ऋषि वशिष्ठ और पाराशर जैसे ऋषियों में क्रोध की भावना क्यों थी?


ऋषि वशिष्ठ और पाराशर
जैसे ऋषियों में क्रोध की भावना क्यों थी?
(सद्‌गुरु जग्गी वासुदेव)

महाभारत काल के कई ऋषियों जैसे पाराशर और वशिष्ठ के क्रोधी होने की कहानियां सुनने में आती हैं। इतने महान ज्ञानियों में ऐसी भावनाएं क्यों थीं?

प्रश्न : सद्‌गुरु, महाभारत में कई ऋषियों का जिक्र आता है - वशिष्ठ, पाराशर व कई दूसरे भी, जिनमें क्रोध या बदले की भावना थी। मुझे हैरानी होती है कि अगर वे लोग इतने ज्ञानी थे, तो फिर उनमें बदले की भावना क्यों थी? क्या यह अधर्म नहीं है?

सद्‌गुरु : तो संतों और ऋषियों के बारे में आपकी सोच ऐसे नीरस व्यक्ति की है, जिसके बाल बढ़े हों और वह इतना बेवकूफ हो, जो दूसरों की लिखी चीजों को पढ़कर याद रखे और जो अपने चेहरे पर जबरन शांति का भाव बनाए रखे। इस भूमि पर ऐसे संत नहीं हुए। इस धरती ने जिन ऋषियों व संतों को पैदा किया है, वे लोग बड़े तेजस्वी और उग्र लोग थे। आपको सद्‌गुरु श्री ब्रह्मा को देखना चाहिए था, वह अग्नि से भी ज्यादा उग्र व गर्म थे। आप उनकी मौजूदगी में बैठने की अपेक्षा आग में बैठकर ज्यादा शीतलता महसूस करते।

संत कैसे होते हैं – इस बारे में दुनिया की सोच बहुत गलत है. 

एक संत कैसा होता है, इसके बारे में आपको अपना विचार बदलना होगा। वे लोग संत इसलिए कहलाते थे, क्योंकि वे लोग ऐसे आयामों तक पहुंच चुके थे, जहां तक अधिकतर लोगों की पहुंच नहीं थी। मेरे पास इतने बुरे शब्द नहीं हैं, जिससे मैं बता सकूं कि जिस तरह से संतों की व्याख्या हो रही है, उससे मानवता कितनी अपवित्र हुई है। पश्चिमी देशों में हालत यह है कि अगर आपको संत बनना हो तो आपको कोई निहायत मूखर्तापूर्ण कारनामा करना होता है। आपके आसपास ऐसा कुछ अतार्किक होना चाहिए, जिसका कोई आधार ही न हो। आपके लिए कोई यह कहने वाला होना चाहिए, ‘मेरे पैर नहीं थे, और आपकी कृपा से मुझे पांव मिल गए।’ आज तक तो मैंने ऐसा कोई व्यक्ति देखा नहीं, जो कहे, ‘मेरे पास दिमाग नहीं था, लेकिन मुझे दिमाग मिल गया।’ क्योंकि जो लोग मानव दिमाग की अहमियत जानते हैं, वे कभी ऐसे लोगों के पास नहीं जाएंगे। जितनी भी मूखर्तापूर्ण चीजें दुनिया में हो रही हैं, उन्हें ही आज दुनिया में संतों के काम के रूप में जाना जाता है।

एक साल पहले की बात है, देश की एक महत्वपूर्ण हस्ती ने मुझसे कहा, ‘आप अगले चुनाव में मुझे देखिएगा। मेरी कोशिश रहेगी कि अगली बार कम से कम 250 साधु-संत संसद में पहुंचें।’ मैंने उनका हाथ पकड़कर उनसे गुजारिश की, ‘कृपया देश के साथ ऐसा मत कीजिए।’ अपने यहां कुछ लोग ऐसे हैं, जो सत्ता में आने के बाद पांच साल में अपने इलाके को पीछे ले गए और पच्चीस सालों में तो खासी करतूत कर डाली। वैसे स्वाभाविक तौर पर लोग आगे बढ़ने की कोशिश करते हैं, लेकिन कुछ नेता इसका उल्टा करने में कामयाब रहे। उन्होंने हर संभव कोशिश की, कि पूरी आबादी को पीछे ले जा सकें। मैंने उनसे कहा, ‘अगर ढाई सौ संत संसद में पहुंच गए तो देश अगले पांच सालों में सीधे हजार साल पीछे पहुंच जाएगा।’ आपको संसद में गाय का गोबर दिखाई देगा। गोबर मिट्टी के लिए तो ठीक है, लेकिन दिमाग में होना ठीक नहीं है। तो साधु-संत कैसे होते हैं, इसको लेकर आपको अपने विचार बदलने चाहिए।

बिना आग के रौशनी नहीं होती

ये ऐसे संत हैं, जिन्होंने इस भूमि को दहकाया। मैं दहकाने की बात कर रहा हूं, सिर्फ भ्रमण करने की नहीं। ऐसा उन्होंने किया क्योंकि उनमें शांति नहीं थी? नहीं, ऐसा हर्गिज नहीं था। वे लोग अंदर पूरी तरह से स्थिर और निश्चल थे। लेकिन बाहरी तौर पर वे बेहद प्रचंड और अग्नि के समान थे। अगर उनमें आग नहीं होगी तो वे उस जगह को रौशन कैसे करेंगे? बिना आग के रोशनी कैसे संभव है? क्या आपको इसका कोई दूसरा तरीका पता है? आप जिसे सूर्य कहते हैं, वही भी आग ही है। आप जिसे तारे कहते हैं, वह भी आग हैं। केवल चंद्रमा ही प्रकाश का परावर्तन है। बाकी आप रोशनी के तौर पर जिसे भी जानते हैं, वह सब अपने आप में अग्नि ही हैं। ऐसे में एक संत या ऋषि जो आपको मार्ग दिखाना चाहता है, जो आपके लिए आपकी परम मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करना चाहता है, क्या वो अग्नि समान नहीं होगा? इसका और कोई दूसरा रास्ता हो ही नहीं सकता।

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