की सुरक्षा हेतु, आम जनता के दिलों में एक आलोकिक भय बिठाने के लिए, वर्णित किया गया है। ताकि लोगों में ब्राह्मणों को गौ, अन्य दान देने से उन के पाप नष्ट होने का भ्रम बना रहे।)
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